Sunday, September 28, 2008

मेरी रंगत का असर

कमल उप्रेती मेरा हम उम्र है। मेरा मित्र। उस दिन से ही जिस दिन हम दोनों ने कारखाने में एक साथ कदम रखा। कहूं कि अपने बचपन की उम्र से बुढ़ापे में हम दोनों ने एक ही तरह एक साथ छलांग लगायी। यानी जवानी की बांडरी लाईन को छुऐ बगैर। भौतिक शास्त्र में एक शब्द आता है उर्ध्वपातन (ठोस अवस्था द्रव में बदले बिना गैस में बदल जाए या गैस बिना द्रव में बदले ठोस में बदल जाए।), जो हमारा भी एक साथ ही हुआ। हम साथ-साथ लिखना शुरु कर रहे थे। एक कविता फोल्डर फिलहाल हमारी सामूहिक कार्रवाईयों का प्रकाशन था उन दिनों। यह बात 1989 के आस-पास की है। लेकिन कमल का मन लिखने में नहीं रमा। वह पाठक ही बना रहा। एक अच्छा पाठक। तो भी यदा कदा उसने कुछ कविताऐं लिखी हैं। अभी हाल ही में लिखी उसकी कविता को यहां प्रकाशित करने का मन हो रहा है।

मेरी रंगत का असर

कमल उप्रेती
0135-2680817

मैं खुश हूं कटे हाथों का कारीगर बनकर ही
नहीं है मेरा नाम ताज के कंगूरों पर
फिर भी सुल्तान बेचैन है
मेरी उंगलियों के निशां से

मैं जीना चाहता हूं
कौंधती चिंगारियों
धधकती भटिटयों के बीच
जिसमें लोहा भी पिघल,
बदल रहा है
मेरी रंगत की तरह

मैं सर्दी की नाईट शिफ़्ट में एक
पाले का सूरज बनाना चाहता हूं
जून की दोपहर
सड़क के कोलतार में
बाल संवारना चाहता हूं।

मैं मुंशी बनकर जी भी तो नहीं सकता
जिसकी कोई मर्जी ही नहीं
जिसकी कमीज़ के कालर पर
कोई दाग ही नहीं
पर खौफजदा है
सुल्तान के खातों से

मेरी निचुड़ी जवानी और
फूलती सांसों से
ए।सी। कमरों में कागजी दौड़-धूप के साथ लतपत
कोल्ड ड्रिंक पीने से डरता है सुल्तान
बेफिक्री के साथ गुलजार रंगीन रातों को
जाम ढलकाने से भी

पर मैं तो ठेके पर नमक के साथ
पव्वा गटकना चाहता हूं
सारी कड़वाहट फेफड़ों में जमे
बलगम की तरह थूकना चाहता हूं।

Thursday, September 25, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- तीन

संवेदना के बहाने देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को पकड़ने की इस छोटी सी कोशिश को पाठकों का जो सहयोग मिल रहा है उसके लिए आभार।
संवेदना के गठन में जिन वरिष्ठ रचनाकरों की भूमिका रही, कथाकार सुरेश उनियाल उनमें से एक रहे। बल्कि कहूं कि उन गिने चुने महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से हैं जो आज भी संवेदना के साथ जुड़े हैं तो ज्यादा ठीक होगा। देहरादून उनका जनपद है। हर वर्ष लगभग दो माह वे देहरादून में बिताते ही हैं। संवेदना की गोष्ठियों में उस वक्त उनकी जीवन्त उपस्थिति होती है। ऐसी कि उसके आधार पर ही हम कल्पना कर सकते हैं कि अपने युवापन के दौर में वे कैसे सक्रिय रहे होगें।
हमारे आग्रह पर उन्होंने संवेदना के उन आरम्भिक दिनों को दर्ज किया है जिसे मात्र किस्सों में सुना होने की वजह से हमारे द्वारा दर्ज करने में तथ्यात्मक गलती हो ही सकती थी। आदरणीय भाई सुरेश उनियाल जी का शाब्दिक आभार व्यक्त करने की कोई औपचारिकता नहीं करना चाहते। बल्कि आग्रह करना चाहते हैं कि उनकी स्मृतियों में अभी भी बहुत से जो ऐसे किस्से हैं उन्हें वे अवश्य लिखेगें।

