बात आगे बढ़ गई। थोड़ी भटक भी गई।
साहित्य में आलोचना इतनी वेग क्यों है ? क्यों एक ही तरह की रचना पर पुरस्कार और उसी तरह की दूसरी रचना को तिरस्कार ? यह महत्वपूर्ण सवाल पिछली पोस्ट में उठा। क्या रचना की कोई निधारित कसौटी हो सकती है ? भाई नवीन नैथानी ने तो किसी भी रचना की कसौटी के लिए एक सहृदय पाठक के भीतर मौजूद जो मानदण्ड गिनाए हैं, उसमें बहुत साफ शब्दों में कहा है कि वह नितांत व्यक्तिगत होने के साथ ही विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण वातावरण भी है। यहां मेरा इससे पूरा इत्तेफाक नहीं।
मैं यहीं से अपनी बात कहूं तो स्पष्टत कहना चाहूंगा कि यह जिसे नितांत व्यक्तिगत माना जा रहा है, वह उस विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण में ही आकार लेता है। यानी वह व्यक्तिगत भी पूरा-पूरा तो नहीं ही होता है। कुछ अन्य वाह्य कारण भी होते हैं, जो बहुधा किन्हीं गैर पर्यावरणीय स्थिति के प्रभाव में भी पनपते हैं।
सामने दिखाई देती स्थितियों से पार तक देखना और उसे भाषा में व्यक्त करना, कविता का वह गुण है जिससे कविता का सहृदय पाठक अपने प्रिय कवि के उस मंतव्य को पकड़ पा रहा होता जो उसके भीतर न जाने कितनी बार हलचल मचा चुका होता है। या उसका प्रथम दर्शन भी उसे समृद्ध करने वाला होता है। उसकी विचार शक्ति को और उसकी दृष्टि को भी। अपने प्रिय कवि की कविता को वह, जिसे वह उसका वक्तव्य भी माने तो गलत नहीं, भाषा में रचे जा रहे स्पेश के साथ ही देख पाने में सक्षम होता है। आलोचना का काम रचना के उस पार को दिखाना ही होना चाहिए। ऐसी कोशिश ही किसी सहृदय पाठक को आलोचक बनाती है। एक आलोचक की दृष्टि जो कई बार अपने सीमित अनुभवों से उसकी पूरी परास को व्याख्यायित न कर पाए या, कई बार अपने विस्तृत अनुभव से रचना का एक नया ही पाठ खोले जिसे कवि ने भी न सोचा हो। रचना का वह दूसरा पाठ और नया पाठ आखिर कहां से आया ? यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए। क्या वह किसी निश्चित तर्क प्रणाली को अपनाते हुए है या, वेग तरह की शब्दावली में उसको व्याख्यायित किया जा रहा है ? लेकिन यहां भाई नवीन नैथानी की उस व्याख्या को नकारा नहीं जा सकता जो एक कविता को अच्छी कविता कहने के लिए बहुत सारे कारणों के साथ-साथ एक पाठक की तात्कालिक मन:स्थिति को भी दर्ज करती है। यानी किसी भी कविता को एक बेहतर कविता कहने के लिए कोई सांख्यिकी मानदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। कविता का सम्पूर्ण मल्यांकन ऐसी किसी भी प्रणाली से जब संभव नहीं तो तय है कि एक ही कविता के अनगिनत पाठ हो सकते हैं। यानी अनगिनत पाठक किसी निश्चित समय पर उसे एक बेहतर कविता कह सकते हैं और उतने ही उसी समय पर उसे एक कमजोर कविता भी बता रहे हो सकते हैं। जब कविता के मूल्यांकन में इतनी अनिश्चितता मौजूद है तो फिर किसी कविता के पुरस्कृत होने और किसी के पुरस्कार से वंचित रह जाने का कोई मायने नहीं। इसे और साफ तरह से कहूं तो कविता में पुरस्कार के औचित्य पर सवाल हमेशा लगता रहेगा। कविता के लिए किसी भी तरह के पुरस्कार का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। बावजूद इसके पुरस्कारों के लिए लम्बी से लम्बी दौड़ में कवियों को ही शामिल क्यों होना पड़ता है फिर ? खुद से देखें तो पाएंगे कि मूल्यांकन की यही अनिश्चितता संगीत में भी और पेंटिग में भी दिखाई देती है। मूल्यांकन की ऐसी अनिश्चित प्रणाली वाली विधाओं के लिए पुरस्कार अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को देय वाला मुहावरा नहीं तो और क्या है फिर ? तो कविता के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार को बाजारू प्रवृत्तियों का आइकन बनाऊ खेल क्यों न माना जाए ? पुरस्कारों के निहितार्थ क्यों षडयंत्रों के दायरे में न आएं ? वे षडयंत्र जो रचनाकारों के भीतर झूठी श्रेष्ठता को स्थापित कर एक फांक पैदा कर रहे हों ।
यह सवाल आज की पीढ़ी ही नहीं अपने वरिष्ठों ओर आदरणीयों से भी है कि साहित्य में पुरस्कारों के सवाल पर वे मुक्कमल तौर पर विचार करें। दलित, स्त्री विमर्शों के साथ-साथ युवा रचना शीलता, फिल्म, प्रेम विशेषांकों के बीच क्या पुरस्कार विशेषांक जैसी किसी योजना को कार्यान्वित करने की जरूरत नहीं ?
