राधाकृष्ण कुकरेती-स्मृति दिवस
15 सितंबर 1935 -17 जुलाई 2015
अरविंद शेखर
किसी भी व्यक्ति के निर्माण में उसके जीवन में घटी घटनाओं और अनुभव का योगदान होता है। गौतम बुद्ध ने बूढ़े बीमार और मृत व्यक्तियों को देखने के बाद अनुभव किया था कि जीवन का सुख भौतिक पदार्थों के उपभोग में नहीं है। मानव जीवन को दुखों से मुक्त करने के लिए वे संन्यासी हो गए। राधा कृष्ण कुकरेती ने भी बचपन में और किशोरावस्था में साहूकार के कर्ज तले रिरियाते गरीब किसानों को देखा। लेकिन उनमें वैराग्य नहीं पैदा हुआ बल्कि उन्होंने उस विचार को अपनाया जो केवल यही व्याख्या नहीं करता था कि दुनिया ऐसी क्यों है बल्कि यह राह भी सुझाता था कि दुनिया कैसे बदल सकती है। संभवत: समाजवाद या यूं कहें कि मार्क्सवाद ही ऐसा विचार था जिसने कि पहाड़ के एक सीधे-साधे युवक को उसने अपने साहूकार पिता के देहांत के बाद तमाम कर्ज के पट्टे , स्टांप पेपर और बही खाते आग में झोंक कर स्वाहा करने के लिए प्रेरित किया, ताकि उनके कर्ज में डूबे किसान कर्ज के बोझ से आजाद हो सकें।
15 सितंबर 1935 को पौड़ी जिले की उदयपुर पट्टी के नौगांव में जन्मे राधा कृष्ण कुकरेती के पिता महानंद कुकरेती इलाके के साहूकार थे । माता गौरा देवी सामान्य पहाड़ी गृहणी। पिता उन्हें उनका पुश्तैनी धंधा सिखाने के लिए लोगों से वसूली को भेजते। मगर कर्ज लेकर गरीबी के कारण उसे न चुका सकने की हालत वाले किसानों के कष्टप्रद हालात उनसे देखे न जाते। सोचते इन लोगों को उनके दुखों से निजात कैसे मिलेगी। गरीबों के प्रति करुणा से भरे राधा कृष्ण बिना वसूली ही घर लौट आते। पिता का यह व्यवसाय उन्हें रास न आया। समय भी देश— दुनिया में समाजवादी विचारधारा के उदय और उत्कर्ष का था। 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति को हुए कुछ ही दशक बीते थे। नई प्रगतिशील सामाजिक चेतना अंगड़ाई ले रही थी। छात्र जीवन में ही राधा कृष्ण कुकरेती को भी दुनियां के हालात बदल देने की उम्मीद जगाने वाला भौतिकवादी दर्शन मार्क्सवाद पसंद आया जिसे उन्होंने जीवन पर्यंत अपनाए रखा। विचार के रूप में भी और व्यवहार के रूप में भी।
15 अगस्त 1981 को नया जमाना के रजत जयंती विशेषांक के संपादकीय में उन्होंने लिखा भी— “ मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह समझता हूं कि छात्र जीवन से ही साम्यवादी दर्शन से जुड़ा तो फिर जुड़ा ही रह गया। नि: संकोच कहता हूं कि उसी दर्शन ने प्रतिबद्धता के साथ शोषित—पीडि़त इंसान के संघर्षों में खड़े रहने की शक्ति दी और नया जमाना के माध्यम से भी जूझने को प्रेरित किया, हताशा की स्थिति में कभी टूटने नहीं दिया।”
पत्रकार, वामपंथी कार्यकर्ता , विचारक और साहित्यकार राधा कृष्ण कुकरेती ने कक्षा दो तक की पढ़ाई अपने गांव के पास के स्कूल में ही की थी। उसके बाद दर्जा चार तक की पढ़ाई उन्होंने अपने ननिहाल अमला में की। पिता साहूकार थे मगर खुद्दार राधा कृष्ण ने ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवें दर्जे तक पढ़ाई की और हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए देहरादून के तब के इस्लामिया हाईस्कूल देहरादून में दाखिला ले लिया। इस्लामिया स्कूल को आज गांधी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। इसके बाद आगे की यानी इंटर की पढ़ाई के लिए उन्होंने काशीपुर का रुख किया। इंटर के दौरान ही उन्होंने जनजागृति नामक अखबार शुरू किया। इंटरमीडिएट पास करने बाद वे देहरादून आ गये।
