Monday, December 25, 2017

दलित साहित्य सिर्फ संज्ञा नहीं, नये सौन्दर्यशास्त्र की स्पष्ट धमक हो

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



बहस तीखी हो चुकी थी। पहुंचे हुए अतिथि शायद जान ही चुके होंगे कि जो व्‍यक्ति अभी उनसे मुखातिब है उससे पार पाना आसान नहीं। वह तकरार नहीं, बहस थी और सामने वाले निरुत्‍तर।  

उस वक्‍त आपकी लड़ाई दलित साहित्‍य संज्ञा की नहीं, बल्कि उस चेतना की थी जिसमें दलितों को किसी भी अवसर से वंचित कर दिए जाने वाली मानसिकता से विरोध था। आप अपनी कविता के हवाले से कह ही सकते थे,

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।
एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।

लेकिन अतिथि के निवेदन पर भी आप कविता सुनाने को इच्‍छुक नहीं थे। यह आपकी फितरत भी तो नहीं थी कि सामने वाले को किसी भी तरह से प्रभावित करके अपने लिए एक सुगम रास्‍ता बना लें। यदि ऐसा किया होता तो फिर हो सकता है कि आपके नाम में ‘वाल्‍मीकि’ शब्‍द की जो अनुगूंज सुनाई देती है, उसे सुनना शायद ही मुमकिन हुआ होता। हो सकता है, हम सिर्फ किसी ओमप्रकाश को ही जानते। या फिर किसी ओमप्रकाश ‘खैरवाल’ को। यही तो था न आपके उस गोत्र का नाम जिसे चंदा भाभी अपने नाम के साथ इस्‍तेमाल कर लेती थी। चंदा खैरवाल। और आपसे भी जिक्र करती थी कि अपने नाम से वाल्‍मीकि हटाकर खैरवाल लिखे। कई बार मुझे भी सुननी पड़ी लताड़, ‘’ओए वाल्‍मीकियों हटो यहां से, मुझे बिस्‍तर उठाने दो। जाओ तब तक छत में जाके बैठो या निकलो यहां से, मुझे साफ-सफाई करनी है घर की।‘’ 

बहुत सामान्‍य सी बातों में भी उनके व्‍यंग्‍य में छुपी वेदना छलक ही आती थी। उनके घर साफ करने तक हम दोनों ही चुपचाप सड़क पर निकल आते थे। लेकिन आप उनके उस स्‍नेहपूर्ण व्‍यंग्‍यात्‍मक आग्रहों के आगे भी खुद को टूटने से बचाते रहे और अपने नाम के साथ जुड़े उस वाल्‍‍मीकि शब्‍द को बचाए रखते रहे। आपका सीधा सा तर्क था। जो आज वाल्‍मीकि से खैरवाल लिख दिया तो मालूम नहीं बाद में वह खैरवाल भी कभी अपनी ‘वाल’ को भी जुदा कर दे। ‘खैर’, ‘खुरी’, ‘खरे’ जैसे किसी सामाजिक रूप से ‘प्रतिष्ठित’ संज्ञा में बदल जाए। आपने उन ‘दुनियादार’ किस्‍म के लोगों की भी परवाह नहीं कि जो  आपका एक आकलन तो नाम सुनकर ही कर लेने के दुराग्रह के साथ थे। उन दुराग्रह से ग्रसित लोगों को ही तो संबोधित रही आपके कवि की आवाज। उन्‍हें ही तो लताड़ लगाती हुई है आपकी कविता। राजेन्‍द्र यादव से आप लड़ रहे थे और मानते थे कि वे वैसे दुराग्रही व्‍यक्ति नहीं है। क्‍या इस कारण ही तो कहीं आपने उनके अनुरोध पर भी कविता सुनाना उचित न समझा हो ?
आपका रोष किसी अवसर को चुरा लेने का नहीं था। वह आपकी फितरत की स्‍वभाविकता में था। लेकिन राजेन्‍द्र यादव तो उसमें एक दलित का आक्रोश देख रहे थे। इस मायने में उन्‍हें युगदृष्‍टा कहना ही पड़ेगा। वरना ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशित होते हुए भी हम उस पुस्‍तक को दलित साहित्‍य की पुस्‍तक कहां कह पाए थे। अन्‍य कविता पुस्‍तकों की तरह वह भी मात्र एक कविता पुस्‍तक की तरह ही छपी थी। नेहरूयुवक केन्‍द्र के बगीचे में बैठकर उन कविताओं को भी तो दूसरी समकालीन कविताओं की तरह से परखने की कोशिश की गई थी। बाद के दौर में तो जब आप लगातार पत्रिकाओं में मौजूद रहने के चलते आत्‍मविश्‍वास महससू करने लगे तो आपने इस बात को जरूरी तौर पर रखना शुरु किया था कि दलित साहित्‍य के मूल्‍यांकन का पैमाना पहले से चले आ रहे सौन्‍दर्यशास्‍त्र से संभव नहीं। आपकी पुस्‍तक ‘दलित साहित्‍य का सैन्‍दर्यशास्‍त्र’ इस बात की गवाह है कि आप एक नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचना चाहते थे। उस पुस्‍तक में तो आपने कुछ प्रारम्भिक बातें ही की। भविष्‍य में संभव होता कि आप कुछ निश्चित अवधारणओं तक पहुंचते। पर कम्‍बखत समय ने हमें भी वंचित कर दिया उससे।
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  स्‍मृति

