

कभी आप किसी के साथ होते हैं, समय आपके साथ नहीं होता। यूं समय कभी भी साथ नहीं होता तब भी आप किसी के साथ होना चाहते हैं।
उस रोज भी बहुत से लोग साथ थे- मैदान में बैठे, गुनगुनी धूप का आनन्द लेते हुए। ढलते सूरज के साथ बौद्ध-स्तूप की लम्बी होती छाया धूप के एक बड़े हिस्से को लपक चुकी थी। कुछ देर धूप सेंक लेने के बाद पीठ पर चीटिंयों का अहसास जिन्हें होने लगता, बौद्ध-स्तूप की छाया में सिमट आते। कई युवा जोड़े छाया की ठंडक का हाथ पकड़ते हुए स्तूप की जड़ तक सरक आ गए थे। स्तूप के भीतर नंगे पैर चलने के कारण शरीर के भीतर तक घुस चुकी ठंड को बाहर फेंकने के लिए पारिवारिक किस्म के समूहों ने मैदान के उन हिस्सों पर, जहां धूप अपने पूरे ताप के साथ गिर रही थी, दरी बिछाकर खाने के छोटे-बड़े न जाने कितने ही डिब्बे खोले हुए थे।
इतना कुछ एक साथ था कि हवा को हवा की तरह अलग से पहचानना भी मुश्किल था। स्कूली बच्चों के कितने ही समूह अध्यापिकाओं के दिशा निर्देश पर लाइनबद्ध होकर भी अपने को धूल का हिस्सा होने से बचा न पा रहे थे। तभी न जाने कहां से, स्तूप की कौन सी दीवार से उठती आवाज उस बौद्ध-विहार में विहार करने के नियम कायदे निर्देशित करने लगी-
लड़का-लड़क़ी मैदान में एक साथ न बैठें!
बिना लय ताल के उच्चारित होते कितने ही दोहरावों की एकरसता चुभने वाली थी। दोहराने वाली आवाज को भी उसका बेसुरापन अखरा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर मात्राओं को घटाते बढ़ाते हुए निर्देश का मजमून थेड़ा बदल चुका था-
लड़का-लड़की को मैदान में एक साथ बैठना मना है।

10 comments:
बहुत अच्छा लगा इसे पढना। आभार इस प्रस्तुति के लिए।
भिक्षुओं की ठरक भी उदात्त क़िस्म की होती होगी. जैसे कितने ही दिन कविता भीतर ही भीतर पक कर उदात्त बनती है! :) प्रेरक पोस्ट भाई.
Majedaar kissa
Majedaar kissa
सिक्किम यात्रा में बहुत से बौद्ध मठों पर जाना हुआ…बहुत मन था एक संस्मरण जैसा लिखने का…यह पढ़कर फिर याद आया
... bahut sundar ... behatreen !!!
लिखिए न अशोक भाई, लेकिन इतनी ही सफाई से, जितनी कि विजय भाई ने लिखी है.. कि आप के इस माईनोरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रस्त बौद्ध कवि मित्र को ठेस न पहुँचे....मैंने खुद मठ व्यवस्था के अंतर्विरोधों पर कुछ कविताएं लिखीं हैं. लेकिन मेरे लिए कठिन है, . अभी संस्कारों से पूर्णतय: मुक्त नहीं हो पाया हूँ न! जानता हूँ , बतौर एक कवि यह मेरी कमज़ोरी है. लेकिन सच यही है.इस विषय पर आप लोगों को पढ़ कर कुछ और खुल कर लिख सकूँगा.
श्रावस्ती और लुंबनी यात्रा के दौरान जो मैंने महसूस किया वह भी कुछ ऐसा ही था ।
आपको नववर्ष 2011 मंगलमय हो ।
जबाब नहीं निसंदेह ।
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है ।
धन्यवाद ।
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bahut badiya blog hai aapka..
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