लद्दाख के बारे में जानकारी हासिल करो तो हर स्थल वहां स्थित गोनपा के नाम से जाना जाता हुआ दिखायी देगा। धार्मिक प्रतीकों का ये घना विस्तार ही योरोपिय लोगों को लद्दाख तक खींचने में एक कारण बनता है। रेतीले पहाड़ों का ठंडा मरूस्थल और नीले आकाश के भीतर धंसने को आतुर बर्फीली चोटियों का लुभावना मंजर भी सैलानियों को आकर्षित करने वाला है।
जांसकर का आकर्षण मेरे भीतर बौद्ध धर्म-दर्शन या गोनपाओं के रूप में कभी नहीं रहा। वह तो कह ही चुका हूं- रोमांच, जोखिम और उसके बीच सांस लेते जीवन को जानने समझने की चाह के रूप में है। जो मुझे ऐसे ही दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों तक निकलने को उकसाती है।
अपनी यात्राओं में, जब भी पुख्ताल गोनपा तक गया, तो इसलिए कि इतिहास के किसी अंधेरे कोने को देख पाऊं। लद्दाख के दर्ज इतिहास से पूरी तरह से वाकिफ नहीं। पूरी तरह से दर्ज है भी या नहीं, इसकी भी ठीक-ठीक जानकारी नहीं। इधर जो कुछ भी दर्ज हुआ है उसके हिसाब से तो मात्र 1000 - 1200 वर्ष ही खोजे जा सके हैं। पुख्ताल के बारे में जो जानकारी अभी तक मेरे पास है वो तो इससे कहीं ज्यादा पहले उसके निर्माण को मानती है। गोनपा जाकर ही कुछ मालूम हो तो हो। पर गोनपा में भी तो सिर्फ इसी तरह है इतिहास- गल्प के रूप में। कोई ठोस पुख्ता सबूत तो वहां शिक्षा प्राप्त कर रहे लामा भी नहीं रखते। बौद्ध भिक्षुओं से पूछता हूं तो कहीं भाषा आड़े आती है या फिर बताने वाले के पास भी सिर्फ सुना गया समय ही होता है। जब पहली बार जांसकर गया था पुख्ताल गोनपा के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी। यह भी नहीं पता था कि रोहतांग पार बौद्ध-धर्म का ऐसा घना विस्तार है। उस वक्त, 1997 में, जब पुरनै पहुंचे थे तो उसके बारे में सुना-जाना। उससे पहले कभी किसी बौद्ध मठ के बारे में सुना, जाना और देखा नहीं था। स्थानीय लोगों से मालूम हुआ था कि गोनपा लगभग 2000 वर्ष पुरानी है। गुफा में ही निर्मित गोनपा की ईमारत को देखकर तो 2000 वर्ष क्या इससे भी पहले का बताया जाए तो भी तय नहीं कर सकता कि वास्तव में कब हुआ होगा इस दुर्ग सरीखी गोनपा का निर्माण। कहूं कि मुझे तो यह उससे भी पुरानी लग रही है तो इससे इतिहास गड़बड़ा सकता है। गोनपा में ही विद्यालय है जिसमें जांसकर घाटी के बच्चे बौद्ध-धर्म की शिक्षा पाते है। बौद्व भिक्षुओं के रूप्ा में लाल चोंगों में लिपटे शरीर और घुटे सिर वाले गोल चेहरे बरबस ही ध्यान खींचते हैं। ऐसे ही रूप्ा को धारण करने वाले जब कभी घोड़ों पर सवार होकर निकलते हैं तो उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों गढ़ी के सैनिक हों। सिंगोला पास को पार कर जब जांसकर घाटी में घुस चुके थे तो पुरनै से पिपुला जाते हुए क्याल बक के पास चढ़ाई चढ़ते हूए पीछे से टक टक कर चले आ रहे घोड़ों की पदचाप सुनी थी। दो बौद्ध भिक्षु जो पुख्ताल गोनपा के छात्र थे अपने गांव ईचर को निकल रहे थे। जब पास से गुजरे तो बरबस ही उनके मुंह से छूटी ध्वनि "जूले" ने सहज किया था। वरना तो गढ़ी के सैनिकों को घोड़ों पर सवार होकर गुजरते देख क्या ही मजाल होती कि