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Monday, September 19, 2016

नदी गुमसुम क्यों हो गयी

85 वर्षीय ज़करिया तामेर सीरिया के दुनिया भर में लोकप्रिय कथाकार हैं जिनकी रचनाएं अनेक भाषाओं में अनूदित हुई हैं,अंग्रेज़ी में उनके तीन कहानी संकलन प्रकाशित हुए।वे कहानी को साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबसे मुश्किल स्वरुप मानते हैं और मानव त्रासदी और शोषण को अपनी रचनाओं का मुख्य स्वर बनाते हैं।उनकी कुछ कहानियां तो तीस चालीस शब्दों तक सीमित हैं। मैंने ज़करिया तामेर की अनेक कहानियों के अनुवाद किये हैं। वर्तमान कहानी भले ही फ़ेबल जैसी लगती हो पर विषय वस्तु के दृष्टिकोण से भारतीय समाज में सिर उठा रही असहिष्णुता और तलवारभाँजी पर सटीक टिप्पणी करती है - हमारी पीढ़ी का दायित्व है कि नदी हताश होकर गुमसुम होने का फैसला करे इस से पहले सक्रिय संघर्ष छेड़ के आततायी को भगाने का संकल्प लें।

प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र 


ज़करिया तामेर 


एक समय था जब नदी बात करती थी.... जो बच्चे उसके किनारे पानी पीने या हाथ मुँह धोने आते उनसे नदी खूब घुलमिल कर बातें करती। वह  अक्सर बच्चों को छेड़ने के लिए उनसे सवाल करती :"अच्छा बोलो ,धरती सूरज के चारों ओर घूम रही है .... या सूरज धरती के चारों ओर ?"
पेड़ों की जड़ें सींचना  और उनके पत्ते हरे भरे बनाये रखना नदी  को अच्छा लगता था... गुलाब मुरझा न जाएँ इसको ध्यान में रखना और दूर देशों तक उड़ कर जाने वाले  परिंदों की यात्रा शुरू करने से पहले प्यास बुझाना उसको बहुत भाता था। बिल्लियों के साथ वह  खूब छेड़छाड़ भी करती जब वे नदी किनारे आकर पानी उछालते हुए उधम करतीं। 
एकदिन सारा मंजर बदल गया ,पथराई शक्ल वाला एक आदमी तलवार लेकर वहाँ आ पहुँचा और अकड़ कर बैठ गया कि उसकी इजाज़त के बगैर कोई भी नदी का पानी नहीं पियेगा - चाहे बच्चे हों ,पेड़ पौधे हों ,गुलाब हो या कि बिल्लियाँ हों। उसने फ़रमान सुनाया कि अब से नदी का मालिक सिर्फ़ वह है कोई और नहीं। 
नदी तुमक कर बोली : मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूँ। 
एक बूढ़ा पक्षी बोला : इस धरती पर कोई प्राणी ऐसा नहीं जन्मा है जो दावा करे कि नदी का पूरा पानी मैं पी जाऊँगा। 
पर तलवारधारी व्यक्ति किसी की सुनने को तैयार नहीं था - नदी या बूढ़े पक्षी की बात का उसपर कोई असर नहीं हुआ। भारी भरकम रोबीली आवाज़ में उसने हुक्म दिया : अब से नदी का पानी जो भी पीना चाहेगा उसको मुझे सोने की एक अशर्फ़ी देनी पड़ेगी। 
सभी परिन्दे मिलकर बोले : हम तुम्हें दुनिया के सबसे खूबसूरत गीत गाकर सुनायेंगे। 
आदमी बोला : मुझे दौलत चाहिये ,संगीत तुम अपने पास ही रखो...मुझे नहीं चाहिए। 
पेड़ बोले : हम अपने फलों की पहली फसल तुम्हें दे देंगे। 
आदमी अकड़ कर बोला ; जब मेरा मन करेगा फल तो मैं वैसे भी खाऊँगा ही.. देखता हूँ  मुझे कौन रोकता है।
गुलाब एक स्वर में बोले : हम अपने सबसे सुंदर फूल तुम्हें दे देंगे। 
आदमी ने जवाब दिया : कितने भी सुंदर हों पर मैं उन फूलों का करूँगा क्या ?
बिल्लियां बोलीं : हम तुम्हारे मनोरंजन के लिए तरह तरह के खेल खेलेंगे ... और रात में तुम्हारी देखभाल भी करेंगे। 
आदमी को गुस्सा आ गया : खेल कूद से मुझे सख्त नफ़रत है ... और रही मेरी हिफ़ाजत की बात तो यह तलवार ही मेरा पहरेदार है  जिसका  मैं भरोसा करता हूँ। 
अब बच्चों की बारी थी ,बोले : हम वह सब करेंगे जो तुम कहोगे। 
बच्चों की ओर हिकारत से देखते हुए आदमी बोला : तुम सब मेरे किसी काम के नहीं मरगिल्लों... तुम्हारे बदन में कोई जान नहीं है। 
उसकी बातें और धिक्कार सुनके सब के सब मुँह लटका कर एक तरफ़ खड़े हो गए ,पर वह आदमी बोलता रहा : बात एकदम पक्की है ,नदी का पानी जिसको भी पीना हो वह मुझे सोने की अशर्फ़ी दे और पानी पी ले। 
एक नन्हा पक्षी प्यास से बेहाल हो रहा था और वह सब्र नहीं कर पाया ,उसने नदी का पानी पी ही लिया। आदमी उसके पास आया , कस कर उसको मुट्ठी में मसलने लगा और फिर तलवार से टुकड़े टुकड़े काट कर ज़मीन पर फेंक दिया।
उसकी दरिंदगी देख कर गुलाबों को रुलाई आ गयी ,पेड़ रोने लगे , पक्षी भी अपना धीरज खो बैठे , बिल्लियाँ भी स्यापा करने लगीं... बच्चे भला कहाँ पीछे रहते ,वे भी जोर जोर से रोने लगे। उनमें से कोई नहीं था जिसके पास एक भी अशर्फ़ी हो ,और पानी के बगैर उनका जीवन बचना असंभव था। और तलवारधारी आदमी था कि अपनी ज़िद पर कायम था ,पानी तभी मिलेगा जब सोने की अशर्फी के तौर पर उसको उसकी कीमत मिलेगी। देखते ही देखते गुलाब मुरझा गए ,पेड़ पौधे सूख गए ,पक्षी जान बचाने की ख़ातिर जहाँ तहाँ चले गए ,हँसते खेलते बच्चे और बिल्लियां सब वहाँ से गायब हो गए। इस दुखभरी वीरानी ने नदी को इतना हतोत्साहित किया कि उस दिन से उसने अपना मुँह सी लिया - उसने फैसला किया कि अब वह बोलेगी नहीं पूरी तरह गुमसुम रहेगी।
कुछ दिन ऐसे वीराने बीते पर बच्चों बिल्लियों गुलाबों पेड़ों और पक्षियों को प्यार करने वाले लोग वहाँ लौट आये - उन्होंने तलवारधारी आदमी के साथ लड़ाई की और उसको मिलजुल कर वहाँ से मार भगाया। उन्होंने नदी का पानी पहले जैसा सबके लिए मुहैय्या करा दिया - बगैर कोई कीमत अदा किये सब उसका पानी पी सकते थे। पर सब कुछ बदल जाने के बाद भी नदी की आवाज़ नहीं लौटी। लोगों ने बहुतेरा हौसला दिया पर नदी बीच बीच में अचानक घबरा कर थरथराने लगती है - उसके मन से तलवारधारी का खौफ़ गया नहीं। ... नदी को लगता है कभी भी वह आततायी लौट आएगा। 

Tuesday, August 23, 2016

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन

पिछले दिनों पढ़ते हुए मेरे हाथ एक अनूठी सी बेहद छोटी कविता हाथ आयी। संयोग से कुछ शब्दों वाली इस कविता का शीर्षक ऐसा था जिसने मेरा ध्यान एकदम से खींच लिया - लंबी दूरी के धावक का अकेलापन। इसको पढ़ते हुए मुझे बार बार लगा कि दूर के निशाने साधने के लिए कितनी कुशल कारीगरी और फ़ोकस की दरकार होती है। प्रचुर मात्रा में कवितायें ,उपन्यास और नाटक लिखने वाले कनाडा के प्रसिद्ध कवि एल्डेन नोव्लेन - एक संघर्षशील परिवार में उनका बचपन मुश्किलों और घनघोर अकेलेपन में बीता और लम्बी दूरी तय कर चोरी चोरी लाइब्रेरी से किताबें लेकर वे साहित्य की ओर उन्मुख हुए। पूरे जीवन में उनको कभी साल भर की स्थायी नौकरी नहीं मिल पायी ..... कोई गाड़ी खरीदने की कभी उनकी औकात नहीं हुई, न उन्हें ड्राइविंग आयी। एल्डेन कहते भी हैं कि "इस मुसीबत में मेरे पास तीन रास्ते थे - पागलपन , मौत या कविता"- ज़ाहिर है उन्होंने कविता का रास्ता चुना। पर इस मुफलिसी में भी एल्डेन नोव्लेन ने उम्मीद का साथ कभी नहीं छोड़ा।उनकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उदधृत हैं ।
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

मैंने , एक इंसान ने , मौत तक को पालतू बना लिया।

*******************मैं बुढ़ा ज़रूर गया हूँ
पर जादू टोना जानता हूँ
और जा घुसा हूँ
एक जवान आदमी के शरीर के अंदर .....
****************
मैं कविता को आवाज़ लगाता हूँ
और वह है कि मुस्कुरा कर कहती है :
तुम कभी सयाने नहीं हुए ....
**********************
कितना अच्छा है कि
हम साझा करते हैं धरती को तमाम जीवों के साथ ...
कितना अकल्पनीय होता
कि मैं जन्म न लेता 
और अनुपस्थित हो जाता यह संग साथ ....
*********************
कोई बच्चा जिस दिन समझ लेता है
कि सभी वयस्क आधे अधूरे दोषपूर्ण हैं
वह किशोर हो जाता है ...
जिस दिन वह उनको माफ़ कर देता है
वह बच्चा नहीं रहता वयस्क हो जाता है
और जिस दिन ऐसा करने के लिए
वह स्वयं को माफ़ कर देता है
बच्चा बुद्धिमान हो जाता है।
***********************
मुझे यह ईश निंदा जैसा कृत्य लगता है
कि कवितायें लिखी जायें
उन दुखों के बारे में
जिन्हें महसूस ही न किया गया हो ....
******************

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन


मेरी पत्नी आ धमकी कमरे में
जहाँ मैं लिखने में तल्लीन था
प्रेम कविता
उसी के लिए .....
और अब जब वह कविता
एकदम से लुप्त हो गयी
मन ही मन
बैठा बैठा कोस रहा हूँ
मैं अब उसी को ....

