Monday, November 1, 2010

लीलाधर जगूडी की दो कवितायें

( वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूडी की दो कवितायें १९७७ में प्रकशित संग्रह "बची हुई पृथ्वी" से दी जा रही हैं)




मौलिकता

जडें
वही हों

उसी तने पर
वे ही टहनियां हों

ज्याद अच्छे लगते हैं
तब
नये पत्ते

वरना नये पौधे में तो वे होते ही हैं


आऊंगा

नये अनाज की खुशबू का पुल पार करके
मैं तुम्हारे पास आऊंगा
ज्यों ही तुम मेरे शब्दों के पास आओगे

मैं तुम्हारे पास आऊंगा
जैसे बादल
पहाड़ की चोटी के पास आता है
और लिपट जाता है
जिसे वे ही देख पाते हैंजिनकी गरदनें उठी हुई हो>

मैं वहां तुम्हारे दिमाग में
जहां एक मरूस्थल है
आना चाहता हूं

मै आऊंगा
मगर उस तरह नहीं
बर्बर लोग जैसे कि पास आते हैं
उस तरह भी नहीं
गोली जैसे कि निशाने पर लगती है

मै आऊंगा
आऊंगा तो उस तरह
जैसे कि हारे हुए
थके हुए में दम आत है



Monday, October 11, 2010

कृष्ण पर लोहिया

हाल ही में अकार का ताजा अंक आया है.यह राम मनोहर लोहिया पर केन्द्रित है. इस अंक के प्रमुख आकर्षण हैं -लोहिया के प्रसिद्ध लेख और संसद में एक पैसा बनाम तीन पैसा पर दिया गया भाषण.यहां कृष्ण पर लोहिया के लेख का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत किया जा रहा है . इस अंश को आप एक ललित निबन्ध की तरह पढ़ सकते हैं


सरयू और गंगा कर्तव्य की नदियां हैं. कर्तव्य कभी-कभी कठोर होकर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल, केन तथा दूसरी जमुना-मुखी नदियां रस की नदियां हैं.रस में मिलन है, कलह मिटाता है.लेकिन आलस्य भी है, जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है.इसी रस भरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की,लेकिन कुरू-धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया.बाद में हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी, आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमी पर रसमय कर्तव्य का उदय होगा. कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं . कैसे तुमने राधा- लीला को कुरू -लीला से निभाया.लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा नाम तक नहीं . बात इतनी सच नहीं, क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं . सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते हैं, जो मझते हैं वे , और जो नहीं समझते वे भी.. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है.राधा काक वर्णन तो वहीं होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. राम का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है. नजाने हजार वर्षों से अभी तक पलडा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण !
-१९५५,जुलाई; जन से

Tuesday, October 5, 2010

भरोसे के सूत्र आंकड़ों में नहीं पनपते




5 -6 अगस्त की रात जिस अबूझ विभीषिका ने लदाख के लेह नगर के लोगों को अपने खूनी बाहुपाश में जकड़ लिया था   उसकी  जितनी भी तस्वीरें देख ली जाएँ ,वास्तविक नुक्सान का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा.लेह भारत का क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला है पर इसमें आबादी का घनत्व मात्र 3  व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है,इसलिए ढाई सौ के आस पास बताई जाने वाली मौतें  देश के प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहुत भयानक नहीं मानी जायेंगी...हांलाकि 300 लोग दुर्घटना के महीने भर  बीतने के बाद भी लापता बताये जा रहे हैं.पैंतीस के लगभग गाँव इसकी चपेट में आ के नक्शे से लगभग लुप्त ही हो गए....मीलों लम्बी सड़कें,दर्जनों पुल और सैकड़ों खेत बगीचे इसकी विकराल धारा के हवाले हो गए,वो भी देश के उस हिस्से में जहाँ सड़कें और पुल सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माने जाते हैं.अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर सीमा सड़क संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि अकेले लद्दाख के इलाके में ढाई से तीन सौ करोड़ तक की सड़के ध्वस्त हो गयी हैं। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे की ऊँची लाइनें देखी जा सकती हैं--उनके अन्दर से झांकते कपडे लत्ते और घर के साजो सामान साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं.कभी कभार इनके अन्दर से लाशें अब भी निकल आती हैं. लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि मरने वाले अधिकतर लोग या तो सोते हुए मारे गए, या फिर बदहवासी में घर से निकलकर भागते हुए। बाजार में अनेक दुकानें  ऐसी हैं जो हादसे के बाद से अब तक खुली ही नहीं हैं...जाने इन्हें हर रोज झाड पोंछ कर खोलने वाले हाथ जीवित बचे भी हैं या नहीं?
 -यादवेन्द्र

 

विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका साफ़ साफ़ ये अर्थ होता है कि  बहुत छोटी अवधि में एक क्षेत्र  विशेष में (20 से 30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं)अ  साधारण  तीव्रता के साथ -- एक घंटे में 100 मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा-- बरसात हुई.भारत सरकार ने हांलाकि बादल फटने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई मानक तय नहीं किया है पर मौसम विभाग अपनी वेबसाईट पर ऊपर बताई परिभाषा का ही हवाला देता है.अब पूरे मामले के कारणों की बात करते समय यदि हम 5-6 अगस्त की रात को लेह में हुई बरसात के आधिकारिक आंकड़ों की बात करेंगे तो मौसम विभाग ( लेह नगर में उनकी वेधशाला मौजूद  है) चुप्पी साध लेता है.नगर के दूसरे हिस्से में स्थित भारतीय वायु सेना के वर्षामापी यन्त्र का हवाला देते हुए मौसम विभाग जो आंकड़ा प्रस्तुत करता है वो इतना काम है कि बादल फटने की घटना पर संदेह होने लगता है-- पूरे 24  घंटे में 12.8  मिली मीटर बरसात,बस.वाल स्ट्रीट जर्नल  ने इस पर विस्तार से लिखा है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी उस काली रात में हुई बरसात का कोई आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका.यहाँ ये ध्यान देने की  बात है कि पिछले कई सालों से अगस्त माह का  बरसात का औसत मात्र ... है.दबी जुबान से अनेक लोगों ने ये कहने की कोशिश की कि यह विभीषिका कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी,बल्कि चीन के मौसम बदलने वाले प्रयोग का एक नमूना
 थी.कोई भरोसेमंद सूत्र भले ही ऐसा कहने के लिए सामने न हो,पर इसको यूँ ही खारिज  नहीं किया जा सकता  क्योंकि हाल में ही ब्रिटिश वायु सेना के कृत्रिम बारिश कर के दुश्मन को तबाह कर देने के एक प्रयोग से  सैकड़ों लोगों की जान जाने की एक घटना का खुलासा हुआ है-- विनाश के स्थान  से 40 -50 किलो मीटर दूर ये प्रयोग कोई पचास साल पहले किया गया था और देश की रक्षा का हवाला दे कर इसमें गोपनीयता बरती गयी थी.कुछ साल पहने द गार्डियन ने इसका खुलासा किया है.   
 