बिना डगमगाये चढ़ाई पर चढ़ पाते। उनकी "जूले" का जवाब "जूले" ही हो सकता था। दोनों ही भिक्षु कम उम्र थे। यही काई 15-17 बरस। उत्सुकतावश या यूं ही, संवाद कायम हो, ऐसा साचते हुए ही शायद उन्होंने जानना चाहा था कि कहां से आ रहे हैं हम और आज कहां तक जाएंगे ? बातचीत चल निकली तो मालूम हुआ कि पुख्ताल गोनपा के दोनों भिक्षु ईचर गांव के निवासी हैं और अपने घर जा रहे हैं। वे तो घोड़े पर ही चढ़े रहे और "जूले" करतेे हुए आगे बढ़ गये। क्यालबक में चाय-पानी की दुकान लगाकर बैठे जांसकरी ने भी नतमस्तक होकर ऐसे "जूले" किया मानो भिक्षुओं ने सिर्फ और सिर्फ उसी के अभिवादन में, विदा लेते हुए "जूले" कहा हो जैसे।
गोनपाओं को देखने का वैसा आकर्षण मेरे भीतर कभी रहा नहीं जैसा कि बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों में होता है। या मठों मन्दिरों की मूर्तियों और शिल्प को पारखी निगाहों से देखने वालों के भीतर होता है। न तो धर्म पर मेरी आस्था रही और न ही मुझमें कला-शिल्प को जानने की समझ है। पुख्ताल गोनपा के अलावा यदि किसी अन्य गोनपा को भीतर से देखा भी है तो बस नुब्रा घाटी में दिकसित गोनपा को ही। जबकि रोहतांग पार के इस घने बौद्ध-विस्तार पर लिखी कृष्णनाथ जी की पुस्तकों "स्फीति में बारिश", "किन्नर धर्मलोक में", "लद्दाख में राग-विराग" या ऐसी ही अन्य लेखकों की पुस्तकों को पढ़ता हूं तो पाता हूं कि कितने ही तो बौद्ध-मठ हैं जिनको जाकर देखना तो दूर नाम याद रखने के लिए भी कितने ही दिनों तक तोता रटन्त करने के बाद भी शायद ही उनका सिलसिले वार जिक्र कर पांऊ।
दिकसित गोनपा तक तो गाड़ी जाती है। जांसकर घाटी की पैदल यात्रा के बाद पदुम से कारगिल होते हुए लेह निकल गये थे।
नुब्रा के सुने गए रेतीले आकर्षण में ही खिंचे चले गये थे हुन्दर। हुन्दर के रास्ते में ही दिकसित गांव था। वैसे लद्दाख के इतने अंदरुनी गांव में दिकसित के बाजार को देखकर उसे गांव कहने में जीभ थोड़ा लटपटा जाती है। विदेशी सैलानियों की डार की डार लद्दाख की इन गोनपाओं को देखने ही पहुंचती है। धर्म के प्रति ऐसा कोई लगाव, जब से मैंने होश संभाला, मेरे भीतर नहीं रहा। धर्मों के प्रतीक इबादतगाहों में भी आस्था न पैदा हो सकी। फिर उनके भीतर जाने या न जाने की कोई ऐसी कोशिश, जिसमें आस्था या निषेध जैसा कुछ हो, मुझे नहीं। मैं उनके भीतर उसी तरह जा लेता हूं जैसे किसी भी ऐसी जगह पर जहां बहुत से लोग मौजूद हों और उनके भीतर न जाते हुए भी मैं ऐसे ही बाहर रुका रह सकता हूं जैसे मन न हो पाने पर भी कोई मुझे बहुत ही अच्छी फिल्म देखने को भी कहे। ऐसा ही एक किस्सा बड़ा मजेदार है। हो सकता है किसीको भी बहुत ही साधारण सा लगे पर मुझे तो जब भी स्मरण हो जाता है, बेहद मजा आता है-
-जारी
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4 comments:
सुंदर यात्रा विवरण!
जांसकर बारे मे जानकारी अच्छी लगी
magic absoutely! incidentally, i happened to be there in Ladakh in famous summer of '99 !
Aapke sath yatra karne mai mujhe bhi anand aa raha hai...
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