Monday, November 18, 2013

ओम प्रकाश वाल्मीकि पर विजय गौड़



मनहूस खबरें लड़ने नहीं देतीं: विजय गौड़

(देहरादून वह शहर है जहाँ ओम प्रकाश वाल्मीकि ने एक  कवि के रूप में अपनी यात्रा शुरू करते हुये हिन्दी समाज के सामने  प्रमुख दलित चिन्तक और कथाकार के रूप में  ख्याति प्राप्त की.उनकी इस यात्रा  की शुरूआती कथा देहरादून के बाहर प्राय: अल्प-ज्ञात है.हाल ही में देहरादून से कलकत्ता स्थानान्तरित हुए साथी विजय गौड़ न सिर्फ वाल्मीकि जी के शुरूआती साहित्यिक सफ़र के हमराह रहे बल्कि उनसे कार्य-स्थल (नौकरी से संबन्धित)पर भी जुड़े रहे .यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वाल्मीकि जी कभी रंगमंच पर भी सक्रिय रहे.यहाँ विजय गौड़ वाल्मीकि जी को याद करते हुए एक तरह से देहरादून को भी याद दिला रहे हैं कि मुज्फ़्फ़रनगर में जन्मे  वाल्मीकि दरअल देहरादून के ही थे.)
 

मैं उनसे लड़ना चाहता था। ठीक वैसे ही जैसे हम तब लड़ पाते थे जब मुझे उनकी उम्र का अंदाजा नहीं था। वे मुझसे बड़े थे। कितने बड़े, यह मैं नहीं जानता था और इसे जानने की कोई उत्सुकता भी मुझे कभी न थी। उनकी उम्र का अंदाज तो मुझे पिछले पांच वर्ष पहले हुआ था। जब वे देहरादून से जबलपुर और जबलपुर के बाद स्थानांतरित होकर दोबारा देहरादून आ चुके थे और उनमें पहले का वह दोस्तानापन उस रूप में थोड़ा कम हो गया था जिस रू्प में हम पहले लड़ सकने के साथ होते थे। चंदा भाभी ने मजाक में मुझे कुछ कहा था जिसमें आपसी छेड़-छाड़ का वह बहुत करीबी अपनापा तो था लेकिन तीव्रता में वह पहले वाला उतना नहीं था। भाभी के छेड़ने को उतनी ही चतुराई से मैंने भी जवाब दिया था। तब तक मैं जान चुका था कि अगले 3-4 साल बाद वाल्मीकि जी सेवा-निवृत्त हो रहे हैं, यानी अगले कुछ सालों में साठ के हो जायेगें। चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरते हुए मैंने कहा था,
''देखो भाभी मुझे अब इतना छोटा न समझो और मेरे साथ पेश आने का अपना अंदाज थोड़ा बदल लो, मैं उम्र में आप दोनों से ही बड़ा हूं, ये जान लो ।"
हमारी छेड़-छाड़ के निशाने पर वाल्मीकि जी ही थे तो उनका चौंकना स्वभाविक था। वे कुछ कहते, इससे पहले ही मैंने अपनी कही गयी बात का खुलासा कर देना चाहा,
 
