हिदी कहानी में गांव की कहानी, पहाड़ की कहानी आदि आदि शीर्षकों से पृष्ठभूमि के आधार पर वर्गीकरण कई बार सुनाई देता है। पृष्ठभूमि के आधार पर इस तरह के वर्गीकरण से यह समझना मुश्किल नहीं कि बहुधा मध्य वर्गीय जनजीवन को समेटती कहानी को ही केन्द्रिय मान लिया गया है। इसके निहितार्थ बेशक भारतीय समाज की विभिन्नता को दरकिनार करने के न हो पर यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्तमान में सक्रिय हिंदी लेखकों का अपना इर्दगिर्द ही रचनाओं में मौजूद रहता है। परिणामत: सम्पूभर्ण भारतीय समाज की जो भिन्नता है वह अनदेखी रह जा रही है। डॉ राजेश पाल की कहानी आट्टे-साट्टे का मोल एक ऐसे ही अनदेखे समाज की कथा की तरह सामने आती है। ऐसा समाज जहां चौपाली पंचायतों का जोर मौजूद रहता है। इस कहानी में एक समाज की विसंगतियों से टकराने और उनको पाठक तक रखने की जितनी संभावनाएं हैं, वह लिखित पाठ में बेशक उतना दर्ज न हो पाई हों लेकिन मध्यवर्गीय मिजाज की हिंदी कहानी के बीच वह एक छूट जा रहे समाज को प्रतिनिधित्व करने की सामार्थ्य तो रखती ही है। डॉ0 राजेश पाल
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वि गौ |
मेसर और संजोग ना चाहते हुए भी भारी
मन से दूसरी बार बिछुड़ रहे थे, संजोग की आंखों से टप-टप आँसू बह रहे थे उसने रूंधे
गले से मेसर को आखिरी बार कहा-‘‘मिलने जरूर आइयो,
नहीं तो मैं मऱ़़...............’’।
मेसर किस तरह मजबूर था,
संजोग को अपनी ब्याहता पत्नी होते
हुए भी अपने घर में रोक नहीं सकता था उसकी जीभ तालवे से चिपक गयी थी, मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे, वह लाचार था,
बिरादरी की पंचायत का हुक्म था, परिवार की इच्छा और समाज की परम्परा के आगे वह मजबूर था वह अपने जिगर के टुकड़े
चार साल के बेटे पंकज को बाहों में भरकर सुबक-सुबक कर रोने लगा जिसके लिए पंचायत का
फरमान था कि अब वह भी माँ के साथ ही ननिहाल जायेगा।
मेसर के ताऊ चैधरी बलजीत को इस बात का एहसास था कि बिछुड़ने
के इन क्षणों में मेसर कमजोर पड़ सकता है इसलिए उसने उठकर मेसर के कन्धे पर हाथ रखकर
प्यार से डांटने के अंदाज में कहा-’‘अर् बेट्टा मेसर! क्यूं पागल होरा, पागलों वाली बात्ता नी करा करते, भले आदमी,
मरद होके रो रहा, कुछ घर-परिवार और समाज की लाज-शरम भी रखा करै,
अर् समझदार आदमी पंचो की बात नू सिर
माथ्थे रखा करैं, तौं मेरे यार इतना समझदार होके उँही पागलों की तरजो
रो रहा, होर बेट्टा जिब तेरी ससुराल वालों ने म्हारी इज्जत नी
रक्खी तो हम क्यूं रखें उनकी इज्जत, उन्होंने हमें नीच्चा दिखाया तो हम भी उन्हें दिखावेंगे
नीच्चा, कहाँ जावेंगे वें शेखपुरे वाले बचके, इक्कर नी तो उक्कर बाज आवेंगे’’।
मेसर ने अपने सारे तर्क और मन के भाव पंचायत में बयान
कर दिये थे लोक लाज के कारण वह यह तो नहीं कह पाया था कि वह संजोग से बेहद प्यार करता
है और संजोग भी उसे उतना ही प्यार करती है पर उसने साफ-साफ कह दिया था कि वह पंकज के
बगैर नहीं रह सकता, उसने हिम्मत करके यह भी कह दिया था कि संजोग नौवीं तक
पढ़ी-लिखी है और वह अनपढ़ है फिर भी संजोग घर
में उसकी मान-कान रखती है।
पंचायत में मेसर की बातों को बेशर्मी और मर्दानगी पर
बट्टा कहकर उसकी खूब मंजाई हुई थी, अब वह अपने ताऊ को कुछ और कहकर अपनी और जग हंसाई नहीं
करवाना चाहता था। मेसर ने झिझकते हुए सिर्फ इतना ही कहा-‘ताऊ, पंकज यहीं रह लेत्ता तो.....?