  भूगोल की किताबों में लदाख को सहारा जैसा रेगिस्तान बताया जाता है,फर्क बस इतना है कि यहाँ का मौसम साल के ज्यादातर दिनों में  भयंकर सर्द बना रहता है.मनाली या श्रीनगर चाहे जिस रास्ते से भी आप लेह तक आयें,रास्ते में नंगे पहाड़ और मीलों दूर तक फैले सपाट रेगिस्तान  दिखेंगे... हरियाली को जैसे सचमुच कोई हर ले गया हो.दशकों पहले रेगिस्तान को हरा भरा बनाने को जो नुस्खा पूरी दुनिया में अपनाया जाता रहा है-- पेड़ पौधे रोपने का -- वो नुस्खा लदाख में भी आजमाया गया और लदाखी जनता को वृक्ष रोपने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते नगद इनाम देने की योजना राज्य सरकार ने शुरू की.साथ साथ लेह में स्थापित रक्षा प्रयोगशाला ने भी बड़े पैमाने पर इस बंजर इलाके को हरियाली से पाट  देने का अभियान शुरू किया.आज वहां दूर दूर तक हरियाली के द्वीप दिखाई देने लगे है.रक्षा प्रयोगशाला दावा करती है की लेह में उनके प्रयासों से हवा में आक्सिजन की उपलब्धता 50 %  तक बढ़ गयी है और इस क्षेत्र की सब्जी की करीब साठ फीसदी आपूर्ति   उनके प्रयासों से स्थानीय स्तर पर पूरी की जा रही है.सब्जी की करीब 80 नयी और सेब की लगभग 15  नयी  प्रजातियाँ इस समय वहां उगाई जा रही हैं.पिछले सालों में जहाँ इस क्षेत्र में हरियाली  की चादर बढ़ी है वहीँ वर्षा की मात्रा भी निरंतर बढती गयी है.हांलाकि  सरकार के दस्तावेज अब भी लदाख क्षेत्र में हरियाली से ढका हुआ क्षेत्र महज 0 .1 % ही  दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग मानता है कि हरियाली को  मौसम प्रभावित  करने के लिए कम से कम अपना दायरा 30 %  तक बढ़ाना पड़ेगा-- पर इस बार की अ प्रत्याशित त्रासदी ने ऐसे लोगों का एक वर्ग तो खड़ा कर ही दिया है जो लदाख के सर्द रेगिस्तान को हरा भरा करने के अभियान को शंका की दृष्टि से देखता  है और अत्यधिक बरसात से बाढ़  जैसी स्थिति पैदा करने के लिए हरियाली को ही दोषी मानता  है.दबी जुबान से लेह  के एक सम्मानित धर्मंगुरु  जो राज्य सभा के सदस्य भी रहे हैं,ने  भी विभीषिका के लिए इसको ही दोष देने की कोशिश की.लेह में लोगों से बात करने पर कई लोगों ने ये भी कहा कि दलाई लामा भी पिछले कई सालों से अपने उद्बोधनों में लदाख में हरियाली की संस्कृति को रोकने की अपील करते आ  रहे हैं.त्रासदी के दिनों के उपग्रह चित्रों को देखने से मालूम होता है कि कैसे देश के सुदूर दक्षिण पश्चिम सागर तट से काले मेघ पूरा देश पार करके उत्तरी सीमाओं तक पहुँच गए.यह एक अजूबी घटना है और अब मौसम वैज्ञानिकों ने इसका विस्तृत अध्ययन करने की घोषणा की है.
 
  अचानक आई इस बाढ़ से हुए नुकसानों के बचे हुए अवशेष ये बताते हैं कि ध्वस्त होने वाले घरों कि बनावट में कोई कमी रही हो ऐसा नहीं है -- लेह बाजार के पास अच्छी सामग्री और डिज़ाइन से बने  टेलीफोन  एक्सचेंज और बस अड्डे में जिस तरह का नुक्सान अब भी दिखाई देता है,ये इस बात का सबूत  है कि मलबे की विकराल गति ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया.यूँ साल में तीन सौ से ज्यादा धूप वाले दिनों के अभ्यस्त लोग  लदाख क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मकान मिट्टी की बिन पकाई इंटों से बनाते हैं, नींव भले ही पत्थरों को जोड़ कर बना दिया जाए.इलाके की सर्दी को देखते हुए दीवारें मोटी बनायीं जाती हैं और मिट्टी बाहर की सर्दी को इसमें आसानी से प्रवेश नहीं करने देता.छत सपाट और स्थानीय लकड़ियों, घास और मिट्टी की परतों से बनायीं जाती हैं.अब कई भवन टिन की झुकी हुई छतों से लैस दिखाई  देते हैं पर स्थानीय लोग इनको सरकार के दुराग्रह और दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे वास्तुकारों की ढिठाई का प्रतीक मानते हैं.हाँ, चुन चुन कर पत्थर की ऊँची पहाड़ियों के ऊपर किले की तरह बनाये गए किसी बौद्ध मठ को कोई क्षति नहीं हुई.जब साल दर साल बढ़ रही  बरसात के सन्दर्भ में लोगों से बात की गयी तो छतों के ऊपर किसी ऐसी परत(जैसे तिरपाल) को मिट्टी की परत के अन्दर बिछाने की जरुरत महसूस की गयी जिस से बरसात का पानी अन्दर न प्रवेश कर पाए.हमें लेह में ढूंढने  पर भी स्थानीय स्तर पर कम करने वाले वास्तुकार नहीं मिले,जिनसे और गहन विचार विमर्श किया जा सकता.
 
अब भी मलबे हटाने का कम चल रहा है पर सबसे अचरज वाली बात ये लगी कि इनमें स्थानीय जनता की कोई भागीदारी नहीं है...विभीषिका की काली रात में तो सेना के जवान अपनी बैरकों  से निकल कर आ गए,बाद में सीमा सड़क संगठन के लोग खूब मुस्तैदी से ये काम कर रहे हैं-- बिछुड़े हुए परिजनों और खोये हुए सामान को दूर से निहायत निरपेक्ष भाव से लोग खड़े खड़े निहारते दिखते हैं,पर पास आकर न तो कोई हाथ लगाता दिखता है और न ही बिछुड़ी हुई   वस्तुओं को प्राप्त कर लेने का कुतूहल किसी के चेहरे पर दिखाई देता है.लोगों से बार बार इसका कारण पूछने पर लोगों ने बौद्ध जीवन शैली में जीवन और मृत्यु की अवधारणा के गहरे रूप में दैनिक क्रिया कलाप और व्यवहार में  लोगों के अन्दर तक समा जाने की ओर इशारा किया.                           



-यादवेन्द्र
                            

Wednesday, September 29, 2010

कइयों को पसंद है मसखरी


आज के उफनते और तलवार भांजते माहौल में मुझे 1928 में जनमी  प्रख्यात अश्वेत अमेरिकी कवियित्री माया एंजेलू की ये मशहूर कविता अनायास याद हो आई...एक पिद्दी से कोर्ट के फैसले को इतना दानवी बनाया जा रहा है कि जैसे पूरी मानव जाति इस से निकली घृणा के अन्दर भस्म हो जाएगी . मुझे लगता  है कि इस कविता की चेतना  समझदार  लोगों  को छू  कर  जरुर  शांत  और आश्वस्त  कर  पायेगी .यहाँ कविता का सम्पादित अंश दिया जा रहा है...प्रस्तुति यादवेन्द्र की है:


 मानव परिवार  
मैं देखती हूँ कि विविधताएँ बहुत  हैं
मानव परिवार  में
हम में से कई धीर गंभीर लोग हैं
और कइयों को पसंद  है मसखरी...
कुछ लोग दावा करते हैं
उन्होंने पूरा जीवन जिया खूब गहरे डूब कर
कइयों को लगता है
सिर्फ वे ही हैं जो छू पाए हैं
जीवन की सच्चाइयों को सच में...
* * * * * *
मैं छान आया सातों समंदर
और ठहरा भी हर जगह
देखे दुनिया भर के अजूबे
पर नहीं मिले तो नहीं ही मिले
एक जैसे मिलते जुलते लोग...
* * * * * *
जुड़वां हमशक्ल हुए तो भी
उनके नाक नक्श एक दूसरे पर कसते हैं ताने
प्रेमी जोड़े  चाहे कितने निकट लेटे हों
सोचते होते हैं अलग अलग ही...
* * * * * 
अलग अलग स्थान और काल में
हम दिखते तो  हैं एक दूसरे से बिलकुल जुदा
पर मेरे दोस्त,अपने  अलगावों  के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं.... 
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं....
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं...
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Monday, September 20, 2010

बारिश

उत्तराखण्ड में बारिश की भीषड़ मार को झेलते हुए एक दौर में लिखी गई यह कविता आज फिर याद आ रही है। 


सब कह रहे हैं
बारिश बन्द हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा है पानी
पर घर के भीतर तो
पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है;

सड़क पर भी है पानी
आंगन में भी है पानी
र के पिछवाड़े भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिश बन्द हो चुकी है

Sunday, September 19, 2010

"सरकार" क्या होती है!




