Monday, November 10, 2008
भूली बिसरी भाषा
गवाह
डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)
मैं बताना चाहता हूं
कि पहले कैसे दिखते थे ये वन
पर इसके लिए
जो भाषा मुझे बोलनी पड़ेगी
अब तो उसे भूल गए हैं सब लोग।
भूली बिसरी भाषा
डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)
वाक्यों को पीछे छोड़ सांस आगे बढ़ जाती है
जो अब नहीं लौटेगी कभी दुबारा
फिर भी बड़े बूढ़े उन बातों का सम्मान करते ही हैं
जिन्हें कह देने की इच्छा उनके मन में साल दर साल घुमडती रही है निरंतर।
वे अब यह भी भांप गए हैं कि
लोग उन विस्मृत वस्तुओं का शायद ही यकीन करेंगे।
और उन बचे कुचे शब्दों से जुड़ी तमाम वस्तुएं
बाती लेकर ढूंढे तो भी मिलेंगी कहां ?
जैसे किसी अभिशप्त व्ृाक्ष से सट कर कोहरे में खड़े होने की संज्ञा
या मैं के लिए क्रिया।।।
बच्चे उन मुहावरों का अब कभी नहीं दुहरा पायेंगे
जिन्हे दिन रात घडी घडी बोलते बतियाते गुजर गये उनके मां बाप।
जाने किसने उन्हें घुट्टी पिला दी
कि हर बात को नये ढंग से कहने में ही बेहतरी है आज के दौर में
और ये कि इसी तरह मिलेगी उन्हें तारीफ और शोहरत
सुदूर देशों में।।।
जिन्हें कुछ पता ही नहीं हमारी चीजों के बारे में
उनसे भला कह ही क्या पायेंगे हम ऐसे में।
दरअसल हमें गलत और काला समझती है
नये आकाओं की शातिर निगाहें
कुछ समझ नहीं आता
दिनभर क्या क्या बकता रहता है उनका रेडियो।
जब कभी दरवाजे पर होती है कोई आहट
सामने खड़े मिलता है कोई न कोई अचिन्हा
सब जगह, कोनो अतरों में
जहां तैरेते होते थे हजार चीजों के नाम
अब पसर गयी है झूठ की काली सी चादर
कोई भी तो नहीं है यहां
जिसने अपनी आंखो देखा हो घट रहा कुछ
न ही आता है याद किसी को खास कुछ
इस जगह शब्द धीरे धीरे बदल रहे हैं अपना रंग रूप्ा
यहीं तो होंगे किसी कोने में पड़े हुए विलुप्त करार दिये हुए पंख
और यहीं तो कहीं होगी हमारी खूब जानी पहचानी हुई वो बरसात।
भूली बिसरी भाषा
शेल सिलवरस्टिन (यू एस ए)
कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं समझ लेता था लकड़ी उमें दुबक कर बैठे कीट का भी
बोला एक-एक शब्द
कोई जमाना ऐसा भी था जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहां तहां बैठी मक्खी से भी
दिल्लगी कर लिया करता था
एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झिंगूरों के एक एक सवाल के गिन गिन कर बकायदा जवाब दिये थे
जी जान से शामिल भी हो गया था।
कोई जमान ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था भाषा फूलों की।।।।
पर ये सब बदलाव हो कैसे गया।।।
ऐसे सब कुछ यूं लुप्त कैसे हो गया ??????
अनुवादक: यादवेन्द्र
Saturday, November 8, 2008
हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी को विनम्र श्रद्धांजली
जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले में सम्मिलित कहानी उत्तरार्द्ध का पाठ इस अवसर पर किया गया और साथ ही उनकी रचनाओं का मूल्यांकन भी हुआ। उनकी रचनाओं में मनोवैज्ञानिक समझ और मनुष्य के आपसी संबंधों की सृजनात्मक पड़ताल के ब्योरे को चिन्हित करते हुए कवि राजेश सकलानी ने उनकी कहानी तीसरा यात्री और पड़ाव को इस संदर्भ में विशेषरुप से उललेख किया।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, जितेन्द्र शर्मा, राजेश पाल, गुरुदीप खुराना, कृषणा खुराना, दिनेश चंद्र जोशी, जितेन ठाकुर, जयन्ती सिजवाली, अनिल शास्त्री आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश बाबला, डी सी मधववाल, राजन कपूर, शकुन्तला, लक्ष्मीभट्ट और डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री नीरजा चतुर्वेदी के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्य बी बी चतुर्वेदी आदि मौजूद थे।
Friday, October 31, 2008
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
1980 में प्रकाशित अवधेश कुमार के कविता संग्रह जिप्सी लड़की की भूमिका में कवि एवं अलोचक विष्णु खरे ने अवधेश कुमार की कविताओं में भविष्य की जो संभावना देखी थी वे अकारण नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने आगे के दौर में लिखे गये को अवधेश सुरक्षित न रख पाए और असमय ही हमारे बीच से विदा हो गए। विभिन्न अंतरालों में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं को खोजना कोई आसान काम भी नहीं। फिर उन पत्रिकाओं की उपलब्धता कहां-कहां संभव हो सकती है, इस बारे में भी कोई ठोस सूचना उपलब्ध नहीं।
कविता-कोश के अनिल जन विजय जी का लम्बे समय से आग्रह रहा कि कवि अवधेश कुमार की कविताओं को खोजकर उपलब्ध करा पांऊ। लिहाजा अवधे्श कुमार की कविता पुस्तक जिप्सी लड़की से कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं का चयन हमारे साथी राजेश सकलानी ने किया।
अवधेश कुमार
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।
मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।
गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।
कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।
सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।
और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।
फोन
नौमंजिला इमारत चढ़ने में लगता है समय
जितना कि नौमंजिला कविता लिखने में नहीं लगता ।
नौ मंजिल चढ़कर मिला मैं जिस आदमी से
उससे मिला था मैं जमीन पर अपने बच्चपन में ।
वहीं पर उससे दोस्ती हुई थी।
इतनी दूर-
और नौ मंजिल ऊपर
नहीं मिल पाता जब मैं उस दोस्त से : वह मुझे
जब बहुत दिनों बाद मिलता है
तो पूछता है कि
क्यों नहीं कर लिया मैंने उसको फोन ?
बच्चा
बच्चा अपने आपसे कम से कम क्या मांग सकता है ?
एक चांद
एक शेर
किसी परीकथा में अपनी हिस्सेदारी
या आपका जूता !
आप उसे ज्यादा से ज्यादा क्या दे सकते हैं ?
आप उसे दे सकते हैं केवल एक चीज -
अपना जूता : बाकी तीन
चीजें आप किताब के हवाले कर देते हैं ।
कि फर वह बच्चा जिन्दगी भर सोचता रह जाता है
कि अपना पैर किस्में डाले
उस किताब में या आपके जूते में !
Sunday, October 5, 2008
संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी-अक्टूबर २००८
शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़अ यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।
यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।
Saturday, October 4, 2008
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा
आकाशवाणी नजीबाबाद
दिनेश चन्द्र जोशी
संदेह के घेरे में थे जिन दिनों बहुत सारे मुसलमान
आये रोज पकड़े जा रहे थे विस्फोटों में संलिप्त आतंकी,
आजमगढ़ खास निशाने पर था,
आजमगढ़ से बार बार जुड़ रहे थे आतंकियों के तार
ऐन उन्हीं दिनों मैं घूम रहा था नजीबाबाद में,
नजर आ रहे थे वहां मुसलमान ही मुसलमान, बाजार, गली
सड़कों पर दीख रहीं थी बुर्के वाली औरतें
दुकानों, ठेलियों, रेहड़ियों, इक्कों, तांगों पर थे गोल टोपी
पहने, दाड़ी वाले मुसलमान,
अब्बू,चच्चा,मियां,लईक, कल्लू ,गफ्फार,सलमान
भोले भाले अपने काम में रमे हुए इंसान,
अफजल खां रोड की गली में किरियाने की दुकानों से
आ रही थी खुसबू, हींग,जीरा,मिर्च मशाले हल्दी,छुहारे बदाम की
इसी गली से खरीदा पतीसा,
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा,सुना था यारों के मुह से,
तासीर लगी नजीबाबाद की
सचमुच पतीसे की तरह मीठी और करारी
'नहीं, नहीं बन सकता नजीबाबाद की अफजल खां रोड से
कोई भी आतंकी', आवाज आई मन के कोने से साफ साफ
नजीबाबाद जैसे सैकड़ों कस्बे हैं देश में,
रहते हैं जंहा लाखों मुसलमान
आजमगढ़ भी उनमें से एक है
आजमगढ़ में लगाओ आकाशवाणी नजीबाबाद
पकड़ेगा रेडियो, जरूर पकड़ेगा।
Thursday, October 2, 2008
इस जमीन पर कभी गाँधी चलते थे
मोहनदास करमचन्द गाँधी का नाम लेना भी आज एक दुष्कर कार्य है। उनका नाम ज़हन में आता है और जल्दी ही गायब हो जाता है। अपना विश्वास टूटने लगता है। अपनी नैतिक ताकत की हालत समझ में आ जाती है। अब सरलताओं से डर लगता है। सरल विचारों से दूर भागने की इच्छा होती है। हो सकता है, जीवन सचमुच जटिल हो चुका हो। सत्ता-विमर्श में बहुत ज्यादा संस्थान, विचार, समुदाय और बाजार एक साथ विभिन्न आन्तरिक टकरावों के साथ सक्रिय होने से पेचीदगियाँ बढ़ी हैं। इनके बीच सही घटना को चिन्हित करना कठिन हुआ है। अच्छे विचारों के बीच में पतित लोगों ने भी अपनी पैठ बना ली है। एक वैध् सक्रियता के साथ रहते हुए कभी खराब प्रवृत्तियों द्वारा संचालित किए जाने का खतरा भी बराबर बना रहता है, लेकिन मनुष्यता अपने रूप और गतिशीलता में हमेशा ही सरल होती है। उसके नियम बहुत सादे और समझ में आने वाले होते हैं। दूसरे व्यक्ति का दु:ख हमारे दु:ख की ही तरह है। वह मैं ही हूँ, जो बाढ़ में बेघर हो गया है। मुझे ही गोली मार दी गई है। हत्यारे मुझे ही ढूँढ रहे हैं। हत्यारों से सीधे सम्वाद करना होगा। उसकी वृत्ति के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। वह जरूर तकलीपफ़ में है। हमने उसे कभी ठीक से सुना नहीं। उसे अकेला छोड़कर हम अपने लालच की चाशनी में डूब चुके हैं।