चैधरी बलजीत ऐसे भावनात्मक अवसरों पर अपनी पकड़ मजबूत
करना अच्छी तरह जानते थे, वे समझ चुके थे ताबूत में आखरी कील ठोकने का यही अवसर
है इसलिये उन्होंने अपनी बात को जारी रखा-‘‘अर् बेट्टा! बहुओं की कहीं कोई कमी थोड़़े ही आ री और
बतेरी ले आवेंगे हम, तौं चिन्ता क्यू करे,
अर् बिरादरी में नी मिलेगी तो कोई
पहाड़न-घाड़न ले आवेंगे और नहीं तो आजकल बंगाल से तो ढेर आरी, एक से एक सोहणी, एक से एक पढ़ी-लिखी,
हम भी दिखा देंगे शेखपुरे वालों को
म्हारा बेट्टा असली मरद है कोई ऐसा-वैसा नी,
जा बेट्टा पंचो की बात नू पाणी दिया
करै, वहाँ बैठ चलकै चार आदमियों में’’।
दरअसल यह मामला आट्टे-साट्टे का था मेसर अपनी बहन मेमता
के आट्टे-साट्टे में बियाहा था। मेमता, मेसर से तीन साल बड़ी थी,
जब मेमता का रिश्ता तय किया गया तो
उसके रिश्ते के बदले में मेसर के लिए भी मेमता की होने वाली ससुराल से रिश्ता मांगा
गया, मतलब रिश्ते के बदले में रिश्ता यानी आट्टा-साट्टा।
मेसर के पिता चैधरी दलबीर ने साफ कह दिया था-‘‘अजी रिश्ता हम जभी करेंगे जब हमें लड़की के बदले लड़की मिलेगी, महाराज बिरादरी में लौंडियों का वैसे ही टोट्टा होरा, ढूंढने से भी नी मिलरी लौंडियाँ, अच्छे-खासे घरों के लौण्डे बिन ब्याहे फिररे, कोई पहाड़-घाड़ से लारा कोई बंगाल से लारा
बहू, पैसा खरच करके भी रिश्ता नी मिलरा, यो रिश्ता हम फ्री में नी दे सकते’’।
मेमता के होने वाले ससुर पिरथी सिंह ने माथे पर बल डालकर
सोचने की मुद्रा में कहा-‘‘देख चैधरी! रिश्ते के बदले में रिश्ता तो हम दे देंगे
पर दो बात्ते हैं- एक तो म्हारी लौंडी उमर में
थारे लौंडे से दो-चार साल बड़ी होगी और दूसरी बात म्हारी लौंडी जावे स्कूल में
पढ़ने, थारा लौंडा जावे डन्गर चुगाने अगर तुम्हे कोई हरज ना
हो तो म्हारी तो महाराज हाँ समझो’’।
चैधरी दलबीर थोड़ा मुसकुराया और ऐसे कहना शुरू किया जैसे
कोई पते की बात निकाल कर लाया हो-’‘महाराज! मरद तो फूंस का भी मरद ही हो, जोड़ी भिड़ने की बात है थोड़ी-बहुत उमर कम-ज्यादा होने से क्या फरक पड़रा और बस म्हारी
भी हाँ ही समझो, जोड़ियाँ तो उप्पर से बनके आवे हैं, म्हारा, थारा तो सिर्फ बहान्ना है’’।
चौधरी दलबीर ने जब अपनी लड़की मेमता की शादी कर दी तो
उसने अपने लड़के मेसर की शादी करने के लिए भी पिरथी सिंह पर दबाव बनाना शुरू कर दिया, उसने साफ-साफ पिरथी सिंह को कह दिया-‘‘महाराज लौंडियों को ज्यादा पढ़ाना-लिखाना ठीक नी होत्ता, लौंडी-लारी को बाहर की हवा लगे, कल को कोई ऐसा-वैसा कदम उठात्ते पढ़ी-लिखी लौंडी को देर
नी लगती’’।
दरअसल उसे चिन्ता ये थी कि अगर संजोग
ज्यादा पढ़-लिख गई तो उसके डंगर चुगाऊ बेटे से वह शादी के लिए मना भी कर सकती है। और
चैधरी दलबीर अपनी योजना में सफल भी हो गया,
उसने पिरथी सिंह पर शादी का दबाव
बनाकर संजोग की पढ़ाई छुड़वा दी। जब मेसर पन्द्रह साल का था तो संजोग अट्ठारह साल की
थी, दोनों की शादी हो गयी।
मेमता की शादी को दो साल हो गये थे पर उसके पास कोई
बच्चा नहीं हुआ। मेमता की सास को चिन्ता सताने लगी कि कहीं बहू की कोख बंजर तो नहीं, उसने गाहे-बगाहे मेमता को टोकना शुरू कर दिया,
वह दूसरों की बहुओं का उदाहरण देती
और मेमता को बताती कि-‘‘फलाँ की बहू तुम्हारे से एक साल बाद आयी थी, उसको भी लड़का हो गया, हम ही पोत्ते का मुँह देखने को तरसते रहेंग, पता नी कब आवेगा वो दिन जब मन की मुराद पूरी होगी’’।
मेमता की सास ने उसको मुल्ले-मौलवियों के धागे पहनाने
शुरू कर दिये थे, पण्डितों से तरह-तरह के पूजा-पाठ शुरू हो गये और इस