छात्र जीवन के समय से ही वह कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए थे। देश की आजादी के बाद 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटी तो वह उसके सदस्य बन गए। इसी आंदोलन की प्रेरणा से पहाड़ की पहाड़ सी समस्याओं से उद्वेलित राधा कृष्ण कुकरेती ने पहले साप्ताहिक कर्मभूमि और पर्वतीय में पहाड़ की समस्याओं को उठाना शुरू कर दिया। लेकिन, बाद में खुद का अखबार निकालने का निश्चय किया। उन्होंने छात्र जीवन में ही काशीपुर से हरीश ढौंढियाल के साथ मिलकर ’जन जागृति’ नाम के अखबार प्रकाशित किया। अखबार के प्रकाशक थे नैनीताल भाकपा के जिला सचिव हरदासी लाल मेहरोत्रा। इस अखबार को वह एक साल यानी ( 1954 से 1955) ही चला पाए। मगर लगन के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती 1956 में एक झोला और एक छोटी सी अटैची बगल में दबाए हुए कॉमरेड बृजेंद्र गुप्ता के घर पहुंचे और देहरादून से साप्ताहिक समाचार पत्र निकालने का इरादा जाहिर किया। तब के पार्टी नेता व बाद में विधायक चुने गए गोविंद सिंह नेगी को उनका इरादा हास्यास्पद सा लगा कि आखिर एक व्यक्ति जिसके पास पूंजी के नाम पर महज एक फटीचर अटैची और झोला हो वह अखबार कैसे निकाल पाएगा। मगर युवक का उत्साह वह कम नहीं करना चाहते थे नतीजतन कुछ नहीं कहा और सोचा कि कुछ दिन चक्कर काटेगा तो थक हारकर अखबार निकालने का नशा रफूचक्कर हो जाएगा। लेकिन जिद के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती ने 15 अगस्त 1956 से नया जमाना साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू कर दिया। नया जमाना नाम शायद उस वक्त भाकपा के मुख्यालय बंबई से निकलने वाले अखबार न्यू एज से प्रेरित था। बहरहाल, नया जमाना का यह पहला अंक युगवाणी प्रेस में छपा। इसके बाद एक दो अंक भास्कर प्रेस से छपे लेकिन दूसरे प्रेस से प्रकाशन की दिक्कतों को समझ उन्होंने अपनी प्रेस लगाने की ठानी और तीन महीने के बाद नया जमाना अपनी खुद की प्रेस से छपना शुरू हो गया। ‘नया जमाना’ का प्रकाशन—सम्पादन करने के साथ ही उन्होंने डीएवी कॉलेज में पढ़ाई भी जारी रखी और समाजशा स्त्र में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 से शुरू हुआ शोषित समाज और उत्तराखंड के सरोकारों को आवाज देने की मिशनरी पत्रकारिता का यह सफर राजनीतिक उथलपुथलों, मुकदमेबाजी के तमाम संकटों के बावजूद निरंतर जारी रहा। अपने सफर में नया जमाना ने कभी विचारधारा की टेक नहीं छोड़ी। यह राधा कृष्ण कुकरेती की ही झंझावातों से टकराने की जिजीविषा थी कि नया जमाना ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई भी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ी। इस लड़ाई में नया जमाना को कई बार सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे पर कभी विज्ञापन बंद कर दिए गए, प्रलोभन दिए गए। प्रेस में चोरियां तक हुईं। सारा का सारा टाइप चुरवा दिया गया। कई बार लगा कि नया जमाना डिग जाएगा, कुकरेती टूट जाएंगे लेकिन व सच की लड़ाई की मशाल थामे रहे। 1957 में उप्र के वन उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के लाखों के प्लॉट घोटाले को उजागर करने पर उनके अखबार पर छापा तक पड़ा। कुकरेती को संपादक प्रकाशक व मुद्रक की हैसियत से जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक के चक्कर काटने पड़े। करीब एक साल तक नया जमाना के विज्ञापन बंद कर दिए गए। उस वक्त एक ओर नया जमाना चीनी हमले का विरोध कर रहा था उधर उप्र सरकार ने नया जमाना को ब्लैक लिस्ट कर दिया। इस दौर में लगातार संघर्षों के थपेड़ों से उनकी हिम्मत चूकने लगी। 