Sunday, December 17, 2017

कुछ संस्कारित फुसफसाहटें

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



     निश्चित ही उस दिन ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद जी ने जान ही लिया होगा कि अजीब अहमकों का शहर है देहरादून, अतिथियों के आगमन को स्‍वीकार लेने ;से अनुग्रहित होने की बजाय, हर व्‍यक्ति अपनी ही तरह की अकड़ में रहे। घीसू-माधव की अकड़ को भी क्‍या अकड़ कहा जा सकता है ?
गए तो थे ऋषिकेश इसलिए कि अतिथियों को लिवा लाएंगे, पर लौटे ऐसे, मानो पहुंचने वाले उन्‍हें ही उनके शहर पहुंचाने आए हों। एक ड्राइवर के अलावा तीन व्‍यक्ति जब पहले से गाड़ी में हों तो उसी में ठुंस कर चले आने वाले घीसू-माधव के बारे में क्‍या कहा जाए भला। ऊपर से तुर्रा यह कि अतिथियों को कहां रुकवाना है, इस तक का भी कोई इंतजाम नहीं। अतिथियों को इच्‍छा जाहिर करनी पड़ रही हो कि जहां गोष्‍ठी रखी है, पहले वहीं चलते हैं, तो दोनों मेजबान हंसते है अपनी तरह। भोलेपन की मुस्कियों भरी विलम्बित लय में अवधेश और ठहाक भरे अंदाज में ताल की संगत देते हुए नवीन।  भला हो हम्‍माद जी का, यमुना भवन  का गेस्‍ट हाऊस खुलवा दिया। 
शाम घिर चुकी थी। कमरा खुल गया था। ‘टिप टॉप’ में खबर पहुंचा दी गई, सभी ‘टंटे’ यमुना कालोनी पहुंचे। आज की शाम रंगीन है। भाई जितेन ठाकुर को जिम्‍मेदारी तो पहले ही सौंपे हुए थे कि फौजी कैं‍टीन का जुगाड़ रखेंभाई।   जिन्‍हें खबर हुई, वे पहुंच गए। जिन तक खबर नहीं पहुंची, वे नहीं पहुंचे। आने वाले आए और अपने-अपने गिलास थाम कर बैठते गए। एक पत्रिका का संपादक सामने हो और शहर के अनाम लेखक अपनी रचना पढ़ने का उतावले न हों, यही अंदाज तो है देहरादून की गोष्ठियों का। आप मुझसे बेहतर जानते हैं, दून के बाशिंदे सुनाने में नहीं, सुनने में यकीन करते हैं। विद्धानों को सुनने का अवसर जुटाने के लिए गोष्‍ठी करते हैं।         
यमुना भवन की वही गोष्‍ठी थी जिसमें आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव से सीधे सीधे तकरार शुरू कर दी थी। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों के रूप में शायद राजेन्‍द्र यादव कुछ ही नामों से परिचित थे। मुख्‍य तौर पर सुभाष पंत, जितेन ठाकुर और अवधेश। नये लिखने वालों में नवीन नैथानी के बारे में भी उनकी कुछ राय बनने लगी थी। शायद, अपने मन की कोई ऐसी ही बात उन्‍होंने जाहिर कर भी दी थी। बस, वहीं वे फंस चुके थे। हिंदी साहित्‍य की दुनिया कैसे तथा‍कथित केन्‍द्रों  में तक अपना घेरा बनाए रहती है और कैसे गिरोहबाज लोग, छोटे शहरों की पहुंच को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देते, जैसे विषय की जो परिणति आपकी उपस्थिति से जन्‍म ले सकती थी, आखिर वही हुआ। आपने तो अन्‍य मामालों में भी वंचनाओं की जो पीड़ा भोगी थी, उसका तार आखिर समाज को वंचित बनाए रखने वाले जाल को क्‍यों न भेदता भला। आपके कहे के आशयों को तजुर्मा करूं तो शायद उन बातों को रख पाना आसान हो कि राजेन्‍द्र यादव जी ने जो सुना, उसके अर्थ क्‍या लिए होंगे। निश्चित ही उन्‍हें अहसास हो गया होगा कि हिंदी के हम स्‍थापितों ने जो कुछ माहौल रचा हुआ है, उसके कारण हिंदी की दुनिया के अनुभवों का दायरा इकहरा है। वंचितों के प्रति संवेदनशीलता तो हमने बहुत प्रकट की है, लेकिन उस तबके के व्‍यक्ति के भीतर जो गुस्‍सा है, वह तो कहीं आया ही नहीं है। आप उस गोष्‍ठी में हो रही बातचीत का केन्‍द्र हो चुके थे।
काश, कि उस दिन नाटक की रिहर्सल में व्‍यस्‍त न होने की वजह से मैं भी उस गोष्‍ठी में होता। जो कुछ घटा, उसे बाद के दिनों में मित्रों से सुनकर जानने की बजाय साक्षात महसूस करता। आपसे कहूं कि यदि मैं वहां रहा होता तो उस वक्‍त अपने दूसरे साथियों के भीतर आपको लेकर जो गुस्‍सा फूट रहा होता, उसे भी बयान कर ही पाता। ‘शाम का मजा’ खराब हो जाने की वजह से उनके भीतर फूटने वाला गुस्‍सा कुछ इस की ‘संस्‍कारित फुसफसाहटों’ में ही होता कि वाल्‍मीकि तो यहां भी अपना ही राग लेकर बैठ गया, एक ही तो विषय है इसके पास। ऐसी गुनगुनाहटें मैं पहले भी और बाद बाद में भी कभी कभार सुनता ही रहा हूं। आपके न होने पर ताने मुझे ही झेलने पड़े हैं। मेरे सामने कह देने पर शायद वे मुझे अपने बीच का ही मानकर ऐसा कह पा रहे होते थे। यह बात मैंने आपको पहले कभी नहीं बतायी तो सिर्फ इसलिए कि आपके अंदाज में बढ़ जाने वाली तकरार हमारी सामूहिक दोस्तियों के लिए ठीक नहीं रहती, यह मेरी आशंका भर नहीं थी, आप जानते हैं एक दिन आप हरजीत पर कैसे चढ़ बैठे थे जब एक पोस्‍टर बनाकर उसने टिप टॉप में टांगा था जिसमें किसी अभिव्‍यक्ति (अभी याद नहीं कि किस विषय पर ) को प्रयुक्‍त हुए ‘भंगिमा’ शब्‍द को उसने कुछ इस अंदाज में लिखा था- भंगी-मां। आपके गुस्‍सा ऐसा फूटा था कि सिक्‍ख धर्म को अंगीकार करने वाले ज्‍यादातर लोग दलित जातियों से हैं, ऐसा उस दिन ही, पहली बार मुझे मालूम हुआ था। क्‍योंकि आपने हरजीत को कुछ इसी तरह की बातों से लताड़ा था और हरजीत को उसके पुश्‍तैनी कारोबार- ‘बढ़ई’ की याद दिलायी थी। आपके गुस्‍से में तो दूसरे दोस्‍त भी ब्राहमणवादी करार दे दिए जाते। जबकि मैं उनके बारे में भी जानता था कि ब्राहमण का ‘ब्रहम’ भी उनकी प्रेरणा कभी नहीं रहा। हां, संस्‍कारों से मिली शिक्षा के असर में वे कई बार ऐसी टिप्‍पणियों को कर जाते थे, जिन्‍हें वे खुद भी सही नहीं मानते रहे।
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Thursday, December 7, 2017

सेक्स और जनवाद को खदेड़ती लड़कियां

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति


कौन जानता है कि कब किसका हंसना, बोलना, उठना, बैठना, रूठना, मनाना जैसा तात्‍कालिक भाव, भविष्‍य में जिक्र के साथ व्‍यक्तित्‍व का स्‍थायी मामला जैसा दिखने लगे। घीसू, माधव भी कहां जानते थे कि उनकी हरकतें इतिहास की किसी ऐसी कथा का हिस्‍सा हो जाएंगी जिसमें हिंदी का दलित साहित्‍य जन्‍म लेगा। मैं कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के पात्र घीसू, माधव की बात नहीं कर रहा। अपने ही तरह के उन दो इंसानों की बात कर रहा जिनके भोलेपन में भी कितनी ही गंभीर हरकतें शामिल रहती थी। शाम होते ही जिन्‍हें कुलबुलाने का रोग था और अपनी उस कुलबुलाहट में ही अक्‍सर वे गैरजिम्‍मेदार नजर आने लगते है। रहे होंगे कभी हरजीत और अवधेश बहुत करीब। रहा होगा कभी अरविन्‍द इस तिकड़ी का एकमात्र संयोजक। पर उस वक्‍त तो जो जोड़ी सबसे ज्‍यादा अराजक कहलायी जा रही थी वह अवधेश जी और नवीन भाई की थी। ऐसे ही तो नहीं पडा था दोनों का नाम घीसू-माधव।  पर कौन घीसू, और कौन माधव ? इस प्रश्‍न से कभी कोई नहीं उलझा। आप भी तो नहीं उलझे न भाई साहब (वाल्‍मीकि जी) ।

याद होगा आपको एक दिन पहले ही टिप-टॉप की बैठक में घीसू-माधव ने सूचना दे दी थी कि आने वाले कल की शाम सारे ‘टंटे’ टिप-टॉप में जमा हों। याद नहीं आ रहा कि किसी भी बात को पोस्‍टर बनाकर टांग देने वाले हरजीत ने ऐसी कोई सूचना सार्वजनिक कर दी थी या नहीं कि ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद को ऋषिकेश आना है। प्रियवंद जी शायद कोई मकान खरीदना चाहते थे ऋषिकेश में । वह मकान शायद लेखक गीतेश शर्मा जी का था, जो कलकत्‍ता में रहते थे। बहुत निश्चित होकर नहीं कह पा रहा कि मकान किसका था। पर सुना था कि वह ऐसा मकान है जिसका मुंह गंगा की ओर खुलता है और प्रियवंद जी को संगमन के काम के लिए उपयुक्‍त लगा है। मालूम नहीं उस मामले का क्‍या हुआ होगा। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों की जमात तीनों ही लेखकों के लेखन और नाम से परिचित थी लेकिन व्‍यक्तिगत परिचय का दायरा घीसू और माधव का ही था। अवधेश एक स्‍थापित कवि थे। अज्ञेय जी के द्वारा संपादित चौथे सप्‍तक के कवि और आर्टिस्‍ट के नाते उनका एक नाम था। पुरानी पीढ़ी के सुभाष पंत जी के अलावा दून की नयी पीढ़ी में जितेन ठाकुर के बाद नवीन भाई की कहानियां उस समय की दो स्‍थापित पत्रिकाओं ‘हंस’ एवं ‘सारिका’ में  प्रकाशित होने लगी थी जिसके कारण नवीन जितेन जी की तरह ही, अब कवि की बजाय कहानीकार नवीन नैथानी की पहचान को प्राप्‍त होने लगे थे। ‘चढाई’ उनकी पहली कहानी थी जो संभवत: 1989 दिसम्‍बर के ‘हंस’ में छपी थी और ‘हंस’ के उस अंक की यादाश्‍त हम दूनवासियों के लिए ‘चढ़ाई’ की बजाय उसी अंक में प्रकाशित आलोकधन्‍वा जी की कविताओं ‘पतंग’ और ‘भागी हुई लड़कियां’ ही रही। पूरे शहर के एक-एक व्‍यक्ति को न जाने कितनी कितनी बार उन कविताओं को सुनना पड़ा। ‘हंस’ नवीन भाई के थैले में होता था और मोका मिलते ही वे कविताएं पढ़ने लगते थे। यदि कविताओं के पाठ लयात्‍मक आवाज में न किये गये होते तो स्‍पष्‍ट जानिये देहरादून का हर बाशिंदा उस कवि आलोकधन्‍वा का दुश्‍मन हो गया होता जिसकी कविताओं को उन्‍हें सजा की हद तक सुनना पड़ रहा था। यह कहना शायद अति‍शयोक्ति न हो कि उन कतिवाओं के बाद हिन्‍दी की दुनिया में, शुरूआत में कविताओं में और बाद में कहानियों में भी, जिस तेजी से भागती हुई लड़कियां प्रवेश करने लगी, उसका कारण नवीन भाई के पाठ ही रहे होंगे। आलोक धन्‍वा की उन कविताओं का स्‍वर- ‘आकाश का नरम और मुलायम बनाते हुए कि बांस की सबसे पतली कमानी उड़ सके, दुनिया का सबसे पतसे पतला और रंगीन कागज उड़ सके और शुरू हो सके रोटियों किलकारियों की एक नाजुक दुनिया’ उस समय तक ‘हंस’ में जारी ‘सेक्‍स और जनवाद’ की बहस के लफंगेपन को भी भगा देने में प्रभावी हो रही थी। हालांकि आप भी जानते हैं एक संस्‍थानिक प्रदूषण का मुकाबला कोई एक अकेली कविता कब तक कर सकती है। ‘हसं’ की लफंगई के प्रभाव तो इतने गहरे रहे कि चाचियों, मामियो, बहनों की छातियों पर चढ़कर साइकिल चलाने वाली कहानियों से ही हिंदी कहानी को युवा मानने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा। यहां तक कि वैचारिक शालीनता का जामा पहनकर निकलने वाली ‘पहल’ भी उसके प्रभाव से मुक्‍त नहीं रह सकी और अपना ऐसा युवा खोजने लगी जो रक्‍त संबंधों से बचते हुए पड़ोस की आंटियों की बेटियों के भागने में स्‍त्री विमर्श का नया पाठ रचे। ‘पहल’ के युवा के लिए जरूरी था कि अन्‍य युवाओं से हर मायने में जुदा हो और उस जुदापन में ही ‘पहल’ अपने प्रभाव की वैचारिकता को विदेशी रचनाओं के अनुवाद वाली उदारता में छुपा सकता था।