तरह एक साल और निकल गया पर मेमता की कोख हरी नहीं हुई अब स्थिति यहाँ तक आ गयी कि बात-बात
में मेमता और उसकी सास में तल्खी शुरू हो गयी और सास ने कहना शुरू कर दिया कि बहू की
कोख बंजर है तमाम इलाज के बावजूद उसको बच्चे नहीं होते। अब मेमता ने भी अपनी दबी जुबान
खोलनी शुरू कर दी कि जब तुम्हारा लड़का ही बाप बनने के लायक नहीं है तो मैं क्या करूं।
मेमता ससुराल के क्लेश व तानों से तंग आकर अपने मायके लम्बे समय तक रहने जाने लगी और
सुबह-शाम अपने साट्टे में ब्याही अपनी भाभी संजोग के साथ उसके घरवालों को निशाना बनाकर
लड़ने लगी। मेमता अपनी माँ की दुलारी थी इसलिए माँ भी उसी का पक्ष लेती और मेमता के
ससुराल वालों को मेमता के साथ मिलकर कोसती।
जब, माँ मेमता को कभी ससुराल जाने को पूछती तो वह तुनककर
जवाब देती-‘‘क्या करूंगी मैं ससुराल जाकर, मैं तो ससुराल में भी ऐसी ही और यहाँ भी ऐसी ही हूँ’’।
मेमता की ससुराल वालों ने भी उसकी सुध लेनी छोड़ दी।
चैधरी दलबीर को खबर लगी कि उसकी बेटी मेमता की छुट-छुटाव की बात चल रही है और पिरथी
सिंह अपने बेटे सुखपाल की दूसरी शादी की तैयारी कर रहा है तो चैधरी दलबीर के तन-बदन
में आग लग गई। आट्टे-साट्टे के मामले में वह इतना ढीला पड़ने वाला नहीं था, उसने तो जो दहेज मेमता की शादी में दिया था,
अपने लड़के मेसर की शादी में उसका
सवाया ही वसूल किया था। चैधरी दलबीर ने हुंकार भरी थी-‘‘पिरथी सिंह बिरादरी से बचकर कहाँ जावेगा? मैं भी देखता हूँ मेरी लड़की को ऐसे ही कैसे छोड़ देगा’’।
चैधरी दलबीर और उसके बड़े भाई चैधरी बलजीत बिरादरी के
पाँच-सात दबंगों को लेकर मेमता की ससुराल में पहुंच गये। पंचायत मास्टर बलमत की चैपाल
पर बुलायी गयी, मास्टर बलमत की चैपाल पर तो पाँच-सात लोग वैसे भी जुड़े
ही रहते हैं, सामने टी0वी0 चलता रहता है मास्टर जी भी प्राइमरी के हैड़ से रिटायर
हुए हैं। बिरादरी के कायदे-कानून में उनकी गहरी आस्था है। और वे भी जानते हैं कि रिटायरमेन्ट
के बाद अगर पन्चों में अपनी पूछ और इज्जत बढ़ानी है तो समाज की धारा में ही बहने में
ही फायदा है नहीं तो बिरादरी के लोग तुम्हे पूछना छोड़ पंचायत में बुलाना भी पसन्द नहीं
करेंगे।
एक-एक कर लोग आते जा रहे थे, पंचायत अभी जुड़ ही रही थी, टी0वी0 के एक चैनल पर दिखाया जा रहा था कि कैसे भारतीय मूल
की बहादुर लड़की सुनीता विलियम अन्तरिक्ष से सकुशल वापस लौटी’’। फिर कुछ देर बाद उन्होंने आमीर खान की प्रस्तुति ‘सत्यमेव जयते’ देखा। उसे देखकर लोगों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी
‘‘बताओ भाई! यो लोण्डियों का टोट्टा जिले हरिद्वार, सहारनपुर में ही नी है यो तो धुर दिल्ली,
हरियाणा और पंजाब तक है अर और भी
जाने कहाँ तक होगा, होर इसलिए यो आट्टा-साट्टा भी धुर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब तक चलरा’’।
किसी ने तर्क दिया-‘‘भाई यो आट्टा-साट्टा शोहरा है बेकार ही जिनके यहाँ बदले
में देने को लड़की है उनके लड़के तो ब्याहे जारे और जिनके लड़की है ही नहीं उनके फिर रे
कुआँरे ही, और फिर अगर एक तरफ के लड़का, लड़की की सैटिंग ठीक नी बैट्ठी तो दूसरी तरफ के लड़का, लड़की भी दबाव में ही रेह’’।
मास्टर बलमत ने रिमोट से टी0वी0 बन्द कर दिया और पन्चों की तरफ मुखातिब हुआ। आज पंचायत
का पाँचवा और निर्णायक दिन था, बिरादरी के पाँच दबंग व इज्जतदार लोगों को पंच चुना
गया था जिनके निर्देश अनुसार दिये गये समय पर पंचायत बैठती और उठती थी, गाँव का कोई भी व्यक्ति जो पंचायत में शामिल था,
पन्चों की आज्ञा के बगैर पंचायत छोड़कर