1959-60 के करीब रमेश सिन्हा व राजीव सक्सेना के संपादकत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लखनऊ से मासिक पत्रिका नया पथ का प्रकाशन शुरू किया था। इस वक्त राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना के साथ ही देश के तमाम पत्र-पत्रिकाआ में छप रहे थे। राजीव सक्सेना की निगाह उन पर पड़ी तो उन्होंने साथ काम करने का न्यौता दिया। तब महापंडित राहुल सांकृत्यायन नया पथ के सलाहकार संपादकों में थे। राधा कृष्ण कुकरेती को लगा कि नया पथ में काम किया जा सकता है वह दौड़े-दौड़े राहुल से सलाह लेने मसूरी चले गए। राहुल ने उनकी बात सुनी मगर कहा कि अगर वह पलायन कर लखनऊ चले गए तो नया जमाना के जरिए पर्वतीय क्षेत्र की जनता की आवाज कौन उठाएगा। कुछ अरसे बाद नया पथ बंद हो गया और राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना में मशगूल।
उत्तरकाशी का तिलोथ कांड को या बयाली का वन मजदूरों का आंदोलन, टिहरी बांध के विस्थापितों की समस्याएं हों या तराई के भूमिहीनों का आंदोलन इन सभी संघर्षों को राधाकृष्ण कुकरेती नया जमाना के जरिए धार देते रहे। स्वामी रामदंडी का परदाफाश नया जमाना की पत्रकारिता की मिसाल है। इमरजेंसी के जमाने में जब सारे पत्र पत्रिकाएं सत्ता की ताकत के आगे अपने घुटने टेक रहे थे तो भी नया जमाना ने अपना आत्मसम्मान कायम रखा और लगातार जनता के पक्ष में लिखता रहा। 1966 में देहरादून के बीबीवाला और गुमानीवाला के सात किसानों के शोषण के खिलाफ नया जमाना ने आवाज उठाई तो ऋषिकेश के जयराम अन्न क्षेत्र के संचालक मानद मजिस्ट्रेट व एक बड़े फार्म के मालिक महंत देवेंद्र स्वरूप ब्रह्मचारी ने दफा 500 के तहत मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तबके अतिरिक्त जिलाधीश ज्युडिशियल एसएस फैंथम ने नया जमाना की मुहिम को सराहा और साफ किया कि अभियोगी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट है। .. निसंदेह यह जनहित में है कि एसे व्यक्ति का असली चरित्र और कारनामे जनता के सामने लाए जाएं। फैसला नया जमाना के हक में हुआ। मुकदमे के बाद सभी किसान नया जमाना के जरिए कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए। 1968 में उत्तरकाशी के कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने लाइसेंस परमिट चोरी का भंडाफोड़ किया तो प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया। उनके साथ अन्यायपूर्ण सलूक को नया जमाना ने खुलकर छापा। अब यह लड़ाई सीधे जनता और भ्रष्ट प्रशासन के बीच का लड़ाई बन गई। नतीजा यह हुआ कि नया जमाना के संपादक राधा कृष्ण कुकरेती व दूसरे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर एसडीएम कोर्ट की मानहानि का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया गया। लेकिन प्रशासन की हार हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट जस्टिस ब्रह्मानंद काटजू ने जो फैसला दिया वह प्रशासन के लिए कड़ा सबक था। रिश्ते नातों और पहचान को उन्होंने कभी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया। उस जमाने में महंत इेंश चरण दास कुकरेती देहरादून के बड़े कांग्रेस नेता और बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करते थे। जब देश के तत्कालीन गृह