Friday, May 27, 2016

कवि के अनकहे को पहचानना जरूरी है

यादवेन्द्र जी इस ब्लाग के ऐसे सहयोगी हैं कि इसमें जो कुछ अन्य भाषाओं से दिखेगा उन्में ज्यादातर अनुवाद और चयन यादवेन्द्र् जी ने ही किये हैं। यह उनकी स्वैच्छिक जिम्मेदारी और ब्लाग से उनके जुड़ाव का हिस्साा हैं। पिछले कई महीनों से वे जरूरी कामों में व्यस्त हैं। यही वजह है कि हम अपने पाठकों को अनुदित रचनाओं का फलक दे पाने में असमर्थ रहे हैं। उक्‍त के मद्देनजर, मैं खुद अनुवाद का प्रयास करते हुए दो कविताएं पोस्‍ट कर रहा हूं। अपने सीमित भाषा ज्ञान और कथाकार साथी योगन्द्र आहूजा की मद्द से चीनी कवि मिंग डी की दो कविताओं का अनुवाद करने का प्रयास किया है। मेरे अभी तक के जीवन का यह पहला अनुवाद है।
वैसे एक राज की बात है कि पहली कविता के अनुवाद में मेरे भाषायी ज्ञान की सीमा भर वाले अनुवाद में आप कविता का वह आस्वाद शायद न पकड़ पाते जो योगेन्द्र जी के भाषायी ज्ञान और अनुभव के द्वारा कविता को करीब से पकड़ने वाला हुआ है। सिर्फ योगन्द्र जी के संकोच का ख्याल रखकर ही कह रहा हूं कि मैं उनके सुझावों के मद्देनजर ही अनुवाद को अन्तिम रूप दे पाया हूं, वरना इस कविता के लिए तो श्रेय उन्हीं का है। हिन्दी अनुवाद उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है। अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहां लिंक कीजिये। अनुवाद के बारे में स्वंय मिंग डी का कहना है कि अनुवाद का मतलब है, मूल कवि के मानस में प्रवेश करके उस चीज को अच्‍छे से परखना चाहिए जो कवि का उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता। ताकि अनुवाद में संश्यात्मकता से बचा जा सके। अपनी कोशिशों में मेरे सामने यह सूत्र वाक्य लगातार मौजूद रहा।

चीन में पैदा हुई मिंग डी एक सुप्रसिद्ध चीनी कवि हैं। अभी यू एस ए में रहती हैं। अनुवाद और संपादन की दुनिया में वे सक्रिय रूप से हत्सतक्षेप करती हैं। इन्टरनेट पर मौजूद जानकारियां बता रही हैं कि अभी तक उनके 6 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 

वि.गौ.

पत्ती का बयान  


अपने तेज आघातों से सवाल करती हवा को
ढह जाते चिनार का जवाब-

हजार सफेद पत्तियां। हजार
निर्दोष जुबानें।  हजार
दस हजार रंगीन बहानें।         (उपरोक्‍त पंक्तियों  के अनुवाद अनिल जनविजय जी की सलाह पर दुरस्त किये गये।  
                                                      अनिल जी  का आभार)



मैं एक पत्ती उठाती हूं, जकड़ लेती हूं मुट्ठी में
जैसे थाम रही हूं समूचा दरख्त 

क्यू  युनान बताता है
पत्ती सच्चा बयान है दरख्त का

तांग लोग बताते हैं,
पतझड़ के दौरान पत्ती ही उघाड़ती है
समूचे शरद का रहस्य

मगर मैं तो महज एक पत्ती ही देखती हूं।


एक द्वीप चिडि़यों का  


हर दिन रहती है सपनों की दोपहर
लबालब जलाशय में तैरता जैसे बेहद शांत द्वीप


पेड़ की फुनगी पर बैठी चिडि़या पुकारती है मुझे 
नहीं जानती मैं हूं यहां नीचे
अपने शरीर को, चार अंगों को घुमेर देती नदी
सारी रात अंधेरे में खुली रहने वाली मेरी आंखें
चिडि़या की परछायी सी
नजर आती हैं जल में

अंधेरे में भी मुझे ताकती रहती हैं चिडि़यां
एक द्वीप मेरे भीतर चिडि़यों का
गाता रहता है गीत उजालों के:  

काफी पहले विदा हो गया मेरा घर
नारीयल और केलों के पेड़ो के साथ

सपनों में देखती हूं खिली हुई दोपहर ने
गढ़ दिया है एक स्वच्छंद द्वीप

Saturday, August 22, 2015

क्या ऐसे प्यार किया

अनेक चर्चित कविता संकलनों के रचयिता टोनी हॉगलैंड ने 2003 में "द चेंज" शीर्षक से एक कविता लिख कर सेरेना विलियम्स के "बड़े ,काले और किसी धौंस में न आने वाले शरीर" पर कटाक्ष कर के अश्वेत समुदाय की प्रचुर आलोचना झेली। एक दशक से ज्यादा समय से अविजित टेनिस किंवदंती सेरेना विलियम्स को खेल और ग्लैमर के लिए जाना जाता रहा है पर बहुत कम लोगों को खबर है कि 2008 में उन्होंने एक प्रेम कविता भी लिखी और अपने आधिकारिक वेबसाइट पर लोगों को पढ़ने के लिए प्रस्तुत  भी की। ज़ाहिर है, कविता और प्रेम दोनों किसी ख़ास वर्ग की बपौती नहीं हैं ………  

क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि बात बात में आने लगे रुलाई?
क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी जाये मौत भी?
ऐसा जो नहीं किया
तो कैसे रह पाओगी उसके साथ साथ ?

क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो खरा निर्विकार है
क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो इतना भरोसा पैदा कर दे
अपने आप पर
अपनी शक्ति पर
अपनी समझ पर ?

कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके हाथ सौंप दो अपने जीवन की पतवार ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके ऊपर न सिर्फ़ मचल मचल आये दिल
बल्कि फूट फूट आये उनपर प्यार की धार
खुल जाये जिनके सामने सारी गाँठें
और बन जाओ एकदम उन्मुक्त ?

कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि छाया की तरह ख़्वाहिश होने लगे उसके साथ की पल पल ?
कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि उसके लिए नामुमकिन हो जाये कुछ भी इनकार कर देना
भीख , उधारी से लेकर चोरी तक सबकुछ
खाना पकाओ, पहिये साफ़ करो .... सब कुछ ?

 
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि घर से बाहर निकलो और चिल्ला चिल्ला कर
इसकी बाबत सुना डालो सारी दुनिया को ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि विस्मृत हो जाये मन से अच्छा बुरा
दूसरे सबने जो कहा अबतक … सब कुछ ?
चाहत यह कि बस थामे रहे तुम्हें प्रिय हर पल
और डाँट भी लगाये जब जब हो जाये कोई गलती
पर इज्ज़त और अपनेपन से?
वह प्यार से तुम्हें सँभाल लेगा बड़ा बन कर
जितना ही गहरा जायेगा प्यार में

प्यार बड़ा  है प्रबल
प्यार में है बहुत जोर
और  जब मिल जाये प्रिय कोई ऐसा
कर नहीं सकता कोई बाल बाँका
खुल कर प्यार करो तोड़ कर सारी सीमायें
वैसे ही जैसे गाड़ी करती हो स्टार्ट पहली पहली बार
फिर प्यार भी जी जान से करेगा हिफ़ाज़त तुम्हारी।  
                                ( प्रस्तुति : यादवेन्द्र )
-- 

Thursday, July 30, 2015

प्रतिरोध का गीत


अभी हाल में अमेरिकी अदालत में एक दिलचस्प मामला आया जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कम्पनी पीबॉडी इनर्जी कॉर्प ने अपने खिलाफ़ दायर मुक़दमे को ख़ारिज करने से ज्यादा जोर इस बात पर लगाया कि तहरीर में उद्धृत करीब 45 साल पुराने एक गीत की पंक्तियाँ हटा दी जायें।यह तहरीर दो पर्यावरण ऐक्टिविस्ट लेस्ली ग्लूस्ट्रॉम (चित्र) और थॉमस एस्प्रे ने दो साल पहले कम्पनी के विरोध में प्रदर्शन करने पर की गयी अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती देते हुए दी थी। इन याचिकाकर्ताओं ने अपनी तहरीर की शुरुआत लोकगायक जॉन प्राइन(चित्र) के 1971 के अत्यंत लोकप्रिय गीत "पैराडाइज़" की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों से की है जिसमें पीबॉडी द्वारा स्ट्रिप माइनिंग के जरिये पैराडाइज़ नामक शहर(इसको "स्वर्ग" के प्रतीक के रूप में भी लिया जा सकता है) के उजड़ने की बात कही गयी है। यह गीत पर्यावरण ऐक्टिविस्ट आज भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाते हैं।
--यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294
पीबॉडी के कोयला खनन और नागरिकों द्वारा उसके विरोध का इतिहास बहुत पुराना है जब समय समय पर खनन करने की उसकी स्ट्रिप तकनीक और उस से पर्यावरण को होने वाले विनाश का जबरदस्त विरोध किया गया। इसी विरोध को 1971 में डाकिया से लोकगायक बने जॉन प्राइन ने ने शब्द और स्वर दिये - प्राइन का बचपन का बड़ा हिस्सा ग्रीन नदी के किनारे बसे पैराडाइज़ शहर में बीता और कोयला खनन के चलते उसके उजड़ते चले जाने को उन्होंने नज़दीक से देखा है।सत्तर के दशक में इस शहर का अस्तित्व धरती पर से मिट गया जब पूरी ज़मीन खनन को समर्पित कर दी गयी। उस समय भी पीबॉडी कम्पनी जॉन प्राइन के गीत की लोकप्रियता से घबरा गयी थी और उसने "फैक्ट्स वर्सेस प्राइन" शीर्षक से पुस्तिका छाप कर बाँटी थी जिसमें धौंस जमाते हुए कहा गया कि "संभवतः हमने ही उस गीत की रिकॉर्डिंग के लिए बिजली मुहैय्या करायी जो हमारे ऊपर पैराडाइज़ को खुरच कर उजाड़ डालने का आरोप लगा रहा था।" अब 44 साल बाद पीबॉडी एकबार फ़िर इस गीत से भयभीत हो रहा है - गीत में बयान किये तथ्यों की आँच साढ़े चार दशकों बाद भी जनता को सड़कों पर आने को प्रेरित कर रही है। कम्पनी ने कोर्ट से गुज़ारिश की है कि "याचिकाकर्ता गीत के माध्यम से पीबॉडी को बदनाम करने के साथ साथ पूरी इनर्जी इंडस्ट्री पर हमले कर रहे हैं....वे बेतुकी , असत्य , अनावश्यक और भड़काने वाली बात कर रहे हैं।" पीबॉडी कंपनी ने अपनी गतिविधियों के प्रति बढ़ते जनप्रतिरोध देखते हुए 2013 शेयरधारकों बैठक अपने मुख्यालय सेंट लुइस में न करके नार्थ व्योमिंग के एक कॉलेज में आयोजित की जहाँ प्रदर्शन कर रहे हुए याचिकाकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था।आंदोलनकर्ताओं का आरोप था कि कम्पनी पर्यावरण का विनाश करने के साथ साथ अपनी एक सहायक कंपनी दिवालिया घोषित कर के अपने करीब 25 हज़ार कामगारों को पेंशन और स्वास्थ्य बीमा के लाभों से वंचित करने का षड्यंत्र रच रही है।




  -- जॉन प्राइन


पैराडाइज़ 
         
जब मैं छोटा था मेरा परिवार जाता था
वेस्टर्न केंटुकी 
मेरे माँ पिता वहीँ पैदा हुए थे 
बाबा आदम के ज़माने का एक पिछड़ा शहर है वहाँ 
वह अक्सर याद आता है .... बार बार 
इतनी बार कि मेरी स्मृतियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। 



(कोरस)

अब तुम्हारे डैडी लेकर नहीं जायेंगे 
तुमको मुहलेनबर्ग काउंटी 
वहीँ जहाँ नीचे उतरो तो बहती है 
ग्रीन नदी 
और पहले बसता था पैराडाइज़ शहर ....
माफ़ करना बेटे… बहुत देर कर दी तुमने भी 
मिस्टर पीबॉडी का कोयला कब का 
ले जा चुका उसको तो अपने साथ खुरच कर। 

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कोयला कम्पनी दुनिया का सबसे बड़ा बेलचा लेकर आयी 
और उजाड़ डाले सभी पेड़ पौधे 
सारी धरती नंगी कर दी खुरच खुरच के 
पहले कोयला निकाला और घुसते चले गये 
धरती जहाँ ख़तम हो जाती है अंदर पाताल तक 
और दुनिया भर में  पीटते रहे ढिंढोरा
कि कर रहे हैं विकास पिछड़े आदमी का। 



(कोरस)


मैं जब मरुँ मेरी राख बिखेर देना 
ग्रीन नदी के ऊपर 
और दुआ है कि मेरी रूह जाकर टिक जाये 
रोचेस्टर डैम के ऊपर 
ऐसे मैं स्वर्ग के आधे रस्ते तो पहुँच ही जाऊँगा 
और मिल लूँगा इंतज़ार करते पैराडाइज़ से 
वहाँ से मेरा गाँव बहुत पास है 
महज़ पाँच मील दूर।   




 अनुवाद- यादवेन्द्र

Wednesday, January 4, 2012

साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,

मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...