  स्‍मृति

Friday, December 1, 2017

वह गुस्ताख मिज़ाज



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

जब चारों ओर उथल-पुथल मची हो। दिग्‍भ्रम की सी स्थिति हो, संकट- मौत की ओर धकेलने वाली स्थितियों भर का ही नहीं, निर्मम तरह से किये जाने वाले वार और तड़फडते जिस्‍म के साथ पाश्विक हिंसा का डर फैलाते हुए भी खड़ा हो,
मनुष्‍य विरोधि ताकतें आक्रमकता का ताण्‍डव रचते हुए लगातार ताकतवर होती जा रही हों, तो ऐसे में मित्र और शत्रु की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। हो सकता है, वह आपका मित्र ही हो जिसने खुद की जान बचाने के लिए कोई ऐसी हरकत कर दी हो जिससे आपकी जान सासत में पड़ गयी। या, शत्रु ही हो, चाहता हो कि आप मुसिबत में फंस जाएं, लेकिन उसके रचे गये प्रपंच ने आपको पहले से थोड़ा लाभ की स्थिति में पहुंचाने में मदद कर दी हो। ऐसे में दोस्‍त और दुश्‍मन की पहचान कैसे करेंग। क्‍या इसे वैज्ञानिक समझदारी कही जाएगी कि आप प्राप्‍त परिणाम के आधार पर मित्र और शत्रु की पहचान कर लें ? यह विज्ञान की यांत्रिक परिभाषा ही होगी जिसके आधार पर तर्क रखा जाएगा कि प्रयोगों से प्राप्‍त परिणामों की सत्‍यतता की बारम्‍बारता से ही कोई व्‍यवहार सिद्धांत हो जाता है।

धर्म को लेकर सवाल खड़े हो तो न जाने कितने समान वैचारिक मित्र भी ऐसे ही यांत्रिकता के साथ भिन्‍न राय रखते हैं। यहांवहां से, जाने कहां कहां से कितने ही हवाले गिनाते हुए धर्म को एक पद्धति और जनता की आंकांक्षाओं को सहारा- देने , यह वालभी कहते हुए कि चाहे झूठा ही सही, जैसी बातें करने लगते हैं।  

आपकी स्‍मृतियां इन स्थितियों से उबरने का रास्‍ता सुझा रही हैं। जिदद की हद तक अपने तर्क के पक्ष में खड़े रहने वाला आपका बौद्धिक साहस हिम्‍मत बंधाता है। आपकी स्‍मृति के हवाले से ही कह सकता हूं कि ऐसे में जरूरी हो जाता है कि खूब तेज आवाजों में बोला जाए- जो भी बोलना हो। कहीं ऐसा न हो कि कानाफूसी आपको संदिग्‍ध बना दे। तेज आवाजों में रखा गया आपका पक्ष बेशक आपके भीतर के अन्‍तरविरोधों को भी छुपने न दे। लेकिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता का दिखावा करना छोड़ दे।

आपने यदि विरोध को उस दिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता में रखा होता तो आपके भीतर की आग से कैसे तो राजेन्‍द्र यादव भी वाकिफ हो पाते! हिंदी में दलित साहित्‍य की संज्ञा तो तब थी ही नहीं और आप अपनी कविताओं के पक्ष में वैसे ही तर्क दे रहे थे, जो स्‍थापित नहीं था। आपमें खुद के भीतर को रख देने का जो बौद्धिक साहस था, उसके कारण ही न सिर्फ राजेन्‍द्र यादव बल्कि हिन्‍दी की दुनिया जान पायी थी अम्‍बेडकर सिर्फ एक संविधान निर्माता नहीं बल्कि एक ज्‍योतिपुंज है इस देश के दलित शोषितों के लिए ।

उस रोज ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव अचानक से देहरादून पहुंचे थे। गिररिराज किशोर, प्रियंवद और राजेन्‍द्र यादव के लिए बिना पहले से की गई व्‍यवस्‍था के बावजूद रात भर की शरण के नाम जुटा ली गयी यमुना कालोनी गेस्‍ट हाऊस की शाम थी। इस किस्‍से को यदि किस्‍से को वास्‍तविक रूप से बुनने वाला और सचमुच का किस्‍सागो, नवीन ही यदि कहे तो मेरा पक्‍का यकीन है कि अंधियारी शाम, नहीं जाति और धर्म को एक पद्धति मानने वाली धूल से फैलता अंधकार, कम से कम उन लोगों को जरूर ही बाहर निकलने में मददगार होगा जो बदलाव की बात करना शौक के तौर पर नहीं, जरूरी कार्रवाई के रूप में देखते हैं। वरना हकीकत तो यह है कि देहरादून में किसका परिचय था राजेन्‍द्र यादव से, प्रियंवद से या गिरिराज जी से ही। अवधेश और नवीन ही तो थे उस गोष्‍ठी के सूत्रधार।

अजीब अहमकों का शहर है यूं भी देहरादून, जिन्‍हें अवसरों की ताक में डोलते हुए कोई नहीं पाएगा। इस शहर के बाशिंदें की पहचान का एक सिरा इस मिजाज से भी पकड़ा जा सकता है कि अवसर के होते हुए भी संकोची बना दिखेगा। अतिमहत्‍वाकांक्षा तो दूर की बात महत्‍वाकांक्षा की डालों पर भी झूला डालने से बचेगा। बिना बड़बोलेपन के खामोशी से अपने में जुटा रहेगा। लेकिन भूल न करे कि यहां बाशिंदा मतलब इतना भर नहीं कि जो देहरादून में ही रहता हो। जी नहीं, देहरादून में रहने वाले तो बहुत से हैं लगातार के ‘खबरी’। ऐसे समझे कि जैसे जयपुर में रहते हुए भी अरूण कुमार ‘असफल’ देहरादून का बाशिंदा ही बना रहा। ये न मानिये कि मैं यह बात इसलिए कह रहा कि अरूण चूंकि जयपुर से लौटकर दुबारा से देहरादून में रहने लगा है और अब सचमुच का बाशिंदा हो गया है। लौटकर तो जबलपुर से आप भी आए थे देहरादून पर मैं ही नहीं दूसरे साथी भी बता सकते हैं कि आप अपना देहरादून खो कर ही लौटे थे। हां, फिर से बांशिदा हो जाने के कारण उम्‍मीद बनने लगी थी कि आप अपना देहरादून पा लेंगे। लेकिन  उसका वक्‍त ही नहीं मिला आपको।  कोई यह भी कह सकता है कि अरूण तो गोरखपुर का मूल बाशिंदा है, फिर उसके भीर तो है वह गोरखपुर की विशेषता ही हुई। इस बात से मेरी असहमति नहीं कि गोरखपुर में भी देहरादूनिये रहते हों। किसी दूसरे शहर में भी हो सकते हैं। अभी यदि आप दिल्‍ली में हो तो राजेश सेमवाल से मिल लें। जान जाएंगे की गजब की सौम्‍यता के बावजूद एक गुस्‍ताख किस्‍म की अकड़ है बंदें में। लिजलिजापन तो कोसों दूर की बात। लम्‍बे समय से दिल्‍ली में रहने वाले सुरेश उनियाल या हमेशा बाहर ही बाहर रहे मनमोहन चडढा से पूछें कि आप कहां के बाशिंदे हैं जनाब। गनीमत समझिये कि उनक जवाब में कोई गुस्‍ताख खामोशी भरी आवाज न सुननी पड़ जाए आपको। बस उसी गुस्‍ताख आवाज में उस दिन आड़े हाथों ले लिया था आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव को।


मेरी सीमा है कि मैं उस पूरे प्रकरण को उतनी वास्‍तविकता में न रख पाऊं, क्‍योंकि पता नहीं इस बीच मैं भी अपने भीतर कितना बचा पाया हूं दून को। बल्कि मैं ही क्‍यों देहरादून में रहने वाले हमारे दूसरे साथी भी क्‍या उसे बचा पा रहे हैं या नहीं। पर यकीन के साथ कोई भी कह सकता है कि नवीन के भीतर तो वह हमेशा ही बचा हुआ है। दरअसल देहरादून की बदलती आबोहवा में वह तो अब भी श्सौरी का बाशिंदा है न। यह कथा कहने का सुपात्र वही है। मैं उम्‍मीद करूंगा कि पिछले कुछ दिनों से उसके शरीर में जो थकान बसती जा रही है, उसे मोहलत दे ताकि वह उस किस्‍से को कह पाए, वरना मुझे तो कहनी ही होगी। मैं तो आपसे सीधे मुखातिब जो हूं इस वक्‍त।      

  स्‍मृति

Tuesday, November 28, 2017

धर्म मनुष्य की पहचान क्यों हो ?