मंत्री व उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत का निधन हुआ तो पूरे देश में राजकीय शोक घोषित हुआ था। उसी दिन श्री गुरु राम राय दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। इस पर राधा कृष्णकुकरेती ने नया जमाना में तल्ख शीर्षक के साथ टिप्पणी की। जहां सारे देश में राष्ट्रीय झंडा झुकाया जा रहा था वहीं दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। यह उन्होंने तब लिखा जब महंत इेंश चरण दास से उनके बहुत अच्छे निजी संबंध थे।
राधा कृष्ण कुकरेती ने जब नया जमाना शुरू किया तब उसमें बंशीलाल पुंडीर और राधा कृष्ण कुकरेती के अध्यापक और मार्गदर्शक आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल की बड़ी अहम भूमिका रही। ये दोनो बरसों तक नया जमाना के संपादक मंडल में रहे। आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल लोकायन नाम से तो बंशीलाल पुंडीर अपने ही नाम के साथ। हालांकि नया जमाना को बहुत से लोग अपने लेख, खबरें और रचनाएं, भेजते थे मगर राधा कृष्ण कुकरेती यानी एकोहम बहुष्यामि। वह ऐसे संपादक थे जो खुद ही अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग भी करते, विज्ञापन भी जुटाते, संपादन भी करते, कंपोजिंग भी करते और अखबार डिस्पैच भी खुद करते थे। इतना ही नहीं अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिए पाठक भी जुटाते, खुद ही चंदे की रसीद काटते। जब तक राधा कृष्ण कुकरेती जीवित और वह खुद अपने अखबार का काम देखते रहे देहरादून की कचहरी रोड स्थित उनके अखबार का दफ्तर यानी ‘नया जमाना प्रेस’ में उत्तराखंड के प्रगतिशील बुद्धिजीवी रचनाकार एक बार उनसे मिलने जरूर जाते थे।
राधा कृष्ण कुकरेती जब 14 क्रॉस रोड में एक फौजी अफसर के घर रहते थे तब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का डेरा उन्हीं के घर में लगता था। जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी लिखी तो गढ़वाली उन दिनों राधा कृष्ण कुकरेती के साथ ही रहा करते थे। 1953—54 से ही वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव कामरेड पीसी जोशी के संपर्क में थे। कामरेड पीसी जोशी ने ही सबसे पहले अलग पर्वतीय राज्य का नारा दिया। तब कुकरेती के घर हिंदी के जाने माने कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी और एनडी सुंदरियाल आदि न जाने कितने लोग डेरा जमाते। यहां और नया जमाना के दफ्तर में लगातार सिगरेट के कश लेते हुए राधा कृष्ण कुकरेती, मिलने आने वालों से घंटों बतियाते।
महज पत्रकार नहीं प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी
राधा कृष्ण कुकरेती महज पत्रकार नहीं थे वह प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी थे। उनमें संगठन की क्षमता भी गजब की थी। साम्यवादी विचारधारा ने उन्हें छात्रों, खेतिहर मजदूरों, पत्रकारों तक को संगठित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिल स्टूडेंट यूनियन के गठन में भी अहम भूमिका निभाई थी। 14 अक्टूबर 1969 की बात है। मसूरी के सेवाय होटल में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त की अध्यक्षता में पर्वतीय परिषद की बैठक चल रही थी। वहां पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली दूधातोली में उत्तराखंड विश्वविद्यालय की मांग उठाने के लिए पहुंचे थे। अकेले गढ़वाली को मानव दीवार बना कर पुलिस व प्रशासन ने मुख्यमंत्री से मिलने न दिया। चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपना भोंपू निकाला और उसके जरिए अपनी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगे। तभी देहरादून से राधा कृष्ण कुकरेती के नेतृत्व में करीब डेढ़ दर्जन छात्र व युवा वहां पहुंच गए। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुख्यमंत्री का शाम का कार्यक्रम शरदोत्सव के उद्घाटन का था। इस बीच राधा कृष्ण कुकरेती ने स्थानीय ट्रेड यूनियनों से संपर्क किया और नयी रणनीति बनाई। शाम को जब चंद्र भानु गुप्त पैदल शरदोत्सव के उद्घाटन को निकले तो कुलड़ी की ओर से वीर चंद्र सिंह गढ़वाली घोड़े में सवार आ रहे थे साथ ही उनके साथी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जो भीड़ सीएम के साथ दिख रही थी, वह चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ हो ली। उसके बाद एक कामयाब सभा भी हुई। सामाजिक राजनैतिक मूल्यों के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती का समर्पण किस कदर था उसकी मिसाल है कोटद्वार में पृथक उत्तराखंड को लेकर हुआ सम्मेलन। इस सम्मेलन में टिहरी रियासत के भूतपूर्व नरेश मानवेंद्र शाह भी आमंत्रित थे। जब गढ़वाल के वरिष्ठ पत्रकार ने मानवेंद्र शाह को राजा कह कर संबोधित किया तो राधा कृष्ण कुकरेती ने तत्काल सख्त ऐतराज जताया और कहा कि अब मानवेंद्र शाह राजा नहीं रहे उन्हें राजा की उपाधि के साथ संबोधित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह उन्होंने बिना किसी हिचक लिहाज के सामंतवाद विरोधी विचार को व्यक्त किया। राधाकृष्ण कुकरेती ने सन 1952 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में जब भाकपा में टूट के बाद और एक नई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) बनी तो वह मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही बने रहे। इस दौरान उन्होंने भारत—सोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा भी की। बाद में भाकपा से कुछ मतभेदों के कारण वे श्रीपाद अमृतपाद डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्यु के बाद भाकपा नेता समर भंडारी उन्हें फिर से उनकी मूल पार्टी भाकपा में लौटा लाए। 80 के दशक में राधा कृष्ण कुकरेती ने भाकपा के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून शहर सीट से चुनाव भी लड़ा ।
सांगठनिक क्षमता के धनी राधा कृष्ण कुकरेती उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। तब या तो परिपूर्णानंद पैन्यूली या आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष होते। यूनियन के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहीं, कुकरेती विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। उन्होंने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्मॉल न्यूजपेपर एसोसिएशन का गठन भी किया। बिना इस्तरी किए खादी का कुर्ता व पायजामा पहने रहने वाले राधा कृष्ण को शायद उनकी विचार धारा ने ही उन्हें सहज, मिलनसार, मददगार मानवीय और दूसरों के लिए लडऩे वाला बनाया था। माकपा के एक अविवाहित कॉमरेड थे मेला राम। पहले वह भी भाकपा में थे लेकिन 1964 में माकपा में चले गए। वह हमेशा माकपा के काम में जुटे रहते। मगर उनके रहने का कोई ठिकाना न था। उस जमाने में भाकपा व माकपा में काफी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता था। वह बहुत बीमार रहने लगे ऐसे में राजनीतिक वैचारिक मतभेद की परवाह किए बगैर राधा कृष्ण