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बहाने लिखा जा रहा गल्प आगे भी जारी रहेगा। अभी तक जो कुछ दर्ज है उसे यहां पढ सकते हैं ः-
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो




एक सपने की जन्मगाथा

सुरेश उनियाल
sureshuniyal4@gmail.com


प्यारे भाई विजय गौड़,
संवेदना की यादों को लेकर तुम आज चाहते हो कि मैं कुछ लिखूं। वे यादें भीतर कहीं गहरे में दबी हैं। उन्हें बाहर लाना मेरे लिए काफी तकलीफदेह हो रहा है। क्या इतना ही जानना काफी नहीं है कि यह देहरादून में साहित्य के उन दिनों की धरोहर है जब वह पीड़ी अपने लेखन के शुरुआती दौर से गुजर रही थी जो आज साठ के आसपास उम्र की है। आज उनमें से बहुत से साथी हमारे बीच नहीं हैं, (दिवंगत मित्रों में अवधेश और देशबंधु के नाम विशेष रूप से लेना चाहूंगा। अवधेश बहुत अच्छा कवि और कहानीकार था लेकिन उसकी दिलचस्पी इतने ज्यादा क्षेत्रों में थी कि इनके लिए उसके पास ज्यादा समय नहीं रहा। उसकी कुछ कविताएं अज्ञेय ने अपने अल्पचर्चित चौथे सप्तक में ली थीं। देशबंधु की मौत संदेहास्पद परिस्थितयों में हुई। शादी की अगली सुबह ही उसका शव पास के शहर डाकपत्थर की नहर में पाया गया था।) कुछ देहरादून में नहीं है (मैं उनमें से एक हूं, जो अब दिल्ली में रिटायर्ड जीवन बिता रहा हूं, देहरादून वापस आने के लिए बेताब हूं लेकिन हालात बन नहीं पा रहे हैं, मनमोहन चड्ढा पुणे में है और लगभग इसी तरह की मानसिक स्थिति में है।) कुछ देहरादून में रहते हुए भी जीवन के दूसरे संघर्षों से उलझते हुए लिखने से किनारा कर चुके हैं। और बहुत थोड़े से उन साथियों में से एक सुभाष पंत हैं जो हम सबके मुकाबले ज्यादा तेजी से अपने लेखन में जुड़े हैं। यह मैं याद नहीं कर पा रहा हूं कि गुरदीप खुराना उन दिनों तक देहरादून लौट आए थे या नहीं। क्योंकि अगर लौट आए थे तो वह भी संवेदना के जन्मदाताओं में से रहे होंगे। वह भी इन दिनों खूब लिख रहे हैं।
संवेदना ने उस दौर में कुछ उन पुराने लेखकों की संस्था साहित्य संसद के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप जन्म लिया था। देहरादून के हमारे पुराने साथियों को याद होगा कि उन दिनों साहित्य संसद में हम नौजवान लेखकों को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसे ही कुछ अखाड़ेबाज मित्र हमारी रचनाओं को उखाड़ने की कोशिश में रहते थे।
संवेदना के जन्म का बीज मेरे खयाल से सबसे पहले अवधेश के दिमाग में अंकुरित हुआ। अवधेश और देशबंधु की जोड़ी थी। मैं और मनमोहन चड्ढा इन दोनों के मुकाबले साहित्य संसद में कुछ नए थे और उन दोनों के शौक भी हमसे अलग थे इसलिए हम बहुत करीब कभी नहीं आ सके थे। लेकिन साहित्य संसद की बैठकों में हम चारों का दर्जा लगभग एक समान था और वहां हम चारों मिलकर ही पुराने दिग्गजों से भिड़ते थे। यह बात 1969-70 के आसपास की होगी।
1971 में सारिका के नवलेखन अंक में अवधेश की कहानी छपी थी। यह बहुत बड़ी बात थी। सारिका में छपना हम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता था। अवधेश तब बी।ए। कर रहा था, मैंने बेरोगारी की बोरियत दूर करने के लिए हिंदी से एम।ए। में एड्मिशन ले लिया था। मनमोहन भी वहीं अर्थशास्त्र से एम।ए। कर रहा था। 1972 में डीएवी कॉलेज में अवधेश एम।ए। (हिंदी) के पहले साल में आ गया था। एक दिन उसने मेरा परिचय सुभाष पंत नाम के एक लेखक से करवाया जिसकी कहानी फरवरी में सारिका में छपी थी और कमलेश्वर से जिसका व्यक्तिगत पत्रव्यवहार था। उसी दिन सुभाषं पंत के साथ शाम को डिलाइट में जमावड़ा हुआ और सुभाष की दो कहानियां और सुनी गईं। उस संक्षिप्त मुलाकात में ही सुभाष की हम सब पर धाक जम चुकी थी। सुभाष पंत एक ऐसा नाम बन गया था जिसके दम पर साहित्य संसद से टर ली जा सकती थी।