अपने घर नहीं जा सकता था, चैधरी बलजीत व मास्टर बलमत पन्चों में शामिल थे मास्टर
बलमत को सरपंच चुना गया था। पन्चों ने दोनों पक्षों से दस-दस हजार रूपये अग्रिम जमा
करवा लिए थे जिससे पंचायत में शामिल लगभग चालीस लोगों के खाने-पीने का प्रबन्ध रोज
ठीक प्रकार से हो सके, आस-पास के गाँव से बिरादरी के गणमान्य लोगों को व्यक्तिगत
बुलावा देकर बुलाया गया था इसलिए बिरादरी की पंचायत में पंचों के व्यक्तिगत बुलावे
पर आना बिरादरी में सम्मान की बात थी।
पंचायत में चैधरी दलबीर ने ये बात रखी थी कि-’’मेमता का पति सुखपाल नामर्द है और बच्चे ना होने का सारा दोष मेमता पर रखा जाता
है इस बात के लिए मेेमता को प्रताडित भी किया जाता है,
घर की इज्ज्त खराब ना हो इसलिए सुखपाल
का कोई डाक्टरी इलाज भी नहीं करवाया जा रहा है।
वक्त जरूरत पर बयान लेने के लिए मेमता को भी ससुराल
में बुला लिया गया है तथा मेसर व संजोग को भी शेखपुरा बुला लिया गया है ताकि जरूरत
पड़ने पर उनसे भी कोई पूछताछ की जा सके साथ ही बिरादरी के फैसले से वे भी अवगत रहें।
चैधरी दलबीर ने इस बात को प्रबलता से रखा कि कमी पिरथी
सिंह के लड़के में है और वे उनकी लड़की को छोड़कर चुपचाप अपने लड़के की दूसरी शादी करना
चाह रहे हैं।
दो दिन पंचायत जुड़ने में लगे, गणमान्य व्यक्तियों एवं विवाद से जुड़े लोगों को बुलाया गया, तीसरे दिन असली मुद्दे पर बहस शुरू हुई,
आरोप चैधरी दलबीर की तरफ से लगाया
गया, पन्चों ने पिरथी सिंह से जवाब-तलब किया, पिरथी सिंह हाथ जोड़कर पंचायत में खड़ा हो गया और अपनी विनम्र दलील रखते हुए बोला-
‘‘अजी पन्चों! जब बहू को घर में रहना नहीं होत्ता तो बली
में साँप बतावै, महारी तरफ से कभी कोई कमी नी करी गयी, हमने दसियों जगह बहू का इलाज करवाया,
इलाज में अपना घर फूंक रे हम, या तो महाराज बहू का रहने का मन नी है या चैधरी दलबीर ही अपनी लौण्डी को नहीं
भेजना चाहत्ता, पन्चो चैधरी दलबीर अपनी लौण्डी को खुद लेकर गया था तो
इसे खुद ही छोड़ कर जाना चाहिए था, होर पन्चो! मेरे लोण्डे में कोई कमी नी है
ना ऐसी कोई बात म्हारे सामने आयी
है बाकी पन्चों का फैसला सिर माथ्थे’’।
प्ंाचायत अपने दस्तूर से चल रही थी बीच-बीच में पहले
हुई पंचायतों के प्रसंग व पन्चों के फैसले के रोचक उदाहरण भी चलते रहे, जिसकी आवाज में दबंगई हो वह अपनी बात वजन पूर्वक मनवा लेता । पंचायत अपरोक्ष
रूप सें दो पक्षों में बंट गई थी जो अपने पक्ष वाले के हित में प्रसंग व उदाहरण प्रस्तुत
करते हैं वे पंचायत का रूख मोड़ने में सफल हो जाते है।
पिरथी सिंह की बात पर चैधरी दलबीर उबल पड़ा वैसे भी पन्चों
में उसका बड़ा भाई चैधरी बलजीत व मास्टर बलमत शामिल थे मास्टर बलमत से उसकी पुंरानी
रिश्तेदारी है ही।
‘‘देखो पन्चों! जब तक लौण्डी-लारी को ससुराल आत्तेे-जात्ते
दो-चार साल ना हो जावें तब तक तो ससुराल वालों का ही फर्ज बनता है कि वो बहू को लेने
आवें और इन्होंने पलट कर एक बार भी मेमता की खबर नी ली यो सारी चाल है पिरथी सिंह की,
अपने लौण्डे का इलाज नी करवात्ते
और कमी म्हारी लौण्डी में काढ्ढे’’।
पंचायत ने चैधरी दलबीर को चुप कराया तथा ये बात सामने
आयी कि मेमता के पति सुखपाल से भी पूछा जाये। पन्चों में से एक ने पिरथी सिंह की ओर
मुखातिब होते हुए कहा-‘‘अर् पिरथी सिंह! इस सुखपाल को कुछ खिलाया-पिलाया कर
शोहरा यूँ ही पेलचू सा होरा’’।
इस पर मास्टर बलमत ने अपने ज्ञान
की तकरीर जोड़ते हुए कहा-‘‘अजी ये लौण्डे कहाँ से जवान हो जावेंगे, पन्द्रह-सोलह साल में शादी-ब्याह हो जा अर फेर घर-गृहस्थी की चिन्ता, गाय-भैंस पालते नी जो घी-दूध पीवें,
