Friday, June 26, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- छै




दोपहर 1 बजे के आस-पास पलामू का मैदान दिखाई दे गया। खूबसूरत कैम्पिंग ग्राउंड। जांसकर नाले के एक ओर । दक्षिण के पहाड़ों से उतर कर आ रही जलधारा जो मैदान के बीचो बीच बह रही थी,, के दोनों ओर दो तम्बू गड़े हुए- स्थानीय निवासियों के। 1997 में भी इस रास्ते से गुजर चुके हैं। उस वक्त स्थानीय निवासी सैलानियों से कैम्प लगाने का कोई चार्ज नहीं लेते थे। अभी तो वे इंतजार में हैं कि सैलानी आएं तो अपने खाली पड़े खेतों पर तम्बू गाड़ने का चार्ज लें। आय का एक स्रोत तो उन्होंने भी जांसकर वासियों की तरह खोज ही लिया है। फिर पलामू का मैदान तो है भी खूबसूरत। हरियाली ऐसी कि मन लोटने को हो।


कौन नहीं रुकना चाहेगा ! बर्फीले पहाड़ों के बीच हरा मैदान कैसा सुकून देता है, इसे तो यहां आकर ही जाना जा सकता है। फिर रोहतांग पार के रूखेपन के बाद यह हरियाली तो सचमुच ललचाने वाली है। अब यह तो नहीं कह सकता कि सड़क, जो यहां काटी जा रही है, होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि उससे प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा। हां, इतना जरूर कहूंगा कि विकास का कोई ऐसा मॉडल बने कि सड़क और दूसरी सुविधाएं भी हों और प्रकृति का यह खजाना भी नष्ट न हो। वैसे भी रोहतांग के पार, सिंगोला पास के इस रास्ते पर ऐसा हरा मैदान तो दूसरा कोई है नहीं। बल्कि मेरे अनुमान से तो पूरे रोहतांग पार के भूगोल में जो कुछ गिनती के हरियाले मैदान होंगे, उनकी सूची पलामू के बिना अधूरी ही कही जाएगी। 1997 में इसी रास्ते से गुजरे थे। चतरसिंह जो उस वक्त हमारा मार्गवाहक था, अपने घोड़ों को, जो उसने चुगने के लिए छोड़े थे, पलामू से ही लेकर दारचा पहुंचा था और राशन आदि लादने के बाद हमें हमारे पहले पड़ाव पलामू तक लाया था। पलामू के मैदान में पहुंचकर उसके घोड़े भी ऐसे हिनहिनाए थे कि पलामू की हरियाली फुरफुरा गई थी। पलामू पार करने के बाद भी जब अगले पड़ाव जांसकरसुमदो पहुंचे थे