डॉ. शोभाराम शर्मा

    'सरकार, आपको बडे सरकार ने सलाम बोला है।" सुबह-सुबह कालेज का चपरासी संदेश दे गया और मुझे अपने बंटी के सवाल का जवाब सूझ गया। अपनी पुस्तक के पन्ने पलटते हुए उसने पिछली रात सवाल दागा था- ''पापा सरकार क्या होती है?"  और मैं अकचकाकर बोेला था- ''जो सर करती है यानि दूसरों पर अध्किार करती है, वही सरकार है।"   परिभाषा का पुरानापन और अव्याप्ति दोष ध्यान में आया तो मैंने पिंड छुडाने के लिए कह दिया था- ''वह आजकल कारों में सर छुपाकर चलती है, इसलिए सरकार कहलाती है।"
    चपरासी ने सरकार, बडे सरकार और सलाम, इन तीन शब्दों में सरकार का बाहर-भीतर खोलकर रख दिया। सरकार भी छोटी होती है, बडी भी होती है। और उसको सलाम भी करना पडता है। आकार से बात वर्ण पर आती है तो सरकार बाहर से गोरी और भीतर से काली भी होती है। इसका विलोम भी होता है और पीली से लेकर लाल सरकारें भी आज दुनिया में विराजमान हैं। उन्हें आकार-प्रकार और वर्ण के अनुसार छोटा-बडा, काला-पीला और लाल सलाम भी करना पडता है।