“भाई सहाब ये बताओ जब आप और मैं पहली बार निकट आये थे तब आपकी उम्र कितनी थी ?"
वे कुछ गिनती सी करने लगे तो मैंने ही बता देना उचित समझा था,
  “उस वक्त आपकी उम्र मात्र पैंतीस के करीब रही होगी और भाभी जी को बता दीजिये मैं इस वक्त चालीस साल का हो चुका हूं।"
मेरे जवाब पर चंदा भाभी भी जोर से हंसी थी और देर तक हंसते हुए हम तीनों ही कुछ क्षणों के लिए पिछले बीस साला अतीत में थे। उस अतीत में कथाकार मदन शर्मा और सुखबीर विश्वकर्मा यानी कवि जी सरीखे हमारे दो बुजुर्ग थे। वाल्मीकि जी की वजह से ही मैं भी दोनों के करीब तक गया था। और वैसी ही करीबी महसूस करता था जैसी वाल्मीकि जी की बातों में इन दोनों के प्रति रहती थी। मदन शर्मा जी का साथ और उनके प्रति आदर का भाव फिर भी कार्यालयी कारणों से रहा होगा, शायद लेकिन कवि जी के प्रति वाल्मीकि जी गहरी श्रद्धा व्यक्त करते थे। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में कवि जी अपने दौर के सबसे ज्यादा जिंदादिल इंसान हैं, ये उनका ही मानना नहीं था,, मैंने भी खुद करीब से महसूसा था। वैनगार्ड जैसे बहुत ही कम जाने जाने वाले अखबार के वे संपादक थे और कविताऐं लिखते थे। मेरे बचपन के साथी विपिन के वे पिता थे, मैं उस वक्त यह नहीं जानता था जब पहली बार वाल्मीकि जी ने मुझे उनसे मिलवाया था। उनसे मिलने हुए जो आदर वाल्मीकि जी दे रहे थेे प्रत्युतर मेें वैसा ही स्नेह बिखेरते कवि जी की खरखरी आवाज को मैं सम्मोहित-सा सुन रहा था। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के किसी भी व्यक्ति से यह मेरा पहला परिचय था जिन्हें मैं शुद्ध रूप में एक लेखक के तौर पर देख रहा था। मदन शर्मा जी से मुलाकात का आधार वह आयुध कारखाना भी था जहां मैं, वाल्मीकि जी और मदन जी काम करते थे। वाल्मीकि जी उस वक्त ड्राफ़्ट्समैन के पद पर थे और मैं कारखाने में कारीगर हो जाने के गुर सीख रहा था। ड्राफ्टसमैन वाल्मीकि जी से उस दिन मैं खूब लड़ा था जब 17 सितम्बर 1989 की हड़ताल वाले दिन वे मुझे उन लोगों के साथ दिखे थे जो हड़तालियों से निपटकर कारखाने में प्रवेश करने की मंशा रखने वाले थे। उन लोगों के साथ ही वाल्मीकि जी भी उस बेरिकेड तक पहुंचे थे जहां मैं स्वंय तैनात था। वाल्मीकि जी को वहां देखकर मैं चौंकता नहीं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में लड़ाकूपन की तस्वीर से वाकिफ था। पर झुंड के साथ उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। जब बेरिकेड पर तैनात दूसरे साथी आगे बढ़ने वालों को रोक रहे थे वे दूसरों की तरह आगे बढ़कर कारखाने की ओर जाने वाले रास्ते पर आगे जाने की जिद नहीं कर रहे थे बल्कि मेरे साथ खड़े हो गये थे। मुझे उनका साथ खड़ा हो जाना भला तो लगा था लेकिन कारखाने के भीतर घुसने वालों के साथ उनके वहां पहुंचने की वजह से दूसरे साथियों के सामने मैं खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहा था। वाल्मीकि जी और मेरे बीच के करीबी संबंध से परिचित दूसरे साथियों को वाल्मीकि जी का वहां तक पहुंचना बेशक मुझसे मिलने आना जैसा ही लगा हो शायद लेकिन मेरे भीतर की हलचलों में वे अपने वास्तकिव रूप में था। यही वजह थी कि हड़ताल निपट जाने के बाद मैंने उनसे जम कर झगड़ा किया था। उनकी उस कार्रवाई को निशाने पर रख मैंने उन्हें दूसरे डरपोक किस्म के स्टॉफ के रूप में चिह्नित किया था। वे मेरे सारी उलाहनाओं को सुनते रहे थे। विरोध तो नहीं लेकिन अपनी सफाई में उन्होंने अपनी सर्विस कंडिशन का सहारा लेने की कोशिश की तो मैं उन पर बुरी तरह बिफर पड़ा था। वह हमारी लड़ाई का ऐसा दिन था जब मैं घर पहुंच कर भी शांत नही रह पाया था।