फोटो- गजेन्‍द्र बहुगुणा

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

यद्यपि लेखन में कविता आपकी मुख्‍य विधा थी। आपका समूचा स्‍वर भी उसी में सधा। लेकिन हिंदी में दलित साहित्‍य की जो धारा प्रस्‍फूटित हो चुकी थी उसके प्रवाह को जारी रखना और उसे हर तरह से समृद्ध करने की जिम्मेदारी भी आपके ऊपर थी। दलित चेतना के स्वर में लिखने वाले चंद लोग ही उस वक्‍त तक सक्रिय थे। आयुध कारखाने ओ एल एफ, जिसमें आप कार्यरत थे, बहुत से नये लोग भर्ती हुए थे। उन नये लोगों में बहुत से ऊर्जावान दलित साथी थे जिन्‍होंने एक संस्‍था बनायी थी- अस्मिता अध्‍ययन केन्‍द्र। सामाजिक गतिविधियों के साथ साथ संस्‍था में अमबेकरवादी साहित्‍य का अध्‍ययन भी किया जाता था। आपके संगसाथ की वजह से मेरी भी उपस्थिति यथोचित बनी रहती थी। एक बार रविदास जयंती के अवसर पर एक विचार गोष्‍ठी के साथ शाम को कविता पाठ का भी आयोजन रखने का विचार आपने रखा। उस वक्‍त ही आपने मुश्किलों को सांझा किया था कि कविता गोष्‍ठी में किन कवियों को बुलाया जाए जो दलित चेतना से लिख रहे है। कँवल भारती और तीन चार अन्‍य कवि आमंत्रित हुए। मेरा किसी से भी पूर्व परिचय नहीं था। इसलिए आज ठीक से याद भी नहीं कर पा रहा कि अन्‍यों में कौन कौन थे। संभवत: सूरजपाल चौहान रहे हों, लेकिन मैं बहुत आश्‍वस्‍त होकर नहीं कह सकता। हां सूरजपाल चौहान जी से मेरी मुलाकात उस वक्‍त हुई थी जब आप और मैं एक रात नोएडा स्थित उनके घर पर रुके थे।

ऐसी परिस्थितियों के साथ दलित साहित्‍य की धारा बहना शुरु कर चुकी थी। आप इस बात को अच्‍छे से समझ रहे थे। तभी तो कविता के साथ-साथ कहानी, आत्‍मकथा और नाटक तक ही नहीं रुके। ‘’दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्य शास्‍त्र’’ गढ़ने के लिए प्रयासरत हुए। इतिहास के भीतर झांकना चाहते रहे। भारतीय समाज को जाति में बांटने वाले धर्म की पोल पट्टी खोल देना चाहते रहे। उसके लिए  ‘’सफाई देवता’’ लिखी। दलितों की पहचान को हिंदू धर्म से विलगाने वाले तथ्‍यों को खोजना चाहते रहे। दलित विचारक कांचा इल्‍लेया की पुस्‍तक Why I am not a Hindu किताब का अनुवाद तो आपने सन 2000 के बाद किया। ठीक से याद नहीं, संभवत: 2004-05। हां, इतना याद है उस वक्‍त आप जबलपुर से स्‍थानांतरित होकर देहरादून वापिस आ चुके थे। लेकिन, ‘जूठन’ में, जिसका प्रकाशन 1997 में हुआ, आप लिख ही चुके थे, ‘’नहीं, मैं ईसाई नहीं हुआ हूं।
’’लेकिन मन में एक उबाल-सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिंदू भी तो नहीं हूं। यदि हिंदू होता तो हिंदू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेद-भाव क्‍यों करते ? बात-बात पर जातीय-बोध की हीनता से मुझे क्‍यों भरते? मन में यह भी आता था कि अच्‍छा इन्‍सान बनने के लिए जरूरी क्‍यों हो कि वह हिुदू ही हो...हिंदू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की है। जातीय श्रेष्‍ठता-भाव अभिमान बनकर कमजोर को ही क्‍यों मारता है ? क्‍यों दलितों के प्रति हिंदू इतना निर्मम और क्रूर है ? ‘’

‘जूठन’ में ही आपने अनुभवों के हवाले से दलित समाज के उन देवी देवताओं का जिक्र किया है जिसके आधार पर आपने रखना चाहा है कि दलित समाज हिंदू धर्म का हिस्‍सा नहीं रहा है। ‘’कहने को तो बस्‍ती के सभी लोग हिंदू थे, लेकिन किसी हिंदू देवी-देवता की पूजा नहीं करते थे। जन्‍माष्‍टमी पर कृष्‍ण जी नहीं, जहारपीर की पूजा होती थी या फिर ‘पौन’ पूजे जाते थे। वे भी अष्‍टमी को नहीं, ‘नवमी’ के ब्रह्ममुहर्त में।
‘’इसी प्रकार दीपावली पर लक्ष्‍मी का पूजन नहीं, माई मदारन के नाम पर सूअर का बच्‍चा चढ़ाया जाता है या फिर कड़ाही की जाती है। कड़ाही यानी हलवा-पूरी का भोग लगाया जाता है।‘’

दरअसल हिंदू धर्म ही नहीं, कोई दूसरा धर्म भी आपको रुचता नहीं था। अम्‍बेडकरवादी चेतना के बावजूद आपने बौद्ध होना भी तो नहीं स्‍वीकारा था। उम्‍मीद से आपके पास आने वाले उन नव बौद्धों को कई बार निराश ही होना पड़ा जब आपने उनके आग्रह को स्‍वीकारने का कोई संकेत भी उन्‍हें कभी नहीं दिया। बहुत करीबी बातचीत में आपने ही एक बार बताया था, ‘’ये सज्‍जन, जो अभी तुम्‍हारे आने से पहले ही निकले, चाहते हैं कि मैं बौद्ध हो जाऊं।‘’ बावजूद बुद्ध के प्रति प्रेम और आदर के आपके चेहरे पर दिए गये प्रस्‍ताव को दृढ़ता से नकारने के भाव थे। बौद्ध होना आपको स्‍वीकार्य नहीं था। हिंदू आप थे नहीं। सच तो यह है कि मनुष्‍य की पहचान धर्म से हो, आपकी समझदारी में यह विचार ही खराब था। 

स्‍मृति

Saturday, November 25, 2017

वह बौद्धिक साहस और चेतना के साथ सतत लेखन

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपमें यदि बौद्धिक साहस और एक चेतना के साथ सतत लिखने का माददा न होता तो कहा नहीं जा सकता कि वंचितों की आवाज बनकर लिखी जा रही रचनाओं के स्‍वर को दलित साहित्‍य की संज्ञा से पहचाने जाने में अभी कितना वक्‍त लगता। पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की आत्‍मकथा, ‘अपने-अपने पिंजरे’ तो छप ही चुकी थी। लेकिन उसे दलित साहित्‍य  की रचना तो उस समय नहीं माना गया था। आपकी लगातार की जिदद भरी कोशिशों ने ही उस वातावरण का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई कि जिस ‘सदियों के संताप’ को छापते हुए भी उसे दलित साहित्‍य की रचना न कह पाने की हमारी कमजोरियां उसे दलित कविताओं की पुस्‍तक के रूप में स्‍थापित कर गई। हमारी कमजोरियों का कारण वह वातावरण भी तो था जो आलोचना के गैर पेशेवराना मिजाज के कारण नामगिनाऊ था। और उस नाम गिनाऊ आलोचना में आपकी कोई जगह ही न थी। फिर एक अकेले व्‍यक्ति में इतना साहस कहां से पैदा हो जाता कि पहली ही किताब को दलित साहित्‍य कह पाए। कोई संगठन होता, कोई बड़ा आंदोलन चल रहा होता तो निश्चित ही वैसा लिख देने का साहस हम बटोर ही लेते।

आपको ध्‍यान होगा कि पुस्‍तक छपने के बाद नेहरू युवक केन्‍द्र, ई सी रोड़, देहरादून के उस प्रांगण में जहां लीचियों के पेड़ झूमते थे, सिर्फ स्‍थानीय रचनाकारों की उपस्थिति में ही आयोजित हुई ‘फिलहाल’ की गोष्‍ठी में पुस्‍तक का लोकापर्ण और चर्चा हुई थी। अवधेश कौशल जी की वजह से नेहरू युवक केन्‍द्र दून के रंगकर्मियों के सर्वसुलभ जगह थी। उनका अड्डा थी। इस नाते हमारे गोष्‍ठी के लिए वह सर्वसुलभ ही थी। वरना गोष्‍ठी करने को भी तो कोई जगह हमारे पास नहीं थी। घरूवा गोष्‍ठी के रूप में सदियों के संताप के छप जाने का कोई मतलब नहीं था।