इस बीच अवधेश और देशबंधु ने संवेदना की योजना बनाई। इसके पांच प्रमुख लोगों में इन दोनों के अलावा सुभाष पंत को तो होना ही था, नवीन नौटियाल को भी शामिल किया गया। दरअसल नवीन के पिता का इंडियन आर्ट स्टूडियो घंटाघर के बिल्कुल पास राजपुर रोड पर था और नवीन के पिता शिवानंद नौटियालजी ने उसके पीछे वाले कमरे में में गोष्ठी करने की अनुमति दे दी थी। (नौटियाल जी के बारे में बहुत कुछ लिखने को है लेकिन वह मैं फिर कभी लिखूंगा, यहां इतना बताना मौजूं होगा कि वह किसी जमाने में एम.एन. राय के करीबी साथियों में से थे और उनके द्वारा शुरू की गई संस्था रेडिकल ह्यूमनिस्ट के सक्रिय लोगों में से थे। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे और उनके द्वारा खींचे गए निराला, पंत सहित साहित्य की कई बड़ी हस्तियों के दुर्लभ फोटो एक बड़ा संकलन उनके पास था।) पांचवें सदस्य संभवत: गुरदीप खुराना ही थे या नहीं, यह मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है। इतना जरूर तय है कि मुझे और मनमोहन को इस योजना से पूरी तरह अलग रखा गया था।
यह संभव ही नहीं था कि हम लोगों को इसकी खबर न होती। देहरादून तब छोटा सा शहर था, एक कोने से दूसरे कोने तक पैदल भी चलें तो एक घंटे से ज्यादा समय न लगे। संभवत: सुभाष पंत के मुंह से किसी चर्चा के दौरान निकल गया। हम लोगों की लगभग रोज ही मुलाकात हुआ करती थी। अड्डा होता था डिलाइट। फिर कभी-कभार टिप-टॉप या अल फिएस्ता में भी जम जाया करते थे। ये कुछ गिने चुने अड्डे ही होते थे।
संवेदना की शुरुआत किस दिन हुई तारीख अब याद नहीं है। इतना जरूर है कि जब वह दिन नजदीक आने लगा तब तक मैं और मनमोहन अपनी पहल पर इस योजना में कूद पड़े थे और अचानक ऐसा होने लगा कि कई बार अवधेश और बंधु तो मच्छी बाज़ार पहुंचे होते और हम दोनों समेत बाकी लोग सलाह-मशविरे में शामिल होते।
हमें लगा था कि छोटे से शहर में जहां थोड़े से लोग लेखन से जुड़े थे, कुछ को छोड़कर किसी तरह का आयोजन करना उचित नहीं होगा। कुछ लोग न आएं, यह बात अलग है लेकिन बुलावा सभी को भेजा जाए। वरना ऐसा न हो कि इतनी तैयारियों के बाद गिने-चुने लोग ही वहां हों। अब तक हम संवेदना के अनिवार्य अंग बन चुके थे।
गोष्ठी आशातीत रूप से सफल रही। चालीस से अधिक लोग आए थे जबकि साहित्य संसद की गोष्ठियों में उपस्थिति दस के आसपास ही रहती थी। और मजे की बात यह है कि इसमें बहुत से वे लोग भी आए थे जो जिन तक सूचना नहीं पहुंच पाई थी लेकिन उन्हें इसकी जानकारी मिल गई थी। सभी लिखते नहीं थे लेकिन वे भी पाठक बहुत अच्छे थे और उनके द्वारा की गई किसी भी रचना की आलोचना लेखक को सोचने के लिए ज्यादा बड़ा फलक देती थी।
यह सिलसिला चल निकला और हर महीने संवेदना की गोष्ठियां इतने ही बड़े जमावड़े के साथ होने लगीं। साहित्य संसद की गोष्ठियां भी बदस्तूर चलती रहीं और हम लोग उनमें भी जाते रहे। हमारे लिए संवेदना संसद की प्रतिद्वंद्वी संस्था न होकर, सहयोगी संस्था थी।
देहरादून ऐसी जगह थी जहां गाहे-बगाहे दिल्ली और दूसरी जगहों से भी लेखक आया करते थे। हमें इसकी खबर मिलती तो हम उन्हें संवेदना में आने के लिए आमंत्रित जरूर करते। एक बात हम उनसे जरूर कहते कि और जगहों पर आपको आपकी रचनाएं सुनाने के लिए बुलाया जाता है, हम आपको इसलिए बुला रहे हैं कि आप हमारी रचनाएं सुनें और एक अग्रज लेखक होने के नाते हमें सलाह दें। एक बार भारत भूषण अग्रवाल आए थे तो उन्हें भी आमंत्रित किया गया। नियत दिन किसी गफलत में उन्हें लेने के लिए कोई साथी न जा सका। अभी यह सोच-विचार ही हो रहा था कि कौन जाएगा कि बाहर एक थ्रीवीलर से उतरते भारतजी दिखाई दे गए।
इस तरह की बहुत सी यादें हैं। मैं 1973 में देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून जाना होता रहा। गर्मियों की छुट्टियां देहरादून में ही बीतती थीं। बीच बीच में जब देहरादून आना होता तो कार्यक्रम कुछ इस तरह से बनाता कि पहला रविवार इसमें आ जाए और संवेदना की गोष्ठी में शामिल हुआ जा सके।
मुझे खुशी है कि जिस संस्था की प्रसव पीड़ा से गुजरने वालों में से मैं भी एक हूं, वह आज 36 साल बाद भी नियमित रूप से गोष्ठियां कर रही है। उम्मीद है कि यह इतने साल और चलेगी और उसके बाद भी चलती रहेगी। आमीन!