गाँधी ने इस भावनात्मक विचार को सामाजिक क्रिया के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि साध्नों को सरल होना चाहिए। यान्त्रिकी और आधुनिक उपकरण उस सीमा तक ही सरल हैं जब वे सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध् हों, लेकिन यह लोकनीति हर व्यक्ति से अनुशासन की माँग करती है। जीवन की जो चीजें सिपर्फ आपने हथिया ली हैं और दूसरों को वंचित किया है, वह सब छोड़नी होंगी। इसी अनुशासन से बचने के लिए पहले काँग्रेस ने गाँधी का नाम ही लेना छोड़ दिया। काँग्रेस ही क्यों पूरे देश को अब गाँधी अप्रासंगिक लगते हैं, इसीलिए गाँधी को पहले महात्मा के रूप में स्थापित किया गया ताकि उनको जड़ बनाया जा सके। हम सभी को इससे आसानी रहती है।
गाँधी को जानने के लिए सत्य-अहिंसा जैसे शब्दों के बजाय उनके सोचने के उत्स को जानना जरूरी है। मनुष्य को बदलने पर उनका विश्वास ही उनको महान बनाता है। निर्दोष लोगों के बीच कायरतापूर्ण तरीके से बम रखकर हिंसा करने वालों से सीध सम्वाद करने के नैतिक साहस की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या यह सम्भव है कि सिपर्फ ताकत के बल पर इस क्रूरता पर विजय पाई जा सके ? घृणा, हिंसा, क्रूरता और अविश्वास के विचार एक-दूसरे के लिए प्रेरक तत्व होते हैं। क्षणिक सपफलता के लिए गाँधी के विचारों में कहीं जगह नहीं है। दुश्मन की मृत्यु भी वास्तव में अपनी ही मृत्यु है। यह समझ कमजोर व्यक्ति से नहीं उपजती, इसीलिए गाँधी का मन्त्रा है, निर्भय बनो। हमारे भयभीत समाज को निर्भय होने के लिए कभी न कभी अपने भीतर और बाहर जूझना ही होगा।
वे गांधीवादी हैं
विजय गौड
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
पर गांधी जैसा ही है उनका चेहरा
खल्वाट खोपड़ी भी चमकती है वैसे ही
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधीवादी बने रहना भी तो
नहीं है इतना आसान;
चारों ओर मचा हो घमासान
तो बचते-बचाते हुए भी
उठ ही जाती है उनके भीतर कुढ़न
वैसे, गुस्सा तो नहीं ही करते हैं वे
पर भीतर तो उठता ही है
गांधी जी भी रहते ही थे गुस्से से भरे,
कहते हैं वे,
गांधी नफरत से करते थे परहेज,
गुस्से से नहीं
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधी 'स्वदेशी" पसंद थे
कातते थे सूत
पहनते थे खद्दर
वे चाहें भी तो
पहन ही नहीं सकते खद्दर
सरकार गांधीवादी नहीं है, कहते हैं वे
विशिष्टताबोध को त्यागकर ही
गांधी हुए थे गांधी
गांधीवादी होना विशिष्टता को त्यागना ही है
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
अहिंसा गांधी का मूल-मंत्र था
पर हिंसा से नहीं था इंकार गांधी जी को,
कहते हैं वे,
समयकाल के साथ चलकर ही
किया जा सकता है गांधी का अनुसरण।
Wednesday, October 1, 2008
एस आर हरनोट के कथा संग्रह जीनकाठी का लोकार्पण
एस।आर हरनोट के कहानी सग्रह "जीनकाठी" का लोकार्पण करते प्रख्यात साहित्यकार डॉ0 गिरिराज किशोर। उनके साथ है सचिव, कला, भाषा और संस्कृति बी।के। अग्रवाल और लेखक राजेन्द्र राजन।
कानपुर(उ0प्र0) से पधारे प्रख्यात साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने कहा कि सभी भाषाओं के साहित्य की प्रगति पाठकों से होती है लेकिन आज के समय में लेखकों के समक्ष यह संकट गहराता जा रहा है। बच्चे अपनी भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ते जो भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉ गिरिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की कि उन्हें भविष्य के एक बड़े कथाकार के कहानी संग्रह के विस्तरण का शिमला में मौका मिला। उन्होंने हरनोट की कहानियों पर बात करते हुए कहा कि इन कहानियों में दलित और जाति विमर्श के उम्दा स्वर तो हैं पर उस तरह की घोर प्रतिबद्धता, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाएं नहीं है जिस तरह आज के साहित्य में दिखाई दे रही है। उन्होंने दो बातों की तरफ संकेत किया कि आत्मकथात्मक लेखन आसान होता है लेकिन वस्तुपरक लेखन बहुत कठिन है क्योंकि उसमें हम दूसरों के अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात करके रचना करते हैं। हरनोट में यह खूबी है कि वह दूसरों के अनुभवों में अपने आप को, समाज और उसकी अंतरंग परम्पराओं को समाविष्ट करके एक वैज्ञानिक की तरह पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि इतनी गहरी, इतनी आत्मसात करने वाली, इतनी तथ्यापरक और यथार्थपरक कहानियां बिना निजी अनुभव के नहीं लिखी जा सकती। उन्होंने शैलेश मटियानी को प्रेमचंद से बड़ा लेखक मानते हुए स्पष्ट किया कि मटियानी ने छोटे से छोटे और बहुत छोटे तपके और विषय पर मार्मिक कहानियां लिखी हैं और इसी तरह हरनोट के पात्र और विषय भी समाज के बहुत निचले पादान से आकर हमारे सामने अनेक चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं। हरनोट का विजन एक बडे कथाकार है। उन्होंने संग्रह की कहानियों जीनकाठी, सवर्ण देवता दलित देवता, एम डॉट काम, कालिख, रोबो, मोबाइल, चश्मदीद, देवताओं के बहाने और मां पढ़ती है पर विस्तार से बात करते हुए स्पष्ट किया कि इन कहानियों में हरनोट ने किसी न किसी मोटिफ का समाज और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में इस्तेमाल किया है जो उन्हें आज के कहानीकारों से अलग बनाता है। हरनोट की संवेदनाएं कितनी गहरी हैं इसका उदाहरण मां पढ़ती है और कई दूसरी कहानियों में देखा जा सकता है।
जानेमाने आलोचक और शोधकर्ता और वर्तमान में उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता डॉ0 वीरभारत तलवार का मानना था संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों-"जीनकाठी" और "दलित देवता सवर्ण देवता" पर बिना दलित और स्त्री विमर्श के बात नहीं की जा सकती। ये दोनों कहानियां प्रेमचंद की "ठाकुर का कुआं" और "दूध का दाम" कहानियों से कहीं आगे जाती है। उन्होंने हरनोट के उपन्यास हिडिम्ब का विशेष रूप से उल्लेख किया कि दलित पात्र और एक अनूठे अछूते विषय को लेकर लिखा गया इस तरह का दूसरा उपन्यास हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता। माऊसेतु का उदाहरण देते हुए उनका कहना था कि क्रान्ति उस दिन शुरू होती है जिस दिन आप व्यवस्था की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं, उस पर शंका करने लगते हैं। जीनकाठी की कहानियों में भी व्यवस्था और परम्पराओं पर अनेक सवाल खडे किए गए हैं जो इन कहानियों की मुख्य विशेषताएं हैं। उन्होंने कहा कि वे हरनोट की कहानियां बहुत पहले से पढ़ते रहे हैं और आज हरनोट लिखते हुए कितनी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जो बड़ी बात है। उनकी कहानियों में गजब का कलात्मक परिर्वतन हुआ है। उनकी कहानियों की बॉडी लंग्वेज अर्थात दैहिक भंगिमाएं और उनका विस्तार अति सूक्ष्म और मार्मिक है जिसे डॉ। तलवार ने जीनकाठी, कालिख और मां पढ़ती है कहानियों के कई अंशों को पढ़ कर सुनाते प्रमाणित किया। हरनोट के अद्भुत वर्णन मन को मुग्ध कर देते हैं। "मां पढ़ती हुई कहानी" को उन्होंने एक सुन्दर कविता कहा जैसे कि मानो हम केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ रहे हो। हरनोट की कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे बाहर के और भीतर के वातावरण को एकाकार करके चलते हैं जिसके लिए निर्मल वर्मा विशेष रूप से जाने जाते हैं।
कथाकार और उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो डॉ0 जयवन्ती डिमरी ने हरनोट को बधाई देते हुए कहा कि वह हरनोट की कहानियों और उपन्यास की आद्योपांत पाठिका रही है। किसी लेखक की खूबी यही होती है कि पाठक उसकी रचना को शुरू करे तो पढ़ता ही जाए और यह खूबी हरनोट की रचनाओं में हैं। डॉ। डिमरी ने हरनोट की कहानियों में स्त्री और दलित विमर्श के साथ बाजारवाद और भूमंडलीकरण के स्वरों के साथ हिमाचल के स्वर मौजूद होने की बात कही। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने की दृष्टि से हरनोट की कहानियों पर प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह के लिखे कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत किए।
वरिष्ठ कहानीकार सुन्दर लोहिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट की कहानियों जिस तरह की सोच और विविधता आज दिखई दे रही है वह गंभीर बहस मांगती है। हरनोट ने अपनी कहानियों में अनेक सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने चश्मदीद कहानी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कचहरी में जब एक कुत्ता मनुष्य के बदले गवाही देने या सच्चाई बताने आता है तो हरनोट ने उसे बिन वजह ही कहानी में नहीं डाला है, आज के संदर्भ में उसके गहरे मायने हैं जो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। स तरह हरनोट की कहानियां समाज के लिए कड़ी चुनौती हैं जिनमें जाति और वर्ग के सामंजस्य की चिंताएं हैं, नारी विमर्श हैं, बाजारवाद है और विशेषकर हिमाचल में जो देव संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक तथा शोषणात्मक पक्ष है उसकी हरनोट गहराई से विवेचना करके कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। लोहिया ने हरनोट की कहानियों में पहाड़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सुखद बताते हुए कहा कि इससे हिन्दी भाषा स्मृद्ध होती है और आज के लेखक जिस भयावह समय में लिख रहे हैं हरनोट ने उसे एक जिम्मेदारी और चुनौती के रूप में स्वीकारा है क्योंकि उनकी कहानियां समाज में एक सामाजिक कार्यवाही है-एक एक्शन है।