ये तो पेलचू पहलवान ही रहेंगे’’।
पंचायत में एक व्यंग्य व हँसी का
माहौल फैल गया, बीच-बीच में बूढ़ों के खांसने की आवाजें व हुक्कों की
गुड़गुड़ाहट भी शामिल हो गयी। उसी बीच पन्चों में से एक ने कहा-‘‘बता बेट्टा! सुखपाल तौं बता सच-सच,
शरमाणे की कोई बात नी, यहाँ सब अपने घर-परिवार के ही हैं,
हर फेर अगर ऐसा-वैसा कुछ हो भी जावे
तो वैद-हकीम हैं, तौं चिन्ता ना करिये,
खुल के बता अपनी बात पंचात में’’।
सुखपाल बड़ी ढिठाई व बेशर्मी से अपने
चैड़े दाँत निपोरते हुए पंचायत में खड़ा होकर एक पंच की ओर मुखातिब होकर बोला-
‘‘ताऊ बात ऐसी
है मर्दानगी की तो, तम मेरी एक छोड़ और दो शाद्दी कर दो और ना बच्चे हों
तो मेरा नाम भी सुखपाल नी, रही बात इस औरत की इस हरामजादी ने तो मायके में अपना
कोई यार पाल रखा इसीलिए यो बार-बार मायके की रट लगावै और फेर वहाँ से आने का नाम नी
लेत्ती’’।
इसी बीच पंचायत में फिर शोरगुल बढ़ गया और सुखपाल अपनी
बात कहकर बैठ गया। पंचायत में यह बात भी आयी कि मेमता का पक्ष भी पंचायत के सामने आना
चाहिए। पंचायत दो पक्षों में बंट गयी, कुछ चाहते थे मेमता पंचायत में आये, कुछ नहीं चाहते थे। अन्ततः यही हुआ कि मेमता की बात भी सुनी जाये। मेमता सिर
पर पल्ला रखकर दो अन्य औरतों के साथ चैपाल के खम्भे की ओट में आकर खड़ी हो गयी, पन्चों में से एक ने मेमता से कहना शुरू किया-‘‘बेट्टी मेमता,
घर की इज्जत औरत के हाथ्थों में ही
होवे ये जो बात पंचायत में आयी है तुम क्या कहना चाहत्ती हो’’?
थोड़ी देर तो मेमता चुप रही परन्तु
उससे फिर वही सवाल किया गया तो वह खम्भे की ओट से ही बोली-
‘‘अजी मैं तो ऐसी ही मायके मैं थी और ऐसी ही यहाँ ससुराल
में हूँ, इनके बारे में जो आप लोगों ने सुणा है ठीक ही सुणा है
मेरे से और क्या पूच्छो’’।
दो-तीन पन्चों ने मेमता को कहा-
‘‘जा बेट्टी तौं घर जा,
हम तेरी बात समझ गये, बस इतना ही पूछना था हमें तेरे से’’।
आपस में विचार-विमर्श कर पन्चों ने फैसला दिया कि पिरथी
सिंह अपने लड़के सुखपाल का किसी अच्छे वैद्य से इलाज कराये तब तक मेमता चाहे तो मायके
में रहे या ससुराल में रहे। मेमता अपने भाई
मेसर के साथ अगले ही दिन मायके लौट आयी तथा उसकी पत्नी संजोग को मायके में ही रोक लिया।
पंचायत के फैसले से पिरथी सिंह ने अपने आपको घोर लज्जित
महसूस किया। मेमता ने उसके घर की इज्जत भरी पंचायत के बीच मिट्टी में मिला दी थी। इसलिए
पिरथी सिंह ने मन ही मन संकल्प कर लिया था कि अब वह चैधरी दलबीर से इस बेइज्जती का
बदला जरूर लेकर रहेगा।
पृथ्वी सिंह ने सुखपाल का इलाज एक शर्तिया इलाज करने
वाले वैद्य से शुरू कर दिया, जिसने छः महीने में नामर्द से मर्द बनने की गारण्टी
दी थी साथ ही उसके लिए एक दूध देने वाली भैंस बांध ली थी, उसे रोज घी, दूध तथा बादाम घोटकर पिलाये जाने लगे, अब छः महीने का कोर्स भी पूरा हो चुका था।
पिरथी सिंह ने वैद्य से सुखपाल की मर्दानगी के विषय
में गोपनीय पूछताछ कर ली थी, वैद्य ने शर्तिया इलाज किया था और अपने इलाज की शेखी
बघारते हुए कहा था-‘‘आप कहें तो मैं कोरे स्टाम्प पेपर पर लिखकर थारे लौण्डे
की मर्दानगी की गारण्टी दे दूँ, म्हारा इलाज फेल नी हो सकता, हिमालय की जड़ी-बूटियाँ और पत्थर का रस पिलाया है थारे सुखपाल को’’।
पिरथी सिंह पूरा आश्वस्त होकर अपने बेटे सुखपाल
के साथ मास्टर बलमत और अपने फेवर वाले कुछ
दबंगों को लेकर अपने समधी चैधरी दलबीर के घर सुखपाल की मर्दानगी का टैस्ट कराने पंहुच
गया। अगले दिन बिरादरी के खास लोगों को बुलाकर चैधरी बलजीत की चैपाल पर बिरादरी की