आज जब खबर सुनी कि वाल्मीकि जी नहीं रहे तो मुझे उनका वही चेहरा क्यों याद आया ? जबकि उस दिन तो मैं उनसे जम कर लड़ लिया था। लड़ाई के बाद की सुलह का आलम यह था कि वे हमेशा कि तरह जब करनपुर चौक पर खड़े होकर दफ्तर जाने वाली बस का इंतजार कर रहे थे मैं धर्मपुर से करनपुर चौक तक लगातार उठती चढ़ाई पर साइकिल पर हर रोज की तरह पहुंचा था। लेकिन रोज की तरह वहां तब तक रुक कर जब तक कि उनकी बस नहीं आ जाती, उनसे गपियाने के लिए आंखें मिला पाने की स्थिति में न था और इस तरह से पेश आते हुए मानो मैने उन्हें खोजने पर न भी पाया हो, बस का इंतजार कर रहे लोगों पर निगाह फिराकर आगे बढ़ जाना चाह रहा था, एक बेहद आत्मीय आवाज में मैंने अपने नाम की पुकार सुनी थी। चौंकने का सा अभिनय करते हुए मैंने साइकिल रोक दी थी। बहुत ही खुश होकर वे मुझे सूचना दे रहे थे कि बिहार के मुंगेर जिले से निकलने वाली 20-24 पेजी पत्रिका ''पंछी"" के नये अंक में मेरी भी कवितायें प्रकाशित हैं इस बार। लघु पत्रिकाओं के आंदोलन का वह अभूतपूर्व दौर था। पत्रिकाओं के किताबनुमा संस्करणों की बजाय पतली-पतली सी पुस्तिकायें बल्कि एक ही बड़े कागज को घ्ाुमाव देकर पेज दर पेज निर्मित करते कितने ही कविता फोल्डर उस वक्त देश भर से प्रकाशित हो रहे थे। यदा कदा उनमें हमारी रचनाओं के प्रकाशित होने के कितने ही उत्साही क्षण हमारे संबंधों को गति देने वाली बात-चीत का हिस्सा रहे। देहरादून से ही अरविन्द शर्मा उस वक्त ''संकेत"" निकालते थे। जिस पर सम्पर्क का पता वही ''टिप-टॅाप"" लिखा होता था जहां चौकड़ी जमा कर बैठते हुए दिन में शाम वाली स्थितियों का मजा लेने के इंतजार में अरविन्द, अवधेश और हरजीत का इंतजार करने वाले नवीन नैथानी ने उसे इस कदर आबाद कर दिया था कि बाद-बाद के किस्सों में यह तलाशना मुश्किल हो जाता रहा  कि देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में ''टिप-टॉप"" की लगातार उपस्थिति का जिक्र आखिर सबसे पहले कब और कहां से होने लगा। अरविन्द के लिये तो ""टिप-टॉप"" उसको दी जाने वाली सूचनाओं का ड्राप बाक्स पहले से ही था। छूत के किटाणु लेकर घूमने वाला अरविन्द ''टिप-टॉप""  के संचालक प्रदीप गुप्ता को कविता लिखाने का रोग पहले ही लगा चुका था। वाल्मीकि जी के साथ ही किसी रोज शायद मैं भी ''टिप-टॉप"" पहुंचा था। जहां देहरादून के बहुत से दूसरे अपने जैसे बदतमीजों से सम्पर्क हुआ। वाल्मिकी जी के मार्फत ही मैं जान पाया था कि देहरादून से हस्तलिखित पत्रिका ''अंक" का पहला अंक प्रकाशित हुआ है। अतुल शर्मा और नवीन कुमार नैथानी के सम्पादन में निकलने वाली वह ऐसी पत्रिका थी जिसके शायद दो ही अंक निकले थे। पहले अंक की गोष्ठी का आयोजन सहस्त्रधारा में किया गया था। कवि जी से मैं परिचित हो चुका था जो उस दिन ही पहली बार राजेश सेमवाल और नवीन नैथानी से भेंट हुई थी। लगातार की ऐसी सक्रियतायें वाल्मीकि जी और मुझे करीब से करीब लाती जा रही थी। साहित्य की उठा-पटक से लेकर दुनिया जहान की कितनी ही बातें जो हमारे भीतर गुस्सा पैदा करतीं, हमारी बातचीतों के किस्से थे। हर स्थिति से लगातार टकराते रहने और टकराहट के दौरान लगने वाले आघ्ाातों से भी विचलित होने की बजाय फिर-फिर टकराने की जिद रखने वाले वाल्मिकि के व्यक्तित्व का प्रभाव मेरे ऊपर भी पड़ता जा रहा था और गैर बराबरी की अवधारणओं को ही दुनिया के संचालन की एक मात्र दिशा मानने वाले विचारों से मेरी टकराहट बढ़ती जा रही थी।