हिमाचल विश्वविद्यालय के सान्ध्य अध्ययन केन्द्र में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर व लेखक डॉ0 मीनाक्षी एस। पाल ने हरनोट की कहानियों पर सबसे पहले अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरनोट जितने सादे, मिलनसार और संवेदनशील लेखक है उनकी रचनाएं भी उतनी ही सरल और सादी है। परन्तु उसके बावजूद भी वे मन की गहराईयों में उतर जाती है। इसलिए भी कि आज जब साहित्य हाशिये पर जाता दिखाई देता है तो वे अपनी कहानियों में नए और दुर्लभ विषय ले कर आते हैं जो पाठकों और आलोचकों का स्वत: ही ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी कहानियों में हिमाचल की विविध संस्कृति, समाज के अनेक रूप, राजनीति के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू, दबे और शोषित वर्ग की पीड़ाएं, गांव के लोगों विशेषकर माओं और दादी-चाचियों का जुझारू और अकेलापन बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। उनकी कहानियों में पर्यावरण को लेकर भी गहरी चिन्ताएं देखी जा सकती हैं। वे मूलत: पहाड़ और गांव के कथाकार हैं।
लोकापर्ण समारोह के अध्यक्ष और कला, भाषा और संस्कृति के सचिव बी।के अग्रवाल जो स्वयं भी साहित्यकार हैं ने हरनोट की कथा पुस्तक के रलीज होने और इतने भव्य आयोजन पर बधाई दी। उन्होंने हरनोट की कहानियों को आज के समाज की सच्चाईयां बताया और संतोष व्यक्त किया कि हिमाचल जैसे छोटे से पहाड़ी प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर भी यहां के लेखन का नोटिस लिया जा रहा। उन्होंने गर्व महसूस किया कि हरनोट ने अपने लेखन से अपनी और हिमाचल की देश और विदेश में पहचान बनाई है। उन्होंने हरनोट की कई कहानियों पर विस्तार से विवेचना की। उन्होंने विशेषकर डॉ0 गिरिराज किशोर के इस समारोह में आने के लिए भी उनका आभार व्यक्त किया।
मंच संचालन लेखक और इरावती पत्रिका के संपादक राजेन्द्र राजन ने मुख्य अतिथि, अध्यक्ष और उपस्थिति लेखकों, पाठकों, मीडिया कर्मियों का स्वागत करते हुए हरनोट के व्यक्तित्व और कहानियों पर लम्बी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए किया।
Sunday, September 28, 2008
मेरी रंगत का असर
कमल उप्रेती मेरा हम उम्र है। मेरा मित्र। उस दिन से ही जिस दिन हम दोनों ने कारखाने में एक साथ कदम रखा। कहूं कि अपने बचपन की उम्र से बुढ़ापे में हम दोनों ने एक ही तरह एक साथ छलांग लगायी। यानी जवानी की बांडरी लाईन को छुऐ बगैर। भौतिक शास्त्र में एक शब्द आता है उर्ध्वपातन (ठोस अवस्था द्रव में बदले बिना गैस में बदल जाए या गैस बिना द्रव में बदले ठोस में बदल जाए।), जो हमारा भी एक साथ ही हुआ। हम साथ-साथ लिखना शुरु कर रहे थे। एक कविता फोल्डर फिलहाल हमारी सामूहिक कार्रवाईयों का प्रकाशन था उन दिनों। यह बात 1989 के आस-पास की है। लेकिन कमल का मन लिखने में नहीं रमा। वह पाठक ही बना रहा। एक अच्छा पाठक। तो भी यदा कदा उसने कुछ कविताऐं लिखी हैं। अभी हाल ही में लिखी उसकी कविता को यहां प्रकाशित करने का मन हो रहा है। |
मेरी रंगत का असर
कमल उप्रेती
0135-2680817
मैं खुश हूं कटे हाथों का कारीगर बनकर ही
नहीं है मेरा नाम ताज के कंगूरों पर
फिर भी सुल्तान बेचैन है
मेरी उंगलियों के निशां से
मैं जीना चाहता हूं
कौंधती चिंगारियों
धधकती भटिटयों के बीच
जिसमें लोहा भी पिघल,
बदल रहा है
मेरी रंगत की तरह
मैं सर्दी की नाईट शिफ़्ट में एक
पाले का सूरज बनाना चाहता हूं
जून की दोपहर
सड़क के कोलतार में
बाल संवारना चाहता हूं।
मैं मुंशी बनकर जी भी तो नहीं सकता
जिसकी कोई मर्जी ही नहीं
जिसकी कमीज़ के कालर पर
कोई दाग ही नहीं
पर खौफजदा है
सुल्तान के खातों से
मेरी निचुड़ी जवानी और
फूलती सांसों से
ए।सी। कमरों में कागजी दौड़-धूप के साथ लतपत
कोल्ड ड्रिंक पीने से डरता है सुल्तान
बेफिक्री के साथ गुलजार रंगीन रातों को
जाम ढलकाने से भी
पर मैं तो ठेके पर नमक के साथ
पव्वा गटकना चाहता हूं
सारी कड़वाहट फेफड़ों में जमे
बलगम की तरह थूकना चाहता हूं।
Thursday, September 25, 2008
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- तीन
संवेदना के बहाने देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को पकड़ने की इस छोटी सी कोशिश को पाठकों का जो सहयोग मिल रहा है उसके लिए आभार।
संवेदना के गठन में जिन वरिष्ठ रचनाकरों की भूमिका रही, कथाकार सुरेश उनियाल उनमें से एक रहे। बल्कि कहूं कि उन गिने चुने महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से हैं जो आज भी संवेदना के साथ जुड़े हैं तो ज्यादा ठीक होगा। देहरादून उनका जनपद है। हर वर्ष लगभग दो माह वे देहरादून में बिताते ही हैं। संवेदना की गोष्ठियों में उस वक्त उनकी जीवन्त उपस्थिति होती है। ऐसी कि उसके आधार पर ही हम कल्पना कर सकते हैं कि अपने युवापन के दौर में वे कैसे सक्रिय रहे होगें। हमारे आग्रह पर उन्होंने संवेदना के उन आरम्भिक दिनों को दर्ज किया है जिसे मात्र किस्सों में सुना होने की वजह से हमारे द्वारा दर्ज करने में तथ्यात्मक गलती हो ही सकती थी। आदरणीय भाई सुरेश उनियाल जी का शाब्दिक आभार व्यक्त करने की कोई औपचारिकता नहीं करना चाहते। बल्कि आग्रह करना चाहते हैं कि उनकी स्मृतियों में अभी भी बहुत से जो ऐसे किस्से हैं उन्हें वे अवश्य लिखेगें। देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बहाने लिखा जा रहा गल्प आगे भी जारी रहेगा। अभी तक जो कुछ दर्ज है उसे यहां पढ सकते हैं ः- एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो |
एक सपने की जन्मगाथा
सुरेश उनियाल
sureshuniyal4@gmail.com
प्यारे भाई विजय गौड़,
संवेदना की यादों को लेकर तुम आज चाहते हो कि मैं कुछ लिखूं। वे यादें भीतर कहीं गहरे में दबी हैं। उन्हें बाहर लाना मेरे लिए काफी तकलीफदेह हो रहा है। क्या इतना ही जानना काफी नहीं है कि यह देहरादून में साहित्य के उन दिनों की धरोहर है जब वह पीड़ी अपने लेखन के शुरुआती दौर से गुजर रही थी जो आज साठ के आसपास उम्र की है। आज उनमें से बहुत से साथी हमारे बीच नहीं हैं, (दिवंगत मित्रों में अवधेश और देशबंधु के नाम विशेष रूप से लेना चाहूंगा। अवधेश बहुत अच्छा कवि और कहानीकार था लेकिन उसकी दिलचस्पी इतने ज्यादा क्षेत्रों में थी कि इनके लिए उसके पास ज्यादा समय नहीं रहा। उसकी कुछ कविताएं अज्ञेय ने अपने अल्पचर्चित चौथे सप्तक में ली थीं। देशबंधु की मौत संदेहास्पद परिस्थितयों में हुई। शादी की अगली सुबह ही उसका शव पास के शहर डाकपत्थर की नहर में पाया गया था।) कुछ देहरादून में नहीं है (मैं उनमें से एक हूं, जो अब दिल्ली में रिटायर्ड जीवन बिता रहा हूं, देहरादून वापस आने के लिए बेताब हूं लेकिन हालात बन नहीं पा रहे हैं, मनमोहन चड्ढा पुणे में है और लगभग इसी तरह की मानसिक स्थिति में है।) कुछ देहरादून में रहते हुए भी जीवन के दूसरे संघर्षों से उलझते हुए लिखने से किनारा कर चुके हैं। और बहुत थोड़े से उन साथियों में से एक सुभाष पंत हैं जो हम सबके मुकाबले ज्यादा तेजी से अपने लेखन में जुड़े हैं। यह मैं याद नहीं कर पा रहा हूं कि गुरदीप खुराना उन दिनों तक देहरादून लौट आए थे या नहीं। क्योंकि अगर लौट आए थे तो वह भी संवेदना के जन्मदाताओं में से रहे होंगे। वह भी इन दिनों खूब लिख रहे हैं।
संवेदना ने उस दौर में कुछ उन पुराने लेखकों की संस्था साहित्य संसद के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप जन्म लिया था। देहरादून के हमारे पुराने साथियों को याद होगा कि उन दिनों साहित्य संसद में हम नौजवान लेखकों को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसे ही कुछ अखाड़ेबाज मित्र हमारी रचनाओं को उखाड़ने की कोशिश में रहते थे।
संवेदना के जन्म का बीज मेरे खयाल से सबसे पहले अवधेश के दिमाग में अंकुरित हुआ। अवधेश और देशबंधु की जोड़ी थी। मैं और मनमोहन चड्ढा इन दोनों के मुकाबले साहित्य संसद में कुछ नए थे और उन दोनों के शौक भी हमसे अलग थे इसलिए हम बहुत करीब कभी नहीं आ सके थे। लेकिन साहित्य संसद की बैठकों में हम चारों का दर्जा लगभग एक समान था और वहां हम चारों मिलकर ही पुराने दिग्गजों से भिड़ते थे। यह बात 1969-70 के आसपास की होगी।
1971 में सारिका के नवलेखन अंक में अवधेश की कहानी छपी थी। यह बहुत बड़ी बात थी। सारिका में छपना हम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता था। अवधेश तब बी।ए। कर रहा था, मैंने बेरोगारी की बोरियत दूर करने के लिए हिंदी से एम।ए। में एड्मिशन ले लिया था। मनमोहन भी वहीं अर्थशास्त्र से एम।ए। कर रहा था। 1972 में डीएवी कॉलेज में अवधेश एम।ए। (हिंदी) के पहले साल में आ गया था। एक दिन उसने मेरा परिचय सुभाष पंत नाम के एक लेखक से करवाया जिसकी कहानी फरवरी में सारिका में छपी थी और कमलेश्वर से जिसका व्यक्तिगत पत्रव्यवहार था। उसी दिन सुभाषं पंत के साथ शाम को डिलाइट में जमावड़ा हुआ और सुभाष की दो कहानियां और सुनी गईं। उस संक्षिप्त मुलाकात में ही सुभाष की हम सब पर धाक जम चुकी थी। सुभाष पंत एक ऐसा नाम बन गया था जिसके दम पर साहित्य संसद से टर ली जा सकती थी।