Wednesday, September 24, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में सिलसिलेवार लिखे जा रहे गल्प की यह दूसरी कड़ी है। पहली कडी यहां पढ सकते हैं।


विजय गौड

रसायन विज्ञान पढ़ लेने के बाद सुभाष पंत एफ। आर। आई। में नौकरी करने लगे थे। विज्ञान के छात्र सुभाष पंत का साहित्य से वैसा नाता तो क्यों होना था भला जो जुनून की हद तक हो। पर जीवन के संघर्ष और सामाजिक स्थितियों की जटिलता को समझने में पढ़ा गया विज्ञान मद्दगार साबित न हो रहा था। समाज के बारे में सोचने समझने की बीमारी ने साहित्य के प्रति उनका रुझान पैदा कर दिया। जनपद में साहित्य लिखने और पढ़ने वालों से उनका वैसा वास्ता न था। स्वभाव से संकोची होने के कारण भी खुद को लेखक के रूप में जाहिर न होने देने की प्रव्रत्ति मौजूद ही थी। जिसके चलते भी दूसरे लिखने वालों को जानना सुभाष पंत के लिए संभव न था।
नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश और मनमोहन चडढा सरीखे नौजवान सक्रिय लोगों में से थे। लिखते भी थे और बहस भी करते थे। बहस के लिए अडडेबाजी भी जरुरी थी। बुजुर्ग पीढ़ी में लेखक और चर्चित फोटोग्राफर ब्रहम देव साहित्य संसद नाम की संस्था चलाते थे। भटनागर जी, मदन शर्मा, गुरुदीप खुराना, शशि प्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी आदि साहित्य संसद के सक्रिय रचनाकारों में रहे।
नये नये लेखक सुभाष पंत के सामने दोनों रास्ते खुले थे कि वे साहित्य संसद में जाएं या फिर स्वतंत्र किस्म के अडडेबाजों के बीच उठे-बैठे। साहित्य संसद में एक तरह का ठंडापन वे महसूस करते थे जबकि स्वतंत्र किस्म के वे लिक्खाड़ जो अडडेबाज, शहर की हर गतिविधि में अपनी जीवन्तता के साथ मौजूद रहते। सुभाष पंत अपने ऊपरी दिखावे से बेशक ठंडेपन की तासीर वाले दिखते रहे पर उनको भीतर से उछालता जोश उन्हें अडडेबाजों के पास ही ले जा सकता था। यह अलग बात है कि अपने संकोच के चलते बेशक वे खुद पहल करने से हिचकिचाते रहे। लेकिन चुपचाप अपने लेखनकर्म में आखिर कब तक खामोश से बने रहते। सारिका को भेजी गयी कहानी, गाय का दूध   पर संपादक कमलेश्वर की चिटठी उन्हें एक हद तक आत्मविश्वास से भरने में सहायक हुई। बहुत चुपके से चिट्ठी को पेंट की जेब में बहुत भीतर तक तह लगाकर रख लिया और डिलाईट की धडकती बैठक में जा धमके - जहां वे लिक्खाड़, जो शहर की आबो हवा पर बहस मुबाहिसे में जुटे स्वतंत्र किस्म के विचारक थे, मौजूद थे - डिलाईट रेस्टोरेंट।
समाजवादियों का अड्डा था डिलाईट जहां शहर के समाजवादी मौजूद रहते थे। डिलाईट की जीवन्त्ता उन्हीं अडडे बाजों के कारण थी। जीवन्तता ही क्यों, डिलाईट था ही उनका। वे न होते तो उस सीधे साधे से व्यक्ति किशन दाई (किशन पाण्डे)की क्या बिसात होती जो शहर के बीचों बीच अपनी दुकान खोल पाता। वह तो नेपाल से आया एक छोकरा ही था जो खन्ना चाय वाले के यहां काम करता था। वही खन्ना चाय वाले जिनकी दुकान घंटाघर के ठीक सामने होती थी। वहीं, जहां आज तमाम आधुनिक किस्म के सामनों से चमचमाती दुकाने मौजूद हैं।