आपकी बच्ची
साहेल



Friday, December 9, 2011

शादी एक निजी मामला है




चिनुआ अचीबी अफ्रीका के जीवित  महा कथापुरुष हैं और कहा जाता है कि अफ्रीका को जानना है तो इतिहास की किताबों की  बजाय चिनुआ अचीबी का कथा साहित्य पढना चाहिए.उन्हें नोबेल छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी बड़े साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं.यहाँ प्रस्तुत है पचास साथ साल पहले लिखी उनकी एक बेहद मार्मिक कहानी...इस कहानी की खास बात यह है कि  यदि नाम और स्थान को भूल जाएँ तो यह पूरी तरह से  भारतीय समाज से उपजी हुई एक  कहानी लगती है. ब्लॉग के पाठक मित्रों के लिए यहाँ प्रस्तुत है वह कहानी:
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 
                       -- चिनुआ अचीबी

एक शाम लागोस के अपने कमरे में बैठे बैठे नेने अचानक नेमेका से पूछ बैठी:
तुमने अपने पिताजी को चिट्ठी लिख दी?
नहीं,मैं अभी सोच ही रहा था.मुझे लग रहा है कि चिट्ठी लिखने की बजाय जब
छुट्टी में घर जाऊंगा तो सामने बैठ कर ही बता दूंगा.
पर ऐसा क्यों?अभी तो तुम्हारी छुट्टी बहुत दूर पड़ी है..पूरे छह हफ्ते
.हमारी ख़ुशी में उनको शामिल होने का पूरा हक़ है.
थोड़ी देर के लिए नेमेका खामोश बना रहा,फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोला: मुझे
पहले यह तो भरोसा हो कि इस खबर से उनको ख़ुशी मिलेगी.
बिलकुल मिलनी चाहिए....नेने ने जोर दे कर कहा...तुम्हें इसमें शंका क्यों
हो रही है?
तुम तो सारी उमर लागोस जैसे शहर में रही...दूर दराज के गांवों में रहने
वाले लोगों के बारे में तुम्हें क्या पता.
तुम हमेशा यही कहते हो.पर यह मेरी समझ से परे है कि उनके बेटे की शादी
तय हो जाये और वो इस से उन्हें दुःख पहुंचे...यह तो बिलकुल इल्ति रीत
हुई.
बिलकुल सही,उनको गहरा सदमा लगेगा जब उनके तय किये बगैर बेटे की शादी
पक्की हो जाये.हमारे मामले में तो और भी फजीहत होगी...तुम तो मेरी जाति
की भी नहीं हो.
यह बात इतनी गंभीरता से और इतने नंगे रूप में कही गयी थी कि नेने को थोड़ी
देर तक तो साँस भी नहीं आई,बोलना मुहाल.बड़े शहर के माहौल में पली बढ़ी
नेने के लिए यह कल्पना से परे था कि किसी युवक की बिरादरी उसकी  शादी के
लिए लड़की  तय करेगी.
थोड़ा ठहर कर उसने कहा: तुम यही कहना चाहते हो कि उनको इसी बात पर सबसे
ज्यादा एतराज होगा कि तुम बिरादरी से बाहर शादी कर रहे हो? मुझे हमेशा से
यही लगता रहा कि तुम्हारी बिरादरी दूसरे लोगों के प्रति बड़ी उदार है.
बात सही है कि हम ऐसे ही हैं.पर जब शादी का मामला सामने हो तो सारी
उदारता गयी घास चरने.पर यह सिर्फ मेरी बिरादरी का सच नहीं है...उसने
कहा...आज यदि तुम्हारे पिता जीवित होते और ऐसे ही दूर दराज के गाँव में
रहते होते तो बिलकुल मेरे पिता जैसा ही बर्ताव करते.
मुझे नहीं मालूम क्या करते.पर तुम तो अपने पिता के इतने लाडले बेटे
हो...वो तुम्हें जल्दी ही माफ़ कर देंगे.अब अच्छे बच्चे की तरह फटाफट
कागज कालम लो और उनको एक प्यारी सी चिट्ठी लिख डालो.
मुझे लगता है कि चिट्ठी लिख कर उन तक यह बात पहुँचाना अच्छी बात नहीं
होगी...चिट्ठी उनको  एक तीर की तरह जा कर चुभेगी..इस बारे में मुझे कोई
शुबहा नहीं.
ठीक है डिअर..जैसा ठीक लगे वैसा ही करो.आख़िर तुम्हीं  अपने पिता को जानते हो.
शाम को जब नेमेका अपने कमरे पर लौटा तो उसके मन में शादी के लिए अपनी
पसंद की लड़की चुन लेने की बात पर पिता के क्रोध से निबटने के लिए तरह तरह
की तरकीबें आती रहीं.बार बार उसके मन में चिट्ठी भेजने से पहले नेने को
दिखा लेने की बात आती रही पर अंत में उसने यही तय पाया कि इसके लिए यह
सही समय नहीं है.कमरे पर पहुँच कर उसने पिता को लिखी चिट्ठी फिर से ठंडे
दिमाग से पढ़ी..अपने आप पर उसको हँसी भी आ गयी..एकदम से उसको उगोये का
ध्यान आ गया...वह लड़की जो स्कूल से लौटते हुए साथ के सभी लड़कों की (
नेमेका भी उनमें शामिल था) पिटाई किया करती थी.
मैंने तुम्हारे लिए जिस लड़की को पसंद किया है मुझे लगता है वह तुम्हें
खूब पसंद आएगी..अपने पडोसी जैकब न्वेके की सबसे बड़ी बेटी उगोये
न्वेक्व.उसकी परवरिश बिलकुल शुद्ध ईसाई ढंग से हुई है.पिछले दिनों जब
उसने स्कूल की पढाई पूरी की तो उसके सयाने पिता ने उसको एक पादरी के घर
पत्नी बनने की बाकायदा ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया.उसके टीचर ने मुझे
बताया कि वह बाइबिल बड़े सधे हुए ढंग से पढ़ती है. मैं चाहता  हूँ कि
दिसंबर में जब तुम घर आओ  तो हम शादी की  बात शुरू करें.
शहर से घर जाने के दूसरे दिन नेमेका घर के सामने के उस पेड़ के नीचे अपने
पिता के साथ बैठा जहाँ  बैठकर वे बाइबिल पढ़ा करते हैं.
पापा,मैं आपके पास माफ़ी माँगने आया हूँ...नेमेका ने पिता से कहा.
माफ़ी?क्या हुआ बेटे?..अचरज से पिता ने पूछा.
शादी के सिलसिले में...
कैसी शादी?
मैं..हमें..मैं यह कहना चाहता हूँ कि न्वेके की बेटी के साथ शादी करना
मेरे लिए संभव नहीं है.
ना-मुमकिन...ऐसा कैसे हो सकता है...पर क्यों?
क्योंकि मैं उसको प्यार नहीं करता.
किसने कहा कि तुम उस से प्यार करते हो...और करना भी क्यों चाहिए?
आज के समय में शादी आपके समय से अलग होती है.
सुनो मेरे बेटे...पिता ने तमक कर कहा...कुछ भी नहीं बदला,पत्नी चुनते हुए
बस यही देखना चाहिए कि उसका चाल चलन अच्छा हो और उसकी परवरिश अच्छे
धार्मिक माहौल में हुई हो.
नेमेका को समझ आ गया कि इस वक्त अपने तर्कों से वो पिता को नहीं जीत सकता.
और दूसरी बात ये है कि मैं किसी दूसरी लड़की के साथ सगाई कर चुका हूँ
जिसमें वो सब गुण हैं जो उगोये में हैं...और..
पिता को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ...क्या कहा  तुमने?..अस्पष्ट सी
धीमी आवाज में उन्होंने पूछा.
वो एक धार्मिक लड़की है और लागोस के एक गर्ल्स स्कूल में टीचर है..बेटे ने सफाई दी.
टीचर...यही कहा न तुमने?यदि मुझसे पूछो कि अच्छी पत्नी के लिए जरुरी गुण
क्या होते हैं तो मैं कहूँगा कि किसी ईसाई स्त्री को टीचर नहीं होना
चाहए.सेंट पाल ने अपनी एक चिट्ठी में लिखा है कि स्त्रियों को ख़ामोशी का
पालन करना चाहिए....पिता अपनी जगह से उठे और आगे पीछे टहलने लगे.अब वो
अपने प्रिय विषय पर आ गए थे और उन्होंने जोर जोर से चर्च के उन नेताओं को
बुरा भला कहना शुरू कर दिया जो स्त्रियों को शिक्षण के क्षेत्र में जाने
के लिए प्रेरित करते हैं.देर तक धारा प्रवाह बोलते रहने के बाद जब वे थक
कर हाँफने लगे तो फिर से शादी के मुद्दे पर आये.
तो वो किसी बेटी है?
उसका नाम नेने अटंग है.
क्या?...सारी नरमी पाल भर में काफूर हो गयी...इस  नाम का क्या मतलब?
नेने अटंग,कालाबार से है वो.मैं शादी करूँगा तो सिर्फ उसी से...नेमेका
बिना आगा पीछा देखे बोल पड़ा था.पर अगले ही पल उसको तूफ़ान फट पड़ने  का
अंदेशा हो गया.ताज्जुब की बात कि उसका अंदेशा गलत निकला.पिता चुपचाप वहाँ
से अपने कमरे में चले गए.नेमेका को इस बदले हुए बर्ताव से खुद भी अचरज
हुआ.उसको मालूम था कि पिता की चुप्पी उनकी दहाड़ों भरी  भाषणबाजी से
ज्यादा खौफनाक होती है.पिता ने उस रात खाना भी नहीं खाया.
अगले दिन जब वो बेटे को विदा करने लगे तो बार बार उसको अपना निश्चय बदल
देने के लिए समझाते भी रहे.पर नौजवान बेटे के निश्चय में रत्ती भर का भी
फर्क नहीं आया देख अंत में उन्होंने मन को समझा  लिया कि बेटा अब हाथ से
निकाल चुका है.
यह मेरा फर्ज था कि मैं तुम्हें सही और गलत में फर्क करना बताऊँ..पर
जिसने भी तुम्हारे भेजे में उस लड़की का ख्याल भरा है उसने तुम्हारी जुबान
काट दी है..यह शैतान का ही काम हो सकता है...जाते हुए बेटे की ओर हाथ
उठाते हुए पिता ने अंत में उस से कहा.
आप जब नेने से मिल लेंगे तो आपके विचार बदल जायेंगे पापा.
मैं उसको भला क्यों मिलने लगा?..पिता की आवाज नेमेका ने सुनी.
उसके बाद से नेमेका से पिता की बातचीत लगभग बंद ही हो गयी.हाँलाकि उनके
मन में यह उम्मीद निरंतर बनी रही कि एक दिन बेटे को अपनी गलती का एहसास
जरुर होगा.बेटे का मन बदलने के लिए उन्होंने दुआओं का भी खूब सहारा लिया.
नेमेका को भी पिता का दुःख देख कर गहरा धक्का लगा था पर उसको यह भरोसा था
कि जल्दी ही वे इस सदमे से उबर जायेंगे.यदि उसको पहले से मालूम होता कि
उसकी बिरादरी के सम्पूर्ण इतिहास में कभी भी किसी युवक ने दूसरी भाषा
बोलने वाली लड़की से विवाह नहीं किया तो पिता के बारे में वह इतना
आशान्वित न होता.
ऐसा पहले कभी सुना ही नहीं गया...बेटे के बर्ताव से आहत उसके पिता को
दिलासा देने  दूसरे गाँव से आए बिरादरी के एक बुजुर्ग दूसरों को सुना
सुना कर कह रहे थे.
प्रभु  ने पहले ही कह दिया था...बेटे अपने पिताओं के खिलाफ खड़े  हो
जायेंगे..पवित्र पुस्तक में लिखा हुआ है...दूसरे बुजुर्ग ने फरमाया.
विनाश की यह शुरुआत है.....किसी दूसरे की आवाज सुनाई दी.
लम्बी चौड़ी धार्मिक चर्चा को समेटते हुए एक निहायत व्यावहारिक बुजुर्ग ने
कहा: अपने बेटे के बारे में किसी ओझा से बात क्यों नहीं करते?
पिता ने ठंडे ढंग से जवाब दिया: पर उसको  कोई बीमारी थोड़े ही है.
बीमार नहीं है तो क्या है?उस लड़के का दिमाग बीमारी से ग्रसित है और कोई
अच्छा हकीम ही उसको ठिकाने पर ला सकता है...दर असल उसको वही दवाई माफिक
आयेगी जो स्त्रियाँ अपने पतियों को काबू में लाने के लिए इस्तेमाल करती
है.
दूसरे बुजुर्गों ने भी इस ख़ास मशविरे पर अपनी मुहर लगा दी.
नेमेका के पिता चाहे जो भी हों  अपने आस पास रहने वाले लोगों की तरह
मूढ़मगज नहीं थे,सो बोले: मैं किसी ओझा हकीम के चक्कर में नहीं पड़ने
वाला..यदि मेरा बेटा खुदकुशी पर ही आमादा है तो कर लेने उसको ऐसा ही,मैं
इसमें कुछ नहीं कर सकता.
छह महीने बाद नेमेका अपनी युवा पत्नी को पिता की लिखी एक चिट्ठी दिखा रहा
था.लिखा था:
मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे तुमने  मेरे पास अपनी शादी को फोटो भेजने
की जुर्रत की.मैं तो इसको लौटती डाक से  ही वापस भेजने वाला था.पर थोड़ा
विचार करने के बाद मुझे लगा कि इसमें से मैं तुम्हारी पत्नी की  फोटो
फाड़ कर अलग कर देता हूँ और बाकी हिस्सा तुम्हें भेज देता हूँ...उस से
हमें क्या लेना देना...यह तो नहीं  हो सकता  कि उसी की तरह मैं अपने बेटे
को भी भूल जाऊं..
जब नेने ने यह चिट्ठी पढ़ी और बुरी तरह से फाड़ी हुई फोटो देखी तो उसकी
आँखों से आंसुओं कि तेज धार बह निकली...अपनी  रुलाई  वह नहीं रोक पाई.
रोओ मत मेरी प्रिय...खूब प्यार करने वाले पति ने कहा..मन से पिता अच्छे
आदमी हैं और एक न एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब हमारी शादी को उनका आशीर्वाद
मिलेगा.
पर साल दर साल बीतता रहा और वह दिन आया नहीं.देखते देखते आठ साल बीत गए
और पिता को बेटे की सुध नहीं आई.इस बीच में तीन ऐसे मौके आये जब  नेमेका
ने छुट्टियाँ बिताने को घर आने की इच्छा जताई...और पिता ने जवाब दिया:
मैं तुम्हें अपने घर में पाँव नहीं रखने दे सकता...एक मौके पर उन्होंने
लिखा...मुझे इस से  कोई मतलब नहीं कि तुम अपनी छुट्टियाँ कैसे मनाते
हो...या अपना जीवन कैसे जीते हो.
नेमेका की शादी को लेकर पैदा हुई कडवाहट सिर्फ उसके छोटे से गाँव तक
सीमित नहीं थी.लागोस में भी लोग इसको एक अलग नजरिये से देखते थे.पर वहाँ
की स्त्रियाँ जब आपस में मिलती तो नेने के प्रति कोई बुरा बर्ताव नहीं
करतीं.बल्कि उसको इतना आदर देती कि वह संकोचवश स्वयं अलग थलग पड़ जाती.
समय बीतने के साथ नेने ने कोशिशें कर के उनके स्थ मेल जोल थोड़ा बढ़ा भी
लिया.धीरे धीरे उन्होंने स्वीकार भी किया  कि नेने अपने घर को ज्यादा साफ़
और सुरुचिपूर्ण रखती है.
समय के साथ नेमेका के गाँव में यह खबर पहुँचने लगी कि नेमेका अपनी सुन्दर
पत्नी के साथ बड़े प्रेम और ख़ुशी के साथ रहता है. पर विडंबना यह थी कि
नेमेका के  पिता गाँव के उन बिरले लोगों में थे जिन्हें नेमेका के बारे
में बहुत कम जानकारी रहती थी.जब भी कोई उनकी मौजूदगी में नेमेका का नाम
लेता वे ऊँची आवाज में अपने क्रोध का इजहार करने लगते थे सो लोग उनके
सामने उसकी चर्चा करने से ही बचने लगे थे.इस व्यवहार के लिए उनको बहुत
परिश्रम कर के खुद को साधना पड़ा था..इसका  तनाव  उनके पूरे व्यक्तित्व
पर दिखाई देता था पर वह अपने ऊपर विजयी भाव सदा ओढ़े रहते.
एक दिन उनके पास नेने का लिखा एक पत्र आया..यूँ ही अनमने भाव से वे उसपर
निगाह डालने लगे पर अचानक उनके चेहरे के भाव बदलते दिखाई दिए...वे गौर से
चिट्ठी पढने लगे...
हमारे दो बेटे हैं..जब से उनको यह पता चला है कि उनके दादाजी भी हैं..तब
से निरंतर वे दादाजी के पास जाने की जिद पर अड़े हुए हैं. मेरे लिए यह
मुमकिन नहीं हो पा रहा है कि मैं उनको यह बताऊँ कि दादाजी उनका मुँह तक
देखने को राजी नहीं हैं.मेरी आपसे हाथ जोड़ कर यह बिनती है कि नेमेका के
साथ थोड़े समय के लिए उनको अगली छुट्टियों  में गाँव आने की इजाज़त दे
दें...मैं  नहीं आउंगी,यहीं लागोस में रहूंगी.
बूढ़े पिता को चिट्ठी पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि बरसों से संजोया उसका दृढ
निश्चय और संकल्प पल भर में धराशायी हो जायेगा.उसका मन कह रहा था कि इतनी
आसानी से यह संकल्प जमींदोज नहीं होना चाहिए.भावनात्मक आवेग के सामने वह
इस्पात की दिवार बन कर अड़े रहना चाहता था.पास की खिड़की से टिक कर वह
आसमान की ओर देखने लगा.आसमान में घने काले बदल थे पर तभी तेज हवा चलने
लगी और माहौल धूल और सूखी पत्तियों से भरने लगा.उसको लगा कि इस समय
प्रकृति भी मानव संघर्ष में हाथ बँटा रही है.देखते देखते बरसात शुरू हो
गयी,साल की पहली बरसात..बादलों की तेज गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ
मौसम में परिवर्तन का सन्देश मिलने लगा.पिता खूब कोशिश कर रहा था कि अपने
दोनों पोतों के बारे में सोचना बंद कर दे,पर  उसको साफ़ दिख रहा था कि वह
एक हारी हुई बाजी खेल  रहा है.मन कडा  कर के उसने अपना प्रिय भजन
गुनगुनाने की कोशिश की पर छत पर पड़ती बड़ी बड़ी बूंदों की आवाज से उसका
ध्यान भंग होने लगा.सारी कोशिशों के बावजूद उसका मन भाग भाग कर अपने
पोतों की ओर   ही जाने लगा.उनको बाहर धकेल कर वह घर का दरवाज़ा कैसे बंद
कर ले?उसकी आँखें स्पष्ट देख रही थीं कि दोनों बच्चे दरवाजे पर खड़े
हैं..सहमे हुए और उदास..ऊपर से इतना सख्त और क्रोधित मौसम...
उस रात वह बिलकुल सो नहीं पाया...मन ग्लानि से भर गया..और बार बार यह
डरावना ख्याल दस्तक देता रहा कि कहीं वो उन बच्चों को देखे बिना ही आँखें
न मूंद ले.
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Thursday, September 29, 2011