अशोक भाई ने बहुत साफ और स्पष्ट शब्दों में कहा कि चर्चित होना कोई अपराध नहीं और न अचर्चित रह जाना महानता का प्रतीक। यहां इसका एक अन्य अर्थ भी है कि कविता चाहे किसी नामी कवि की हो चाहे अनाम रह गए कवि की, सबसे पहले उसे कविता होना चाहिए। यह एक दुरस्त बात है। लेकिन चलताऊ तरह से सिर्फ चंद वे शब्द जिनको बहुत स्पष्ट न करते हुए आज की आलोचना जब किसी रचना को स्थापित या उखाड़ने के लिए कर रही होती है, उसी के आधार पर कैसे कहा जा सके कि जिस कविता पर बात हो रही है वह वाकई एक कवि के भीतर से आवेग बनकर फूटी है या नहीं ?
पैशन भी ऐसा ही एक चलताऊ शब्द और मुहावरा हो जाता है जब हम उसे बहुत गैर जरूरी तरह से इस्तेमाल कर देते हैं तो। गैर जरूरी इसलिए कि पैशन यानी आवेग के बिना कोई भी रचना संभव नहीं, बेशक वह बहुत खराब तरह से लिखी गई हो या फिर बहुत कुशल तरह से अपनी कलात्मकता के साथ। हां, आवेग की धुरियां हो सकती हैं जो किसी महत्वांकाक्षा के तहत हो चाहे सचमुच किसी रचने की पीड़ा के तहत। यानी बिना आवेग के कोई खराब रचना भी संभव नहीं। ऐसे चलताऊ शब्दों का इस्तेमाल करने वाली आलोचना ने ही एक ही तरह की कविता को पुरस्कृत और उसी तरह की कविता को खारिज करने की कार्रवाइयां की है, यह अशोक खुद स्वीकारते हैं। साहित्य में गिरोहगर्दों की जबरदस्त पकड़ ने रचना की व्याख्या के ये टूल अपने मंतव्य को साधने के लिए ही गढ़े हैं। खास शब्दावलियों के ये ऐसे टूल हैं जिनमें रचना और संरचना के फर्क को भी समझना मुश्किल है। हम कब रचना को संरचना मानने की गलती कर बैठते हैं और कब संरचना को रचना, इसको ठीक-ठीक जान नहीं रहे होते हैं। मेरी समझ में यही उत्तर आधुनिकता है। जिसमें जो कहा गया उसका भी कोई मायने नहीं होता। पैशन रचना या मात्र कुछ शब्दों में कैसे हो सकता है ? पैशन तो रचनाकार में होता है या पाठक में होता है। रचनाकार का पैशन उससे रचना करवा रहा होता है या, संरचना भी बिना पैशन के संभव नहीं। हां, वहां उसका पैशन भविष्य की जुगत, मसलन प्रकाशन से लेकर पुरस्कारों तक पहुंचने की कवायद को संरचना में आकार दे रहा होता है। पाठक का पैशन उसे पढ़ने को मजबूर कर रहा होता है। अच्छी रचनाओं को तलाश लेने की कोशिश उसे न जाने किन-किन भाषाओं के साहित्य तक ले जाती है।
विजय गौड़
अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।