यूं उसे लोकार्पण भी तो नहीं कहा जा सकता। पुस्‍तक लोकार्पण  कैसे होता है, इसका भी तो हमें अनुभव कहां था। बस मित्र इक्‍टठे हुए, आने कविताएं पढ़ी और उन पर चर्चा हुई। पुस्‍तक पर सम्‍पूर्ण रूप से कोई बात नहीं हुई। हां, इतना जरूर हुआ कि उसके बाद पुस्‍तक को बेचना हमने शुरू कर दिया। शुरूआती दिनों तक तो वह अनाम ही रही, फिर जब आपकी कविताएं पहली बार ‘हस’ मासिक में छपी और हिंदी की दुनिया में उन्‍हें दलित साहित्‍य के रूप में पहचाना जाने लगा तो कितने ही पत्र पुस्‍तक की मांग के संबंध में आने लगे। यहां तक कि उनमें से कई पत्र तो इस तरह के होते थे जो ‘फिलहाल प्रकाशन’ को एक लगातार का प्रकाशन मानने की गलतफहमी में पूरा कैटलॉग भेजने की बात लिखते थे। सीमित प्रतियों को बेच लेने के बाद हम उन बहुत से पाठकों को पुस्‍तकें भेज सकने में असमर्थ थे। हमारा अंदाज भी कोई पेशेवराना नहीं था कि उन पत्रों के जवाब ही देते। वे बिना जवाबी खत होने लगे। यद्यपि यह जरूर हुआ कि बहुत जिददी लोगों को पुस्‍तक की कुछ फोटो कॉपी उस वक्‍त मुफ्त भेजी गयी। वह हमारे देहरादून में फोटोकॉपी मशीन के आ जाने का शुरूआती समय था।      

हिंदी में दलित साहित्‍य की अनुगूंज को जगाने का श्रेय बेशक ‘हंस’ और उसके सम्‍पादक राजेन्‍द्र यादव को दिया जाता रहे, पर आपके बौद्धिक साहस और सतत चेतना की जिदद के साथ आपके लिखने को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वह भी तब, जबकि हिंदी साहित्‍य की मुख्‍यधारा की पत्रिकाओं में छपने से आपकी रचनाएं वंचित रहती जा रहा थी। आप तो वहां भी दलित की तरह ही ‘दलित’ पत्रिकाओं में ही छप रहे थे। कुछ नाम याद आते है, मुगेर, बिहार से निकलने वाली मरगिल्‍ली सी पत्रिका ‘पंछी’, राजस्‍थान से निकलने वाली ‘मरूगंधा’, देहरादून से निकलने वाला द्विभाषीय दैनिक ‘वैनगार्ड’, देहरादून से हस्‍तलिखित पत्रिका ‘अंक’, कविात फोल्‍डर ‘संकेत’ और फिलहाल’, घोषित रूप से मासिक लेकिन कभी कभी अनियमित हो होकर छपने वाली ‘नयी परिस्थितियां’, नागपुर से निकलने वाला मराठी साप्‍ताहिक ‘नागसेन’। बेशक हिंदी में आलोचना का कोई पेशेवराना रूप आज भी नहीं तो भी हिंदी साहित्‍य के इतिहास पर जब भी कुछ लिखा जाएगा तो आपाको जम्‍प करके निकल जाना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा। हिंदी में आलोचना का पेशेवराना रूप होता तो ऐसा हो नहीं सकता था कि शुद्ध साहित्‍य और पाप्‍लुर पर चलने वाली बहसें आज इतना शोर मचाती। या फिर फेसबुक पर छपने वाली रचनाओं को बिना पढ़े ही सिरे से खारिज करने वाली आवाजें ही ज्‍यादा गंभीर मानी जाती। पेशेवर आलोचक उनकी भी पड़ताल पेशेवराना ढंग से करते और आलोचना का कोई वस्‍तुनिष्‍ठ रूप उभरता। या यूं भी कि किसी एक आलोचक के बस चंद लेखक ही प्रिय नहीं होते, वह उन पर भी नाम गिनाऊं तरह से पुनारवृत्ति भरे आलेख भर नहीं लिखता, बल्कि उन पुस्‍तकों और लेखकों को भी खोजता जो बहुत नामालुम सी पत्रिकाओं में छपते और किसी अनजाने शहर के बांशिंदे होते। यहां चूंकि मैं अभी ऐसे उन बहुत से अनाम रह गई रचनाओं और रचनाकारों के बारे में बात नहीं करना चाहता। यहां तो सिर्फ आपकी ही बात करूंगा। क्‍योंकि, आप भी जानते हैं अच्‍छे से स्‍थापित हो जाने के बाद ही आपकी रचनाओं पर लिखा और सुना गया। जबकि, उन रचनाओं की त्‍वरा तो हमेशा ही एक जैसी रही। अपने लिखे जाने के वक्‍त भी और छप जाने के वक्‍त भी।

स्‍मृति

Friday, November 24, 2017

न्यू नतम लागत मूल्य और सदियों का संताप



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपको ध्यान होगा, ऋषिकेश से एक कविता संग्रह प्राकाशित हुआ था। ‘उत्‍तर हिमानी’ नाम से प्रकाशित उस संग्रह में उत्‍तराखण्‍ड के अन्‍य कवियों की कविताएं भी थी। पार्थ सारथी डबराल के संपादक थे। 
‘सदियों की संताप’ आपकी कविता पुस्‍तक तो 1989 में प्रकाशित हुई। तब तक हम दोनों ने भी ‘उत्‍तर हिमानी’ के लिए कविताएं भेज दी थी। आपकी डायरी में सबसे अन्तिम कविता ‘तब तुम क्‍या करोगे’ ही थी उस वक्‍त। आपकी डायरी को पूरा पढ़ने के बाद डायरी की वह अंतिम कविता मेरे भीतर बहुत दिनों तक गूंजती रही थी।
पारंपरिक छापे की प्रक्रिया से छपने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिल्‍हाल की टीम’ फिल्‍हाल के तीन अंक निकाल चुकी थी और इस नाते प्रकाशन के जोड़ घटाव से एक हद तक परिचित हो चुकी थी। उस अनुभव के नाते ही एक रोज शाम को अम्‍मा-अब्‍बा को खाना पहुंचाने जाते वक्त हम (मैं और आप) जब उस कविता संग्रह की बात कर रहे थे जिसमें सहयोग राशि के साथ हम दोनों की कविताएं छप रही थी (‘उत्‍तर हिमानी’) तो मैंने कहा था कि अब आपकी भी कविता पुस्‍तक छप जानी चाहिए। मेरी बात पर आपने मायूसी के साथ जवाब दिया था, ‘’
‘’कौन छापेगा किताब।
‘’हम खुद छाप सकते हैं न।‘’
‘’कैसे ?’’
‘’जैसे फिलहाल छापते हैं। 6 फोल्‍ड में मुश्किल से 300 रू खर्च होते हैं हमारे एक अंक छापने पर। यदि किताब मैं 50.60 पेज हों और हम उसकी 400-500 प्रतियां छापें तो किताब का खर्च मुश्किल से 1000-1200 रू ही आएगा। उसको भी हम किताब बेच कर निकाल लेगें।‘’
फिल्‍हाल की छपाई में मोटा कागज इस्‍तेमाल होता था, जिसका दाम सामान्‍य कागज से कहीं ज्‍यादा था। ‘युगवाणी’ पर पेज की 30 रू लेता था। चालीस से पचास रू के भीतर कवर में छपने वाले चित्र का ब्‍लाक बन जाता था और लगभग 60-70 रू में कागज की 120-130 सीट आ जाती थी। एक सीट से दो प्रति तैयार हो जाती थी। किताब को छापे जाने के पीछे मेरा तर्क था कि नब्‍बे का दशक बीत रहा है, लगातार की उपेक्षा के चलते आप क्‍यों नब्‍बे के बाद के दशक में गिने जाएं। उस वक्‍त थोड़ी बहुत आलोचनाएं पढ़ते हुए मैं इस बात को जानने लगा था कि आलोचना में दशक के रचनाकारों के जिक्र होते हैं। हालांकि सच बात तो यह हिन्‍दी कविताओं की आलोचना में कहीं यह आज तक दर्ज नहीं आप कौन से दशक के कवि हैं। ‘लांग नाइंटीज’ के विशेषणों वाली आलोचना भी आपके कवि होने को दर्ज नहीं कर पाई जबकि आप मूलत: कवि ही थे। परिस्थितिजन्‍यता में या कविता में शुद्धातावादियों के बोलबाले ने आपको कहानीकारों के खाते में ही डाले रखा।
न जाने वह कौन सा क्षण था, अम्मा-अब्बा को खाने पहुंचाने के बाद जब हम वापिस घर लौटे, आपने अपनी डायरी निकाली। अल्‍टी–पल्‍टी कुछ सोचा-विचार किया और मासूमियत भरी दृढ़ता से कहा, ‘’लो ले जाओ डायरी।‘’
डायरी को हाथ में थामते हुए एक बड़ी जिम्‍मेदारी के अहसास ने मुझे घेर लिया। आपसे विदा लेकर मैं घर चला आया। कविताओं को पढ़ा और जमाने को जाति की दासता में जकड़ने वाली ब्राहमणवादी प्रवृत्तियों से उलझता रहा। उस वक्‍त तक हिंदी में दलित साहित्‍य नहीं आया था। जब मैंने कुछ कविताओं के साथ एक पुस्तिकानुमा किताब को शीर्षक ‘’सदियों का संताप’’ के साथ आपके सामने रखा तो आपने मेरी इस अनुनय को भी स्‍वीकार लिया कि छपाई में जो अनुमानित खर्च्‍ रू 1300 के करीब आएगा, बतौर उधार दे देंगे। पुस्तिका की 200  प्रति छाप कर बेच लेने की मंशा के साथ उसका मूल्‍य रू 7 निर्धारित किया गया। यह संतोष की बात है कि लगभग 150 प्रतियां  बेची जा सकी और लगाये गए धन की वापसी न्‍यनतम मूल्‍य रख कर हासिल की जा सकी। याद कीजिए उस कविता पुस्‍तक का कवर भाई रतीनाथ योगेश्‍वर ने किया था, वह भी तब जबकि अवधेश कुमार जैसे बड़े आर्टिस्‍ट हमारे बीच थे। अवधेश कुमार की बजाय कवर पर रतीनाथ के हाथों की छाप कैसे अंकित हुई, उस कथा को बाद में कहूंगा। अभी तो इतना ही कि सदियों के संताप का जब आपके स्‍टार हो जाने के बादए कई सालों बाद उसका पुन:प्रकाशन एक अन्‍य प्रकाशक ने किया और कवर को लगभग ज्‍यों का त्‍यों एक दूसरे आर्टिस्‍ट के नाम से छाप दिया तो आपने इस पर कोई एतराज जाहिर नहीं किया, क्‍यों ? यहां तक कि एक रोज कभी यूंही आपने कहा था कि सदियों के संताप का यदि कोई पुन:प्रकाशन करता है तो मैं उसमें अपने उन अनुभवों को भूमिका के रूप में लिखूं जो पुस्‍तक के पहले प्रकाशन में हुए। लेकिन आपने जब उस पुन: प्रकाशित पुस्‍तक की प्रति मुझे भेंट की तो उसे अलटने पलटने के बाद मैंने एकाएक कहा था, वाह। पर दूसरे ही क्षण कवर पर कलाकार का बदला हुआ नाम देखकर आपकी निगाहों में ताकते हुए कहा था, ये क्‍या तो आप निगाह बचाते हुए जाने क्‍यों खामोश हो गए थे।