तो रात को घास चुगने के लिए खुले छोड़ दिए गए घोड़े पलामू के मैदान तक ही निकल आए थे और जिन्हें खदेड़ लाने के लिए निकलते वक्त चतर सिंह के मुंह में पलामू की हरियाली के लिए गालियां फूटी थी। उस समय बस-मार्ग दारचा से आगे रारिक तक ही था। अभी तो रारिक से भी आगे छीका तक पी सड़क है। बस भी आती है अब छीका तक। बल्कि कहूं कि छीका से आगे जांसकर नाले पर बने उस पुल, जिस पर होकर नाले के पार्श्व को बदलना मजबूरी है, जो पलामू का रास्ता पकड़ता है, तक कटी हुई सड़क बेशक कच्ची है पर जीप या ऐसा ही कोई दूसरा वाहन उस पर दौड़ ही जाता है। वे सैलानी जो सिर्फ पलामू के सौन्दर्य का आनन्द लूटना चाहते हैं, दारचा से जीप बुक कर उसी पुल तक आ जाते हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व के उस समय में लकड़ी के पुल से जांसकर नाले को पार किया था। पुल भी क्या, लम्बी-लम्बी बल्लियां- इस छोर से उस छोर तक। जैसे-तैसे कांपते-कूंपते पार हुए थे उस समय। यहां पर जांसकर नाला गहरा गर्त बनाता है। अभी पा पुल बन गया है। लोहे का। बड़ा सा वह पत्थर, जिस पर बल्ली का दूसरा छोर टिका था- जांसकर नाले का पानी जहां उछाल मारता हुआ पहुंच जाता था, अभी दिखाई ही नहीं देता। लोहे का पुल उसी पर टिका है। मार्ग का वह जोखिम, जो कांपती बल्लियों पर संतुलन बनाने को मजबूर करता, अब नहीं। यहां उस रोमांच के क्षणों से वंचित हो जाना बेशक खलने वाला है पर गांव वालों के लिए पुल ने जो सहजता प्रदान की है उसकी खुशी कहीं ज्यादा है।
कच्ची रोड़ पर अपनी ट्रैक्टर-ट्राली के साथ आलू मटर की तैयार फसल को वे दारचा तक उतार सकते हैं।
हम सड़क से गुजर रहे थे - जांसकर नाले के पार खेतों में एक ट्रैक्टर-ट्राली दिखाई दी। गांव वाले खेतों में मौजूद थे। गांव के बीच से गुजरते हुए जो सूनापन महसूस कर रहे थे वह खेतों में दिखाई दे रहे लोगों के कारण टूट रहा था। खेतों में काम कर रही स्त्रियों की आखों में उत्सुकता थी । खिलखिलाने की आवाजें और उचक - उचक कर देखती निगाहें हमसे संवाद करना चाहती थी। हम लाहौली नहीं जानते थे तो कैसे बतियाते भला ?

लाहौली होने की हमारी कोशिश कंठ से फूटती और जोर से चिल्लाते- "जूले"
दूर खेतों से हाथ उठ जाते । रंग बिरंगी तितलियों के सम्वेत स्वर उठते- "जूले"
दारचा से रारिक तक का पैदल मार्च लेह रोड़ ही थी। सड़क पर काम कर रही स्त्रियों से भी कहा था -"जूले"
जवाब था - "जूले जी जूले "
कुछ खटका लगा । लाहौली तो जूले के जवाब में सिर्फ जूले ही कहेगा।
फिर ये जुले जी जूले !
चेहरे मोहरों से तो वे लाहौली ही लग रहीं थी। पहनावा भी वैसा ही। तितलियों के से रंग। ढके हुए मुंह से झांकती निगाहें में भी वैसी ही उत्सुकता जैसी लाहौली स्त्रियों में सैलानियों को देखकर होती है।
"---कहां तक ?"
किसी स्त्री ने संवाद को आगे बढ़ा दिया था। अन्यों की उत्सुक निगाहें भी जवाब सुनने को हमारी ओर ही उठ गयीं।
"पदुम" यह सोचते हुए कि लाहौल वालों के लिए पूछे गए जवाब को एक मात्र शब्द- "पदुम" कहकर भी दिया जा सकता है। फिर अपनी बात को लाहौली में न कह पाने का संकोच भी बहुत छोटे जवाब की ही छूट देता था। बातों को विस्तार से रखने पर बचना चाहते थे। हालांकि ठहर कर बातें कर पाने का मन तो था। किसी भी भू-भाग के जन-जीवन को सिर्फ वहां से गुजर कर तो जाना नहीं जा सकता न!
"आप कहां के हैं ?""
हम में से कोई एक जो अपने भीतर उठ रहे अंदाजों की पड़ताल कर लेना चाहता था, चहक उठा। आपसी संवाद को उसने हल्का-सा विस्तार दे दिया था। हमारे ही किसी दूसरे साथी ने उस जवाब को उच्चारित किया जो हम उनके मुंह से सुनना चाहते थे।- "दारचा !" हमारा अनुमान था कि दारचा के परिचित जगह है और स्त्रियां भी अपने को उस परिचित जगह से ही जोड़ना चाहेगीं जैसा कि अक्सर होता भी है। चमोली जनपद के भीतर रहने वाला कोई भी अपने को कर्णप्रयाग का ही कह देता है। या कभी भी किसी व्यक्ति से उसके निवास स्थान का पता पूछो तो सबसे पहले वह वहां के जाने पहचाने नाम को ही उच्चारित करेगा।