वाल्मीकि जी महाराष्ट्र के चंद्रपुर इलाके में एक लम्बा समय गुजार कर देहरादून स्थांनतरित हुए थे। महाराष्ट्र के दलित आंदोलनों का प्रभाव उन्हें खुद के भीतर के हीनताबोध से बाहर निकाल चुका था। हिन्दी में दलितधारा नाम की कोई स्थिति उस वक्त न थी। कवि जी की कविताओं के प्रभाव भी वाल्मीकि जी कविताओं में थे। मिथ और इतिहास से टकराने की दलित साहित्य की शुरूआती प्रवृत्तियों वाला प्रभाव यदि कहें तो कवि जी कविताओं के वे मुख्य विषय थे। शंभुक, सीता, अहिल्या और किंवदंत कथाओं के ऐसे कितने ही उपेक्षित पात्र सुखबीर विश्वकर्मा की कविताओं में मौजूद रहते थे। वाल्मीकि जी की कविताओं में ही नहीं मैं उस दौर की अपनी कविताओं में भी उनके प्रभावों को पाता हूं। बाद में कहानीकार कहलाये जा रहे वाल्मीकि जी मूलत: एक कवि थे। और कवि के साथ कुछ और कहा जाये तो नाटककार। मेरे और उनके बीच लगातार की करीबी का एक कारण नाटक भी था। कहानियां लिखना ही नहीं उन पर दिलचस्प तरह से बात करने की कोई स्थिति भी मैं याद नहीं कर पाता। मदन शर्मा, वाल्मीकि जी और मैं जो एक ही जगह पर नौकरी करने के कारण अक्सर साथ-साथ मुलाकातों के अवसर वाली स्थिति पा जाते थे, मदन शर्मा जी ही हम तीनों के बीच एक स्वीकृत कहानीकार रहे। मदन जी उन दिनों पंजाब केसरी के स्टार लेखक थे। वीरवार को निकलने वाले पंजाब केसरी के साहित्यिक पृष्ठ में जिसमें हर हफ्ते चार से पांच कहानियां छपती थी, मदन जी कहानी अक्सर ही मौजूद रहती। अपने अनुभवों को आधार बनाकर कहानी लिखने की वाल्मीकि जी की वे कोशिशें मदन जी की ही सलाहों पर पंजाब केसरी के वीरवारी पन्नों में दर्ज हुई जिनके छप जाने के बावजूद भी वाल्मीकि जी एक कवि के रूप्ा में ही जाने जाते थे। पंजाब केसरी के पन्नों में छपी वे कहानियां कहानियों के रूप्ा में नहीं दिखायी दी बल्कि उन कहानियों में अन्य प्रंसगों को पिरोकर वाल्मीकि जी ने ''जूठन"" एक ऐसी कृति रचि जिसने हिन्दी में दलित धारा के उपस्थित होने की स्थिति का बयान ही नहीं किया बल्कि उसको बाहर आने के आधार भी प्रदान किये। हालांकि जूठन से पहले मोहनदास नैमिशराय की ''अपने-अपने पिंजरे"" छप चुकी थी। वह एक ऐसी आत्मकथा जिसे खुद वाल्मीकि जी ने मुझे उस वक्त पढ़ने को दिया था जब मैं उनसे लेकर पढ़ी जा चुकी दया पंवार की ''अछूत"" पर बात कर रहा था।
जूठन में लिखी भूमिका को पढ़ते हुए जब मैं उसके लिखे जाने की स्थिति में जो कुछ नाम पढ़ रहा था तो वे देवत्व को प्राप्त लोगों भर के होने पर मैं भीतर ही भीतर तिलमिला गया था। वाल्मीकि जी से लड़ना चाहता था। लेकिन लड़ने का अवसर मौजूद न था। वैसी स्थितियां सृजित होने के हालात कभी बन नहीं पाये। बल्कि ऐसी बातों पर लड़ने की दूसरी-दूसरी स्थितियां ही, जो लगातार बढ़ती ही गयी, मेरे भीतर गुस्सा जज्ब करती रही। इस बार मैं तय कर चुका था कि अबकि इस कदर लड़ूंगा कि चाहे जो जाये। लेकिन वैसी ही मनहूस खबर जो पिछले 2012 नवम्बर के एक दिन मुझे सुनने को मिली जब बड़े भाई का निधन हुआ और नवम्बर 2013 में जो अपनी पुनर्वावृत्ति कर रही है, मुझे वाल्मीकि जी से लड़ने को वंचित कर दे रही है। सिर्फ रोने, सुबकने और गले लग कर न लड़ पाने के इस दुख को मैं लेखकीय संबंधों की साझेदारी के साथ लिख कर निपटा नहीं पा रहा हूं। काश मेरे शब्द मेरी उस स्थिति को बयां कर पाते जो मुझे लगातार एक छोटे भाई को उसे अपने बड़े भाई पर गुस्से की रूलाहटों से भर रही है।