    सलाम में तो हर सरकार के प्राण बसते हैं। हैसियत के अनुसार उसे घुटना-टेकु से लेकर फर्जी सलाम तक ठोकने पडते हैं। हर जगह का अपना रिवाज है। कहीं दण्डवत लेट लगा दी, कहीं हें-हें कहकर हाथ जोड दिए तो कहीं बूट पर बूट चढाकर हाथ से माथा पीट लिया और सरकार खुश कि वह जिन्दा तो है। यह सब ठीक है, लेकिन सरकार का स्वरूप भौतिक है या आध्यात्मिक, यह विवाद का विषय है। जब थानेदार का डंडा सिर पर बजता है तो लगता है कि डंडा ही सरकार है लेकिन एक निर्जीव डंडे में करामाती सरकार कहां पर स्थित है, वह डंडे में है या डंडे के आघात से होने वाले मीठे-मीठे दर्द में, यह अभी तक समझ में नहीं आया। हां सारी साक्षियां यही बताती है कि डंडे से सरकार का संबंध् है जरूर।
    सरकारों के सरकार खुदा ताला, ने जब आदम-हौवा के लिए जन्नत के दरवाजे पर ताला डाल दिया तो लगता है कि उन बेचारों के पास कोई डंडा नहीं था और वे बेचारे ना नुकुर किए बैगर चुपचाप ध्रती पर चले आए। आदेश का डंडा खुदा के पास जन्नत में छूट गया और इध्र ध्रती पर आदम-हौवा की औलाद बढती गई। करामाती डंडे की जरूरत पडी तो कुछ जबर जन्नत से चुरा लाए और खुदा की जगह खुद दुनिया को हांकने लगे। चोरी तो चोरी है। सिर उफंचा रखने के लिए उन्होंने घ्ाोषित किया कि परम पिता परमात्मा ने ही उन्हें करामाती राजदण्ड स्वेच्छा से प्रदान किया है। पेट की मार और जबर की लाठी से विवश होकर अल्ला-ताला से सीध सम्पर्क बताने वाले पण्डित-मुल्ला और पादरियों ने भी स्वीकार कर लिया तो सरकार चल निकली और उसका सीध संबंध् नेति-नेति से हो गया। कुछ विचारकों का मत है कि सरकार मानव समाज के सामूहिक विवेक का परिणाम है। कुछ का मत है कि वह राज्य या राष्ट्र की आत्मा है।  दैवीय-इच्छा सामूहिक विवेक या आत्मा का आकार-प्रकार अभी तक तो कोई स्पष्ट नहीं कर पाया, लेकिन डंडा अपनी जगह है। आप चाहें तो उसे इनका प्रतीक मान सकते हैं। दूसरे शब्दों में डंडा निराकार का साकार रूप है, जो काम करता है।
   बाबा तुलसीदास ने निराकार ब्रह्म के विषय में लिखा है कि वह बिना कानों के ही सुनता है, बिना पैरों के ही चलता है, बिना जीभ के ही नाना स्वाद लेता है और बिना हाथों के ही सारे कार्य करता है। वही निराकार ब्रह्म ब्राह्मणों और साधुओं की रक्षा के लिए साकार भी हो जाता है। मेरा विश्वास है कि बाबा की नजर में परम पिता का वही डंडा रहा होगा, जो आज तक बडे लोगों की रक्षा की पुनीत दायित्व निभाता रहा है। उनका कथन इस सरकार बनाम करामाती डंडे पर ही सटीक बैठता है। उसकी मार, उसके होने की साक्षी देता है और तलवार की नोंक या बंदूक की नली के रूप में सीधे हमारी आंखों में घूरता है। हां, एक बात में बाबा भी चूक गए। वे यह लिखना भूल गए कि वह बिना दिमाग के ही सोचता है, क्योंकि डंडा चलता अधिक है और सोचता कम है।
   कुछ पहले तक सरकार अपने करामाती डंडे से तीन काम लेती थी। वह भीतर को ठीक-ठाक रखती थी, इसलिए कि उसका आसन बरकरार रहे, वह बाहर वालों पर झपटती थी, इसलिए कि उसके आसन पर कोई खतरा न आए और वह कर वसूल करती थी, इसलिए कि उसके होने का अहसास बना रहे। प्रजा की जेब हल्की करने से उसका रौब-दाब बढता था। खजाना भरा होने पर बिना जीभ के भी नाना स्वाद लेती और 'राज्ञ: प्रजारंजनात" का खेल भी बखूबी खेल सकती थी। उसका आसन सिंहासन कहलाता था, जो सोने से मढा होता और कोई नर-शार्दूल हाथ में राजदण्ड लिए सर पर रत्न-जडित मुकुट धरण किए, जब अकडकर उस पर बैठता जो प्रजा तमाशा देखकर प्रसन्न होती और जय-जयकार करने लगती। वह सचमुच का शेर होता या माना हुआ शेर होता, लेकिन राज्य में जो कुछ भी अच्छा या सुंदर होता उस पर उसीका अधिकार होता। उसकी रानी स्वर्ग की अप्सरा होती। एक नहीं कई-कई होतीं, जिनकी सुरक्षा के लिए वह अपने राजमहल में जनखे रखता। जनखे भी तब धंधे में लगे रहते और रनिवास की कहानियों से जनता का अच्छा मनोरंजन होता। कहीं किसी की बेटी या बहू सुंदर हुई तो उसका राजा के रनिवास तक पहुंचना प्राय: आवश्यक हो जाता, क्योंकि सबसे सुंदर पर सबसे बडे का ही अधिकार हो सकता था। राजा ने छुई और पारस हुई, तब नारी जीवन की सार्थकता इसी में थी। इसमें भी बडे-बडे उलट पफेर होते, रानी दासी बन जाती और दासी रानी। कवि लोग इस पर सुंदर-सुंदर नाटक और काव्य रचते। राजा लोग अपनी रानियों से सौ-सौ राजकुमार और राजकुमारियां पैदा करते, जिनकी शान-शौकत और छीना-झपटी में महाभारत रचे जाते ओर प्रजा तमाशा देखकर भौचक रह जाती। अश्वमेध् से नरमेध् तक कई प्रकार के मेध् होते। सब से बडी सरकार के सगे ब्राह्मण-पुरोहितों को इतना खिलाया जाता कि उन्हें पेट की अपच ही नहीं, दिमागी अपच भी हो जाती थी। पेट की अपच से चरक और सुश्रुत जैसे धन्वन्तरियों का धंधा चमकता और दिमागी अपच के मारे हमारी मेध वहां पहुंच जाती, जहां से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता।
    सिंहासन की सुरक्षा के लिए डंडा विशाल दुर्गों का निर्माण करवाता, परलोक बनाने के लिए बडे-बडे मठ-मंदिर बनते, विहार और स्तूप बनते, जहां महंतों व पुजारियों के मुफत रोटी तोडने का प्रबंध् हो जाता। चटटानों पर भित्ति-चित्र खुदवाए जाते, शिलाओं पर अपनी प्रशंसा उत्कीर्ण की जाती और राजा इहलोक तथा परलोक के बीच दलालों द्वारा उफपर वाले का प्रतिनिध् घ्ाोषित कर दिया जाता। कभी कोई सडक बन जाती, ध्मशालाएं खुल जातीं या सडकों के किनारे छायादार वृक्ष लग जाते तो प्रजा समझती कि उफपरवाली सरकार ही छोटी सरकार के रूप में धरती पर उतर आयी है। कुछ ऐसे भी आए जो तलवार के बल पर अपने भोंडे विश्वासों को जनता के मन मस्तिष्क में ठूंसना अपना सबसे पाक कारनामा मानते थे और जन्नात तथा जमीन के बीच के दलाल उन्हें गाजी घोषित करते। उनके उत्तराधिकारियों ने लाजबाब कबरें बनवाई और ताजमहल खडे किए। और ये तमाशे उस करामती डंडे की देन है, जिस पर हम आज भी अभिमान करते हैं।
    सुदूर पश्चिम में एक तमाशा और हुआ। भोक्ता और निर्माता के बीच दलाली पर जीने वाले की आंखों में इतनी चर्बी आ गई कि उसने प्रजा के नाम पर डंडा हथिया लिया। ईश्वर के पुराने प्रतिनिधियों की जगह नये प्रतिनि्धियों ने ले ली और उन्हें दुनिया को आपस में बांटना आरंभ कर दिया। अपने तैयार माल की खपत और कच्चे माल की उपलब्ध् के लिए उन्होंने दो-दो महायु्द्ध लडे और वे सभी ईसा मसीह की प्यारी भेडें थीं। कानून और शासन की पोथी में पैसे का नाग न जाने कहां से घुस आया, जिसने डंडे को स्टर्लिंग और डालर में बदल दिया। डंडे का यह नया रूप लोगों की जेब से लेकर चूल्हे तक निसंकोच घुस जाता है और भाड में जाए या चूल्हे में, हर जगह से कुछ-न-कुछ वसूल कर ही लेता है। लोग कहते हैं कि यह एक बहुत बडा परिवर्तन है। मुझे तो वही 'ढाक के तीन पात" दिखाई देते हैं। सामूहिक विवेक को पैसे की दीमक चाट रही है और राज्य की आत्मा नए-नए हिटलरों के रूप में यहां-वहां पफौजी बूट बजाती नजर आती है। सिंहासन की जगह कुर्सी ने भले ही ले ली हो, लेकिन छिन जाने का डर आज भी नए-नए तमाशे खडे करता है और वह भी राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बडी बेरहमी के साथ। पहले राजसूय-अश्वमेघ यज्ञ होते थे। आजकल बडे-बडे राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय जमावडे होते हैं। जनतंत्रों के नये बादशाह "अहो रूपं अहो ध्वनि" के अंदाज में उछलते कूदते हैं, दावतें उडाते हैं और बदले में भाषण पिलाकर, प्रस्तावों की मीठी नींद की गोलियां खिलाते हैं।
    पहले राजकुमार महलों में पैदा होते थे, आजकल वे गलियों में पैदा होते है और आवारा कुत्तों से राजनीति का पहला पाठ पढते हैं। पक्ष हो या विपक्ष, काट खाना उनका स्वभाव होता है और तिकडम के बल पर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचकर वे देश के हृदय-सम्राट बन जाते हैं। पहले ध्म के दलालों का पैदा किया गया कुहासा उनका प्रभा-मंडल होता था और आज अंध-धुंध् प्रचार व आंकडो की धुंध् उनके असली चेहरों को छिपाए रखती है। डंडा पहले बाहर-बाहर से नियंत्रण रखता था। आज वह जीवन के हर क्षेत्रा को अपनी चपेट में ले चुका है। जान वह पहले भी लेता था, आज भी लेता है। मौत का भय आज भी उसका सबसे बडा सहारा है।
    जनखे पहले रनिवास तक सीमित थे। आज सारा राज-काज जनखों के बल पर चलता है। राज-सेवा में आने से पहले अच्छे-खासे आदमी को जनखा बना दिया जाता है। उफपर वाले ने जिन्हें जनखा पैदा किया उनका धंधा चौपट है, क्योंकि जनतंत्रा के बादशाह रनिवास रखते ही नहीं।
   हां, जनखों को छेडने का खेल बदस्तूर चालू है। शोहदे आज भी गलियों में शिखण्डियों को छेडते हैं और कहीं सत्ता के रथ पर पहुंच गए तो बने हुए शिखण्डियों की आड में, चाहे जिस पर बाण छोड देते हैं। गली में जो शोहदापन माना जाता है, सरकारी डंडे के बल पर वही कूटनीति कहलाता है।
    इसी डंडे के मारे बेचारे मार्क्स ने एक देश से दूसरे देश भागते हुए लिख दिया कि एक दिन शासन का यह डंडा स्वत: हवा में विलीन हो जाएगा। कुछ लोग हैं जो उसी के शब्दों को घोलुआ घोलते रहते हैं किंतु आज जो स्थिति है, वह पुकार-पुकार कर कहती है कि आवरण भले ही बदलते रहें, डंडा अपनी जगह रहेगा।
    राजा हो या बादशाह, तानाशाह हो या जन-नेता, ये सभी उसी करामाती डंडे के डंडे हैं, जिसे लोग बडी अदब से "सरकार" कहते हैं। जो व्यक्त भी है और अव्यक्त भी, साकार भी है और निराकार भी, जो रूहानी भी है और जिस्मानी भी। इस डंडे को तोडने के लिए किसी और बडे डंडे की आवश्यकता होगी, लेकिन क्या उस डंडे को और भी बडा सलाम नहीं ठोकना पडेगा? जड ही पकड में नहीं आती तो खोदेगें क्या? इधर-उधर खोदेगें तो थानेदार का डंडा मुठभेड भी दिखा सकता है और पिफर कोई दूसरा ही होगा, जिससे उसका बंटी पूछता पिफरेगा- पापा सरकार क्या होती है?

Friday, September 10, 2010

पहाडी खानाबदोशों का गीत

अजेय की कविता

अलविदा ओ पतझड़!
बांध लिया है अपना डेरा डफेरा
हांक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीले फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठंडी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!

विदा ओ खामोश बूढी सराय!
तेरी केतलियां भरी हुई हैं
लबालब हमारे गीतों से
हमारी जेबों में भरी हुई हैं
ठसाठस तेरी कविताएं
मिल कार समेट लें भोर होने से पहले
अंधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे!