इस बीच अवधेश और देशबंधु ने संवेदना की योजना बनाई। इसके पांच प्रमुख लोगों में इन दोनों के अलावा सुभाष पंत को तो होना ही था, नवीन नौटियाल को भी शामिल किया गया। दरअसल नवीन के पिता का इंडियन आर्ट स्टूडियो घंटाघर के बिल्कुल पास राजपुर रोड पर था और नवीन के पिता शिवानंद नौटियालजी ने उसके पीछे वाले कमरे में में गोष्ठी करने की अनुमति दे दी थी। (नौटियाल जी के बारे में बहुत कुछ लिखने को है लेकिन वह मैं फिर कभी लिखूंगा, यहां इतना बताना मौजूं होगा कि वह किसी जमाने में एम.एन. राय के करीबी साथियों में से थे और उनके द्वारा शुरू की गई संस्था रेडिकल ह्यूमनिस्ट के सक्रिय लोगों में से थे। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे और उनके द्वारा खींचे गए निराला, पंत सहित साहित्य की कई बड़ी हस्तियों के दुर्लभ फोटो एक बड़ा संकलन उनके पास था।) पांचवें सदस्य संभवत: गुरदीप खुराना ही थे या नहीं, यह मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है। इतना जरूर तय है कि मुझे और मनमोहन को इस योजना से पूरी तरह अलग रखा गया था।
यह संभव ही नहीं था कि हम लोगों को इसकी खबर न होती। देहरादून तब छोटा सा शहर था, एक कोने से दूसरे कोने तक पैदल भी चलें तो एक घंटे से ज्यादा समय न लगे। संभवत: सुभाष पंत के मुंह से किसी चर्चा के दौरान निकल गया। हम लोगों की लगभग रोज ही मुलाकात हुआ करती थी। अड्डा होता था डिलाइट। फिर कभी-कभार टिप-टॉप या अल फिएस्ता में भी जम जाया करते थे। ये कुछ गिने चुने अड्डे ही होते थे।
संवेदना की शुरुआत किस दिन हुई तारीख अब याद नहीं है। इतना जरूर है कि जब वह दिन नजदीक आने लगा तब तक मैं और मनमोहन अपनी पहल पर इस योजना में कूद पड़े थे और अचानक ऐसा होने लगा कि कई बार अवधेश और बंधु तो मच्छी बाज़ार पहुंचे होते और हम दोनों समेत बाकी लोग सलाह-मशविरे में शामिल होते।
हमें लगा था कि छोटे से शहर में जहां थोड़े से लोग लेखन से जुड़े थे, कुछ को छोड़कर किसी तरह का आयोजन करना उचित नहीं होगा। कुछ लोग न आएं, यह बात अलग है लेकिन बुलावा सभी को भेजा जाए। वरना ऐसा न हो कि इतनी तैयारियों के बाद गिने-चुने लोग ही वहां हों। अब तक हम संवेदना के अनिवार्य अंग बन चुके थे।
गोष्ठी आशातीत रूप से सफल रही। चालीस से अधिक लोग आए थे जबकि साहित्य संसद की गोष्ठियों में उपस्थिति दस के आसपास ही रहती थी। और मजे की बात यह है कि इसमें बहुत से वे लोग भी आए थे जो जिन तक सूचना नहीं पहुंच पाई थी लेकिन उन्हें इसकी जानकारी मिल गई थी। सभी लिखते नहीं थे लेकिन वे भी पाठक बहुत अच्छे थे और उनके द्वारा की गई किसी भी रचना की आलोचना लेखक को सोचने के लिए ज्यादा बड़ा फलक देती थी।
यह सिलसिला चल निकला और हर महीने संवेदना की गोष्ठियां इतने ही बड़े जमावड़े के साथ होने लगीं। साहित्य संसद की गोष्ठियां भी बदस्तूर चलती रहीं और हम लोग उनमें भी जाते रहे। हमारे लिए संवेदना संसद की प्रतिद्वंद्वी संस्था न होकर, सहयोगी संस्था थी।
देहरादून ऐसी जगह थी जहां गाहे-बगाहे दिल्ली और दूसरी जगहों से भी लेखक आया करते थे। हमें इसकी खबर मिलती तो हम उन्हें संवेदना में आने के लिए आमंत्रित जरूर करते। एक बात हम उनसे जरूर कहते कि और जगहों पर आपको आपकी रचनाएं सुनाने के लिए बुलाया जाता है, हम आपको इसलिए बुला रहे हैं कि आप हमारी रचनाएं सुनें और एक अग्रज लेखक होने के नाते हमें सलाह दें। एक बार भारत भूषण अग्रवाल आए थे तो उन्हें भी आमंत्रित किया गया। नियत दिन किसी गफलत में उन्हें लेने के लिए कोई साथी न जा सका। अभी यह सोच-विचार ही हो रहा था कि कौन जाएगा कि बाहर एक थ्रीवीलर से उतरते भारतजी दिखाई दे गए।
इस तरह की बहुत सी यादें हैं। मैं 1973 में देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून जाना होता रहा। गर्मियों की छुट्टियां देहरादून में ही बीतती थीं। बीच बीच में जब देहरादून आना होता तो कार्यक्रम कुछ इस तरह से बनाता कि पहला रविवार इसमें आ जाए और संवेदना की गोष्ठी में शामिल हुआ जा सके।
मुझे खुशी है कि जिस संस्था की प्रसव पीड़ा से गुजरने वालों में से मैं भी एक हूं, वह आज 36 साल बाद भी नियमित रूप से गोष्ठियां कर रही है। उम्मीद है कि यह इतने साल और चलेगी और उसके बाद भी चलती रहेगी। आमीन!
Wednesday, September 24, 2008
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो
देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में सिलसिलेवार लिखे जा रहे गल्प की यह दूसरी कड़ी है। पहली कडी यहां पढ सकते हैं। |
विजय गौड
रसायन विज्ञान पढ़ लेने के बाद सुभाष पंत एफ। आर। आई। में नौकरी करने लगे थे। विज्ञान के छात्र सुभाष पंत का साहित्य से वैसा नाता तो क्यों होना था भला जो जुनून की हद तक हो। पर जीवन के संघर्ष और सामाजिक स्थितियों की जटिलता को समझने में पढ़ा गया विज्ञान मद्दगार साबित न हो रहा था। समाज के बारे में सोचने समझने की बीमारी ने साहित्य के प्रति उनका रुझान पैदा कर दिया। जनपद में साहित्य लिखने और पढ़ने वालों से उनका वैसा वास्ता न था। स्वभाव से संकोची होने के कारण भी खुद को लेखक के रूप में जाहिर न होने देने की प्रव्रत्ति मौजूद ही थी। जिसके चलते भी दूसरे लिखने वालों को जानना सुभाष पंत के लिए संभव न था।
नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश और मनमोहन चडढा सरीखे नौजवान सक्रिय लोगों में से थे। लिखते भी थे और बहस भी करते थे। बहस के लिए अडडेबाजी भी जरुरी थी। बुजुर्ग पीढ़ी में लेखक और चर्चित फोटोग्राफर ब्रहम देव साहित्य संसद नाम की संस्था चलाते थे। भटनागर जी, मदन शर्मा, गुरुदीप खुराना, शशि प्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी आदि साहित्य संसद के सक्रिय रचनाकारों में रहे।
नये नये लेखक सुभाष पंत के सामने दोनों रास्ते खुले थे कि वे साहित्य संसद में जाएं या फिर स्वतंत्र किस्म के अडडेबाजों के बीच उठे-बैठे। साहित्य संसद में एक तरह का ठंडापन वे महसूस करते थे जबकि स्वतंत्र किस्म के वे लिक्खाड़ जो अडडेबाज, शहर की हर गतिविधि में अपनी जीवन्तता के साथ मौजूद रहते। सुभाष पंत अपने ऊपरी दिखावे से बेशक ठंडेपन की तासीर वाले दिखते रहे पर उनको भीतर से उछालता जोश उन्हें अडडेबाजों के पास ही ले जा सकता था। यह अलग बात है कि अपने संकोच के चलते बेशक वे खुद पहल करने से हिचकिचाते रहे। लेकिन चुपचाप अपने लेखनकर्म में आखिर कब तक खामोश से बने रहते। सारिका को भेजी गयी कहानी, गाय का दूध पर संपादक कमलेश्वर की चिटठी उन्हें एक हद तक आत्मविश्वास से भरने में सहायक हुई। बहुत चुपके से चिट्ठी को पेंट की जेब में बहुत भीतर तक तह लगाकर रख लिया और डिलाईट की धडकती बैठक में जा धमके - जहां वे लिक्खाड़, जो शहर की आबो हवा पर बहस मुबाहिसे में जुटे स्वतंत्र किस्म के विचारक थे, मौजूद थे - डिलाईट रेस्टोरेंट।
समाजवादियों का अड्डा था डिलाईट जहां शहर के समाजवादी मौजूद रहते थे। डिलाईट की जीवन्त्ता उन्हीं अडडे बाजों के कारण थी। जीवन्तता ही क्यों, डिलाईट था ही उनका। वे न होते तो उस सीधे साधे से व्यक्ति किशन दाई (किशन पाण्डे)की क्या बिसात होती जो शहर के बीचों बीच अपनी दुकान खोल पाता। वह तो नेपाल से आया एक छोकरा ही था जो खन्ना चाय वाले के यहां काम करता था। वही खन्ना चाय वाले जिनकी दुकान घंटाघर के ठीक सामने होती थी। वहीं, जहां आज तमाम आधुनिक किस्म के सामनों से चमचमाती दुकाने मौजूद हैं।
एक छोटी सी चाय की दुकान जिसमें उस दौर के तमाम अडडे बाज, जिनमें ज्यादातर समाजवादी होते, बैठते थे। समाजवादी कार्यकर्ता सुरेन्द्र मोहन हो, भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर या कोई भी अन्य, यदि वे शहर में हों तो तय होता कि वे भी उस टीन की छत के नीचे देहरादून शहर में अपने साथियों के साथ घिरे बैठे होते।
जमाने भर के बातों की ऊष्मा से केतली बिना चूल्हे पर चढे हुए भी पानी को खौला रही होती। माचिस की डिब्बी को उंगलियों के प्रहार से कभी इस करवट तो कभी उस करवट उछालने में माहिर वे युवा, जिनके लिए बातचीत में बना रहना संभव न हो रहा होता, बहस को बिखेरने का असफल प्रयास कर रहे होते। क्योंकि बहस होती कि थमती ही नहीं। हां माचिस का खेल रुक जा रहा होता। संभवत: चाय वाले खन्ना भी समाजवादी ही रहे हों पर इस बात का कोई ठोस सबूत मेरे पास नहीं। मैं तो अनुमान भर मार रहा हूं । उनकी बातचीत के विषय ऐसे होते कि किशन दाई उन्हें गम्भीरता से सुनता। धीरे धीरे चुनाव निशान झोपड़ी उसे अपना लगने लगा था। घंटाघर के आस-पास की सड़क को चौड़ा करने की सरकारी योजना के चलते दुकान को उखाड़ दिया गया। वहां बैठने वाले सारे के सारे वे अडडेबात जो अपने अपने तरह से शहर में अपनी उपस्थिति के साथ थे, बेघर से हो गये। ऎसे में वे चुप कैसे रहते भला। किशनदाई का रोजगार छिन रहा था। खन्ना जी तो कुछ और करने की स्थिति में हों भी पर किशन के सामने तो सीधा संकट था रोजी रोटी का। संकट अडडेबाजों के लिए भी था कि कहां जाऐं ?