स्‍मृति

Monday, November 20, 2017

हिन्दी में दलित कविता की आहट

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

हमारा वर्तमान देवत्‍व को प्राप्‍त हो चुके लोगों की ही स्‍मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्‍ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्‍ठभूमि एक महत्‍वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्‍ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्‍सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्‍तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्‍तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्‍यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्‍ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्‍मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्‍ठभूमि में तो सामाजिक सम्‍मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्‍व को प्राप्‍त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्‍सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्‍यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्‍यवर्गीय व्‍यवहार से मुक्‍त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्‍ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्‍यक्ति का वर्तमान व्‍यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्‍वकर्मा का जिक्र तक  नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्‍सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्‍वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्‍त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रका‍शन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्‍त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्‍वकर्मा अकेले शख्‍स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्‍यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्‍यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्‍नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्‍दी में दलित साहित्‍य नाम की कोई संज्ञा उस वक्‍त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्‍टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्‍याख्‍या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्‍सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्‍वर मुझे भिन्‍न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्‍याख्‍याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्‍मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल न‍हीं कर रहा तो)  लिखी थी, न ‘तब तुम क्‍या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्‍मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्‍त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्‍दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्‍मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्‍दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।

उस वक्‍त आपके मार्फत जिन दो व्‍यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्‍थान के मुखिया श्‍याम सिंह ‘शशि’। श्‍याम सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्‍यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्‍मीय छवि बनी रही।
#स्‍मृति

Friday, November 17, 2017

चल निगोड़े

मेरी उम्र चालीस के पास पहुंच रही थी उस वक्‍त। आपको ख्‍याल नहीं था। चंदा भाभी को भी ख्‍याल नहीं रहा होगा। मुझे याद नहीं भाभी ने न जाने क्‍या मजाक किया था, आपकी मुस्‍कराहट याद है बस, और याद है वह जवाब जो मैंने उस वक्‍त दिया था। चंदा भाभी नहीं जानती थी कि मैंने वैसा जवाब क्‍यों दिया। आप समझ गए थे पर। आपके चेहरे की मुस्‍कराहट बुझ गयी थी। कही गयी बात को सुनते हुए बोलने वाले के भीतर चल रही प्रक्रिया को जानने का आपमें खूब सलीका था। रंगकर्मी जो थे आप। एक रंगकर्मी की पहचान ही है यह कि वह न सिर्फ अपनी ‘एक्जिट’ और ‘एंट्री’ से अपने पात्र का परिचय दे दे बल्कि अपने पात्र को तैयार करते हुए ऐसे कितने ही लोगों के चलने बोलने, देखने, सुनने, मुस्‍कराने, रुठने जैसे भावों का अध्‍ययन करे। आप जानते थे कि मेरे और आपके बीच वह लम्‍बे समय का अंतरंग साथ कुछ कम हुआ है। ऐसा आपको इसलिए भी लग सकता था कि आपके जबलपुर स्‍थानांतरित हो जाने के बाद हमारा हर वक्‍त का साथ नहीं रहा था। जबकि असल वजह इतनी भर नहीं थी, आप अब पहले वाले आमेप्रकाश वाल्‍मीकि नहीं रहे थे, हिन्‍दी के ‘सुपर स्‍टार’ लेखक हो चुके थे। अपने इर्द गिर्द एक घेरा खड़ा कर लेने वाले लेखक के रूप में जाने जाने लगे थे। अब आपको लौटती हुई रचनाओं के साथ किलसते हुए देखने वाला कोई नहीं हो सकता था। बल्कि आज यहां का बुलावा तो कल वहां के बुलावे पर आपको हर दिन कहीं न कहीं लेक्‍चर देने जाने के जाते हुए देखने पर हतप्रभ होने वाले लोग ही थे। मेरा संबंध तो उस वाल्‍मीकि से नहीं था। मैं तो उस वाल्‍मीकि को जानता था जो मेरा आत्‍मीय ही नहीं, सबसे करीबी मित्र और बड़ा भाई था। अपनी उस फितरत का क्‍या करूं जो महानता को प्राप्‍त हो गये लोगों के साथ मुझे तटस्‍थ रहने को मजबूर कर देती है। तब भी हल्‍के फुल्‍के और थोड़ा मजाकिया लहजे में ही मैंने चंदा भाभी की बात का जवाब दिया था, 
‘’देखो अब मुझे अठारह साल का किशोर न समझो भाभी। आप लोगों से भी ज्‍यादा उम्र हो गई मेरी।‘’

भाभी मेरी बात पर चौंकी थी। चौंके तो आप भी थे। क्‍योंकि वास्‍तविकता तो यही है कि उम्र तो हर व्‍यक्ति समय के सापेक्ष ही बढ़ती है। दरअसल उस वक्‍त मेरे मन एकाएक ख्‍याल उठा था कि हम जब करीब आए थे आपकी उम्र कितनी रही होगी। आपको याद होगा कि कुछ ही देर पहले आपने बताया था कि बस दो साल रह गए रिटायरमेंट के। उस वक्‍त हम मार्च 2009 के अप्रैल की धूप ही तो सेंक रहे थे आपके आवास की बॉलकनी में बैठकर। अपनी बात को स्‍पष्‍ट करते हुए मैंने कहा था, 
‘’अच्‍छा बताओ भाभी जब हम पहली बार मिले थे आपकी उम्र कितनी थी ?’’ 
वे समय का अनुमान लगाते हुए कुछ गिनती सी करने लगीं थीं। आपके मन में भी कोई ख्‍याल तो आया ही होगा। वे जब तक जवाब तक पहुंचती, मैंने उनका रास्‍ता आसान कर देना चाहा था, 
‘’मैं बताता हूं, 37 या 38 के आस-पास ही रही होगी।‘’ 
वे खामोशी से मुझे सुनती रहीं। आप भी। मेरा बोलना जारी था, 
‘’तब बताइये, आज मैं चालीस पूरे करने की ओर हूं... तो हुआ नहीं क्‍या आपसे बड़ा?’’ 
भाभी बहुत जोर से हंसी थी और एक धौल जमाते हुए उन्‍होंने सिर्फ इतना ही कहा था, 
‘’चल निगोड़े’’ 
आपके चेहरे पर बहुत धूमिल सी  मुस्‍कराहट ठहर गई थी। वैसे आप भी जानते होंगे रंगमंच मेरा भी क्षेत्र रहा और मैंने चेहरे की मुद्रा के बावजूद मुस्‍कराहट को मुस्‍कराहट की तरह नहीं पकड़ा था।    