विदा ओ गबरू जवान कारिन्दों!
हमारी पिट्ठुओं में
ठूंस दिये हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने
हमारी छातियों में
अपनी अंगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बदल
आकाश के उस एक कोने में
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हवाएं सूंघेंगे!

सोई रहो बरफ में
ओ कमजोर नदियों!
बीते मौसम में घूंट-घूंट पिया है
तुम्हें बदले में
कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में
तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं
हमारे पांवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे

विदा ओ अच्छी ब्यूंस की टहनियां
लहलहाते स्वप्न हैं
हमारे आंखों में तुम्हारी हरियाली के
मजबूत लाठियां है
हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की

तुम अपनी झरती पत्तियों के आंचल में
सहेज लेना चुपके से
थोडी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज

अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे!
(अकार २७ से साभार)

Wednesday, September 1, 2010

आओ खेलें खेल

सावन बीत गया था
भादों की उमस भरी गरमी में
कृष्ण जन्माष्टमी की वो एक
चुहल भरी सुबह थी -

बच्चे कट्टा भर रेत और
काई उठाये चले आ रहे थे
कितनी ही सीलन भरी दीवारें
खेल-खेल में हो गयीं थी साफ
खिल-खिलाने लगा उनका चूना
प्लास्टिक के कितने ही खिलौने से
भर गयी बहुमंजिला इमारत की
सीढ़ी के नीचे की वो जगह-
एक उदासी सी पसरी रहती थी जहां हर रोज

कितनी ही गोपियां, राधा और कृष्ण 
खेलने लगे
धर्म-कर्म पर यकीन और
चण्डोल देखने वाले गुजरते 
तो कृष्ण बना बच्चा
बांसुरी होठों  से लगा
खड़ा हो जाता ऐसा
जैसी छठवीं कक्षा की पुस्तक में होती तस्वीर,
राधा भी नृत्य मुद्रा में स्थिर
गोपियों का कोरस और नृत्य देख
आनन्दित होते देखने वाले

प्रसाद बांटने को उत्सुक
कृष्ण बना बच्चा स्थिर न रह पाता
उसकी मुद्रा का टूटना भी
हंसी खेल हो जाता उस वक्त।


-विजय गौड़

Sunday, August 29, 2010

चाहता हूँ पानी बरसे



मूल रूप में सिएरा लेओन के पिता की संतान नाई आईक्वेई पार्केस, जन्मे तो ब्रिटेन में पर शुरुआती और निर्मिति का समय उनका घाना में  बीता..देश विदेश घूमते हुए और अनेक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थाओं में रचनात्मक साहित्य पढ़ाते हुए वे पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं...पार्केस कविताओं के अलावा कहानियां और लेख तो लिखते ही हैं,अश्वेत अस्मिता को स्थापित करने वाले स्टेज परफोर्मेंस के लिए भी खूब जाने जाते हैं. उनके अपने सात संकलन प्रकाशित हैं और अनेक सामूहिक संकलनों में उनकी कवितायेँ शामिल हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ लोकप्रिय कवितायें..चयन और प्रस्तुति  यादवेन्द्र की है.  


 चाहता हूँ पानी बरसे
कभी कभी मैं चाहता हूँ पानी बरसे
धारासार, अनवरत और पूरे  जोर से
ताकि तुम मेरे  अन्दर समा जाओ  जैसे छुप जाती   है व्यथा
और मुझे साँस की मानिंद पीती   रहो निश्चिन्त हो कर धीरे धीरे.
मुझे खूब भाता है मेघों का विस्तार
इनका गहराना और दुनिया को अपनी छाया से ढँक लेना
जैसे पानी की धार हो जेल की सलाखें 
और हम  सब इसके अन्दर दुबक गए हों   कैदी बन कर. 
यही ऐसा मौका होता है जब सूरज बरतता है संयम
थोड़ी कुंद पड़ती हैं इसकी शिकारी निगाहें..
पडोसी धुंधलके में खो जाते हैं 
और हमें पूरी आज़ादी नसीब होती है एकाकी  प्रेम करने की.  
सुबह सुबह का समय है
इसको न तो  दिन कहेंगे न ही रात..
इस   वेला में तुम न तो तुम रहीं और  न  मैं  ही साबुत  बचा
मुझे न तो किसी ने कैद में डाला और न  खुला और आजाद ही रह पाया .
टिन की छत
बेकाबू गर्म थपेड़ों वाली तेज हवा  कोड़े बरसाती  रहती  है तुम्हारी पीठ पर  
फिर भी टिके बने रहते हो तुम..
तुम्हारी पूरी चमक पर बिखरा देते हैं वे गर्द और मिट्टी 
और  ऐंठ मरोड़ देते हैं तुम्हारे धारदार किनारे.
बारिश आती है तो अपनी थपाकेदार लय से  
कीचड़ की लेप बना कर  लपेट  देती है तुम्हारा पूरा  बदन
फिर भी टिके बने रहते हो तुम.  
--- मेरा आत्मगौरव---
मेरी अपनी टिन की छत ही तो है.

मुझे मैं रहने दो
मैं मैं हूँ 
और  तुम तुम
पर तुम चाहते हो 
मैं हो जाऊं बिलकुल तुम्हारे जैसा.....
तुम्हारी मंशा है कि मैं तो हो ही जाउं  
तुम्हारे जैसा
पर आस पास के तमाम लोग भी
रूप बदल  लें  बिलकुल मेरी तरह...
मानो मैं हो गया बिलकुल तुम्हारी तरह
और चाहने लगूँ कि तुम भी बदल कर हो जाओ मेरी तरह..
इस से पहले कि मैं तुम्हारे जैसा हो जाऊं
तुम मेरे जैसे हो जाओगे
और मैं तो हो ही जाऊँगा बिलकुल तुम्हारी तरह..
पर जल्दी ही
मैं फिर से मैं ही हो जाऊंगा..
इसलिए यदि तुम चाहते हो
कि मैं बन जाऊं तुम्हारी तरह
तो मुझे  रहने दो मैं ही...

Monday, August 23, 2010

तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं


देहरादून और पूरे उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों में सांस्कृतिक तौर पर डटे रहने वाले संस्कृतिकर्मी गिर्दा-गिरीश चंद्र तिवाड़ी को देहरादून के रचनाजगत ने पूरे लगाव से याद किया। गिर्दा का मस्तमौला मिजाज और फक्कड़पन, उनकी बेबाकी और दोस्तानेपन के साथ किसी भी परिचित को अपने अंकवार में भर लेने की उनकी ढेरों यादें उनके न रहने की खबर पर देहरादून के रचनाजगत और सामाजिक हलकों में सक्रिय रहने वाले लोगों की जुबां में आम थी। गत रविवार को यह सूचना मिलने पर कि गिर्दा नहीं रहे, देहरादून के तमाम जन संगठनों ने उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद किया। संवेदना की बैठक में नीवन नैथानी, दिनेश चंद्र जोशी, निरंजन सुयाल राजेश सकलानी, विद्या सिंह और अन्य रचनाकारों ने गिर्दा के देखने, सुनने और उनके साथ बिताये गये क्षणों को सांझा किया। कवि राजेश सकलानी ने उनकी हिन्दी में लिखी कविताओं का पाठ किया तो दिनेश चंद्र जोशी ने कुंमाऊनी कविता का पढ़ी। निरंजन सुयाल ने 1994 से आखिरी दिनों तक के साथ का जिक्र करते हुए गिर्दा के एक गीत की कुछ पंक्तियों का स-स्वर पाठ किया। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान गाये जाने वाले उनके गीतों को याद करते हुए तुतुक नी लगाउ देखी, घुनन-मुनन नी टेकी गीत को कोरस के रुप में भी गाया गया। इस अवसर पर फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उठाये। डॉ जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रमोद सहाय और चंद्र बहादुर रसाइली अदि अन्य रचनाधर्मी भी गोष्ठी में उपस्थित थे। गिर्दा की कविताओं के साथ गोष्ठी की बातचीत की कुछ झलकियां यहां जीवन्त रुप में प्रस्तुत है।         
अक्षर
ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
कोलाहल को गीत बनाना- क्या कहने हैं,
गीतों से कुहराम मचाना- क्या कहने हैं।
कोयल तो पंचम में गाती ही है लेकिन
तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं।
बिना कहे भी सब जाहिर हो जाता है पर,
कहने पर भी कुछ रह जाना- क्या कहने हैं।
अभी अनकहा बहुत-बहुत कुछ है हम सबमें,
इसी तड़फ को और बढ़ाना- क्या कहने हैं।
इसी बहाने चलो नमन कर लें उन सबको
'अ" से 'ज्ञ" तक सब लिख जाना- क्या कहने हैं।
 ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
  