एक छोटी सी चाय की दुकान जिसमें उस दौर के तमाम अडडे बाज, जिनमें ज्यादातर समाजवादी होते, बैठते थे। समाजवादी कार्यकर्ता सुरेन्द्र मोहन हो, भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर या कोई भी अन्य, यदि वे शहर में हों तो तय होता कि वे भी उस टीन की छत के नीचे देहरादून शहर में अपने साथियों के साथ घिरे बैठे होते।
जमाने भर के बातों की ऊष्मा से केतली बिना चूल्हे पर चढे हुए भी पानी को खौला रही होती। माचिस की डिब्बी को उंगलियों के प्रहार से कभी इस करवट तो कभी उस करवट उछालने में माहिर वे युवा, जिनके लिए बातचीत में बना रहना संभव न हो रहा होता, बहस को बिखेरने का असफल प्रयास कर रहे होते। क्योंकि बहस होती कि थमती ही नहीं। हां माचिस का खेल रुक जा रहा होता। संभवत: चाय वाले खन्ना भी समाजवादी ही रहे हों पर इस बात का कोई ठोस सबूत मेरे पास नहीं। मैं तो अनुमान भर मार रहा हूं । उनकी बातचीत के विषय ऐसे होते कि किशन दाई उन्हें गम्भीरता से सुनता। धीरे धीरे चुनाव निशान झोपड़ी उसे अपना लगने लगा था। घंटाघर के आस-पास की सड़क को चौड़ा करने की सरकारी योजना के चलते दुकान को उखाड़ दिया गया। वहां बैठने वाले सारे के सारे वे अडडेबात जो अपने अपने तरह से शहर में अपनी उपस्थिति के साथ थे, बेघर से हो गये। ऎसे में वे चुप कैसे रहते भला। किशनदाई का रोजगार छिन रहा था। खन्ना जी तो कुछ और करने की स्थिति में हों भी पर किशन के सामने तो सीधा संकट था रोजी रोटी का। संकट अडडेबाजों के लिए भी था कि कहां जाऐं ?
डिलाईट के निर्माण की कथा यदि कथाकार सुरेश उनियाल जी के मुंह से सुने तो शायद उस इतिहास को ठीक ठीक जान सकते हैं। अपनी जवानी के उस दौर में वे जोश और गुस्से से भरे युवा थे। डिलाईट का किस्सा तो मैंने भी एक रोज उनके मुंह से ही सुना। सिर्फ सुनता रहा उनको - डिलाईट चाय की ऐसी दुकान थी जिसका नामकरण भी उस दुकान में बैठने वाले उस दौर के युवाओं ने किया था। वे युवा जमाने की हवा की रंगत जिनकी बातों के निशाने में होती थी। जो दुनिया की तकलीफों को देखकर क्षुब्ध होते थे तो कभी धरने, प्रदर्शन और जुलूस निकालते थे तो कभी ऐसे ही किसी वाकये को अपनी कलम से दर्ज कर रहे होते थे। चाय वाला एक सीधा-सच्चा सा बुजुर्ग था जो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन भर केतली चढाये रहता। चाय पहुंचाने के लिए जिसे कभी इस दुकान में दौड़ना होता तो कभी उस दुकान में। फिर दूसरे ही क्षण आ गये आर्डर की चाय पहुंचाने के लिए उस दुकान तक भाग कर जाना होता जहां पहले पहुंचायी गयी चाय के बर्तन फंसे होते। जिस वक्त वह ऐसे ही दौड़ रहा होता वे युवा दुकान के आर्डर संभाल रहे होते।
उसी डिलाईट में पहुंचे थे नये उभरते हुए कथाकार सुभाष पंत। कमलेश्वर जी का पत्र उनकी जेब में था।