बीवी के नाम ख़त

नाजिम हिकमत तुर्की के महान कवि थे जिनकी कवितायेँ पूरी दुनिया में दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ने वाली जनता के बीच खूब लोकप्रिय हैं.उनके जीवन का अधिकांश समय जेल में(कुल तेरह साल) या निर्वासन में ही बीता.भारत में भी उनकी कविताओं के अनेक अनुवाद प्रकाशित हैं.
जेल से अपनी पत्नी को लिखी उनकी कवितायेँ मुझे बहुत पसंद हैं.उन्ही में से कुछ कवितायेँ यहाँ प्रस्तुत हैं:

यादवेन्द्र
                                                                                        -- नाजिम हिकमत

अपना वो ड्रेस अलमारी से निकालना जिसमें मैंने
तुम्हें देखा था पहली बार
दिखो आज अपने सबसे सुन्दर रूप में
आज दिखना है तुम्हें
जैसे गदराया लगता है वृक्ष बसंत के आगमन पर
अपने बालों में खोंसना
जेल से अपनी चिट्ठी में डाल के
जो भेजा था तुम्हारे लिए कारनेशन...
अपना चौड़ा धारीदार और चुम्बनीय माथा ऊँचा रखना
आज हताश और दुखियारी बिलकुल नहीं लगना
कोई सवाल ही नहीं...ना मुमकिन
आज तो नाजिम हिकमत की प्रिय को
दिखना है बला की खूबसूरत
बिलकुल बगावत के एक परचम की मानिंद...


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मेरी इकलौती और सिर्फ एक तुम ...
तुम्हारी पिछली चिट्ठी में लिखा था:
मेरा माथा फटा जा रहा है
और दिल डूब रहा है...
तुमने यह भी लिखा:
यदि उन्होंने तुम्हें फाँसी पर चढ़ा दिया
यदि मुझसे तुम बिछुड़ गए
तो मैं मर जाउंगी.
तुम्हें जीना पड़ेगा मेरी प्रिय..
मेरी स्मृतियाँ तो देखते देखते ऐसे तिरोहित हो जाएँगी
जैसे बिखर जाती है हवा में काली राख.
फिर भी तुम जिन्दा रहोगी
मेरे दिल की लाल बालों वाली मलिका..
बीसवीं सदी में
बिछोह का दुःख टिकता ही कितनी देर है
सिर्फ एक साल...ज्यादा नहीं.
मौत...
रस्सी से लटकती हुई एक लाश
मेरा दिल
ऐसी मौत को तो कतई स्वीकार नहीं करता.
पर
तुम बाजी लगा सकती हो
कि किसी गरीब जिप्सी के बालों से ढंके
काले और रोंये वाले हाथ
सरका भी देते हैं
यदि मेरी गर्दन में रस्सी
तो भी नहीं पूरी हो पायेगी उनकी उम्मीद
कि देखें नाजिम की नीली आँखों में
किसी प्रकार का खौफ.
पिछली रात के अंतिम प्रहर में
मैं
देखूंगा तुम्हें और अपने दोस्तों को
और खुद चल कर पहुंचूंगा
अपनी कब्र तक
और मेरे मन में अफ़सोस रहेगा तो सिर्फ ये कि
नहीं पूरा कर पाया मैं अपना अंतिम गीत.
मेरी प्रिय
नेक दिल इंसान
सुनहरे रंग वाली
मधु मक्खी की आँखों से भी सुन्दर
जिसकी आँखें हैं
मैंने आखिर क्यों लिख दिया तुम्हें
कि वो मुझे फाँसी पर चढाने की तैय्यारी कर रहे हैं?
अभी तो मुकदमा शुरू ही हुआ है
और वो किसी इंसान की गर्दन
वैसे तो तोड़ नहीं सकते
जैसे नोंच ली जाती है डाल से कोई कली
देखो...ये सब ऊल जलूल बातें भूल जाओ
तुम्हारे पास यदि कुछ पैसे हों
तो मेरे लिए फलानेल की एक चड्ढी खरीद दो...
मेरा साइटिका फिर से परेशान करने लगा है
और हाँ, ये मत भूलना
कि एक कैदी की बीवी को
हमेशा मन में अच्छे ख्याल ही लाने चाहियें.