डिलाईट के निर्माण की कथा यदि कथाकार सुरेश उनियाल जी के मुंह से सुने तो शायद उस इतिहास को ठीक ठीक जान सकते हैं। अपनी जवानी के उस दौर में वे जोश और गुस्से से भरे युवा थे। डिलाईट का किस्सा तो मैंने भी एक रोज उनके मुंह से ही सुना। सिर्फ सुनता रहा उनको - डिलाईट चाय की ऐसी दुकान थी जिसका नामकरण भी उस दुकान में बैठने वाले उस दौर के युवाओं ने किया था। वे युवा जमाने की हवा की रंगत जिनकी बातों के निशाने में होती थी। जो दुनिया की तकलीफों को देखकर क्षुब्ध होते थे तो कभी धरने, प्रदर्शन और जुलूस निकालते थे तो कभी ऐसे ही किसी वाकये को अपनी कलम से दर्ज कर रहे होते थे। चाय वाला एक सीधा-सच्चा सा बुजुर्ग था जो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन भर केतली चढाये रहता। चाय पहुंचाने के लिए जिसे कभी इस दुकान में दौड़ना होता तो कभी उस दुकान में। फिर दूसरे ही क्षण आ गये आर्डर की चाय पहुंचाने के लिए उस दुकान तक भाग कर जाना होता जहां पहले पहुंचायी गयी चाय के बर्तन फंसे होते। जिस वक्त वह ऐसे ही दौड़ रहा होता वे युवा दुकान के आर्डर संभाल रहे होते।
उसी डिलाईट में पहुंचे थे नये उभरते हुए कथाकार सुभाष पंत। कमलेश्वर जी का पत्र उनकी जेब में था।
--- जारी
Saturday, September 20, 2008
उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए
हमारे दौर की महत्वपूर्ण लेखिका, जिन्होंने अपने लेखन से हिन्दी जगत में स्त्री विमर्श की धारा को एक खास मुकाम तक पहुंचाने मे पहलकदमी की, प्रभा खेतान, कल रात हृदय आघात के कारण हमसे विदा हो गयी हैं। यह खबर कवि एकांत श्रीवास्तव के मार्फत मिली है। प्रभा जी को याद करते हुए इतना ही कह पा रहा हूं कि उनके लेखन ने मुझे काफी हद तक प्रभावित किया है। युवा कथाकार नवीन नैथानी भी अपनी प्रिय लेखिका को याद कर रहे हैं -
उनका लिखा छिनमस्त्ता याद है, उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए भी एक यादगार रचना है। हंस के प्रकाशन के साथ ही प्रभा खेतान हिन्दी के प्रबुद्ध घराने में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दिखा चुकी थीं। सार्त्र : शब्दों का मसीहा संभवत: हिन्दी में अस्तित्ववाद पर पहला गम्भीर एकेडमिक ग्रन्थ है। स्त्री उपेक्षिता के द्वारा तो प्रभा खेतान हिन्दी जगत में फेमिनिज़म की बहस को बहुत मजबूत डगर पर ले आयीं। उनकी आत्मकथा भी अपने बेबाक कहन के लिए हमेशा याद की जायेगी। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजली। -नवीन नैथानी
दलित धारा के चर्चित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्म्रतियों में कुछ ऐसे दर्ज हैं प्रभा खेतान :
प्रभा खेतान के दु:खद निधन के समाचार से एक पल के लिए तो मैं अवाक रह गया था। एक लेखिका के तौर पर छिनमस्ता या फिर अहिल्या जैसी रचनाओं की लेखिका और सिमोन की पुस्तक The Second Sex को हिन्दी में प्रस्तुत करने वाली लेखिका का अचानक हमारे बीच से चले जाना, एक तकलीफदेह घटना है। एक रचनाकार से ज्यादा मुझे उनका व्यक्तित्व हमेशा आकर्षित करता रहा। उनकी आत्मकथा अनन्या--- के माध्यम से एक ऐसी महिला से परिचय होता है जो परंपरावादी समाज से विद्राह करके अपने जीवन को अपने ही ढंग से जीती है और सामाजिक नैतिकताओं के खोखले आडम्बरों को उतार फेंकने में देर नहीं करती। अपने ही बल बूते पर एक बड़ा बिजनैश खड़ा करती हैं, प्रभा खेतान का यह रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। वे अहिल्या की तरह शापित जीवन नहीं जीना चाहती थी। बल्कि मानवीय स्वतंत्रता की पक्षधर बनकर खड़ा होना, उनके जीवन का एक अहम हिस्सा था। यह उनकी रचनाओं में दृष्टिगाचर होता है और जीवन में भी। यानि कहीं भी कुछ ऐसा नहीं जिसे छिपा कर रखा जाये या फिर उस पर शर्मिंदा होना पड़े। प्रभा खेतान सिर्फ एक बड़ी रचनाकार ही न हीं एक बेहतर इन्सान के रूप में भी सामने आती हैं।
वे एक खाते-पीते समपन्न परिवार से थी। लेकिन जिस तरह से वे अपना जीवन जी उसमें कहीं भी इसकी झलक दिखायी नहीं देती। जिस समय हंस में छिनमस्ता धारावाहिक के रूप में छप रहा था, वह हिन्दी पाठकों के लिए एक अलग अनुभव लेकर आया था। प्रभा खेतान के अपने अनुभव और पारिवारिक सन्दर्भ इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, जो आगे चलकर उनकी आत्मकथा में भी दिखायी दिये। एक स्त्री के मन की आंतरिक उलझनों, वेदनाओं की अभिव्यक्ति जिस रूप्ा में प्रभा खेतान की रचनाओं से सामने आयी वह अपने आप में उल्लेखनीय हैं। सबसे ज्यादा वह इतना पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त हुआ कि हिन्दी पाठकों को अविश्वसनीय तक लगता है। क्योंकि हिन्दी पाठक की अभिरूचि में यह सब अकल्पनीय था। जीवन की गुत्थियों को कोई लेखिका इस रूप में भी प्रस्तुत कर सकती है, इसका विश्वास हिन्दी पाठक नहीं कर पा रहा था। ऐसी लेखिका और एक अच्छी इन्सान का इस तरह चुपके से चले जाना, दुखद है। अविश्वसनीय भी। मेरे लिए प्रभा खेतान की स्मृतियां कभी शेष नहीं होंगी।।। क्योंकि उनकी स्मृतियां, उनके अनुभव, उनकी रचना धर्मिता हमारे पास है, जो हमेशा रहेगी।
-ओमप्रकाश वाल्मीकि
Friday, September 19, 2008
अजेय की कविता
लाहुल (लाहौल- स्पीति ) में रहने वाले अजेय की कविता में नदी अपने सौन्दर्य भरे चित्रों के साथ होते हुए भी ऐसी ही स्थितियों के बिम्ब अनायास प्रकट नहीं कर रही हो सकती है - अलग-अलग बिछे हुए/पेड़/मवेशी/कनस्तर/डिब्बे लत्ते/ढेले/कंकर/---
अजेय
ajeyklg@gmail.com
इस उठान के बाद नदी
इस नदी को देखने के
लिएआप इसके एक दम करीब जाएँ।
घिस-घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर।
उतरती रही होगीं
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुमसुम धूप खा रही
चमकीली नंगी चट्टानें
उकड़ूँ ध्यान मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जग उतर चुका है पानी।
अलग-अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत---
कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियां शायद
उन्हें करीब से देखने की ज़रूरत थी।
कुछ बच्चे मालामाल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे-फदे ताज़ा कटे कछार
अच्छे से ठोक- ठुड़क कर छांट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उसके गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो सधे पैरों वाला
एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान-भगवान दिन भर।
ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिसकी अलग ही एक हरारत है
गुपचुप बहा ले जाएगा
अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अंधेरे में
आप आएँ
देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहां एक दम करीब आकर।
Tuesday, September 16, 2008
अल्पना मिश्र की कहानी
कथाक्रम के जुलाई-सितम्बर 2008 के अंक में प्रकाशित अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल यहां पुन: प्रकाशित की जा रही है। युवा रचनाकरों पर केन्द्रित कथाक्रम के इस अंक में ब्लाग जगत में सक्रिय रूप से रचनारत प्रत्यक्षा, पंकज सुबीर की भी कहानियां हैं और गीत चतुर्वेदी,हरे प्रकाश उपाध्याय एवं शिरीष कुमार मौर्य की कविताऐं भी। अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल अपने मिजाज के कारण एक उल्लेखनीय रचना है। अल्पना के दो कहानी संग्रह अभी तक प्रकाशित हुए हैं - भीतर का वक्त और छावनी में बेघर। अल्पना के पहले कथा संग्रह पर टिप्पणी करते हुए मैंने अन्यत्र लिखा था, "सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं न कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई, संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र के पहले कथा संग्रह, 'भीतर का वक्त’ की मूल कथा है। पहले कथा संग्रह की कहानियों में जहां आम घरेलू स्त्री के जीवन के चित्र बिखरे पड़े हैं वहीं दूसरे कथा संग्रह, छावनी में बेघर की कहानियां में घरेलू और बाहरी दुनिया के तनाव में उलझी स्त्री की तस्वीर, स्पष्ट तौर पर दिखायी देती है। एक रचनाकार के विकासक्रम में अल्पना की प्रस्तुत कहानी वर्गीय दृष्टिकोण को सामने रखती है। अल्पना की रचना यात्रा एक सचेत कहानीकार की यात्रा है। यह अनायास नहीं है कि उनकी कहानी अपने मिजाज में लगातार अपने बदलाव के साथ है। यदि इसी मिजाज की कहानियां पहले संग्रह में होती तो उनके लेखन का मंतव्य शायद उतना स्पष्ट न हुआ होता। बिना किसी जल्दबाजी ओर बिना किसी हड़बड़ी के, अल्पना, समाज के बुनियादी चरित्र में बदलाव के लिए आवश्यक लम्बे संघर्ष के साथ, अपने लेखन को जोड़ते हुए, सतत रचनारत हैं। प्रस्तुत कहानी एक रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों को रखने के लिए एक साक्ष्य भी है। |
सड़क मुस्तकिल
- अल्पना मिश्र
09412055662, alpana.mishra@yahoo.co.in