--- जारी

Saturday, September 20, 2008

उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए

हमारे दौर की महत्वपूर्ण लेखिका, जिन्होंने अपने लेखन से हिन्दी जगत में स्त्री विमर्श की धारा को एक खास मुकाम तक पहुंचाने मे पहलकदमी की, प्रभा खेतान, कल रात हृदय आघात के कारण हमसे विदा हो गयी हैं। यह खबर कवि एकांत श्रीवास्तव के मार्फत मिली है। प्रभा जी को याद करते हुए इतना ही कह पा रहा हूं कि उनके लेखन ने मुझे काफी हद तक प्रभावित किया है। युवा कथाकार नवीन नैथानी भी अपनी प्रिय लेखिका को याद कर रहे हैं -

उनका लिखा छिनमस्त्ता याद है, उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए भी एक यादगार रचना है। हंस के प्रकाशन के साथ ही प्रभा खेतान हिन्दी के प्रबुद्ध घराने में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दिखा चुकी थीं। सार्त्र : शब्दों का मसीहा संभवत: हिन्दी में अस्तित्ववाद पर पहला गम्भीर एकेडमिक ग्रन्थ है। स्त्री उपेक्षिता के द्वारा तो प्रभा खेतान हिन्दी जगत में फेमिनिज़म की बहस को बहुत मजबूत डगर पर ले आयीं। उनकी आत्मकथा भी अपने बेबाक कहन के लिए हमेशा याद की जायेगी। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजली। -नवीन नैथानी



दलित धारा के चर्चित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्म्रतियों में कुछ ऐसे दर्ज हैं प्रभा खेतान :