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मैं चाहता हूँ
तुमसे पहले आये मेरी मौत
मेरी इच्छा है
कि मैं मरुँ तो तुमसे पहले मरुँ
क्या तुम्हें लगता है कि जो बाद में मरेगा
वो सीधा पहुँच जायेगा पहले वाले के पास?
मुझे तो इसका कोई इल्म नहीं
तुम तो ये करना
कि मुझे जला देना
और एक जार में डाल कर
अपने चूल्हे के ऊपर रख देना.
ध्यान रखना जार कांच का बना हुआ हो
पारदर्शी..साफ सुथरे कांच का बना हुआ
जिस से तुम अंदर देख सको
मुझे
और मेरी शहादत को
मैंने दुनिया ठुकरा दी
मैंने फूल बनने की चाहत ठुकरा दी
बस मैं सिर्फ तुम्हारा साथ चाहता हूँ.
मैं बनने को आतुर हूँ
धूल का कण
जिस से नसीब हो सके तुम्हारा साथ...
बाद में जब तुम्हारे मरने का पल आये
तो तुम भी समा सको
मेरे साथ इसी जार के अन्दर.
हम दोनों फिर से साथ साथ रह सकेंगे
मेरी राख मिली रहेगी तुम्हारी राख में
जब तक कि कोई नयी दुल्हन
या शरारती नाती पोता
लापरवाही से
हमें निकाल कर बाहर ही न फेंक दे...
पर ऐसा होने तक तो
हम एक दूजे के साथ साथ इस ढंग से
घुल मिल कर रह ही लेंगे
कि कूड़ेदानी में भी
हमारे कण आस पास गिरें
मिट्टी में साथ साथ पड़ेंगे हमारे पाँव
और एक दिन आएगा
कि धरती में उगे कोई जंगली पौध
तो इसमें बिना शक
खिलेंगे एक नहीं
दो दो फूल एक साथ:
एक तुम होंगी
एक मैं होऊंगा.
मुझे अभी अपनी मौत के बारे में कोई आभास नहीं
मुझे मन कहता है
कि मैं जनूँगा एक और बच्चा...
जीवन तो सैलाब की तरह मुझसे
बह कर बिखर रहा है
मेरा लहू खौल रहा है
मैं जियूँगा
खूब खूब लम्बे वक्त तक
और अकेला बिलकुल नहीं
तुम्हारे संग संग.
हांलाकि मौत का मुझे कोई डर नहीं
फिर भी लाश को जलाने का ढंग
मुझे रुचता नहीं जरा भी.
जब मैं मरुँ
तब तक उम्मीद है
थोड़ा बेहतर हो जायेगा अंत्येष्टि का ये ढब.
आजकल के हालात देख के क्या तुम्हें
लगता है कि तुम निकल पाओगे जेल से बाहर?
मेरे अंदर से आती है एक आवाज:
मुमकिन है, ऐसा ही हो जाये.


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क्या तुम जागे हुए हो?
कहाँ हो तुम इस वक्त?
घर पर.
पर अभी आदत नहीं पड़ी इसकी...
जागे या सोये...
अपने घर का एहसास अभी पूरा नहीं आया.
यह हो सकता है कोई अजूबा अचरज ही हो
तेरह साल से जेल के अंदर रहते रहते
जो मन के अंदर कौंध गया हो.
तुम्हारे बगल में कौन लेटा है?
हर बार की तरह अकेलापन नहीं
बल्कि यह तो तुम्हारी बीवी है
फ़रिश्ते की बख्शी गहरी नींद में
दुनिया से बेखबर होकर खर्राटे ले रही है.
गर्भ एकदम से बढ़ा देता है
देखो तो कैसे स्त्री की खूबसूरती.
अभी कितना बज रहा है?
आठ...
इसका मतलब यह हुआ कि शाम तक
तुम ठीक ठाक और सुरक्षित बचे हो
यहाँ तो पुलिस का रवैय्या ये होता है
कि दिन की गहमा गहमी में शांत बैठो
और अँधेरा हुआ नहीं कि बागियों की पकड़ धकड़ शुरू करो.

Tuesday, August 23, 2011

मेहरबानी करके हमारा कोयला न खरीदिये




           जान गोर्डन आस्ट्रेलिया के एक युवा पर्यावरण रक्षक कार्यकर्ता हैं जो इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग पढ़ कर कुछ वर्षों तक खनन कंपनियों में काम करने के बाद इस बात से बेहद आहत हुए की खनिज सम्पदा के दोहन के नाम पर देख के पर्यावरण की अपूरणीय क्षति की जा रही है.इसके बाद उन्होंने आस्ट्रेलिया के पर्यावरण रक्षण के लोक चेतना जागृत करने वाले समूहों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया.पिछले वर्ष उनका लिखा और संगीत बद्ध किया हुआ आस्ट्रेलिया- दुनिया की वेश्या प्रतिरोध गीत बेहद चर्चित और विवादास्पद हुआ...यहाँ तक की आस्ट्रेलिया के अनेक रेडियो स्टेशनों ने इसके प्रसारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया और बात कोर्ट तक जा पहुंची.इस साल के शुरू में इसी अभियान के प्रचार के लिए गोर्डन भारत भी आए थे.
सुदूर आस्ट्रेलिया के इस अभियान के पीछे के तमाम कारण अपनी पूरी कुरूपता और बेशर्मी के साथ आज के इस भारत में भी यहाँ वहाँ मौजूद हैं.इसी लिए मुझे यह अपने पाठकों के साथ साझा करने का मन हुआ.
यहाँ प्रस्तुत है उनके उसी गीत का अनुवाद: प्रस्तुति: यादवेन्द्र
आस्ट्रेलिया-- दुनिया की वेश्या 
                                        ---- जान गोर्डन 

आस्ट्रेलिया जैसे हो कोई ख़ासमख़ास वेश्या 
दरवाजे खोले प्रशस्त... बुलाती है खनिकों को 
धड़धड़ा कर चले आओ अंदर 
खोद डालो जितना चाहे बड़ा गड्ढा 
फिर आयेंगे आत्मा को भी ढ़ो कर ले जाने वाले लोग
और समंदर के रास्ते रवाना कर देंगे यहाँ वहाँ... 
ऐसे जहाजों को लाइन लगाये हुए  दूर दूर तक
मैं देख रहा हूँ, ऐ लड़की....

आस्ट्रेलिया...दुनिया की वेश्या
किसी सड़क छाप उदास लड़की की मानिंद
आती हुई दौलत को मना कर नहीं सकती
तुम उन्हें करने देती हो हजार मनमानी
और छिन्न भिन्न करने देती हो अपनी आत्मा को भी
समंदर के रास्ते वे भेजते रहते हैं जो चाहें
तुम तो ये भी नहीं जानती
कि किस किस जगह पहुँचाई  गई  तुम्हारी दौलत .

(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील  लगता है 
बहुत कोशिश के बाद भी बे मजा...
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
आओ चलो मेरे साथ
हम चलेंगे सागर पार
तब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कैसे धधक धधक कर 
जल रहा है तुम्हारा यह काला सोना...

आस्ट्रेलिया किसी चीनी छिनाल  की तरह बन गया है... 
वे तुम्हारा मखौल उड़ा रहे हैं, ऐ लड़की 
पहले वे चुरा ले गए तुम्हारी  आत्मा
फिर उड़ाते हैं अब तुम्हारा ही माखौल 
तुम्हारे  नेता..उनकी तो  रीढ़ ही नहीं है
वे बनाये रखते हैं लोगों को मूढ़
और आदम जमाने की पार्टी लाइन पर चलते जाते हैं
बिलकुल लकीर के फकीर बने हुए..

 
(कोरस)
मुझे यह सब इतना अश्लील लगता है 
कि मैं इसको राष्ट्रीय अभिशाप कहता हूँ 
कैसे तुम करती हो उन्हें हाथ हिला हिला कर विदा
और अंदर जाकर धोती साफ़ करती हो अपने हाथ...
मुझे दिखाई देता  है मौसम का तेजी से बदलना
मुझे दिखाई देते हैं धरती पर छाये विनाश के काले बादल 
इतने सब कुछ के बावजूद
कैसे तुम करती रहती हो यह सब सहज
मैं समझ नहीं पाता ...
कैसे और क्यों कर करती रहती  हो यह सब?
 
(मुख्य गायक)
आस्ट्रेलिया..आओ हम मिलकर नाचें गएँ आनंद मनाएं
क्योंकि हम आजाद और जवान मुल्क हैं
और प्रकृति ने हमारी धरती  को बला की
खूबसूरती, दौलत और नायाबी बख्शी है. 



Tuesday, August 9, 2011

जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे

       1920 में कैथरीन जीन मेरी रुस्का के नाम से जनमी उद्जेरू नूनुक्कल ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के अधिकारों के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता,कवि कलाकार थीं.तेरह वर्ष की उमर में उन्होंने स्कूल त्याग दिया और घरेलू नौकरानी का काम भी किया.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आस्ट्रेलियन सेना में भरती हो गयीं,यहीं इन्होने टाइपिंग सीखी और लेखन की ओर प्रवृत्त हुईं.पर यहाँ रहते हुए उन्होंने जातिगत और रंग भेद के कटु अनुभव किये.बाद में आस्ट्रेलिया की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं पर वहाँ भी भेदभाव की संस्कृति देख निराश हुयीं.1964 में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ जो आस्ट्रेलिया में किसी मूल निवासी कवि की पहली प्रकाशित पुस्तक थी.इसको घनघोर सफलता मिली तो अनेक स्थापित आलोचकों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि ये कवितायेँ उनकी नहीं बल्कि किसी और की लिखी हुई हैं.बाद में उनके अनेक संकलन प्रकाशित हुए...देश विदेश के प्रतिष्ठित सम्मान,पुरस्कार और अलंकरण उन्हें मिले.उनपर फिल्म भी बनी और उनको केंद्र में रख कर नाटक भी लिखे गए.मूल निवासियों को गोरे देश वासियों के बराबर संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई में वे शीर्ष भूमिका निभाती रहीं. आस्ट्रेलिया के दो सौ साला समारोह में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अलंकरण देश में मूल निवासियों की दुर्दशा पर विरोध दर्ज कराने के लिए लौटा दिया.आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों की अस्मिता की राष्ट्रीय प्रतीक उद्जेरू नूनुक्कल ने 1993 में अंतिम साँसें लीं. 

