“सफ़ाई देवता” दलित धारा के रचनाकार ओम परकाश वाल्मीकि
की एकदम तजा पुस्तक हें. दलित वाल्मीकि समाज का एक संचिप्त इतिहास पुस्तक में दर्ज हें. पुस्तक की
भूमिका में लेखक इस बात का जिक्र करतें हें की दलित जातियों में पड़े लिखे एअसे लोग हें जो
अपनी जात छुपाकर अपने इतिहास और समाज से किनारा कर त्रासद पीडा को भोगने को मजबूर हें (मजबूर- भाव मेरा ).
दलित साहित्य का वर्तमान paridrisay भी दलित जातियों के मधय्वार्गिये जीवन में परवेश कर सके एसे
ही ढेरों पत्रों को हम समकालीन दलित रचनाओं में पड़ते हें. भारत में पूंजीवादी विकास हो
चुक्का हें, इस धारणा पर यकीन करते हुए समाजवादी क्रांति के लिए संघर्षरत सामाजिक’ राजनेतिक
karyakartaon (कर्य्कर्तों) के लिए यह एक सोच्निये विषय होना चाहिए की क्यों कर दलित समाज के एसे लोग भी अपनी पहचान को छुपाने के लिए मजबूर हें. पूंजीवादी जनतंत्र को टू विभिन्न्त्ता का सम्मान करना ही
चाहिए था. सम्कल्लें दलित चेतना का उभर इसी अस्मित्ता की बात करता हें. पूंजीवादी विकास का यह झूठा
तंत्र टू उस सामंती ढांचे से भी ज्यादा क्रूर नजर आने लगता हें जो सिर्फ़ और सिर्फ़ तथा कतित स्थापित
सर्वोछ्ता के बीच भी, किसी को उसकी अस्मित्ता के साथ स्वीकार कर्त्ता ही nhin हें, यहाँ ammanviyatta को swikarne का सम्मान नही बल्कि मोजुदा समाज में उसे छुपा कर जीने की majboori ही मुख्य roop से चिन्हित की जा रही हें। जो तंत्र मनुसय को उसके उप्पर अरोप्ती कर दी गयीं pahchaan को भी उसे खुल कर विरोध करने
की स्वतंत्रअ न देता हो वो जनतांत्रिक आखिर केसे हो सकता हें फ़िर ?
यहाँ ये स्पस्ट माना जाए की आजादी के बाद जो पूंजीवादी ढांचा खड़ा हुआ और राजनेतिक तंत्र panppa क्या वह
जनतांत्रिक बन पाया ? टू फ़िर समाजवाद की स्थापना के लिए इस etihasik भोतिक्वाद की अव्धारना को केसे पआर
किया जा सकता हें ?
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