कुकरेती ने उनके लिए भाकपा के पल्टन बाजार स्थित दफ्तर में जगह बनाई। मेलाराम अधिक बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी देखभाल करने वाला कोई परिजन न था। उनकी तीमारदारी में राधा कृष्ण कुकरेती ने कोई कोर कसर न छोड़ी। रोज दून अस्पताल जाते और घंटों समय बिताते। मेलाराम बाद में फिर भाकपा में शामिल हो गए थे। कॉमरेड मेलाराम के देहांत पर उन्होंने एक आम आदमी की मौत शीर्षक से लंबा अविस्मरणीय संस्मरण लिखा। साम्यवादी सिद्धांत के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि अपने जीवन में ही उन्होंने सोवियत संघ को विश्वशक्ति बनते देखा, चीन, कोरिया, क्यूबा, वियतनाम में क्रांतियां प्रतिक्रांतियां होती देखीं सोवियत संघ को बिखरते देखा, वाम आंदोलन का प्रभाव कम होते देखा और दक्षिणपंथ का उभार भी, मगर उनका विचारधारा से विश्वास नहीं डिगा।
एक कथाकार जिसका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है
राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थे, जिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता नहीं की बल्कि कहानियों के जरिए भी अपनी बात रखी। उनकी कहानियां एक दौर में सारिका जैसी नया पथ जैसी जानी मानी साहित्यिक पत्रिकाआें में प्रकाशित होती थीं। यह बात और है कि उनके कथाकार को हिंदी साहित्य में वैसी पहचान नहीं मिल पाई जैसी कि मिलनी चाहिए थी। उनके पत्रकार और वामपंथी राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक के व्यक्तित्व की छाया में उनके साहित्य का अब तक सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनके साहित्यिक अवदान का मू्ल्यांकन होना अभी शेष है, जबकि वह पचास के दशक से ही लगातार कहानियां लिख रहे थे। हालांकि बाद के दौर में उनके कथा लेखन की रफ्तार कम हो गई। आंचलिकता से भरपूर उनकी कहानियों में उपेक्षित व वंचित पहाड़ की जिंदगी आकार लेती है । उनकी कहानियों में कहीं जाड हैं तो कहीं वनगूजर या जौनसार—बावर की जिंदगी। संभवत: हिमालयी सरोकारों के पत्रकार होने के कारण ही ये सब उनके विषय बने। इंसाफ के मालिक राधा कृष्ण कुकरेती का पहला कथा संग्रह था। उसके बाद उनका घाटी की आवाज, क्वांरी तोंगी व सरग दद्दा पाणि—पाणि कथा संग्रह आए। उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण भी लिखे थे जो अब तक अप्रकाशित हैं। उनका जौनसार-बावर की पृष्ठभूमि पर लिखा एक एक पूरा उपन्यास किन्नर कन्या आज भी अप्रकाशित है। घाटी की आवाजें कथा संग्रह में राधा कृष्ण कुकरेती की 11 कहानियां शामिल हैं। इनमें किच्छ न जाणी, मांस का पिंड-पाप का बोझ, गूजर की बेटी और पांच दिन, राख का ढेर, मसूरी की शाम, घाटी की आवाजें, एल्बम, ग्रेट इंडिया होटल, शरारती स्मृतियां, मोह की नाग फांस और पड़ोसवाली लडक़ी शामिल हैं। 1966 में प्रकाशित क्वांरी तोंगी संग्रह में 12 कहानियां, खुबानी का पेड़, मालापति, भूखा पेट-प्यासी चाह, वह मेरी मंगेतर थी, हब्शी का रोमांस, क्वांरी तोंगी, सवा रुपये का दस्तूर, ...और फिर मैं लौट आया, , मेरी बेटी जवान है, एक तंग—सी कोठड़ी: एक बड़ा सा काटेज, गृह उद्योग और ताला हैं। सरग दद्दा पाणि पाणि संग्रह में आठ कहानियां डडवार और गीत का टेर, बदला हुआ चेहरा, सरग दद्दा पाणि—पाणि, लकड़ी का धर्म, भोर का तारा, अहा रणसूरा बाजा बजि गैन, धरती का प्यार-भरती का मोह, पांच बिस्वा जमीन कहानियां शामिल हैं।