प्रस्तुति:: यादवेन्द्र
तोहफा
                                        -उद्जेरू नूनुक्कल

"मैं तुम्हारे लिए लेकर आऊंगा ढेर सारा प्यार"...जवान प्रेमी ने कहा...
"साथ में तुम्हारी उदास आँखों में
भर दूंगा मैं ख़ुशी की रौशनी का सैलाब...
सफ़ेद हड्डियों से बना पेंडेंट लाऊंगा तुम्हारे लिए
और उल्लसित तोते के पंख लाऊंगा
कि उनसे सजा सको तुम अपनी लटें ."

पर वह थी कि सिर्फ अपना सिर हिलाकर रह गयी.

"तुम्हारी गोद में ले आऊंगा मैं एक नवजात"...उसने आगे कहा...
"जो बनेगा अपने कुनबे का सरदार
और बारिश का आह्वान करने वाला मशहूर गुणी
मैं ऐसे गीत रचूंगा कि तुम उनसे हो जाओगी नाशमुक्त
जिन्हें अथक सारा कुनबा
गाता रहेगा अनंत काल तक."

वह थी कि फिर भी नहीं रीझी.

"मैं इस टापू पर सिर्फ तुम्हारे लिए
ले आऊंगा शीतल चांदनी की नीरवता
और चुरा चुरा कर इकठ्ठा करूँगा दुनिया भर के परिंदों की कूक
जन्नत में जगमग करने वाले सितारे तोड़ लाऊंगा
और हीरों की चमक वाला इन्द्रधनुष
ला कर रख दूंगा तुम्हारी हथेली पर."

"इतने सब की दरकार नहीं"...उसके होंठ हिले...
"तुम बस ला दो मेरे लिए पेड़ों की जड़ों में पैदा नरम नरम कंद."

तब और अब

अपने सपनों में मैं सुनती हूँ अपने कबीले की आवाज
कैसे हँसते हैं वे जब करते हैं शिकार..या तैरते हुए नदी में
पर यह स्वप्न ध्वस्त कर देती है धक्के मारकर तेजी से बीच में पहुँचती
दनदनाती हुई कार,धकेलती हुई ट्राम और फुफकारती हुई ट्रेन.
अब मुझे दिखते नहीं हैं कबीले के बूढ़े बुजुर्ग
जब मैं अकेले निकलती हूँ शहर की सड़कों पर.

मैंने देखी वो फैक्ट्री
जो दिन रात उगलती रहती है काला धुंआ
लील गयी है वह उस स्मृतियों में बसे पार्क को भी
जहाँ कभी कबीले की स्त्रियों ने खोदे थे गड्ढे शकरकंद के लिए:
जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे
अब वहाँ पसरा हुआ है रेल का यार्ड
और जहाँ हमारे ज़माने में हम लड़कियों को
ललकारा जाता था नाचने और नाटक करने को
अब वहाँ ढेर सारे आफिस हैं ...निओन लाइटों से पटे हुए
बैंक हैं..दुकानें हैं..इश्तहारी बोर्ड लगे हुए हैं..
ट्रैफिक और व्यापार से भरा पूरा शहर.

अब न तो वूमेरा* हैं , न ही बूमरैंग*
न खिलंदड़ी के साधन , न पुराने तौर तरीके.
तब हम प्रकृति की संतानें थे
न घड़ियाँ थीं न ही भागता ही रहने वाला भीड़ भक्कड़.
अब मुझे सभ्य बना दिया गया है,गोरों के ढब में काम करने लगी हूँ
खास तरह का ड्रेस पहनती हूँ..जूतियाँ चमक दमक वाली
"कितनी खुश नसीब है , देखो तो अच्छी सी नौकरी है ".
इस से बेहतर तो तब था जब
मेरे पास ले दे के एक ही पिद्दी सा बैग हुआ करता था
कितने अच्छे थे वे दिन जब
मेरे पास कुछ नहीं था सिवाय ख़ुशी के.

* आदिवासी आस्ट्रेलियन लोगों का देसी हथियार

Wednesday, March 9, 2011

इतिहास के अंदर सांस लेना

 क्या यह समाचार वाकई इतना गैरजरूरी है कि रस्सी को सांप बनाने वाले मीडिया को सांप सूंघा हुआ है।

      समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव में हुए बम धमाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक शामिल थे, स्वामी असीमानंद का इकबालिया बयान---

अला अल असवानी  (Alaa Al Aswany)
मिस्र की नयी पीढ़ी के प्रमुख लेखक हैं जो पेशे से तो दन्त चिकित्सक हैं पर  अरबी के लोकप्रिय और सामाजिक रूप में सजग कहानीकार उपन्यासकार हैं.होस्नी मुबारक की सत्ता का मुखर विरोध इनकी रचनाओं में दिखाई देता है.हाल में उनके एक लोकप्रिय उपन्यास पर एक लोकप्रिय फिल्म भी बनी है. हमारे मित्र और एक सजग अनुवादक यादवेन्द्र जी ने उनकी एक कहानी का अनुवाद पिछले तीन चार साल पहले किया था कथादेश में वह प्रकाशित हुई है । 
मिस्र के लोकतान्त्रिक आन्दोलन का संक्षिप्त विवरण अला अल असवानी ने पिछले दिनों विभिन्न माध्यमों में दिया है, इंटरनेट पर अंग्रेजी में उपलब्ध ऐसी ही कुछ सामग्रियों को संकलित कर के साथी पाठकों के लिए यह प्रस्तुति यादवेन्द्र जी के मार्फत है ...
 
मेरे लिए यह अविस्मरणीय अनुभव था.काहिरा में मैं आन्दोलनकारियों के काफिले में शामिल हुआ – पूरे मिस्र से इकठ्ठा हुए हजारों लोग काहिरा की सड़कों पर आजादी की मांग कर रहे थे और पुलिस की बेरहम हिंसा का उन्हें बिलकुल भय नहीं था.मिस्री शासन के सुरक्षा तंत्र में करीब पन्द्रह लाख सैनिक हैं और करोड़ों की राशि खर्च कर के सिर्फ एक काम के लिए ही प्रशिक्षित किया जाता है – देश की जनता को घुटने टेकने के लिए डराते धमकाते रहना. 
मैं हजारों मिस्री युवाओं के काफिले में शामिल हो गया – देश के अलग अलग हिस्सों से आये इन नौजवानों के बीच एक ही बात सामान्य थी कि वे सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए भरपूर बहादुरी और दृढ संकल्प से भरे हुए थे.इनमें अधिकतर विश्वविद्यालय के छात्र हैं जिनके सामने पढ़ लिख कर सामने आने वाले भविष्य का कोई स्पष्ट खाका नहीं है.रोजगार की उन्हें उम्मीद नहीं दिखाई देती इसलिए शादी को लेकर भी उनके मन में गहरी निराशा का भाव है.उनके ह्रदय में इस अन्याय के मद्देनजर क्रोध की जैसी आवारा चिंगारी उठ रही है उसपर काबू पाना अब किसी के बस की बात नहीं.

इन क्रांतिकारियों के क्रियाकलापों से मैं जीवनपर्यंत अभिभूत रहूँगा.सभा के दौरान इन सब ने जो कुछ भी कहा उनमें गहरी राजनैतिक समझ और आजादी के वास्ते जान हथेली पर लेकर निर्भीकतापूर्वक आगे कदम बढ़ाने का जज्बा स्पष्ट देखा जा सकता है.आंदोलनकारियों ने मुझसे सभा को संबोधित करने के लिए कहा – हांलाकि मैं इस से पहले भी सैकड़ों दफा जनसभाओं में बोल चुका हूँ पर इस बार बिलकुल अनूठी अनुभूति हुई.मैं करीब तीस हजार प्रदर्शनकारियों से मुखातिब था जो समझौते जैसी कोई बात सुनने को बिलकुल तैयार नहीं थे और बीच बीच में नारे लगा कर इसको जतलाते भी जाते थे : होस्नी मुबारक मुर्दाबाद और आवाज दे रही है अवाम,उखाड़ फेंको बर्बर निज़ाम

जब कोई व्यक्ति प्यार में गहरे ढंग से डूब जाता है तो वह पुराना इंसान नहीं रहता बल्कि बेहतर इंसान बन जाता
है. क्रांति भी प्यार जैसी ही क्रिया है.इसमें जो कोई भी हिस्सा लेता है वह बखूबी जनता है कि पहले वो कैसा इंसान था और आन्दोलन ने उसको किस तरह प्रभावित किया और बदल डाला.क्रांति के बाद वही व्यक्ति अलग ढंग से सोचने और बर्ताव करने लगता है.जैसे हम मिस्रवासी ही हैं जो अपने दैनिक जीवन में अब ज्यादा गरिमा महसूस करने लगे हैं और हमें अब कोई भी बात भयाक्रांत नहीं करती.

मैंने उन्हें बताया कि उनकी उपलब्धियों पर मुझे फख्र है और अब दमन के शासन का अंत आसन्न है.अब हमें
कोई भय नहीं – न तो गोलियों का और न ही हथकड़ियों का, क्योंकि हमारी सामूहिक ताकत के मुकाबले उनकी खूंखार ताकत अब कहीं टिकने वाली नहीं.उनके पास दमन के वास्ते दुनिया के सबसे नृशंस हथियार हैं पर हमारे पास उनसे ज्यादा शक्तिशाली साधन हैं – हमारी हिम्मत और आजादी का संकल्प.होस्नी मुबारक तमाम निरंकुश तानाशाहों की तरह अपने अंत से पहले के स्वाभाविक चरणों से गुजर रहा है—पहले अकड़ भरा इनकार,उसके बाद नेस्तनाबूद कर देने की धौंसपट्टी और फिर विरोधियों को शांत करने के लिए मामूली सी रियायतों की घोषणा.अब उसके लिए एक ही रास्ता खुला है—अपना सूटकेस पैक करे और हवाई अड्डे का रास्ता नापे.यह सुनकर आंदोलन कारी एकदम जोश से भर गए और समवेत स्वर में बोल पड़े – हमने जिस आंदोलन की शुरुआत की है उसको तार्किक परिणति तक पहुंचाए बगैर हम चैन की सांस लेने वाले नहीं.

आन्दोलनकारी खूब पक्के इरादों वाले नौजवान हैं.उनके सामने बोलते वक्त जब भी मैंने मुबारक के लिये
राष्ट्रपति संबोधन का इस्तेमाल किया,वे गुस्से से उखड़ पड़े( ये लेख लिखे जाते समय तक होस्नी
मुबारक ने सत्ता छोड़ी नहीं थी). उसके लिए वे सिर्फ मुबारक या अधिक से अधिक पूर्व राष्ट्रपति
जैसा संबोधन सुनना चाहते हैं.

मेरे साथ एक मित्र स्पैनिश पत्रकार भी हैं जिन्होंने पूर्वी यूरोप के कई देशों के स्वतंत्रता संग्रामों को निकट
से देखा है.वे बताते हैं कि मेरा इतने सालों का तजुर्बा यही बतलाता है कि जब इतना बड़ा जनसमूह
जानमाल की परवाह किये बिना इतने पक्के इरादों के साथ सड़कों पर उमड़ पड़े तो सत्ता परिवर्तन
सिर्फ थोड़े वक्त की बात रह जाता है.