फ्लैट संख्या: 91, 12वां तल,टाइप-III, केन्द्रीय सरकारी आवास परिसर, ग्राहम रोड़, टॉलीगंज, कोलकाता-700040             
mob : 09474095290   

2 comments:

Yogendra Ahuja said...

अन्यायपूर्ण है यह, वाल्मीकि जी का यूं असमय जाना । अभी उन्हें कितना काम करना था । लिखने की ढेरों योजनाएं उनके जेहन में थीं । मुझे भी उनसे बहुत सी बातें और बहसें करनी थीं । देहरादून के दिनों में और कभी कभी उसके बाद भी उनसे कुछ बहसें होती रही थीं लेकिन वे हमेशा अधूरी छूट जाती रहीं, कभी अपनी परिणति पर नहीं पहुंचीं । अब शायद अवकाश मिलता उन्हें पूरा करने का । लेकिन उनके असमय निधन ने इन सब पर पर्दा डाल दिया ।

हिंदी की कितनी ही महत्वपूर्ण बहसों के वे इनीशिएटर रहे । 'कफ़न' कहानी को पढ़ने का एक बिलकुल अलग नजरिया उन्होंने दिया था । दलित साहित्य के संदर्भ में स्वानुभूति और सहानुभूति का सवाल भी सबसे पहले उन्होंने ही उठाया था । आप उनसे असहमत हो सकते थे, जैसे हममें से अनेक थे ही बहुत सारे सवालों पर, लेकिन उन सवालों की उपेक्षा करना किसी के लिए भी मुमकिन न था ।

हमारी बौद्धिक दुनिया और दोस्तों की दुनिया, दोनों को कुछ छोटा और गरीब बनाकर वे चले गए । संवेदना की गोष्ठियों में भे वे ऐसा ही करते थे । थोड़ी देर से पहुंचना, अपनी कहानी पढ़ना और विदा । कभी कभी वे कहानी पर उपस्थितों की राय जानने के लिए भी नहीं रुकते थे । "कुछ ज़रूरी काम है" वे कहते थे । बिलकुल उसी अंदाज़ में वे चले गए । लेकिन वाल्मीकि जी, हमारी याद से जाना, यह आपके बस में नहीं है ।

योगेन्द्र आहूजा

गीता दूबे, कोलकाता said...

मार्मिक संस्मरण। वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने के साथ साथ आप दोनों के निकट संबंधों को भी बड़ी गहराई से समझा जा सकता है। जिस दलित विमर्श की साख आज हिंदी में जम चुकी है उसके शुरुआती दौर को जानना अच्छा लगा। वाल्मीकि जी सच में असमय और उस समय गते जब वह साहित्य को और भी बहुत कुछ दे सकते थे। आत्मीय की मृत्यु किसी को‌भी तोड़ने के लिए काफी होती है। आपकी पीड़ा और बेचैनी का अनुमान भर लगाया जा सकता है विजय उसे समझा नहीं जा सकता।‌