उनकी कहानियों और कथा शिल्प का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा—“ राधाकृष्ण कुकरेती जी की कहानियों में दिलचस्पी के साथ एक ताजगी मिलती है। इसका एक कारण तो यह भी है कि उनमें स्थानीय रंग बड़ी सुंदरता के साथ इस्तेमाल किया होता है। हिमालय ने हमें यशस्वी कवि और कथाकार दिए हैं। लेकिन वह स्थानीय रंग को भरने में संकोच करते हैं। तरुण कहानीकार कुकरेती इस बारे में उनसे भिन्नता रखते हैं।”
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने भी राधा कृष्ण कुकरेती की भाषा शैली की खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने लिखा कि राधाकृष्ण कुकरेती बात लिखने का ढंग खूब जानते हैं। सरल होते हुए भी उनकी शैली बहुत रोचक और मन को आकर्षित करने वाली है। किसी भी लेखक के लिए यह फख्र की बात है। ग्रेट इंडिया होटल कहानी के बारे में उन्होंने टिप्पणी की कि उसे पढक़र उन्हें जोला व मोपासां की याद आ गई।
जाने माने साहित्यकार इला चंद्र जोशी ने लिखा—“ निसंदेह लेखक में अच्छे कहानीकार बन सकने के बीज वर्तमान में है और उनकी व्यंग्यात्मक शैली चुभती हुई है। वह अधिक परिपक्व होगी तो उसमें और निखार आएगा। उनकी कहानियों में रोमांटिक पुट काफी रहने पर भी सहृदयता, रोचकता और ताजगी की कोई कमी नहीं दिखाई देती।”
प्रसिद्ध कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी ने भी लिखा –“स्वतंत्रता के बाद सभी भाषाओं के मौलिक लेखकों में उत्साह आया, शासकों के शोषण के कारण बोलियों का साहित्य दबा हुआ था, उसने भी करवट ली। सभी देश प्रेमी साहित्यकारों के आगे राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण का प्रश्न भी उठा। गढ़वाली जाति की अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास है। वहां के लेखक क्षेत्रीय साहित्य की उपज से हिंदी का भंडार भरने को उत्सुक हैं। श्री कुकरेती ने भी यह व्रत लिया है। घाटी की आवाजें हमारे जातीय साहित्य की परंपरा की सबल लड़ी है।”
अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा
बाद के दिनों में राधा कृष्ण कुकरेती ने देहरादून में अजबपुर (मोथरोवाला रोड)में एक मकान खरीद लिया था। पुत्र पंकज के विवाह न करने से भी शायद वह अंदर ही अंदर घुलते थे। हालांकि अब पंकज ही नया जमाना संभाल रहे हैं। ढलती उम्र के साथ देह ने राधा कृष्ण कुकरेती का साथ देना बंद कर दिया, पारकिंसन की बीमारी हो गई । आंखों से दिखना कम हो गया तो सामाजिक गतिविधियां भी कम हो गईं। अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा रह रहकर उनकी जुबान पर आ जाती। पर्वतीय क्षेत्रों तक सुविधाएं कैसे पहुंचेगी, पलायन से खाली होते पहाड़, पहाड़ के विकास को लेकर अफसरशाही और राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार, विकराल होता जाता भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे उन्हें सालते रहते। आखिरकार लंबी बीमारी के बाद 17 जुलाई 2015 को उन्होंने अंतिम सांस ली। राधा कृष्ण कुकरेती के हर सुख—दुख में साथ देने वाली वृद्ध पत्नी इंदिरा कुकरेती आज अपने बेटी दामाद के साथ देहरादून में बंजारावाला में रहती हैं। वह उनका संबल भी थीं। राधा कृष्ण कुकरेती की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार लाल झंडे में लपेटकर बिना किसी कर्मकांड के हो मगर मृत्यु के बाद देह पर किसका बस होता है। नाते रिश्तेदारों की इच्छा के मुताबिक हरिद्वार में धार्मिक रीति रिवाजों से ही उनका दाह संस्कार हुआ।
पहाड़(20-21) स्मृति अंकः एक से साभार