मुस्कराओ कि मुस्कराने का धर्म नहीं होता। मुस्कराना एक भाव है, भीतर से उठती एक बहुत गहरी हूक जिसके मायने मुसिबतों से निपटने की अविकल ध्वनी के रूप्ा में सुने जा सकते हैं। मौसम के खिलाफ, दुख के खिलाफ और एक खुशहाल भविष्य की उम्मीदों भरी स्थितियों में बहुत हौले से मुड़ गए होंठों का ऐसा चित्र जिसमें जीवन के राग रंग की भी अभिव्यक्ति को सुना देखा जा सकता है, गीता गैरोला की कविता में लौट लौट कर आता हुआ भाव है। सामाजिक जड़ता के खिलाफ गीता गैरोला का रचनात्मक योगदान उनकी साक्षात कार्रवाइयों के रूप्ा में है। यूं उनकी पहचान एक रचनाकर्मी से ज्यादा एक सामाजिक कार्याकर्ता और उत्पीड़ित स्त्रियों की मुक्ति के लिए ढूंढी जाने वाली युक्तियों के साथ है। रचनात्मक दुनिया से उनके तालुकात ऐसी ही कोशिशों में मद्द लगाती गुहार होते हैं। बहुत संकोच के साथ अपनी रचनाओं को सार्वजनिक करने की उनकी अनुमति का स्वागत है। प्रस्तुत है गीता गैरोला की कुछ कविताएं।
वि. गौ. |
एक
वे होती हैं नदी
जिनके तटबंध
जिंदगी को वसासतें देते हैं
वे होती हैं जंगल
अपनी रगों और रेशों से
सांस-सांस जीती
वो होती है
निशब्द खिलती और
बिखरती बुरांश
वे होती है
आंख मिचौली करती
उजले चॉद की लोलक
वे सदियों की दहलीज पर
खड़ी शताब्दियों को आकार देती हैं।
दो
जब बादलों के पीछे से
चुपके से झाकेंगा आधा चांद
तुम मुझे याद करना---
नैनी के ऊपर कोहरे के धुधँलके के साथ
झील में तैरती हों बतखें
तुम मुझे याद करना---
अयांरपाटा के गदेरे में
उतरती हो सुरमई सांझ
दूरगाँव मैं टिमटिमाने लगे बत्तियां
तुम मुझे याद करना
सन्नाटे में उड़ रहे हो बर्फ के फाहे
नैनी में थरथराती हों रोशनी की परछाइयां
तुम मुझे याद करना---
पाषाण देवी में बजने लगे घन्टियॉं
थरथराती लगें दिये की लौ
तुम मुझे याद करना---
जब वरसता हो धारों धार पानी
भरभरा के बहने लगें गदेरे
चीना पीक की पहाड़ी पर
उड़ते कोहरे के साथ
झिलमिलाता हो इन्द्र धनुष
तुम मुझे याद करना---
तुम्हारे खेत में आडू का पेड़
लक-दक भर जाये बैजनी फूलों से
और गॉंव के ऊपर वाला जंगल
बुरांस के फूलों से जलने लगे
तुम मुझे याद करना।।।
खेतों की मुडेरों पर
खिलने लगे फ्योली के नन्हें फूल
तुम मुझे याद करना---
तीन
मुस्कराओं कि मुस्कराने का धर्म नहीं होता
मर्म होता है
मुस्कराहट चांदनी सी उजली
और गन्धहीन होती है।
मुस्कराने की वजह होती है।
सूरत नहीं होती
स्वाद होता है ।
आकांक्षा
दूर
देवदार के घने झुरमुट में
जहॉं से
दिखती हो
बर्फीली चोटियां
हवा महकती हो
देवदार की खुशबू से
घने कोहरे के बादल
उड़ते हो जहॉं,
जाना है वहॉं
दूर देवदार के घने झुरमुट में।
संयोगिता
संयोगिता
ये तेरे गालों के नीले निशान
बाहों पे खूनी लकीरें
किसने बनाई
बस कल की बात है
धूम से गूंजी थी शहनाई
तूने फलसई रंग के लहगें पर
ओढ़ी थी सुनहरे गोटे वाली ओढ़नी
तेरे गदबदे हाथों पर मह-मह
महकी थी मेंहदी
प्रीत की लहक से
भर गई थी कोख
गर्वीली आँखों से सहलाती थी
जिन्दगी का ओर छोर
कुछ तो दरक गया है कहीं
ये किस माया की छाया है संयोगिता
जो तू डोल रही है
बसेरे की खोज में
तपता तन-मन लिए
पीत की लहक मेंहदी की
महक कहां हिरा गई संयोगिता
बस इतना जान ले संयोगिता
ठस्से से जीने को
एक दुश्मन जरूरी है।