भीड़ थी ही।
और बढ़ गयी है।
अचानक।
नदी उमड़ आयी है।
आदमियों की नदी।
गाड़ियों में लदे आदमियों की नदी।
एक मोटरसाईकिल वाला जैसे तैसे उसे चीर कर निकलने की कोशिश कर रहा है। किसी बच्चे की एक हवाई चप्पल सड़क के बिल्कुल बीच में छूटी पड़ी थी। भीड़ ने उसे खिसका कर इधर उधर कर दिया है। तरह तरह की गाड़ियॉ ठक् से आकर भीड़ के पीछे रूक गयी हैं। भीड़ के केंद्र में एक औरत चिल्ला कर कुछ कह रही है। औरत नाटे कद की है। आटे की लोई जैसी गोरी है और थोड़ी मोटी। उसकी उम्र का अंदाज किया जाए तो यही कहा जाएगा कि होगी कोई चालीस पैंतालीस के आस पास। माथे पर उसने एक छोटी सी नीली बिंदी लगा रखी है। बाल काले हैं। इतने काले कि उनका कालापन किसी भी कालेपन को मात दे सकता है। शायद किसी सस्ते डाई से काले बनाए गए हैं। होठों पर चटक लाल लिपिस्टिक है। उसने गहरे नीले रंग का चमकदार सा पीली बुंदियों वाला, सौ प्रतिशत सिंथेटिक सलवार कुर्ता पहना है और गहरे नीले रंग का चमकता सा दुपट्टा गले में डाले हुए है। उसका एक हाथ उठा हुआ सा भीड़ की तरफ है और दूसरा, उसके ठीक पीछे खड़े स्कूटर की तरफ।
औरत हाथ उठा कर जिस स्कूटर की तरफ इशारा कर रही है, वह आसमानी रंग का है। उसकी आगे की हेडलाइट टूट गयी है, जिसके कुछ टुकड़े इधर उधर बिखरे हुए हैं, जो गवाह हैं कि ये टूटना एकदम ताजा है। इसी आसमानी स्कूटर पर एक मरियल सा बुड्ढा बैठा हुआ औरत को बिना पलक झपकाए पीछे से देख रहा है। उसका लम्बा चेहरा सूखी लौकी की तरह लटका हुआ है। गाल पिचके हैं। उसने पूरी बॉह की हल्की धारियों वाली, हल्की पीली बुच्चर्ट पहनी है और स्कूटर की हैंडल को ड्राइवर वाले अंदाज में पकडे खड़ा हो गया है। लेकिन स्कूटर और औरत को देख कर कोई भी कह सकता है कि इस आसमानी स्कूटर की असली ड्राइवर ये औरत ही है।
जब मोटी औरत ने चिल्ला कर लोगों को बताया कि स्कूटर बुड्ढा चला रहा था तो एक पल को लोग चौंक से गए। लेकिन औरत के इस हंगामेदार ऐलान ने बूढ़े को पूरे जोश से भर दिया और उसने एकदम बॉंके छोरे वाली अदा से स्कूटर को सहलाया।
''मेरे मालिक से बात करो। मैं क्यों दूं पैसे? मेरी गलती नहीं हैं।"
टाटा सूमो से सट कर खड़े पिद्दी से लड़के ने गुस्सा कर कहा।
''तेरे मालिक को कहॉ पाउंगी कि लड़ूंगी, जो सामने मिलेगा उसी से हिसाब करूंगी।"
यह कहते हुए औरत ने भीड़ को चीरा और सड़क किनारे से ईटे का एक अद्धा उठाया और गाड़ी की तरफ लपकी।
''अरे, अरे, क्या कर रही हो? मेरी गाड़ी नहीं है। छूना मत। डेंट पड़ जाएगी।"
लड़के ने अधीरता से कहा।
''तू ऐसे नहीं मानेगा। यही है तेरा ईलाज। मेरा पैसा ठीकरा नहीं है कि बेकार जाने दूं! पाई पाई जोड़ा है। कोई कारू का खजाना नहीं है रे कि रोज कोई हेडलाइट तोड़े तो रोज बनबाउं।" यह आखिरी वाक्य औरत ने अद्धा उठाए उठाए पूरी भीड़ को कहा। अचानक ही पिद्दी से लड़के के साथ साथ पूरी भीड़ गुनहगार हो गयी।
इसी बीच अधेड़ उम्र के एक सज्जन ने, जिन्हें व्यवस्था और प्रशासन जैसी चीजों पर कुछ भरोसा था, जोर से चिल्लाए- '' ट्रैफिक पुलिस कहॉ है? बुलाओ भई उसे।"
"बुलाओ, पुलिस बुलाओ। हम भी छोड़ने वालों में से नहीं हैं। "
औरत ने ललकार कर कहा और अपने पास खड़ी टाटा सूमो से सट कर खड़े सूखे से लड़के की तरफ गरदन मोड़ कर चिल्लायी -
''साले, दूध का दूध पानी का पानी यहीं कर के जायेंगे।"
''अद्धा तो फेंक!" किसी ने जोर से कहा।
औरत ने अपने सामने अद्धा जोर से पटक दिया। सड़क हल्की सी वहॉ पर खुद गयी। लड़के ने सांस लिया।
'' ट्रैफिक पुलिस किधर है?"
जैसे ही पुलिस का नाम आया, लड़का सिटपिटा कर कुछ कहने लगा।
'' एक्सिडेंट का केस है।"
पीछे से नई आती भीड़ ने झॉक कर अपने से और पीछे को सूचना दी।
इसी में धकमपेल मची थी। लोग अपनी गाड़ी निकालने की जल्दी में थे। दुपहिया वाले तो जैसे तैसे निकाल भी रहे थे।
पुलिस की बात आयी तो सामने से सबकी निगाह उठ कर वहॉ गयी। वहॉ सामने। सामने के सड़क को पार करती, उसकी बॉयी ओर सट कर बनी चाय गुमटी की ओर। वहॉ तक, जहॉ भूतपूर्व नौजवान सा दिखता एक दुबला पतला आदमी हाथ में चाय का गिलास थामे इधर की तरफ ही देख रहा था। देखते हुए आदमी एकदम इत्मीनान से चाय पी रहा था। उसका घिसा हुआ खाकी रंग का शर्ट और पैंट उसकी नाप से बड़ा था। शायद उस समय सिलाया गया हो, जब वह कुछ तंदरूस्त रहा हो। एक काला बेल्ट भी था। कुल मिला कर उसका यह पहनावा वर्दी कहलाता था और लोग इसी से डर जाते थे।
इतने इत्मीनान से उसका चाय पीना भीड़ को अच्छा नहीं लगा।
''महाराज चाय पी रहे हैं।" किसी ने कहा।
भीड़ बने एक दो लोग उसकी तरफ लपके। उन्हें अपनी तरफ आता देख कर भी घ्ािसी हुई खाकी पैंट द्रार्ट के भीतर फॅसे आदमी ने कोई हैरानी या तत्परता नहीं दिखाई। जैसे कि उसने माना ही नहीं कि कोई उसे खोजने भी आएगा। क्यों आएगा भला? भीड़ तो अक्सर लगती छंटती रहती है। और अगर आएगा भी तो क्या? देख लिया जाएगा। सिपाही इस आत्मविश्वास की अद्भुत आभा से दमक रहा था। दो लोग उसके बिल्कुल नजदीक आ गए, वह तब भी चाय पीता रहा।
''अब चलेंगे हवलदार साहब! रणचंडी देवी सड़क सिर पर उठाए हैं।"
''कौनो महिला का मामला है क्या?"
सिपाही ने बिना चौंके पूछा और एक अजीब इत्मीनान से चाय का आखिरी घूंट लेकर कप रख दिया।
''चलो भई। चैन से चाय भी नहीं पी सकते।"
इस तरह कह कर उसने अपने साथ चलते लोगों से इस नौकरी में 'चाय भी न पी पाने की फुर्सत" की निहायत परेच्चानी के बावत बताया। लेकिन लोग थे कि उसके इस दर्द को जानने के बिल्कुल इच्छुक नहीं थे। सिपाही भी इस लोक चेतना का ज्ञाता था शायद। इसीलिए उसने इस बात को ज्यादा नहीं खींचा।
सिपाही को देखते ही पैदल भीड़ काफी छंट गयी। तब भी सिपाही ने अपनी छड़ी उठा कर किसी बड़ी भीड़ में रास्ता बनाने की अपनी किसी पुरानी ट्रेनिंग के हिसाब से रास्ता बनाया।
''चलिए हटिए, हटिए।" कहते हुए सिपाही जी सीधे जाकर उस महिला, उस पिद्दी से लड़के और उस बॉके छोरे जैसा नखरा दिखाते बूढ़े के पास खड़े हो गये।
''हल्ला मत मचाइए।" भीड़ की तरफ मुड़ कर सिपाही ने कहा। उसके इतना कहते पिद्दी लड़का दौड़ने की तरह दौड़ा। जगह इतनी नहीं थी कि वह पूरा दौड़ पाता। वह दो तीन कदम दौड़ा और सिपाही के दो लकड़ी जैसे पैरों को अपने दो मरियल हाथों से जकड़ लिया। इस दौड़ने में उसने औरत के दौड़ने और झपटने को मात दे दिया। सिपाही ने तत्काल ही उससे पैर छुड़ाने की कोच्चिच्च की। इस पर वह भहराते हुए भी पूरी ताकत से रोने जैसा चीखा -
''साहेब, बड़े मालिक, मेरी गलती नहीं है मालिक। गाड़ी मेरी नहीं है। मैं कहॉ से भरपाई कर पाउंगा? मैं तो आगे था, पीछे से आकर ये खुद ही भिड़ गए हैं। वो तो मेरी गाड़ी धीमी थी, वरना---"
''वरना क्या?" महिला पूरी तेजी से झपटी। लगा कि वह कुछ आर पार की लड़ाई लड़ कर रहेगी, पर उसने सिर्फ हल्का सा धा देकर लड़के को पीछे ढकेला।
''वरना क्या? मैं मर जाती ? मेरा बूढ़ा मर जाता? यही न? तू बैठा है बड़ी गाड़ी में, तेरा क्या बिगड़ता। हं। इसकी बात सुनोगे सिपाही जी? मैं क्या जानूं कि गाड़ी इसकी है कि इसके मालिक की? मुझे तो अपने नुकसान के पैसे चाहिए, बस।"
'' लेकिन मैडम, आपकी स्कूटर पीछे थी।"
पीछे से किसी लड़के ने हॅस कर कहा। लेकिन न ही उसने इस बात पर जोर दिया और न ही भीड़ से निकल कर सामने आया। बल्कि हॅस कर उसने एक तरह से इस दृश्य की सत्यता को टाल दिया।
लेकिन लड़के की हॅसी और मजे में उछाले गए इस वाक्य की सत्यता से पिद्दी लड़का चौकन्ना हो गया। उसने सिपाही का पैर छोडा और भीड़ के पैरों की तरफ बढा। ऑखों ही ऑखों में उसने हॅसने वाले लड़के को खोजा भी।
''आप ही लोग बताइए हमारी कौनो गलती है? आप सब लोग देखे हैं। देखे हैं न! जरा कहिए सरकार से। समझाइए माई बाप। बताइए इनसे। आप नहीं बोलेंगे तो कौन न्याय करेगा हम गरीबों का? बोलिए, बताइए।"
भीड़ से कोई आवाज नहीं आयी। आवाजें थीं, पर वे उनकी आपसी परेशानियों की थीं। आवाजें हार्न की भी थीं, जो उनके बेहद जल्दी में होने का संकेत दे रही थीं। आवाजें पैरों की भी थीं, जो इधर से उधर मुड़ रहे थे।
लड़का फिर खाकी पैंट शर्ट की तरफ मुड़ा- '' मालिक , हम सच कह रहे हैं--- छोटे छोटे बच्चे हैं हमारे।"
''चुप बे!" खाकी पैंट शर्ट के भीतर फॅसे आदमी के डंडे से तेज आवाज आयी। हॅलाकि डंडा केवल फटकारा गया था।
लोगों का ध्यान न सिपाही के डंडे की फटकार की तरफ था, न लड़के के रिरियाने पर। न ही उसी समय मौका देख कर गुब्बारा बेचने पॅहुच आए लड़के की तरफ और न ही 'शनिदान" जैसी आवाज निकालने वाले उस आदमी की तरफ, जिसके हाथ के कटोरे में थोडा सा सरसों का तेल था और जिसने कुछ कुछ साधु जैसा वेश बनाया था। उनको लग रहा था जैसे यह किसी फिल्म का दृश्य है, जिसे थोड़ी देर में बीत जाना है। वे टेलीविजन पर लगातार देखते हुए ऐसे द्र्श्यों आदी हो चुके थे और फिर उनकी खुद की भी परेशानियॉ बहुत थीं।
'अरे भई, जल्दी मामला खत्म करो!’