दिल लगाने में वक्त लगता है,
डूब जाने में वक्त लगता है,
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता-
वक्त आने में वक्त लगता है।



दिल दिखाने में वक्त लगता है,
फिर छिपाने में वक्त लगता है,
दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता-
दर्द जाने में वक्त लगता है।


अभी करता हूँ तुझसे आँख मिलाकर बातें,
तेरे आने की लहर से तो उबर लूँ पहले।
ये खिली धूप, ये चेहरा, ये महकता मौसम,
अपनी दो-चार खुश्क साँसें तो भर लूँ पहले।।

    



  

 


Friday, August 13, 2010

सफाई देवता कोई इतिहास पुस्तक नहीं

’’सफाई देवता’’ कोई इतिहास पुस्तक नहीं है। पर दलित विमर्श के साथ इतिहास में हस्तक्षेप करने की कोशिश इसमें साफ दिखायी देती है।

इतिहास की प्रचलित मान्यताओं पर समकालीन दलित धारा क्या दृष्टिकोण रखती है, इसके संकेत तो पुस्तक से मिलते ही हैं। यह संयोग ही है कि भारतीय दलित धारा के विद्धान कांचा ऐलय्या की पुस्तक ’’व्हाई आई एम नाॅट हिन्दू’’ का हिन्दी अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता के साथ ही आया है। इस पुस्तक का अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। बेशक दोनों पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन संयोग हो पर यह संयोग नहीं है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता भी लिखें और कांचा ऐलयया का अनुवाद भी करें। इसीलिए सफाई देवता को इतिहास के बजाय इतिहास में हस्तक्षेप करती दलित धारा की उपस्थिति के रुप में ही देखा जाना चाहिए।

एक बात स्पष्ट है कि समाज का वह तबका, वर्षों की गुलामी झेलते-झेलते, जो अब गुलामी के जुए को उतार फेंकना चाहता है, एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हुआ है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश््रा आवाम के जीवन की अस्मिता का प्रश्न उसको उद्ववेलित किये है। अभी तक प्रकाश में आये दलित धारा के साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाषा और शैली के लिहाज से सहज-सरल सा लगना वाला यह साहित्य समाज की जितनी जटिलताओं को सामने रखने में सफल हुआ है उसमें दलित चेतना की सतत बह रही धारा भी परिष्कृत हो रही है।

दलित रचनाकारों के आग्रह, जो प्रारम्भ में किन्हीं खास बिन्दुओं को लेकर उभरते रहे, अब उसी रूप में नहीं रह रहे हैं। जातीय अस्मिता के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जटिलता के प्रश्न पर भी वे लगातार टकरा रहे हैं। यही वजह है कि रचनाओं के पाठ भी उतने इकहरे नहीं है कि कोई उनमें सिर्फ एक व्यक्ति के जीवन वृत्त को ही उसका आधार मान ले। इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था और अन्य विषयों पर भी दलित धारा के रचनाकारों की राय बिना एक दूसरे से व्यक्तिगत मतैक्य रखते हुए विमर्श की स्वस्थ बहस को जिन्दा कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में ओम प्रकाश वाल्मीकि की किताब सफाई देवता दलितों में भी दलित, समाज के सबसे उपेक्षित तबके के सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को आधार बनकार एक ऐतिहासिक मूल्यांकन करने का प्रयास है।

उनके मंतव्य से सहमति पर भारतीय समाज के उनके विश्लेषण से असहमति रखते हुए कहूं तो कह सकता हूं कि यह किताब एक बहस को जन्म दे रही है। स्वाभाविक है कि हर तरह की सामाजिक स्थितियों से दर-किनार कर दिये गये ‘अछूत’ भी किसी समय विशेष में विज्ञान की जानकारी की सीमा के चलते अपने डर और संश्यों के लिए, अन्यों की तरह, अदृश्य शक्ति की कल्पना करने को मजबूर रहे। चूंकि समाज की सामूहिक गतिविधियों से बहिष्कृत रहने के कारण उनके देवताओं के रूप, आकार और नाम वही नहीं रह सकते थे, जो चातुर्वणीय व्यवस्था के अन्य वर्णो के हो सकते थे, तो यह एक फर्क उनमें दिखायी देना ही था। वे ब्राहमणी मुख्यधारा के देवताओं की पूजा अर्चना से वंचित थे, इसलिए काफी हद तक वे न तो उन देवताओं के नामों से परिचित हो सकते थे और न ही उनके रूप से। आदिम समाज के जातीय टोटम उनके साथ बने ही रहने थे।

जब सुन लेने पर ही पिघले हुए शीशे को कानों में उड़ेल दिया जाना था तो देखने की कोई कोशिश करने की हिमाकत कैसे होती भला! सम्पूर्ण दलित समाज को चातुर्वणीय व्यवस्था से अलग मानते हुए दिये गये दोनों ही विद्धानों के तर्क इसीलिए इस बहस को जन्म दे रहे हैं कि आखिर वास्तविकता को ही नकारने की यह कोशिश फिर कैसे भारतीय समाज के बीच मौजूद जातीय व्यवस्था को तोड़ पाने में सफल होगी ? यह आग्रह नहीं एक प्रश्न है। और तर्क के तौर पर वे स्थितियां हैं जहां यज्ञोपवित करके घंटों-घंटों पूजा में लीन रहने वाले दलित समाज के उस तबके को देखा जा सकता है, जो जाति को छुपाने के लिए मजबूर है। ये स्थितियां स्वंय ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता में ज्यादा विस्तार से जगह पा रही है।

अपने इतिहास से किनारा करने और अपनी पहचान को छुपाने के लिए उनकी मजबूरी के कारणों पर आगे बाते हो सकती हैं, पर यह तथ्य के रुप में ही यहां रखते हुए कह सकते हैं कि दलितों में भी चातुर्वणीय व्यवस्था के ऊध्र्वाधर वर्गीकरण के साथ फैले क्षैतिज धरातल पर भी मनुष्य को बांटते चली गयी व्यवस्था भी उनके देवताओं मे वैसी ही समानता नहीं रहने दे रही है। स्वंय वाल्मीकि ने और कांचा ऐलयया दोनों ने ही विभिन्न जातियों के अलग-अलग देवताओं का जिक्र किया है। बल्कि सफाई देवता में तो एक पूरा अध्याय ही इस विषय पर लिखा गया है। चेचक, दलितों के यहां भी माता है और सवर्णों के यहां भी वह उसी रुप में है। अब नाम दुर्गा हो या पोचम्मा, इससे क्या फर्क पड़ता है। औद्योगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर तो किया ही है, बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक ढीला तो किया ही है।

दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन, गांधी के दलिताद्वार और ऐसे ही अन्य समाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरुप हुए सामाजिक बदलाव ने शहरी क्षेत्रों में सामूहिक कार्यक्रमों में दलितों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। एक हद तक गांवों में भी उसका प्रभाव हुआ है। सवर्णों के देवता ही आज दलितों के देवता के रूप में भी आज इसीलिए स्वीकार्य हो पाये हैं। फिर ऐसे में देवताओं के नामों और पूजा-पद्धतियों के आधार पर पायी जाने वाली भिन्नता को आधार बनाकर किये जा रहे जातिगत विश्लेषण में दलितों को उस ब्राहमणी व्यवस्था से अलग मानने का तर्क मेरी समझ के हिसाब से पुष्ट नहीं होता। मनुष्य को जातिगत आधार पर बांटने वाली व्यवस्था के विरोध का अर्थ क्या सम्पूर्ण दलित समाज को उससे बाहर मानने से हो सकता है ?