पंचायत बैठायी गयी। पन्चों ने मास्टर बलमत को सरपन्च चुन लिया, लोग जुड़ते-जुड़ते शाम हो गयी। पन्चों ने पंचायत के कानून की घोषणा की- ‘‘कि हर घर से एक आदमी पंचात में जरूर बैठेगा और जो कोई भी डन्गर-ढोर बांधने, खोलने बिना सरपन्च की इजाजत के पंचात से उठके जावेगा तो उससे सौ रूपये जुर्माना
वसूला जावेगा और अगर कोई आदमी ये गलती दो बार करेगा उसे सौ रूपये के साथ-साथ पाँच जूत्ते
भी मारे जावेंगे। दोनों पक्षों से फैसला करने के लिए दस-दस हजार रूपये सरपंच के पास
जमा होंगे और फैसला होने के बाद राजीनामा के दिन घी-बूरे की दावत रखी जावेगी जिसमें
बिरादरी के सभी जन बच्चा शामिल होंगे’’।
अगले दिन बैठक फिर शुरू हुई पंचायत के कानून के मुताबिक
सरपन्च मास्टर बलमत ने पिरथी सिंह से कहा-
‘‘रखो पिरथी अपनी बात पंचात में’’।
पिरथी सिंह पहले से ही मास्टर बलमत
को पक्का करके लाया था कि अपने गाँव की जो बेइज्जती चैधरी बलजीत व चैधरी दलबीर ने की
थी उसका पूरा बदला इस पंचायत में चुकाना है। पिरथी सिंह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और पिछली
पंचायत का हवाला देते हुए कहनेे लगा-
‘‘पन्चों! जैसा आप लोगों ने कहा था मैन्ने अपने लौण्डे
का इलाज बड़े से बड़े वैद के यहाँ करवाया,
मैं तो पहले ही कह रहा था कि मेरे
बेट्टे में कोई कमी नी है अब पन्चों जो भी आप लोगों का फैसला होगा मुझे मंजूर होगा’’।
पिरथी सिंह की बात खत्म भी नहीं हुई थी, पंचायत में एक शोर सा फैल गया। बड़ी देर में शोर हल्का हुआ तो पंचायत में बात
आयी कि सुखपाल की मर्दानगी कि जाँच कैसे हो?
पंचायत में रामपाल भी बैठा हुआ था
जो कस्बे के अस्पताल में कम्पाउण्डर का काम करता है,
गाँव के लोग तो उसे डाक्टर रामपाल ही कहते हैं। किसी ने हँसते हुए बात
रामपाल की तरफ उछाल दी-
‘‘बताओ डाक्टर साहब! इब इसकी मर्दानगी की जाँच कैसे होगी?’’
रामपाल ने भी उसी अन्दाज में कह दिया-
‘‘इसका डाक्टरी टैस्ट करा लो शहर में’’।
डॉ0 रामपाल की बात नकली सिंह के कान में पड़ गयी, पन्चों में नकली सिंह की दबंग आवाज थी,
अपनी आवाज के दम पर नकली सिंह पूरी
पंचायत का रूख बदलने में माहिर था उसने कहना शुरू किया-
‘‘ओ भाई डाग्दर! म्हारी सुण तौं बात, अर् पन्चों डाग्दरी रपोट में कुछ नी धरा,
ढेर देक्खी हमने ऐसी-ऐसी डाग्दरी
रपोट, वो ख्वासपर वालों का फैसला करा था डाग्दरी रपोट पे, भाई चार साल हो गये देख एक चूहे का बच्चा
भी नी हुआ अब तक, डाग्दरी रपोट छोड्डो तम,
हम बतावेंगे तम्हे इसका भी मिजान, पता कितने फैसले कर दिये इब तक हमने’’।
नकली सिंह ने पन्चों से धीरे से बात की और
उन्हें इशारे से पास के शिवाणें की तरफ लेकर चल दिया। इस बीच पंचायत के हर कोने में
अलग-अलग तरह के संवाद होते रहे, बीच-बीच में हुक्कों की गुड़गुड़ाहट व खांसी की आवाजों
से काफी शोरगुल बढ़ गया।
शवाणे की तरफ ले जाकर पन्चों ने सलाह मिलायी कि मर्दानगी
टैस्ट किस तरीके से ठीक रहेगा। नकली सिंह ने सभी को अपनी इस बात के लिए तैयार कर लिया
और कहने लगा ‘‘पन्चों टैम जाया करने से कुछ फैदा नी और डाग्दरी रपोट
का कुछ भरोस्सा नी, और हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े-लिखे को फारसी क्या? यो टैस्ट यहीं का यहीं हो जावेगा’’।
सब लोग नकली सिंह की सलाह से सहमत
हो गये। अगले दिन सुक्कड़ के घेर में डन्गर बांधने की कुढ़ में सुखपाल की मर्दानगी का
टैस्ट कराने का इतंजाम किया गया। इसकी जिम्मेदारी पन्चों ने सुक्कड़ को ही दी। उन्होंने
बताया कि कुढ़ में एक चारपाई बिछा दियो और कुढ़़ के पिछवाड़े थोड़ा छप्पर उठाने के लिए