जनरल पब्लिक ओपीनियन।
''अरे यार, क्या बेहूदगी है, इतनी देर से जाम लगा रखा है?"
कार के भीतर बैठे एक सज्जन बड़बड़ाए।
'' उफ्, लोग भी, सड़क पर तमाशा करते रहते हैं!"
उसी कार में बैठी एक सजी धजी गुडियानुमा महिला बुदबुदायी।
''एक तो पतली सड़के उपर से इतना ट्रेफिक!"
''अरे, निपटाओ भई नौटकीं।"
बेताबी से अपनी जीप से झॉकते एक नेतानुमा आदमी ने कहा।
उधर महिला, जो आटे के लोई के रंग की थी, जिसके बाल रंग रोगन से काले थे, जो पिद्दी लड़के के कुछ भी कहने पर झपट कर उसे हल्का सा धक्का दे देती थी। धकियाने में उसका दुपट्टा गिर जाता था तो वह उसे झपाटे से उठा कर वापस कंधे पर डाल लेती थी। वह कुछ इस तरह चिल्लाने लगी-
''हाय, मुझे झूठी कह रहा है। इतनी सी बात के लिए मैं झूठ बोलूंगी? इतनी सी बात के लिए कोई औरत झूठ बोलेगी? सड़क पर हल्ला मचायेगी? हॉ, तुम्ही बोलो सिपाही जी, औरत की कोई इज्जत होती है कि नहीं?" यह कहते हुए औरत पूरी भीड़ को संबोधित करने लगी। बुड्ढे ने पूरी तान के साथ सिर हिलाया। सिपाही अपनी छड़ी अपने हाथ पर हौले हौले पटकने लगा, मानो किसी पुरानी धुन पर ताल दे रहा हो। भीड़ में एक दो लोगों ने 'बेचारी" कहा तो किसी किसी ने 'नाटकबाज" जैसा भी कहा।
''इज्जत!" हल्का सा हॅस कर नेतानुमा आदमी जीप में बैठे बैठे बड़बड़ाया।
इस बीच औरत ने पूरी चुनौती के साथ अपना परिचय हवा में लहराया।
''मेरे बारे में जान लो। यहीं सरकारी अस्पताल में काम करती हूं। ड्यूटी पर देर हो रही है और तुम सब यहॉ भीड़ लगाए खड़े हो! सरकारी कर्मचारी हूं। रिपोर्ट लिखवाउंगी। हूं, सोच ले तू। पैसा निकालता है कि चलूं थाने? औरत के साथ ऐसा करता है!"
'' दिखाओ कितना टूटा है?"
कह कर सिपाही ने उसे बॉह से पकड़ा और स्कूटर की तरफ मुड़ा।
बुड्ढा पूरी तत्परता से स्कूटर की टूटी हेडलाइट दिखाने लगा।
''देखिए जी, ये देखिए जी, इधर डेंट लग गया है।"
''ये कौन है तेरे साथ?" सिपाही ने बूढ़े को घूरा।
''ये बेचारा बूढ़ा मुझे अस्पताल छोड़ने जा रहा था। इसकी कहानी तो और भी दुखभरी है भाई जी। इसकी बीबी अस्पताल में मर रही है और ये बेचारा यहॉ मुसीबत में उलझ गया। मेरा रिश्तेदार है। अब मुसीबत में आदमी अपने को ही तो बुलायेगा। क्यों भाइयों !"
औरत ने आखिरी वाक्य किसी जोरदार फिल्मी डायलाग की तरह कहा।
बूढ़े ने अपने लटके मुंह को और लटका लिया।
''लेकिन ये तो पीछे से अपने आप---मेरी गलती नहीं है।"
पिद्दी लड़का एक बार फिर अपने बचाव में आगे आया। लेकिन इस बार उसकी तरफ किसी ने नहीं देखा। भीड़ के ज्यादातर लोग या तो झुकी हुयी महिला के गोल गले वाले कुर्ते से बाहर ढलक पड़ते आधे तरबूजों को देखने में लगे थे या फिर इस दृश्य को देख पाने में नाकाम अपनी गाड़ियों में खीझ रहे थे। महिला ने इस बीच नाक सिकोड़ते हुए सिपाही की हथेली से अपनी बॉह मुक्त करा ली और अपना मुंह सिपाही के भूतपूर्व नौजवान मुंह के पास ले जा कर बोली- ''आप ही बताओ सिपाही जी, बेवजह की मुसीबत हो गयी। खर्चा अलग सिर पर। तुम्हारे रहते अन्याय नहीं हो सकता।" आखिरी वाक्य महिला ने बहुत धीरे से कहा। सिर्फ और सिर्फ सिपाही के लिए।
सिपाही का ध्यान अचानक ही तरबूजों से हटा और उसने पाया कि उसके हाथ में टूटी हुई हेडलाइट की किरचें हैं। उसने उन्हें सड़क पर फेक कर हाथ झाड़ा और एकदम से लड़के की तरफ झपटा।
''पैसे निकालता है कि थाने ले चलूं?"
''साहब मेरे पास इतने पैसे कहॉ हैं? नौकरी नई है। गाड़ी मालिक की है। सुनेंगे तो अलग मारेंगे मुझे। मुझ पर रहम करो। गलती होती तो भी कहॉ से पैसे लाता? हुजूर, अन्याय न करो।"
लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
''पॉच सौ दे इन्हें।"कह कर झपट कर सिपाही ने लड़के की कमीज और पैंट की पॉकेट खंगाली। पैंट के पीछे की पॉकेट से भूरे रंग का एक वॉलेट मिला, जो शायद लम्बे समय से वहॉ पड़े रहने के कारण या शायद पसीने में भीगते रहने के कारण या शायद बारिश में बार बार भीग जाने के कारण या शायद तीनों या इनमें से किसी एक कारण से अजीब तरह से घिस चुका था। उसकी त्वचा जगह जगह से निकल गयी थी और असके भीतर का हल्का मटमैला भूरापन प्रकट हो गया था। उसी के साथ तम्बाकू का एक पॉउच भी बरामद हुआ और एक सेल फोन भी। पॉउच जितना चमक रहा था, सेल फोन उतना ही निस्तेज था। उसकी बटन की जगह उचड़ गयी थी और उसके स्टील के शरीर को आसानी से पहचाना जा सकता था।
''हूं, तो ये भी।" सिपाही ने पिद्दी लड़के की तरफ ऐसे देखा मानो यह छोटा सा पाउच और यह सेल फोन बड़ी बड़ी गुनहगार शौकों का प्रमाण हो।
सिपाही ने जब उस भूरे रंग के घिसे हुए वॉलेट में अपनी अंगुलियॉ फॅसायीं तो लगा कि वॉलेट फट जायेगा। वॉलेट के फटने की गुंजाइश के साथ ही पिद्दी लड़का तड़प उठा-
'' साहब, मेरी गलती नहीं है। इसे मत लो।"
''चुप बे। चोरी और सीनाजोरी।"
सिपाही ने उसमें से गीली सीली सी जो नोटें निकालीं, वे कुल मिला कर दो सौ पॉच हुयीं।
''लो जी।" कहते हुए सौ रूपये सिपाही ने आटे की लोई जैसी हथेली पर इत्मीनान से छूते हुए रखा, जैसे कहा हो 'तुझे तो मैं देख लूंगा।’
औरत ने भी झट से पैसे अपने छोटे से पर्स में डाले, जो लड़के के वॉलेट से थोड़ा गनीमत हालत में था। फिर उसने मुंह बनाया, जैसे कहा हो 'तेरे जैसे बड़े देखे।’
सेल फोन के साथ बाकी की नोट सिपाही ने अपने खाकी पैंट के पीछे पुट्ठे की पॉकेट में खोंस दिया।
भूरे रंग के उस वॉलेट को सिपाही ने घृणा के साथ नीचे गिर जाने दिया।
''चलो, चलो, जाओ, जाओ।" कह कर वह अपने भूतपूर्व जवान चेहरे के साथ हॅसा।
''थाने आ जइयो।"" सिपाही ने डंडा अपने हाथ पर बजाते हुए लड़के से कहा।
लड़का कुछ गुस्से से, कुछ घृणा और कुछ दुख से घूरता खड़ा रहा।
अपने आटे की लोई जैसे गोरे चेहरे और रंग रोगन से काले किए बालों और माटापे के साथ थोड़ा सा विजय का गर्व मिला कर औरत मुड़ी। गाड़ियॉ चल पड़ीं। भीड़ गतिमान हो गयी। लोग अपनी अपनी तरह से अपनी अपनी जल्दबाजी के भीतर चले गए। पिचके हुए गालों वाला बूढ़ा आदमी आसमानी स्कूटर पर ड्राइवर की तरह बैठ गया। औरत घोड़े पर चढ़ कर उसके पीछे बैठी।
अस्पताल के पास पॅहुच कर औरत आसमानी रंग के जहाज से उतरी।
'' हम उनसे तो लड़ नहीं पाते। गाड़ीवालों से।" तब बूढ़े ने धीरे से कहा।
बूढ़े की तरफ देख कर नरम आवाज में औरत बोली-''बूढ़ा हो गया है, संभल कर चला कर। रोज कहॉ तक बचाउंगी तुझे। उस बेचारे लड़के की जेब बेवजह खाली करा दिया। गलती तेरी, भुगते दूसरे।"
''जिससे लड़ पायेंगे, उसी से तो लड़ेंगे।"
औरत ने फिर कहा और अपने छोटे सस्ते से पर्स से पचास की नोट निकाल कर बुडढे की हल्की धारीदार हल्की पीली बुशर्ट की पॉकेट में डाला और मुड़ कर अस्पताल के गेट के अंदर चली गयी।
संवेदना पर लिखा जा रहा गल्प बीच-बीच में जारी रहेगा। संस्था से समय बे समय जुडे रहे अन्य रचनाकार भी संभवत: इसमें शिरकत करें। |
Saturday, September 13, 2008
एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए
देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में कुछ सिलसिलेवार लिखने का मन है। |
विजय गौड
संवेदना का झीना परदा हटाते हुए दिखायी देती उस दीवार के रंग को छुओ, जो इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं, तो उसकी खुरदरी सतह पर जिन उंगलियों के निशान दिखायी देगें, उनमें न सिर्फ देहरादून के साहित्य जगत का अक्स होगा बल्कि हिन्दी साहित्य में अपनी उपस्थिति के साथ दर्ज आप कुछ ऐसे साथियों को पायेगें जिन्हें जब भी पढ़ेगें तो एक बहुत सुरीली सी आवाज में सरसराता चीड़ के पेड़ों का संगीत शायद सुन पायें। यह अपने जनपद से लगाव के कारण अतिरिक्त कथन, कतई नहीं है।
पिछले 20 वर्षों से माह के प्रथम रविवार को होने वाली बैठक संवेदना का स्थायी भाव है। यूं संवेदना के गठन को चीन्हते हुए उसकी उम्र का हिसाब जोड़े तो कुछ ऐसे ब्यौरों को खंगालना होगा जो अपने साथ देहरादून के इतिहास की अडडेबाजी के शुरुआती दौर का इतिहास बेशक न हो पर उस जैसा ही कुछ होगा। डिलाईट जो आज तमाम खदबदाते लोगों का अडडा है, संवेदना के गठन के उन आरंम्भिक दिनों की शुरुआत ही है। संवेदना के इतिहास को जानना चाहूं तो डिलाईट जा कर नहीं जान सकता। डिलाईट में बैठने वाले वे जो अडडे बाज हैं, दुनियावी हलचलों के साथ है, साहित्य उन्हें बौद्धिक जुगाली जैसा ही कुछ लगता है। हां, देहरादून के राजनैतिक इतिहास और समकालीन राजनीति पर बातचीत करनी हो तो जितनी विश्वसनीय जानकारी उन अडडे बाजों के पास हो सकती है वैसी किसी दूसरे पर नहीं। तो फिर संवेदना के इतिहास के बारे में किससे पूछूं ?