#स्‍मृति

Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

Friday, November 10, 2017

खाने में जो भी स्वाद था, सब नमक की वजह से था



यह एक स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक एक्‍टर का माध्‍यम है तो फिल्‍म डाइरेक्‍टर का। लेकिन फिल्‍म एवं नाटकों की दुनिया का यथार्थ जो तस्‍वीर बनाता रहा है, वह तस्‍वीर कुछ भिन्‍न प्रभाव छोड़ती रही है। इधर यह भिन्‍नता कुछ ज्‍यादा चमकीली हुई है। हिन्‍दी नाटकों की दुनिया में यह रौशनी कई बार तडि़त की सी चौंध बिखेरती हुई है। नाटकों की दुनिया में उभरते सिद्धांत और व्‍यवहार के ये अन्‍तर्विरोध कोलकाता में आयोजित हुए राष्‍ट्रीय नाटय महोत्‍सव ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों में भी दिखायी देते रहे। 

‘जश्‍न-ए-रंग’ कोलकाता की नाट्य संस्‍था लिटिल थेस्पियन के प्रयासों का सातवां क्रम था। पिछले कुछ वर्षों से लिटिल थेस्पियन, कोलकाता द्वारा आयोजित होने वाले ऐसे जलशों में देश भर की कई नाट्य मण्‍डलियां कोलकाता पहुंचती रही हैं। इस बार, 3 नवम्‍बर से 8 नवम्‍बर 2017 तक आयोजित हुए इस नाट्य उत्‍सव में लिटिल थेस्पियन के अलावा जम्‍मू से ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, इलाहाबाद से ‘बैक स्‍टेज’, नई दिल्‍ली से ‘पीपुल्‍स थियेटर’ एवं बेगुसराय से ‘आशीर्वाद रंगमण्‍डल‘ नाट्य दलों की उपस्थिति रही। इस उत्‍सव की विशेषता थी कि नाटकों के साथ रंग के अन्‍य प्रयोग जैसे किस्‍सा कहानी, नुक्‍कड़ एवं कहानी पाठ जैसी अन्‍य गतिविधियां उत्‍सव का मंच बनी। कोलकाता के बाशिंदे एवं गुजराती भाषा के कलाकार- दिलीप दवे एवं दिनेश वडेरा, मॉरिसस के कलाकार- लीलाश्री, शावीन, शाबरीन एवं वोमेश, पटना से दिनकर एवं बहुत से अन्‍य कलाकारों ने इस तरह की गतिविधियों से 6 दिन तक चले इस उत्‍सव को यादगार बनाने की पहलकदमी में अपनी भूमिका निभायी। 6 दिवसीय इस आयोजन में एक नाटकों के विकास में अखबारों एवं शिक्षण संस्‍थानों की भूमिका पर भी विचार विमर्श हुआ। प्रबंधन के कौशल के पेशेवराना अंदाज के कारण भी लिटिल थेस्पियन का यह एक महत्‍वपूर्ण आयोजन कहा जा सकता है। हर दिन के कार्यक्रम की जानाकारी को फोन एवं एसएमएस के माध्‍यम से दर्शकों तक पहुंचाने और सीधे सम्‍पर्क बनाये रखने वाले लिटिल थेस्पियन के युवा कार्यताओं की भूमिका इस मायने में उल्‍लेखनीय रही। ध्‍यान रहे कि लिटिल थेस्पियन, कोलकाता शौकिया रंगकर्मियों की संस्‍था है जो अपने सीमित साधनों से बांगला भाषी कोलकाता में लगातार हिन्‍दी नाटकों का पक्ष प्रस्‍तुत करती रहती है।  



नाट्य समारोह के दौरान मंचित हुए नाटकों पर अलग अलग बात करने की बजाय एक लय में बहती उस समानता को देखें जो हिंदी नाटकों का वर्तमान हो रही है तो मन में यह सवाल बार--बार  उठ रहा कि कलाकारों के माध्‍यम नाटक में सिद्धांत और व्‍यवहार का यह अन्‍तर्विरोध क्‍यों उभर रहा है कि प्रमुखता निर्देशन को ही मिलती जा रही है और कलाकार हाशिए में होता जा रहा है ?

सवाल के जवाब को ‘जश्‍न-ए-रंग’ में प्रदर्शित हुए नाटकों की मूर्तता में तलाशते हुए देखा जा सकता है कि तकनीक के विकास ने नाटय निर्देशकों को सहूलियत दी है कि वे दृश्‍य जिन्‍हें पहले कभी मंचित कर पाना मुश्किल था, आज उन्‍हें भी मंचित करना आसान हुआ है। इस तरह से देखें तो यह सुखद स्थिति होनी चाहिए थी, लेकिन कुछ ही मामलों में ऐसे सुखद क्षणों के बावजूद इसने अभिनेता की स्‍वतंत्रता का ही हनन किया है। उन्‍नत तकनीक के प्रयोग से रचे जा रहे दृश्‍यबंधों ने निर्देशक को तो स्‍थापित करने में भूमिका निभायी है लेकिन प्रयुक्‍त तकनीक से सामंजस्‍य बैठाने की चिंता में ही उलझे अभिनेता को अपने पात्र में कन्‍स्‍ट्रेट होकर अभिनय करने की स्‍वतंतत्रा में बाधाएं भी खड़ी की है। परिणमत: निर्देशकों के व्‍यवहार में एक अजीब तरह की अराजकता के साथ अतिमहत्‍वकांक्षा ने भी जन्‍म लिया है। ‘जश्‍ने-ए-रंग’ के तीसरे दिन मंचित हुए ‘एमेच्‍योर थियेटर ग्रुप’, जम्‍मू के नाटक ‘द चेयर्स’ के बाद चचिर्ति निर्देशक मुश्‍ताक काक का यह कहना इस बात का गवाह है। जब वे कहते हैं, ‘’चीयर्स एक एब्‍सर्ड नाटक है और मैं हमेशा ऐसे ही नाटकों की तलाश में रहता हूं। हां, मेरे ये कलाकार जरूर मुझे हमेशा टोकते हैं कि कभी इनसे हटकर भी करूं। लेकिन मुझे तो यही पसंद हैं।‘’ इस वक्‍तव्‍य के साथ आत्‍मश्‍लाघा से भरी मुश्‍ताक काक की हंसी की आवाज भी सुनायी देती है। यूं कलाकारों के अभिनय के लिहाज से यह खूबसूरत प्रस्‍तुति थी।

‘द चेयर्स’ फ्रांसिसी नाटककार यूजिन ने लगभग पचास के दशक में लिखा है। नाटक की कथा एक निर्जन द्वीप में एकाकी जीवन बिताते एक बूढ़े दम्‍पति की है। एकाकीपन ने जिन्‍हें एक सामान्‍य मनुष्‍य भी नहीं रहने दिया है। समाज की वास्‍तविकता से कटे होने के कारण वे कुछ कुछ पगलेट तरह के असमान्‍य व्‍यवहार में जीने को मजबूर हैं। यूजिन जिस वक्‍त इस नाटक को लिखा, उस वक्‍त का फ्रांसीसी साहित्‍य अस्तितवादी के दर्शन के पक्षधर ज्‍या पॉल सात्र से प्रभावित है। अस्तित्‍ववाद के साथ अपने वर्तमान को अमूर्तता में देखने का वह दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध की निराशा और पस्‍ती में मनुष्‍य के जीवन को ही उददेश्‍य विहीन एवं निर्थक मानता रहा है। अस्तित्‍ववादी एवं अमूर्तता के पक्षधर मानते रहे हैं कि विश्‍व की अमूर्तता (जटिलता) का कोई तार्किक हल नहीं। आज जब दुनिया की जटिलताएं उतनी अमूर्त नहीं रह गई हैं, ‘द चेयर्स’ का मंचन करते हुए आत्‍मगौरव से भरे रहने का कारण समझ नहीं आता। इसे विशिष्‍टताबोध से भरे निर्देशक को कसने वाली अतिमहत्‍वाकांक्षा क्‍यों न माना जाए ? यद्यपि यह नाटक निर्देशक की उपरोक्‍त वर्णित प्रश्‍नांकिकता के बावजूद तकनीक के अतिश्‍य प्रयोग के बोझ से न दबी होने के कारण कलाकारों को अभिनय करने की पूर्ण स्‍वतंत्रता देती हुई थी। नाटक के दोनों ही कलाकारों ने उस अवसर को भरसक ही उपयोग किया। फिर भी अपने निर्देशक के उपरोक्‍त वक्‍तव्‍य पर उनके चेहरे पर भी एक थका देने वाली मुस्‍कान ही बिखरती रही। यह नाटक की समाप्ति पर मंच पर घट रही एक ऐसी वास्‍तविकता का नाटक था जिसकी अनुगूंज अतिमहत्‍वाकांक्षा की डोर के सहारे उड़ायी जाने वाली पतंग की सरसराहट में मंचन के सफल प्रयोग को कलाकारों की सामूहिकता में देखने की बजाय निर्देशक को प्राथमिक बना दे रही थी।