उसमें एक थुनी (दुसिंगी लकड़ी) फंसा दियो और दो औरतों की ड्यूटी चुपचाप टैस्ट देखने
की लगा दियो और इसी तरह कुढ़ के आग्गे की तरफ भी दो आदमियों की ड्यूटी टैस्ट देखने के
लियो लगा दियो।
सबसे पहले सुबह दस बजे मेमता को कुढ़ में बिछी खाट पर
बैठा दिया गया थोड़ी देर बाद सुखपाल को भी समझाकर कि आज उसकी मर्दानगी का टैस्ट होना
है कुढ़ के भीतर भेज दिया, कुढ़ के दरवाजे पर फूंस की टाट्टी लगा दी गयी, सुखपाल दाँत निपोरते हुए चारपाई पर बैठ गया उसके बैठते ही मेमता खड़ी हो गयी, सुखपाल ने उसको बैठाने के लिए उसका हाथ पकड़ा तो मेमता उस पर आग-बबूला हो गयी-
‘‘नाशगये शरम तो नी आत्ती तुझे, जो तन्ने अपने बाप के साथ आके पंचायत बिठायी म्हारे घर, मैन्ने तेरी खबर नी ली तो मैं भी अपने बाप की असल की नी’’।
सुखपाल थोड़ा घबरा गया और मेमता की
मिन्नत करने के लहजे में बोला-‘‘भागवान आज तु मेरी इज्जत रख दे तो जिन्दगी भर तेरा एहसान
मानूंगा, भरी पंचायत
में इज्जत की बात है’’।
मेमता और बिफर गयी-‘‘
और तु भूल गया जब तुन्ने अपने घर
पंचायत में मेरे पे इल्जाम लगाया था अब तुझे
अपनी इज्जत की पड़री’’।
इसी तरह आधे घण्टे तक उनका आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा, सुखपाल ने थोड़ी हिम्मत करके मेमता को बिस्तर पर लिटाने की कोशिश की पर वह कामयाब
न हो सका, वह थककर चारपाई पर बैठ गया, मेमता भी दूसरी तरफ मुँह करके चारपाई पर बैठ गई। थोड़ी देर खामोशी के बाद सुखपाल
ने फिर कोशिश की, तमतमाई मेमता ने सुखपाल को आगे लात दे मारी, दर्द से कराहता हुआ सुखपाल नीचे गिर गया और बहुत देर तक उठ न सका।
सुक्कड ने टैस्ट रिपोर्ट पन्चों के कानों में डाल दी
थी। सुखपाल ने अपने पिताजी से दीन-हीन होकर याचना की थी कि उसे कुंवारा रहना मंजूर
पर अब वह मेमता को नहीं ले जायेगा। उधर मेमता ने भी सुखपाल के साथ जाने से साफ मना
कर दिया था। परन्तु पिरथी सिंह बेटे की इस
बेइज्जती को अपनी बेइज्जती मानकर तिलमिला गया उसने मन ही मन ठान लिया था कि जो भी हो
चैधरी दलबीर की पगड़ी इस पंचायत में मुझे भी उछालनी है। अब फैसला पन्चों के ऊपर था, बिरादरी की पंचायत के नात्ते आट्टे-साट्टे का नियम था कि फैसला दोनों पक्षों
के लिए बराबर और एक जैसा हो। घंटों तक पन्चों में सलाह-मशविरा होता रहा और पंचायत में
शोर-शराबा। एक-एक कर सभी के पक्ष पंचायत में लिए गये,
मेमता ने साफ शब्दों कह दिया था कि-
‘‘ उसकी लाश जा सकती है लेकिन वह सुखपाल के साथ नहीं जायेगी’’।
अब पिरथी सिंह इस बात पर अड़ गया कि या तो चैधरी दलबीर
अपनी लड़की को सुखपाल के साथ विदा करे और नहीं तो पन्चों मैं भी अपनी लड़की को यहाँ छोड़ने
वाला नहीं यही आट्टे-साट्टे का नियम है।
पंचायत का रूख मेमता के भाई मेसर ने भाँप लिया था उसके
मन में भारी द्वन्द्व चल रहा था वह समझ नहीं पा रहा था कि प्राणों से प्रिय अपने परिवार को बचाने के लिए भरी
पंचायत का सामना किस तरह से करेगा और इससे भी बढ़कर ताऊ और पिताजी की बात का सामना किस
तरह से करेगा? ताऊ और पिताजी की बात का वह आज तक विरोध करने का साहस
नहीं जुटा पाया था फिर भी उसने मन ही मन संकल्प कर लिया था कि वह पंचायत के सामने गिड़गिड़ायेगा
पर अपने परिवार को उजड़ने से बचा लेगा, पंचायत उस पर जरूर रहम करेगी।
तमाम गहमा-गहमी और पूछताछ व जाँच-पड़ताल के बाद चार दिन
में पंचायत फैसले पर पंहुची, फैसला सुनाने से पहले पन्चों ने भरी पंचायत में दोनों
पक्षों को इस बात के लिए पाबन्द कर दिया कि दोनों में से जो भी पक्ष अब पंचायत का फैसला
नहीं मानेगा उसको बिरादरी से बाहर कर दिया जायेगा,
इसके साथ ही बिरादरी का कोई भी आदमी