जिस तर्क के आधार पर कांचा ऐलय्या सम्पूर्ण दलित समाज को उस ब्राहमणी व्यवस्था में नहीं मानते ठीक उसी तरह की समझदारी ओम प्रकाश वाल्मीकि में भी दिखायी देती है। कांचा ऐल्य्या का काम ज्यादातर दक्षिण भारतीय समाज को आधार बनाकर हुआ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर भारत के समाज को आधार बनाकर बात करते हैं। दक्षिण भारतीय समाज के बारे में खुद की जानकारी के अभाव में मैं नहीं बता सकता कि कांचा ऐल्यया के तर्क कितना अपने समाज के विश्लेषण को तार्किकता प्रदान करते हैं पर उत्तर भारतीय समाज के बारे में अपनी एक हद तक जानकारी के देखता हूं तो दलितों को हिन्दू जाति व्यवस्था से बाहर मानने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि के तर्को से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।
सवाल है कि फिर वो चातुर्वणय व्यवस्था क्या है ? समाज को चार जातियों में बांटने वाली व्यवस्था ही तो उसे शूद्र बना दे रही है। जिसका निषेध होना चाहिए। पर निषेध के मायने क्या सारे दलित समाज को उससे बाहर का मान कर कोई हल निकल सकता है, इस पर सोचा जाना चाहिए। कानून व्यवस्था का सहारा लेकर भ्रष्टाचार का तंत्र फैलाती नौकरशाही की जात क्या है ? क्या वह वर्ण व्यवस्था के आधार पर बंटे भारतीय समाज के वर्णों के लिए अलग-अलग तरह से योजनाओं को आबंटित कर भ्रष्टाचार की सांख्यिकी से भरी है या एक समान भाव से वह सब कुछ हड़प कर जाने के लिए मुंह खोले बैठी है ?

ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक में उठाये गये भ्रष्टाचार के मामले जिस रूप में उर्द्धत हुए, उनको ध्यान में रखकर यह प्रश्न उठता है। दलित विमर्श की वर्तमान चेतना मौजूदा तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के घुन को भी क्यों सिर्फ इतना सीमित होकर देखना चाहती है। नौकरशही की जात क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग अलग है! सामाजिक प्रश्न को राजनैतिक प्रश्न की तरह देखने पर ही वर्तमान दलित विमर्श की सीमायें दिखने लगती हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि क्या अमूर्त किस्म का राजनैतिक संघर्ष समाजिक बदलाव में सहायक हो सकता है ?

दलित विमर्श के विकास का यही प्रस्थान बिन्दू समाज व्यवस्था के बुनियादी बदलाव के संघर्ष में सहायक हो सकता है जिस पर गमभीरता से विचार होना चाहिए। भ्रष्टाचार से भरी वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण करने का दलित चिंतको का दृष्टिकोण पर बात करें तो उसकी कुछ अपनी सीमाऐं दिखायी देती है। वह सत्ता के बुनियादी चरित्र के बदलावों के संघर्ष की बजाय उसी के बीच में अपने लिए एक सुरक्षित जगह निकाल लेने के साथ है। एक नये समाज के सर्जन के लिए जिस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है उससे उसका विचलन दलित पैंथर के आंदोलन के बिखरने के साथ ही हो चुका था।

पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत महान विचारक अमबेडकर की सीमाओं भी एक हद तक इसमें आड़े आती हैं। दलित विमर्श की संभावनाओं के द्वार भी उससे टकराकर ही खुल सकते है। व्यवस्था के सामंती ढांचे का खुलासा कर सकने की वैज्ञानिक सोच के साथ सामाजिक बदलाव की वास्तविक पहल को निश्चित ही उससे बल मिलेगा। दलित शोषित समाज के खिलाफ आक्रामक रुख अपनायी हुई सम्राज्यवादी नीतियों पर भी चोट कर सकने की संभावना भी यहीं से पैदा होगीं। मौजूदा व्यवस्था से माहभंग की स्थिति में पहुॅंचे शोषित समाज के सामने एक नयी और दलित शोषित के वर्गीय हितों का पोषण करने वाली एवं समता और न्याय की स्थापना के लिए सचेत व्यवस्था की कल्पना तभी संभव हो सकती है।

यह तय है कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक शोषित वर्ग मूल रूप से वर्ण व्यवस्था के चैथे पायदान पर बैठा जन ही है। भारतीय सर्वहारा के इस चेहरे को न सिर्फ दलित धारा को पहचानना चाहिए बल्कि हर ऐसे समूह, जो देश दुनिया को बदलाव के लिए प्रयासरत है, समझना चाहिए। चर्चा की जा रही पुस्तक में दलित विमर्श का जो चेहरा सिर्फ रिपोर्ट को रख देने भर से उभर रहा है, वह सिर्फ एक जाति विशेष की समस्या के खात्मे पर ही बदलाव की इति श्री जैसा हो जाता है।

व्यवस्था का वर्तमान ढांचा जबकि इतना क्रूर है कि मेहनतकश वर्ग के आवाम के खिलाफ ही उसकी सारी नीतियां जारी है। जो बेरोजगारी बढ़ाने और भूखों मरने की नौबत पैदा करने वाला है। ऐसे में अपने जीने भर के लिए तमाम अमानवीय परिस्थितियों के बीच से रास्ता निकालने की कोशिश जारी हैं। फिर वह चाहे मोटर गैराज में तमाम चीकट कालिख के बीच गाड़ियों को अपनी छाती पर उठाये और उनका दुरस्त करता कोई मैकेनिक हो या, गटर के अन्दर उतर कर गटर की सफाई करने को मजबूर कामगार।

दोनों की स्थितियां जातीय आधार पर उन्हें कुछ खास सुविधा नहीं देती। सिर्फ फर्क है तो यही कि जो जिसके अनुभवों का हिस्सा है अमुक जाति का व्यक्ति उसी अनुभव को आधार बनाकर रोजी रोटी के जुगाड़ में जुटा है और जीने भर का रास्ता तलाशने को मजबूर है। यानी दलित वर्ग के मेहनतकश आवाम के अनुभवों में जो यातना दायक अनुभव है, मजबूरन उस वर्ग के बेरोजगार को उन्हें ही अपनाने की मजबूरी है। चालीस किलोमीटर पैदल चलते हुए सिर पर मैला ढोने को वह मजबूर है, जैसा कि पुस्तक में उल्लेख है। उसके बदले भी वाजिब मूल्य नहीं।

तो फिर इस निर्मम व्यवस्था के अमानवीय आक्रमण के खिलाफ रास्ता क्या है, यह सोचनिय प्रश्न है। क्या चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लिया जा सकता है ? बल्कि असलियत तो यह है कि उनके बचाये रखते हुए ही निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को ऐसा भी न करने की स्थिति में निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ दिया जा रहा है।