यह देखना दिलचस्‍प है कि नाटकों में विकसित तकनीकी के जिन प्रयोगों ने निर्देशकों को महत्‍वपूर्ण बनाया हैं, फिल्‍मों की दुनिया में वही तकनीक कलाकारों की भूमिका को ही महत्‍वपूर्ण रूप से स्‍थापित करने में सहायक हुई है। कलाकार की सुक्ष्‍म से सुक्ष्‍म अभिव्‍यक्ति को उभारने में वही मददगार है। जिसके प्रयोग में जबकि निर्देशक की निगाहें ही प्रमुख एवं निर्णायक होती हैं। नाटक हो चाहे फिल्‍म, दर्शकों से सीधे मुखतिब होने का अवसर तो कलाकार के पास ही रहता है। यही वजह है कि प्रयोग की जा रही तकनीक का सीधा प्रभाव भी कलाकार की अदाकारी पर ही पड़ता है। इलाहाबाद की नाट्य संस्‍था ‘बैक स्‍टेज’ प्रवीण शेखर के निर्देशन में भुवनेश्‍वर की कहानी ‘भेडि़ये’ का नाटय रूप ‘खारू का किस्‍सा’ मंचित करती है। दृश्‍य गंभीर है और कलाकार भरसक प्रयासों के साथ अभिनय करता है। भेडि़यों के हमले से खुद की जान बचाने के लिए बाप और बेटे के पास हथियारों का जखीरा खत्‍म हो चुका है। भेडि़ये हैं कि झुण्‍ड के रूप में दौड़ते चले आ रहे हैं। गाड़ी को खींचते बैल सरपट दौड़ते चले जा रहे हैं लेकिन भेडि़यों को पछाड़ना मुश्किल है। गाड़ी में तीन नटनियां भी सवार है जिसके कारण गाड़ी का बोझ खींचना बैलों के मुश्किल होता जा रहा है। बाप और बेटे तय करके एक नटनियां को भेडि़यों के शिकार के तौर पर गाड़ी से धकेल देना चाहते हैं लेकिन अपनी इस योजना का दर्शकों तक पहुंचाने के लिए खारू को गाड़ी से उतरकर मंच के अग्रभाग में आकर संवाद अदायगी करनी है और पाते हैं कि उस कारूणिक दृश्‍य में कुछ दर्शक है कि जोर जोर से हंस रहे हैं। ऐसा अगली नटनियाओं को फेंकते वक्‍त भी होता है और फिर वही हंसी पहले से ज्‍यादा तीव्र होकर सुनायी देती है। बैल खोल दिये जाने हैं ताकि भेडि़यों के झुण्‍ड से निपटा सके। लेकिन अभिनय की सारगर्भित अदायगी के बावजूद दर्शक हंस रहे हैं। बेट की सलामती के लिए बाप खुद भेडि़यों से मुठभेड़ करने के लिए गाड़ी से छलांग लगा देने की स्थिति में है और हंसने वाले दर्शक अब भी दृश्‍य की कारूणिकता के साथ नहीं हो पा रहे हैं। सवाल है कि ऐसा क्‍यों हुआ जबकि कलाकारों के हाव भाव, उनकी मुद्रा, उनकी आवाजों के उतार चढ़ाव तो उस दहशत को बयां करने में कतई कमतर नहीं थे। इसे सिर्फ यह कहकर हवा नहीं किया जा सकता कि वे वैसे ही वर्ग के दर्शक थे जिन्‍हें दूसरों की परेशानी में ही लुत्‍फ उठाने की आदत होती है। ऐसा निश्चित सत्‍य है कि आज समाज का एक वर्ग इस विकृत मानसिकता से भी ग्रसित है, पूंजी की चकाचौंध में जिसके भीतर अमानवीयता ही हावी है। लेकिन नाटक के दौरान ऐसे घटने के कारण बिल्‍कुल साफ थे कि जब कलाकार को संवाद अदायगी करनी होती थी, उस वक्‍त उसे नाटक में घट रहे घटनाक्रम वाली जगह से हटना जरूरी हो रहा था। खारू दौड़कर गाड़ी से नीचे उतरता, संवाद अदा करता और फिर गाड़ी में चढ़ जाता। क्‍योंकि गाड़ी रूपी तकनीक को मंच पर होना जरूरी है, बेशक चाहे कलाकार के उस पर चढ़ने और उतरने के दौरान दर्शक मंचित हो रहे घटनाक्रम से बाहर निकल जाए, निर्देशक को इसकी चिंता नहीं। निर्देशक की चिंता में तो दृश्‍य की सजीवता गाड़ी की उपस्थिति से ही हो रही है। उस सेट को डिजाइन करने में ही तो वह अपने निर्देशक को स्‍थापित होता हुआ देख रहा है। ‘खारू का किस्‍सा‘ फिर भी एक बेहतर प्रस्‍तुति कही जा सकती है। हां नाटक की स्क्रिप्‍ट में यदि अंत को नाटक वास्‍तविक अंत पर ही संपादित कर दिया जाए तो। क्‍योंकि खारू के किस्‍से का अंत हो जाने के बाद भी जारी रहने वाली उपदेशात्‍मकता नाटक के पूरे प्रभाव को ही लील जा रही थी। 


कुछ कुछ वही स्थितियां जो खारू के किस्‍से में सेट के कारण दिखायी दी, अमित रौशन के निर्देशन में मंचित हुए बेगूसराय की संस्‍था के नाटक ‘दो औरतें’ में भी दिखती है। नाटक में नैरेटर की भूमिका निभा रही अदाकारा को बीच मंच पर दोनों ओर लटक रही दो बड़ी बड़ी चावीनुमा औरतों से मुखातिब होना है। चावियों को औरत में बदलने के लिए कभी उसे उन्‍हें साथ में झूल रहे दो लम्‍बे लम्‍बे लाल दुपटटों से ढकना है कभी उन दुपटों के सहारे उसे स्‍कूटर की सवारी करनी है और कभी उन्‍हें अपने ईर्द गिर्द लपेटते हुए दर्द की आहें भरते हुए संवाद अदायगी करनी है। साथ ही बदलते हुए भावों के साथ बहुत तेज आवाज में गूंज रहे पार्श्‍व संगीत से पार पाते हुए भी अपनी आवाज दर्शकों तक पहुंचानी है। मंच के बीच एक लम्‍बा ब्‍लाक रखा है। ज्‍यादा असहजता समझे तो उस पर जाकर खड़ी हो जाए और संवाद अदा करे। इन स्थितियों में कवि नवेन्‍दु की कविता ‘नमक’ की पंक्तियां याद आ जाना स्‍वाभाविक है- खाने में जो भी स्‍वाद था, सब नमक की वजह से था। नाटक में तकनीक भी नमक की तरह से इस्‍तेमाल हो तो प्रस्‍तुति निखर उठती है लेकिन अधिकता पूरा मजा ही किरकिरा कर देती है। रंगकर्मी अजहर आलम के निर्देशन में मंचित हुए लिटिल थेस्पियन के नाटक ‘रूहे’ में तो भारी भरकम सेट पर चीख चीख कर संवाद अदा करते बूढे की दयनीयता का जिक्र करना ठीक ही नहीं लग रहा। संवाद अदायगी पर तंज कसते देहरादून थियेटर के दादा अशोक चक्रवर्ती की कही बातें याद आती हैं कि एक खाली डिब्‍बा लो, उसमें पत्‍थर भरो और जोर जोर से हिलाओ तो वे भी आवाज करते हैं। संवाद अदायगी खाली डिब्‍बे में भरे पत्‍थरों की आवाज नहीं हो सकती।


मुश्किल है दिल्‍ली की संस्‍था ‘पीपुल्‍स थिेयेटर’ के नाटक ‘अर्थ’ पर बात करना जिसका निर्देशन निलय राय ने किया। क्‍योंकि वहां तो कलाकारों को तमाम तरह के ड्रील करने थे और ड्रील करते करते ही संवाद अदा करने थे। अब वे ड्रील का अभ्‍यास किए होंगे कि अपने पात्र में डूबे होंगे। एक दूसरों की पीठ पर, कंधों पर चढ़कर जबकि कभी उनके पांव लड़खड़ाने को होते और कभी पूरा शरीर ही झूल कर लटक आने को हो रहा होता। तिस पर अतिमहत्‍वाकांक्षा में डूबा निर्देशक इतिहास कथा के उस कथानक के तार्किकता पर भी नहीं सोचता कि क्‍या चाणक्‍य की हत्‍या हो जाने और मौर्य वंश का विनाश हो जाने से ही बौद्ध धर्म कैसे अचानक उदित हो गया। बस सभी कलाकारों को गोल घेरे में बुद्धम शरणम गच्‍छामी उच्‍चारना है।