उनसे खान-पीन व रिश्ते-नातें का कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा तथा जो भी आदमी ऐसा करेगा उस
पर भी जुर्माना लगाया जायेगा या उसे भी बिरादरी से बाहर कर दिया जायेगा।
अब पंचायत ने फैसला सुनाया कि जब चैधरी दलबीर अपनी लड़की
को अपने घर रख रहा है तो पिरथी सिंह को भी हक है कि वो भी अपनी लड़की को अपने साथ अपने
घर ले जाये। चूंकि माँ अपने बच्चे कीे देखभाल बाप से बेहतर करती है लिहाजा संजोग का बेटा भी उसी के साथ रहेगा।
पंचायत के फैसले से मेसर का दिल बैठ गया था, वह हाथ जोड़कर पंचायत के सामने गिड़गिड़ाने लगा,
उसकी याचना शोर में दबकर रह गयी, वह सुबक-सुबक कर रो रहा था, पंचायत फैसला कर चुकी थी और यह बिरादरी की पंचायत का
फैसला था कि मेसर को छोड़कर संजोग अपने पिता के घर रहेगी।
बिछुड़ने की असह्य पीड़ा में संजोग और मेसर आट्टे-साट्टे
का मोल चुका रहे थे।
14 comments:
सुन्दर कथा
कहानी पढ़ते पढ़ते लगा कि मैं भी उसी पंचायत में बैठा हूँ। डॉ पाल की कहानी और भाषा दोनो ही बहुत बढ़िया है। मैं काफी साहित्य पढ़ता रहता हूँ पर इस स्तर की रचना बहुत वक़्त से नही देखी। कहानी के हर एक पात्र की भावनाओ का चित्रण बहुत प्रभावशाली है।
बहुत ही सुंदर ढंग से देहात की उसी भाषा में आपने एक मार्मिक कहानी लिखी है और शायद समाज में कहीं ऐसा होता रहा होगा, अंत में मुझे भी बड़ा सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि मेसर और संजोग को किसके किए की सजा भुगतनी पड़ी👍🙏🏻👏🏻👏🏻 डॉ जयपाल सिंह एसोसिएट प्रोफेसर गणित विभाग
आपकी अट्टा-सट्टा वाली कहानी को पढ़कर पुराने समय की याद आ गई कहानी इतनी अच्छी लगी कि पढ़ने लगा तो पड़ता ही रहा अंत तक। कहानी बहुत अच्छी है,इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
Aati sundar
बहुत ही बेहतरीन और दिल को छू लेने वाली रचना हैं इससे पूर्व भी मैंने आदरणीय डॉ. राजेश भाई साहब की कई रचनाये पढ़ी है हमेशा की तरह आपकी रचना ने अंत तक जिज्ञासा और रूचि रहती है पुनः बहुत बहुत बधाई
ग्रामीण समाज की रूढ़ियों पर चोट करती हुयी एक मार्मिक कहानी! कहानी की भाषा और संवाद प्रभाव पूर्ण है कहानी अंत तक बांध कर रखती हैं / शील
डॉ राजेश पाल की यह अद्भुत कहानी है।
आपकी कहानी प्रेमचंद जी की याद दिलाती है।
मेरे द्वारा पड़ी हुई कुछ बेहतरीन कहानियों में से एक है ये कहानी।
कथ्य और भाषा दोनों स्तर पर अच्छी कहानी
डॉ राजेश पाल की यह रचना मुझे एंटन चेखव के कथा कौशल की याद दिलाती है। शैली,भाषा व कथानक तीनों मानकों से एक बेहतरीन रचना। कोई भी पाठक एक बार पढ़ना शुरू कर पूरी कहानी को पढ़े बिना नहीं रह सकता। मानवीय सम्बन्धों की मार्मिक कथा जो समाज के पाखण्ड और संवेदनहीनता को उजागर करती है।
इस बेहतरीन लिखावट के लिए हृदय से आभार Appsguruji(जाने हिंदी में ढेरो mobile apps और internet से जुडी जानकारी )
वैसे तो जब गुस्सा या लालच रिश्तों में आ जाता है तो सगे भाइयों तक में खुनी खेल हो जाता है. रिश्तें बिगडने हो तो कही भी कैसे भी बिगड सकते है. परन्तु आट्टा- साट्टा शादी तरिका बहुत से परिवारों के लिए वरदान की तरह काम आ रहा है.. मै हरियाणा से हूं यहां जमीनें महंगी है अधिकांश आजकल लडकी के ससुराल वाले दहेज, मान- दान, पीलिया, भात, हर साल 4 बार सीधा आदि लेकर अन्त में जमीन जायदात में हिस्सा में मांग लेते है.. फिर उनमें गोलियां चलती है. यानि कम से कम आट्टा साट्टा में देने- लेने वाली परम्परा तो खत्म होती ही है..
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