कोई होगा, कहेगा कि उस वक्त जब देश बंधु जीवित था। देश बंधु को नहीं जानते! उसे आश्चर्य होगा देशबंधु के बारे में आपके पास कोई जानकारी नहीं।
अरे! वह एक युवा कहानीकार था। बहुत कम उम्र में ही चला गया। अवधेश कुमार चौथे सप्तक के कवि थे पर वे भी शायद उसके बाद ही चौथे सप्तक के रुप में जाने गये। देश बंधु और अवधेश में से कौन पहले छपने लगा था - इस पर कोई विवाद नहीं पर इस बात को स्पष्ट करने वाला कोई न कोई आपको या तो संवेदना में मिल जायेगा या डी लाईट में नही तो देहरादून रंगकर्मियों के बीच तो होगा ही।
संवेदना का इतिहास लिखना चाहूं तो बिना किसी से पूछे बगैर नहीं लिख सकता। पर पूछूं किससे ? फिर कौन है जो दर्ज न हो पाये इतिहस को तिथि दर तिथि ही बता पाये। पिछले बीस सालों का विवरण तो रजिस्टरों में दर्ज है। पर उससे पहले ! इतिहास लिखना मेरा उद्देश्य भी नहीं। यह तो एक गल्प है जो सुनी गयी,देखी और जी गई बातों के ब्यौरे से है। बातों के सिलसिले में ढूंढ पाया हूं कि 1972-73 के आस पास गठित संवेदना और उसकी बैठके 1975-76 के आस पास कथाकार सुभाष पंत के अस्वस्थ होकर सेनोटोरियम में चले जाने के बाद जारी न रह पायीं। देहरादून के लिक्खाड़ सुरेश उनियाल, धीरेन्द्र अस्थाना भी रोजी रोटी के जुगाड़ में देहरादून छोड़ चुके थे। नवीन नौटियाल की सक्रियता पत्रकारिता में बढ़ती गयी थी। अवधेश कुमार कविताऐं लिखने के साथ-साथ नाटकों की दुनिया में ज्यादा समय देने लगे थे।
उस दौर के कला साहित्य और सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष से जुडे किसी बुजुर्गवार से पूछूं तो कहेगा कि संवेदना का गठन उस वक्त हुआ था जब देश बंधु मौजूद था। नहीं यार, देशबंधु तो बहुत बाद में कहानीकार कहलाया। "दूध का दाम" सुभाष पंत की पहली कहानी थी जो सारिका में छप चुकी थी। कहानी की स्वीकृति पर कथाकार कमलेश्वर जी के पत्र को लेकर जब वे डिलाईट में पहुंचे थे तो शहर के लिक्खाड़ नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार उस पत्र को देखकर चौंके थे। एक दोस्ताना प्रतिद्वंदिता ने उन्हें जकड़ लिया था। वे स्थापित लेखक थे। हर अर्थ में लेखक होने की शर्त को पूरा करते हुए। वे अडडेबाज थे। घंटों-घंटों 23 नम्बर की चाय पीते हुए दुनिया जहान के विषयों से टकरा सकते थे। समकालीन लेखन से अपने को ताजा बनाये रखते थे। शहर के लिखने, पढ़ने और दूसरे ऐसे ही कामों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं से उनका दोस्ताना था। जबकि सुभाष पंत तो एक गुडडी-गुडडी बाबू मोशाय थे। सरकारी मुलाजिम भी। लेखक बनने की संभावना अपनी गृहस्थी और दूसरी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ निभाते हुए। ऐसे शख्स से वे युवा लिक्खाड़ पहले परिचित ही न थे। तो चौंकना तो स्वाभाविक था। क्यों कि वह गुडडी-गुडडी सा शख्स उन्हें उस सम्पादक का खत दिखा रहा था जिसमें प्रकाशित होने की आस संजायें वे भी तो लिख रहे थे।
---जारी
Monday, September 8, 2008
संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - सितम्बर 2008
दिनांक 7।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून के पुस्तकालय में सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक गोष्ठी में हाल ही में दिवंगत हुए कवि वेणु गोपाल का स्मरण करते हुए देहरादून के रचनाकारों ने उनके कृतित्व और उनके व्यक्तित्व के संबंध में चर्चा की। कथाकार सुभाष पंत ने हिन्दी में क्रांतिकारी धारा के कवि वेणु गोपाल की इस विशेषता को याद को याद किया कि वेणु गोपाल ने अपने ही सरीखे समकालीन कवियों के साथ हिन्दी कविता को अकविता से कविता की ओर लौटाया है। क्रांतिकारी राजनैतिक आंदोलन के बीच कवि वेणु गोपाल की सकारत्मक उपस्थिति भी रचनाकारों की बातचीत को हिस्सा रही। गोष्ठी में उपस्थित कथाकार दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, एस0पी0सेमवाल, विद्या सिंह नवीन नैथानी कवि प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, डॉ अतुल शर्मा, राजेश पाल,रामभरत पत्रकार सुनीता, कीर्ति सुन्द्रियाल के अलावा पुनीत कोहली, विजय गौड़ आदि ने चर्चा मे हिस्सेदारी की। प्रेम साहिल, जयंति सिजवाली, मदन शर्मा एवं दिनेश चंद्र जोशी ने अपनी रचनाओं के पाठ किए।
Tuesday, August 26, 2008
महमूद दरवेश की कविताएं
महमूद दरवेश
बहुत बोलता हूं मैं
बहुत बोलता हूं मैं
स्त्रियों और वृक्षों के बीच के सुक्ष्म भेदों के बारे में
धरती के सम्मोहन के बारे में
और ऐसे देश के बारे में
नहीं है जिसकी अपनी मोहर पासपोर्ट पर लगने को
पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसे आप कह रहे है-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?
यदि सचमुच ऐसा है
तो कहां है मेरा घर-
मेहरबानी करे मुझे मेरा ठिकाना तो बता दे आप !
सम्मेलन में शामिल सब लोग
अनवरत करतल ध्वनि करते रहे अगले तीन मिनट तक-
आजादी और पहचान के बहुमूल्य तीन मिनट!
फिर सम्मेलन मुहर लगाता है लौट कर अपने घर जाने के हमारे अधिकार पर
जैसे चूजों और घोड़ों का अधिकार है
शिला से निर्मित स्वपन में लौट जाने का।
मैं वहां उपस्थित सभी लोगों से मिलाते हुए हाथ
एक एक करके
झुक कर सलाम करते हुए सबको-
फिर शुरु कर देता हूं अपनी यात्रा
जहां देना है नया व्याख्यान
कि क्या होता है अंतर बरसात और मृग मरीचिका के बीच
वहां भी पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसा आप कह रहे हैं-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?
शब्द
जब मेरे शब्द बने गेहूं
मैं बन गया धरती।
जब मेरे शब्द बने क्रोध
मैं बन गया बवंडर।
जब मेरे श्ब्द बने चट्टान
मैं बन गया नदी।
जब मेरे श्ब्द बन गये शहद
मक्खियों ने ले लिए कब्जे मे मेरे होंठ
मरना
दोस्तों आप उस तरह तो न मरिए
जैसे मरते रहे हैं अब तक
मेरी बिनती है- अभी न मरें
एक साल तो रुक जाऐं मेरे लिए
एक साल
केवल एक साल और-
फिर हम साथ साथ सड़क पर चलते हुए
अपनी तमाम बातें करेगें एक दूसरे से
समय और इश्तहारों की पहुंच से परे-
कबरें तलाशने और शोकगीत रचने के अलावा
हमारे सामने अभी पढ़े हैं
अन्य बहुतेरे काम।
अनुवाद:- यादवेन्द्र