मिस्री जनता आखिर इतने संकल्प के साथ कैसी खड़ी हो गयी ? इस सवाल का जवाब इस शासन के अपने
चरित्र में छुपा हुआ है.दमनकारी शासन लोगों से उनकी आजादी छीन सकता है पर बदले में उन्हें जीवन के सर्व
सुलभ साधन आसानी से मुहैय्या करा सकता है.जनतांत्रिक शासन भले ही गरीबी का निराकरण न कर पाए पर
जनता को आजादी और गरिमा तो प्रदान कर ही सकता है.मिस्री शासन ने लोगों को सभी चीजों से वंचित कर दिया

– यहाँ तक कि आजादी और गरिमा से भी—दैनिक जरुरत की वस्तुओं की उपलब्धता की तो बात ही मत करिये.यहाँ इकठ्ठा हुए हजारों हजार मिस्री लोग उन्हीं वंचितों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

हैरत में डाल देने वाली सच्चाई है कि ट्यूनीशिया से बरसों पहले मिस्र में राजनैतिक सुधारों की मांग उठाई
जाने लगी थी पर ट्यूनीशिया में जो कुछ घटित हुआ उसने मिस्र में एक उत्प्रेरक का काम किया.अब
लोगों के सामने यह उदाहरण था कि कोई तानाशाह चाहे कितनी बड़ी फ़ौज खड़ी कर ले जनता के
व्यापक विद्रोह के सामने वह फ़ौज तानाशाह की जीवन भर की गारंटी नहीं दे सकती.इस देश में तो
स्थितियाँ ट्यूनीशिया से भी ज्यादा बदतर हैं – हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी के बोझ तले दम
तोड़ रहा है और यहाँ की क्रांति का अनुसरण कर सकते हैं—वैसे ही इश्तिहार काहिरा की सड़कों पर भी देखने को मिल रहे हैं.अब तो आजादी की मांग की यह आवाज यमन तक जा पहुंची है.

यहाँ के सत्ता प्रतिष्ठान को अब यह समझ आने लगा है कि उनके तमाम इंतज़ाम प्रदर्शनों को रोकने में
कामयाब नहीं हो पा रहे हैं.फेसबुक के जरिये प्रदर्शन आयोजित करने की बात सही है क्योंकि इसकी प्रामाणिकता और निष्पक्षता पर लोगों का भरोसा है.जब सरकार ने इनपर पाबंदी लगाने की कोशिश की तो जनता ज्यादा सयानी साबित हुई.सुरक्षा बलों की दिनों दिन बढती जा रही हिंसा के बावजूद जनता बगावत के लिए उठ खड़ी हुई है.इतिहास गवाह है कि एक हद लाँघ जाने के बाद सामान्य पुलिसकर्मी भी अपने लोगों पर फायरिंग करने का हुक्म मानने से इनकार कर देता है.

मैंने चोरी छिपे बाहर लाया गया एक गोपनीय सरकारी फरमान देखा है जिसमें मिस्री टेलीविजन के अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि वे खोज खोज कर वैसी औरतों की तस्वीरें दिखाएँ जो भयभीत हों और अपनी सुरक्षा के लिए तानाशाही उस से भी ज्यादा समय से कुंडली मार कर बैठी हुई है.हम पडोसी देश
मुबारक की गुहार लगाती हों.

पुलिस को ठेंगा दिखा कर बगावत का रास्ता पकड़ने वाले अधिकांश लोग सामान्य देशवासी हैं.एक नौजवान
आन्दोलनकारी ने अपना अनुभव मुझे सुनाया कि परसों वह पुलिस की मार से बच कर भागते हुए देर रात एक
रिहायशी इलाके में घुस गया और एक दरवाजे के सामने खड़े होकर घंटी बजाने लगा.साठ साल के एक बुजुर्ग ने जब दरवाजा खोला तो जाहिर है उनके चेहरे पर बदहवासी का भाव था.नौजवान ने पुलिस से छिपने के लिए अंदर आने की इजाजत माँगी,बुजुर्ग ने उसका आइडेंटीटी कार्ड देखा फिर अंदर आने के लिए कहा.फिर अपनी युवा बेटी को सोते से जगाया और उसके लिए कुछ खाने को बनाने को कहा.रात में ही तीनों ने साथ मिल कर चाय पी और इस तरह से घुलमिल कर बातें करने लगे जैसे बरसों की पहचान हो.सुबह जब पुलिस का आतंक थोडा कम हुआ तो उस बुजुर्ग ने नौजवान को मुख्य सड़क तक साथ जाकर पहुँचाया,एक टैक्सी रोकी और उसको गंतव्य तक जाने के लिए पैसे देने लगे.नौजवान ने पैसे लेने से मना कर दिया और उनको शुक्रिया अदा किया.इसपर बुजुर्ग ने कहा कि शुक्रिया तो बेटे मुझे तुम्हारा अदा करना चाहिए कि अपने जान की बाजी लगा कर तुमलोग मुझ जैसे तमाम मिस्र वासियों को इन आततायियों से बचा रहे हो.

हमें यह अनूठा अवसर मिला है जब हम इतिहास के बारे में पढ़ ही नहीं रहे हैं बल्कि इतिहास के अंदर साँस भी ले रहे हैं. कुछ इसी तरह मिस्री बसंत का आगाज हुआ.


क्रांति का यह पल बेहद रोमांचक और अनुभवों को समृद्ध करने वाला था.लाखों लोग अपने अपने घरों से निकल कर सड़कों पर आ गए थे,उनके जोश को देख कर मैं भी उनमें शामिल हो गया.मैंने पूरे 18 दिन उनके साथ बिताये और इस अद्भुत तजुर्बे ने मुझे कई नयी चीजें लिखने की प्रेरणा दी-- अब मुझमें कई नयी कहानियाँ लिखने की स्फूर्ति है.मुझे आदमीयत पर भरोसा मजबूत करने वाले अनेक पलों की नायाब सौगात मिली-- यह मेरे जीवन का शानदार दौर रहा.और यह सिर्फ मेरा ही अनुभव नहीं है बल्कि अनेक लेखक और कलाकार इन अनुभूतियों को मेरे साथ साझा करते हैं.
     मुझे बहुत अरसे से यह लगता रहा है कि मिस्र में क्रांति अवश्यम्भावी और आसन्न है और अपने पिछले कई इंटरव्यू   में जब मैंने ये बातें कहीं तो कई लोगों को इसका यकीन नहीं हुआ.2007 में न्यूयार्क टाइम्स  को दिए एक इंटरव्यू में मैंने साफ़ साफ़ कहा था कि मिस्र एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा हुआ है--इस अचानक होने वाले बदलाव से हम सब चौंक जायेंगे.
     इस क्रांति का सर्वश्रेष्ठ पक्ष ये रहा कि विभिन्न तबके के लोगों की अद्भुत एकता और अखंडता दिखाई दी... धैर्य और सहिष्णुता ...हर किसी ने आपको सहज भाव से स्वीकार किया.चाहे बुरकानशीं स्त्री हो या आधुनिक युवती...अमीर हो या गरीब...मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम...सब ने.एक उदाहरण देता हूँ: तहरीर चौक पर सेना खाने पीने का सामान नहीं ले जाने दे रही थी पर हमें मालूम था कि इसमें कस्र अल नील  कि तरफ एक गेट है जहाँ से खाने का सामान यहाँ तक लाया जा सकता है.चौक पर तैनात सैनिक भी हमें दिखा दिखा कर निर्देश दे रहे थे कि खाना अंदर लाना है तो उस गेट की ओर जाओ.
       मैंने यहाँ डटे हुए ऐसे लोगों को देखा जो देखने से फटेहाल गरीब लगते  थे पर हमारे लिए ऐसे लोग भी अपने साथ झोलियों में भर के तीन चार सौ संद्विच लेकर आये--उनकी शक्ल सूरत और पहनावा देख कर जाहिर था कि इसकी कीमत चुकाने में उन्हें जरुर मुश्किल आई होगी.कई साधन संपन्न लोग भी थे जो क्रांति को अपना पूरा समर्थन दे रहे थे,पर उन तंग हाल लोगों का जज्बा देख कर प्रेरणादायक हैरानी होती है. हमें वहाँ बैठे हुए पता ही नहीं लग पाता था कि आन्दोलनकारियों को खाने पीने का समान कैसे और कहाँ से मिल जाता है.
    वहाँ मौजूद सभी लोग बेहद अनुशासित थे -- संघर्ष करने वालों से लेकर उनको रोकने वाले सुरक्षा कर्मियों तक.जब मुबारक सरकार ने गुंडों मवालियों को ट्रकों में भर कर वहाँ मारकाट करने के लिए छुट्टा छोड़ दिया तो तो आन्दोलन कर्मी नौजवानों ने सामूहिक तौर पर उनका जम कर मुकाबला किया-- इनमें सभी व्यवसायों के लोग शामिल थे.थोड़े समय में सब कुछ व्यवस्थित हो गया.वहाँ सिगरेट पीना माना है-- मुझे जब इसकी  तलब लगी तो मैंने एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली पर तभी वहाँ एकत्र समूह में से किसी की आवाज आई कि जनाब,आप यहाँ सिगरेट नहीं पी सकते...एक रात का वाकया है,करीब दो बजे थे.मैंने सिगरेट का एक खाली पाकेट वहीँ फेंक दिया,तभी एक सत्तर साल की बुजुर्ग महिला  मेरे पास आयी और मुझसे बोली: मैं तुम्हारी बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ बेटे और मैंने तुम्हारी एक एक किताब पढ़ी हुई है...पर ये सिगरेट का डिब्बा यहाँ से उठा लो , ऐसा करना ठीक नहीं...हम यहाँ मिलजुल कर एक नए मिस्र का निर्माण करने के लिए इकठ्ठा हुए हैं..इस नए मुल्क को खूब सुन्दर और साफ़ सुथरा होना चाहिए....इसी लिए मैं बार बार ये कहता हूँ की तहरीर चौक पर जो सब कुछ घटा वह अविस्मरणीय था...एक सुखद स्वप्न के साकार होने जैसा.


Friday, February 25, 2011



 1964 में काहिरा में जनमी फातिमा नउत (
Fatima Naut) मिस्र की आधुनिक पीढ़ी की लोकप्रिय कवि हैं.पेशे से वे प्रशिक्षित वास्तुकार हैं और साहित्य रचना के साथ साथ अपना पेशेगत काम भी करती हैं.उनकी अपनी कविताओं के संकलन के अलावा समालोचना और विश्व की अन्य भाषाओँ से अनूदित रचनाओं की करीब एक दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.अंग्रेजी और चीनी के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.एक अनियत कालीन साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी करती हैं.
जब मैं देवी बनूँगी
                                                         -- फातिमा नउत

मैं उतार डालूंगी दुनिया के फटे पुराने बदरंग कपड़े
झाड़पोंछ करुँगी नक़्शे का
और इतिहास की पांडुलिपियाँ उठा कर फेंक दूँगी कूड़ेदान में
साथ में अक्षांश और देशांतर की रेखाएं
और देशों को बाँटने वाली सीमारेखाएं भी
पर्वत झरने
और सोना,पेट्रोल,जलवायु और बादल..सब कुछ...
इन सबको मैं फिर से न्यायोचित ढंग से वितरित करुँगी
मैं पंखों से बने अपने झाड़न को हौले हौले
फिराउंगी अस्त व्यस्त थके चेहरों के ऊपर
जिससे सफ़ेद,साँवले और पीले पड़े हुए चेहरे
पिघल कर खुबानी के रंग के निखर जाएँ.
मैं देसी बोलियों से बीन बीन कर
एकत्र करुँगी भाषाएँ और कहावतें
और इनको अपनी कटोरी में रख के पिघला दूँगी
जिस से निर्मित कर सकूँ श्वेत धवल एक अदद शब्दकोश
प्रेत छायाओं और क्रोधपूर्ण शब्दों से जो होगा पूर्णतया मुक्त.

अपने राज सिंहासन पर बैठने से पहले
मैं हिलाडुला कर ठीक करुँगी सूरज की दिशा
साथ साथ भूमध्य रेखा को भी खिसकाउंगी
वर्षा तंत्र को भी संगत और दुरुस्त करुँगी.
ये सब कर के जब मैं काटूँगी फीता
तो मेरे तमाम भक्त करतल ध्वनि से स्वागत करेंगे
स्पार्टकस, गोर्की, गुएवारा भी...