खुद ही सवाल और खुद ही जवाब हमारे भीतर की असमंजस और विश्लेषणों के गवाह थे। हम में से कुछ साथी उन स्त्रियों को आस-पास के गांवों के निवासियों के रूप में चिहि्नत कर रहे थे और कुछ ऐसा ही मानते हुए एक हिचकिचाहट के साथ थे।
"जी--- जी--- दारचा।" यह किसी एक स्त्री का स्वर था जिसमें कुछ स्वर भी गुंथ गए थे। मानो वे सभी यकीन दिलाना चाहते हों अपने को दारचावासी होने का। हमारे सवालों में छुपे पड़ताल करने को अंदाज को मानो उन्होंने भांप लिया हो। लेकिन जवाब देते हुए एक खास तरह की लड़खड़ाहट उनके सम्वेत स्वर में भी छुप न पा रही थी। वे खुद भी इसको भांप चुकी थीं। उसी को छुपाने के लिए सवाल हमारे तरफ उछाल दिया गया-
"---और आप कहां के ?" कहे गए वाक्य में जरा भी लाहौली लटक नहीं। यह पूरा दृश्य ही ऐसा था जिसमें स्त्रियों के द्वारा खुद की पहचान को छुपाने की गंध छुपी थी। अपनी पहचान को स्पष्ट तरह से रखे बिना हम इन स्त्रियों की वास्तविकता को जान पाने में असमर्थ रहेंगे, यह सवाल खुद ही उठा। उनकी पहचान को जान लेने की कि गैर जरूरी सी जिद न जाने कैसे हावी हो गई। क्योंकि पहचान को छुपा लेने में चालाकी नहीं बल्कि एक चुहल दिखाई दे रही थी। पर हमने चेहरे पर ऐसी गम्भीरता कि सुनने वाला हमारे एक-एक शब्द पर यकीन कर सके जवाब दिया -
"हम तो उत्तराखण्ड से हैं। ---पर आप लोग जांसकरी हैं या लाहौली ?"
"जी जांसकरी --- नी--- नी--- लाहौली।" खिलखिलाहट फिर से बिखर गई।
"नेपाली हैं जी हम लोग।" यह कुछ शांत लेकिन उसकी आवृति यकीन दिलाती हुई थी। जो हम से छेड़-छाड़ कर रही स्त्रियों को नेपाली पहचान में ढक गया। जिसके उदघाटित होते ही वह खिलंदड़पन गायब हो गया जो पहचान के छुपे होने पर वे करती रही थीं। अब बातचीत में खासी गम्भीरता आ गई। नेपाल से मजदूरी के वास्ते पलायन किए लोगों की यह टोली दारचा गांव में ही रुकी थी- ऐसा बातचीत के दौरान ही मालूम हुआ। पति-पत्नी और बच्चों के साथ पूरा परिवार। लेह रोड़ की दुरस्तीकरण का काम उनकी रोजी बना हुआ था।
"कितना पैसा मिलता है एक दिन का ?"
"सौ रुपया दिहाड़ी।"
"हमारा काम तो टूटी हुई रोड़ की सफाई करना ही है। मरम्मत करने वाले दूसरे हैं।"


-जारी
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3 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

इस बंद डिबिया की सचित्र परतें खोलने के लिए आप बधाई के हकदार हैं विजय जी।

डॉ .अनुराग said...

एक ओर टारगेट तय हुआ यात्रा का हमारा भी...इस बार चित्र ज्यादा है अच्छा लगा .....दिलचस्प रही आपकी यात्रा

मुनीश ( munish ) said...

itz fabulous! i was away from net for many days and now i 'll read the previous posts as well . there are just a few adventure lovers in hindi blogland ! congrats for being one!