प्रभा खेतान के दु:खद निधन के समाचार से एक पल के लिए तो मैं अवाक रह गया था। एक लेखिका के तौर पर छिनमस्ता या फिर अहिल्या जैसी रचनाओं की लेखिका और सिमोन की पुस्तक The Second Sex को हिन्दी में प्रस्तुत करने वाली लेखिका का अचानक हमारे बीच से चले जाना, एक तकलीफदेह घटना है। एक रचनाकार से ज्यादा मुझे उनका व्यक्तित्व हमेशा आकर्षित करता रहा। उनकी आत्मकथा अनन्या--- के माध्यम से एक ऐसी महिला से परिचय होता है जो परंपरावादी समाज से विद्राह करके अपने जीवन को अपने ही ढंग से जीती है और सामाजिक नैतिकताओं के खोखले आडम्बरों को उतार फेंकने में देर नहीं करती। अपने ही बल बूते पर एक बड़ा बिजनैश खड़ा करती हैं, प्रभा खेतान का यह रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। वे अहिल्या की तरह शापित जीवन नहीं जीना चाहती थी। बल्कि मानवीय स्वतंत्रता की पक्षधर बनकर खड़ा होना, उनके जीवन का एक अहम हिस्सा था। यह उनकी रचनाओं में दृष्टिगाचर होता है और जीवन में भी। यानि कहीं भी कुछ ऐसा नहीं जिसे छिपा कर रखा जाये या फिर उस पर शर्मिंदा होना पड़े। प्रभा खेतान सिर्फ एक बड़ी रचनाकार ही न हीं एक बेहतर इन्सान के रूप में भी सामने आती हैं।
वे एक खाते-पीते समपन्न परिवार से थी। लेकिन जिस तरह से वे अपना जीवन जी उसमें कहीं भी इसकी झलक दिखायी नहीं देती। जिस समय हंस में छिनमस्ता धारावाहिक के रूप में छप रहा था, वह हिन्दी पाठकों के लिए एक अलग अनुभव लेकर आया था। प्रभा खेतान के अपने अनुभव और पारिवारिक सन्दर्भ इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, जो आगे चलकर उनकी आत्मकथा में भी दिखायी दिये। एक स्त्री के मन की आंतरिक उलझनों, वेदनाओं की अभिव्यक्ति जिस रूप्ा में प्रभा खेतान की रचनाओं से सामने आयी वह अपने आप में उल्लेखनीय हैं। सबसे ज्यादा वह इतना पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त हुआ कि हिन्दी पाठकों को अविश्वसनीय तक लगता है। क्योंकि हिन्दी पाठक की अभिरूचि में यह सब अकल्पनीय था। जीवन की गुत्थियों को कोई लेखिका इस रूप में भी प्रस्तुत कर सकती है, इसका विश्वास हिन्दी पाठक नहीं कर पा रहा था। ऐसी लेखिका और एक अच्छी इन्सान का इस तरह चुपके से चले जाना, दुखद है। अविश्वसनीय भी। मेरे लिए प्रभा खेतान की स्मृतियां कभी शेष नहीं होंगी।।। क्योंकि उनकी स्मृतियां, उनके अनुभव, उनकी रचना धर्मिता हमारे पास है, जो हमेशा रहेगी।


-ओमप्रकाश वाल्मीकि

Friday, September 19, 2008

अजेय की कविता

अजेय ने कुछ कविताऐं भेजी हैं (उनमें से एक यहां प्रस्तुत है) मैं नहीं जानता कि लिखे जाते वक्त कवि के भीतर कौन से बिम्ब तैर रहे होगें। कोसी नदी की बाढ़ और उसमें डूब रहा सब कुछ, नदी कहने भर से ही मुझे, उस व्यथित कर देने वाले मंजर में डूबो रहा है।
लाहुल (लाहौल- स्पीति ) में रहने वाले अजेय की कविता में नदी अपने सौन्दर्य भरे चित्रों के साथ होते हुए भी ऐसी ही स्थितियों के बिम्ब अनायास प्रकट नहीं कर रही हो सकती है - अलग-अलग बिछे हुए/पेड़/मवेशी/कनस्तर/डिब्बे लत्ते/ढेले/कंकर/---



अजेय
ajeyklg@gmail.com

इस उठान के बाद नदी

इस नदी को देखने के
लिएआप इसके एक दम करीब जाएँ।
घिस-घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर।

उतरती रही होगीं
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुमसुम धूप खा रही
चमकीली नंगी चट्टानें
उकड़ूँ ध्यान मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जग उतर चुका है पानी।

अलग-अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत---
कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियां शायद
उन्हें करीब से देखने की ज़रूरत थी।

कुछ बच्चे मालामाल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे-फदे ताज़ा कटे कछार
अच्छे से ठोक- ठुड़क कर छांट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उसके गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो सधे पैरों वाला
एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान-भगवान दिन भर।

ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिसकी अलग ही एक हरारत है
गुपचुप बहा ले जाएगा
अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अंधेरे में
आप आएँ
देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहां एक दम करीब आकर।