आम मध्यवर्गीय खाते पीता वर्ग, जो जनता के धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका है, यूंही नहीं ऐसे तर्कों को अक्सर रखता है। ऐसी चालाक कोशिशें के पर्देफाश के लिए जो सचेत कार्यवाही होनी चाहिए, दलित विमर्श की वर्तमान धारा उस पर अभी केन्द्रित नहीं हो पायी है, पुस्तक में भी उसकी कमी अखरती ही है। मैं व्यक्तिगत तौर पर सफाई देवता को एक सही समय पर आयी ऐसी पुस्तक मानता हूं कि जो भारतीय समाज के बुनियादी चरित्र के विश्लेषण की बहस को जिन्दा करने में सहायक है।

-विजय गौड

Wednesday, August 11, 2010

पत्रकार वार्ता

देहरादून

नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में महिला रचाकारों के रचनाकर्म पर की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में आयोजित पत्रकार वार्ता में देहरादून के विभिन्न सामजिक साहित्यिक संगठनों के बीच स्पष्ट एकता दिखायी दी। महिला समाख्या, जागो रे अभियान, उत्तराखंड महिला मंच, संवेदना, दिशा सामाजिक संगठन, वाइज, प्रगतिशील महिला मंच की प्रतिनिधियों ने सामूहिक तौर पर पत्रकारवार्ता को संबोधित किया। साक्षात्कार में की गई टिप्पणी की निंदा करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और साहित्यकार विभूतिनारायण राय के इस्तीफे की मांग शिक्षा मंत्री से की गई। वार्ता में शामिल महिला संगठनों का मानना था कि विभूतिनारायण राय की ओर से की गई टिप्पणी उनकी कुत्सित मानसिकता को दिखाती है। पत्रकार वार्ता को संबोधित करने वालों में गीता गैरोला, कमला पंत, मनमोहन चड्ढा, पदमा गुप्ता आदि मुख्य रहे। देहरादून के अन्य साहित्यकार और सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के बहुत से कार्यकर्ता इस अवसर पर उपस्थित रहे।

Sunday, August 8, 2010

विवादित साक्षात्कार की हलचल

गोष्ठी की रिपोर्ट को दर्ज करने की सूचना पर इस ब्लाग के सहभागी लेखक राजेश सकलानी ने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित एक संस्मरण ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) के उस अंश को दुबारा याद करना चाहा है जिसमें एक जिम्मेदार लेखक गरीब की बेटी को नग्न करके शब्द के अर्थ तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता है। जबकि लेखक एक शिक्षाविद्ध भी है।


साहित्य की समकालीन दुनिया की खबरों की हलचल का प्रभाव इतना गहरा था कि खराब मौसम के बावजूद 8 अगस्त 2010 को आयोजित संवेदना की मासिक रचनागोष्ठी बेहद हंगामेदार रही। कथाकार सुभाष पंत, डॉ जितेन्द्र भारती, कुसुम भट्ट, मदन शर्मा, दिनेश चन्द्र जोशी, के अलावा फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा और दर्शन लाल कपूर गोष्ठी में उपस्थित थे। अगस्त माह की यह गोष्ठी बिना किसी रचनापाठ के कथाकार और कुलपति विभूति नारायण राय के उस साक्षाकत्कार पर केन्द्रित रही जो नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है और विवाद के केन्द्र में है। महिला समाख्या की कार्यकर्ता गीता गैरोला के उस पत्र को आधार बनाकर बातचीत शुरू हुई जिसमें उन्होंने संवेदना के सदस्यों से अपील की है कि महिला रचनाकारों के बारे में अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी के विरोध में 10 अगस्त को आयोजित होने वाली प्रेस कान्फ्रेन्स में, अपनी सहमति के साथ उपस्थित हों। साक्षात्कार का सामूहिक पाठ किया गया और उस पर विस्तृत बहस के बाद गोष्ठी में उपस्थित सभी रचनाकारों ने अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी पर विरोध जताते हुए प्रेस कांफ्रेंस में संवेदना की भागीदारी की सहमति जतायी। 




जयपुर
प्रेमचंद जयंती समारोह-2010
राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को ‘कथा दर्शन’ और ‘कथा सरिता’ कार्यक्रमों के माध्‍यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्‍यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्‍त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्‍म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्‍मों के प्रदर्शन से हुई। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’, ‘ज्‍योति’ और ‘हज्‍ज-ए-अकबर’ फिल्‍में दिखाई गईं।
रविवार 01 अगस्‍त, 2010 को वरिष्‍ठ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित ने प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का अत्‍यंत प्रभावशाली पाठ किया। कथाकार राम कुमार सिंह ने ‘शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते’ कहानी का पाठ किया। कहानी पाठ की शृंखलमें प्रदेश के युवतम कथाकार राजपाल सिंह शेखावत ने ‘नुगरे’ कहानी का पाठ किया| उर्दू अफसानानिगार आदिल रज़ा मंसूरी ने अपनी कहानी ‘गंदी औरत’ का पाठ किया। सुप्रसिद्व युवा कहानीकार अरुण कुमार असफल ने अपनी कहानी ‘क ख ग’ का पाठ किया। मनीषा कुलश्रोष्‍ठ की अनुपस्थिति में सुपरिचित कलाकार सीमा विजय ने उनकी कहानी ‘स्‍वांग’ का प्रभावी पाठ किया। अध्‍यक्षता करते हुए जितेंद्र भाटिया ने पढ़ी गई कहानियों की चर्चा करते हुए समकालीन रचनाशीलता को रेखांकित करते हुए कहा कि इधर लिखी  जा रही कहानियों ने हिंदी कहानी के भविष्‍य को लेकर बहुत आशाएं जगाईं हैं। सत्र के समापन में उन्‍होंने अपनी नई कहानी ‘ख्‍वाब एक दीवाने का’ का पाठ किया।
‘कथा सरिता’ के दूसरे सत्र का आरंभ वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में युवा कहानीकार दिनेश चारण के कहानी पाठ से हुआ। इसके बाद लक्ष्‍मी शर्मा ने ‘मोक्ष’ कहानी का पाठ किया। युवा कवि कथाकार दुष्‍यंत ने ‘उल्‍टी वाकी धार’ कहानी का पाठ किया। चर्चित कथाकार चरण सिंह पथिक ने ‘यात्रा’ कहानी का पाठ किया।
प्रस्‍तुति : फारुक आफरीदी

Friday, August 6, 2010

देहरादून के साल वन :दिनेश चन्द्र जोशी का गीत


दूर तक फैले सघन
देहरादून के सालवन
हरितिमा ही हरितिमा
आंखों की प्रियतमा
वृक्षों का कारवां
कभी यहां , कभी वहां
गजब के कमाल वन
देहरादून के साल वन


पेडों की पांत का
उठता हुआ सिलसिला
काही रंग के मंजर का
हंसता हुआ काफिला
बाहें फैलाये खडे
गले मिलो, अंग्वाल वन
देहरादून के साल वन

रात गहराई हुई
बात शरमाई हुई
झुरमुटों में वनचरों की
नींद अलसाई हुई
सांझ से चुप मौन साधे
खडॆ हैं निढाल वन
देहरादून के साल वन


पतझड़ में ठूंठ प्यारे
पेड़ नंगे तन विचारे
पत्तियों की चरमराहट की
कई नयी ताल ध्वनियां
फाल्गुन में फूलों की
महमहाती फुनगियां
सुतर लम्बे, हरे खम्बे
मोहक मृणाल वन
देहरादून के साल वन

बारिश मे बूंदे गिरतीं
वृक्षों की छाती पर
कोहरे की धुंध चिरती
मिटें ना, ये कटे ना
जादुई माहौल रचते
गझिन मालामाल वन
देहरादून के साल वन