ख़ुशी से झूमते हुए मैं हकलाती हुई घोषणा करुँगी :
अब से सृष्टि के वास्तुशिल्प का काम मेरा है
तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो इस से पहले
मुझे पलभर को पीछे मुड़ कर देखना होगा धरती पर
और दुनिया को वापिस उस ढब से ही सजाना धजाना होगा
जैसे हुआ करती थी कभी ये पहले.

यह अनुवाद मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस कविता के अंग्रेजी अनुवाद: कीस निजलांद, पर आधारित है
प्रस्तुति:  यादवेन्द्र  

Saturday, February 5, 2011

जनता की मर्ज़ी

अबुल कासिम अल शब्बी १९१९ में जन्मे ट्यूनीशिया के मशहूर आधुनिक  कवि थे जिनको दुनिया की अन्य भाषाओँ में व्याप्त आधुनिक प्रवृत्तियों को अपने साहित्य में लेने  का श्रेय  दिया जाता है.अल्पायु में महज २५ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया ...जिस  जन आन्दोलन की आँधी में  वहां की सत्ता तिनके की तरह उड़ गयी उसमें वहां के युवा वर्ग ने शब्बी की कविताओं को खूब याद किया.यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कविताओं के कुछ नमूने: 
 
जनता की मर्ज़ी
 
यदि जनता समर्पित है जीवन के प्रति
तो भाग्य उनका बाल बाँका भी नहीं कर सकता
रात उसे ले  नहीं सकती अपने आगोश में
और जंजीरें एक झटके में
टूटनी ही टूटनी हैं.
 
 
जीवन के लिए प्यार
नहीं है जिसके दिल में
उड़ जाएगा हवा में कुहासे की मानिंद  
जीवन के उजाले से बेपरवाह रहने वालों के
ढूंढे कहीं मिलेंगे नहीं नामो निशान.
 
ऊपर वाले ने चुपके से
बतलाया मुझे ये सत्य
पहाड़ों पर बेताब होती रहीं आंधियाँ
घाटियों में और दरख्तों के नीचे भी:
"एक बार निर्बंध होकर  बह निकलने पर
रूकती नहीं मैं किसी के रोके
मंजिल तक पहुंचे बगैर...
जो कोई ठिठकता  है लाँघने से पहाड़
छोटे छोटे गड्ढों में
सड़ता रह जाता है जीवन भर."
 
 
 
 
 
 
 
 
दुनिया भर के दरिंदों से
 
अबे ओ अन्यायी दरिन्दे
अँधेरे को प्यार करने वाले
जीवन के दुश्मन...
मासूम लोगों के जख्मों का मज़ाक  मत उड़ा
तुम्हारी हथेलियाँ सनी हुई हैं
उनके खून से
तुम खंड खंड करते रहे हो
उनके जीवन का सौंदर्य
और बोते रहे हो दुखों के बीज
उनकी धरती पर...
ठहरो, बसंत के विस्तृत  आकाश में
चमकती रौशनी से मुगालते में मत आओ... 
देखो बढ़ा आ रहा है
काले गड़गड़ाते  बादलों के झुण्ड के साथ ही
अंधड़ों का सैलाब तुम्हारी ओर...
क्षितिज पर देखो
संभलना.. इस भभूके के अंदर
ढँकी होगी दहकती हुई आग.
अब तक हमारे लिए बोते रहे हो कांटे
लो अब काटो  तुम भी जख्मों की फसल 
तुमने कलम  किये जाने कितनों के सिर
और साथ में कुचले उम्मीदों के फूल
तुमने सींचे उनके खेत
लहू और आंसुओं से...
अब  यही रक्तिम नदी अपने साथ
बहा ले जाएगी तुम्हें
और ख़ाक हो जाओगे तुम जल कर
इसी धधकते तूफान में.
 
                                                                प्रस्तुति:  यादवेन्द्र ,           मो. 9411100294

Wednesday, January 26, 2011

शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा

1982 में तेहरान में कला प्रेमी माता पिता के परिवार में जन्मे सालेह आरा वैसे  तो कृषि विज्ञान  पढ़े हुए हैं पर अंग्रेजी और फारसी में अपना ब्लॉग चलते हैं और फोटोग्राफी का शौक रखते हैं. अपने ब्लॉग पर उन्होंने 2005 में एक अफ़्रीकी बच्चे की ( नाम  नहीं ) लिखी और प्रशंसित कविता उद्धृत की है. इस मासूम कविता में ऊपर से देखने पर निर्दोष  सा कौतुक लग सकता है पर बहुतायद श्वेत समुदाय के बीच अपने शरीर के गहरे रंग के कारण अनेक स्तरों पर वंचना और प्रताड़ना  झेलने की पीड़ा की भरपूर उपस्थिति महसूस की जा सकती है.साथी पाठकों को इस दुर्लभ एहसास के साथ जोड़ने का लोभ मुझसे संवरण नहीं हुआ इसलिए कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :
 
शरीर का गाढ़ा रंग
 
जब मेरा जन्म हुआ तो काला था मैं
बड़ा होने पर भी काला ही रहा
धूप में घूमते हुए मैं काला बना रहा
डर से कांपते हुए भी काले रंग ने पीछा नहीं छोड़ा
बीमार हुआ तो भी काला
मरूँगा भी तो मैं काला ही मरूँगा.
और तुम गोरे लोग
जन्म के समय गुलाबी होते हो
बड़े होकर सफेदी लिए हुए
धूप में निकलते हो तो सुर्ख लाल
सर्दी में ठिठुर के पड़ जाते हो नीले
डर की थरथर पीला रंग डालती है तुम्हें
बीमार हुए तो रंग होने लगता है हरा
और जब मरने का समय आता है
तो तुम्हारे शरीर का रंग गहरा भूरा दिखने लगता है...
इस सब के बाद भी
तुम लोग
मुझे कहते हो
कि शरीर का रंग गाढ़ा है मेरा. 
 
                                   प्रस्तुति : यादवेन्द्र 

Wednesday, September 29, 2010

कइयों को पसंद है मसखरी


आज के उफनते और तलवार भांजते माहौल में मुझे 1928 में जनमी  प्रख्यात अश्वेत अमेरिकी कवियित्री माया एंजेलू की ये मशहूर कविता अनायास याद हो आई...एक पिद्दी से कोर्ट के फैसले को इतना दानवी बनाया जा रहा है कि जैसे पूरी मानव जाति इस से निकली घृणा के अन्दर भस्म हो जाएगी . मुझे लगता  है कि इस कविता की चेतना  समझदार  लोगों  को छू  कर  जरुर  शांत  और आश्वस्त  कर  पायेगी .यहाँ कविता का सम्पादित अंश दिया जा रहा है...प्रस्तुति यादवेन्द्र की है:


 मानव परिवार  
मैं देखती हूँ कि विविधताएँ बहुत  हैं
मानव परिवार  में
हम में से कई धीर गंभीर लोग हैं
और कइयों को पसंद  है मसखरी...
कुछ लोग दावा करते हैं
उन्होंने पूरा जीवन जिया खूब गहरे डूब कर
कइयों को लगता है
सिर्फ वे ही हैं जो छू पाए हैं
जीवन की सच्चाइयों को सच में...
* * * * * *
मैं छान आया सातों समंदर
और ठहरा भी हर जगह
देखे दुनिया भर के अजूबे
पर नहीं मिले तो नहीं ही मिले
एक जैसे मिलते जुलते लोग...
* * * * * *
जुड़वां हमशक्ल हुए तो भी
उनके नाक नक्श एक दूसरे पर कसते हैं ताने
प्रेमी जोड़े  चाहे कितने निकट लेटे हों
सोचते होते हैं अलग अलग ही...
* * * * * 
अलग अलग स्थान और काल में
हम दिखते तो  हैं एक दूसरे से बिलकुल जुदा
पर मेरे दोस्त,अपने  अलगावों  के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं.... 
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं....
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं...
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Sunday, August 29, 2010

चाहता हूँ पानी बरसे



मूल रूप में सिएरा लेओन के पिता की संतान नाई आईक्वेई पार्केस, जन्मे तो ब्रिटेन में पर शुरुआती और निर्मिति का समय उनका घाना में  बीता..देश विदेश घूमते हुए और अनेक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थाओं में रचनात्मक साहित्य पढ़ाते हुए वे पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं...पार्केस कविताओं के अलावा कहानियां और लेख तो लिखते ही हैं,अश्वेत अस्मिता को स्थापित करने वाले स्टेज परफोर्मेंस के लिए भी खूब जाने जाते हैं. उनके अपने सात संकलन प्रकाशित हैं और अनेक सामूहिक संकलनों में उनकी कवितायेँ शामिल हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ लोकप्रिय कवितायें..चयन और प्रस्तुति  यादवेन्द्र की है.  


 चाहता हूँ पानी बरसे
कभी कभी मैं चाहता हूँ पानी बरसे
धारासार, अनवरत और पूरे  जोर से
ताकि तुम मेरे  अन्दर समा जाओ  जैसे छुप जाती   है व्यथा
और मुझे साँस की मानिंद पीती   रहो निश्चिन्त हो कर धीरे धीरे.
मुझे खूब भाता है मेघों का विस्तार
इनका गहराना और दुनिया को अपनी छाया से ढँक लेना
जैसे पानी की धार हो जेल की सलाखें 
और हम  सब इसके अन्दर दुबक गए हों   कैदी बन कर. 
यही ऐसा मौका होता है जब सूरज बरतता है संयम
थोड़ी कुंद पड़ती हैं इसकी शिकारी निगाहें..
पडोसी धुंधलके में खो जाते हैं 
और हमें पूरी आज़ादी नसीब होती है एकाकी  प्रेम करने की.  
सुबह सुबह का समय है
इसको न तो  दिन कहेंगे न ही रात..
इस   वेला में तुम न तो तुम रहीं और  न  मैं  ही साबुत  बचा
मुझे न तो किसी ने कैद में डाला और न  खुला और आजाद ही रह पाया .
टिन की छत
बेकाबू गर्म थपेड़ों वाली तेज हवा  कोड़े बरसाती  रहती  है तुम्हारी पीठ पर  
फिर भी टिके बने रहते हो तुम..
तुम्हारी पूरी चमक पर बिखरा देते हैं वे गर्द और मिट्टी 
और  ऐंठ मरोड़ देते हैं तुम्हारे धारदार किनारे.
बारिश आती है तो अपनी थपाकेदार लय से  
कीचड़ की लेप बना कर  लपेट  देती है तुम्हारा पूरा  बदन
फिर भी टिके बने रहते हो तुम.  
--- मेरा आत्मगौरव---
मेरी अपनी टिन की छत ही तो है.

मुझे मैं रहने दो
मैं मैं हूँ 
और  तुम तुम
पर तुम चाहते हो 
मैं हो जाऊं बिलकुल तुम्हारे जैसा.....
तुम्हारी मंशा है कि मैं तो हो ही जाउं  
तुम्हारे जैसा
पर आस पास के तमाम लोग भी
रूप बदल  लें  बिलकुल मेरी तरह...
मानो मैं हो गया बिलकुल तुम्हारी तरह
और चाहने लगूँ कि तुम भी बदल कर हो जाओ मेरी तरह..
इस से पहले कि मैं तुम्हारे जैसा हो जाऊं
तुम मेरे जैसे हो जाओगे
और मैं तो हो ही जाऊँगा बिलकुल तुम्हारी तरह..
पर जल्दी ही
मैं फिर से मैं ही हो जाऊंगा..
इसलिए यदि तुम चाहते हो
कि मैं बन जाऊं तुम्हारी तरह
तो मुझे  रहने दो मैं ही...