Monday, May 23, 2016

ज़िद और बर्बादी


कविताएं पंखुरी सिन्हा

पंखुरी सिन्‍हा को मैं एक कहानीकार के रूप में जानता रहा। ज्ञानपीठ से उनका एक कहानी संग्रह आया था एवं पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियों को पढ़ना होता रहा। लेकिन यह जानना बिल्‍कुल आरम्भिक जानना था। अपनी कहानियों से पंखुरी ने उन्‍हें और जानने की उत्‍सुकता पैदा की है। उनके लिखे को पढ़ना हुआ। इस तरह उनका कवि रूप, उनके आलेख ओर सोसल साईटस एवं सचल भौतिक स्थितियों वाली गतिविधियों में उनकी उपस्थिति की सक्रियता से परिचय होता रहा। इस ब्‍लाग पर पहले भी उनकी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। वर्तमान राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों से निर्मित हो रहे सामाजिक परिदृश्यों को अपना विषय बनाती उनकी कुछ और कविताएं हाल ही में प्राप्‍त हुई। पंखुरी जी का आभार एवं स्‍वागत । कुछ कविताएं यहां प्रस्‍तुत हैं।  
वि.गौ.




सड़क ही घोटाला है


साल दर साल
बद से बदतर
होता रहा
इस प्रान्त, इस शहर का हाल
धांधलियां होती रहीं
यहाँ के बिजली घरों
ईटों की भट्टियों में
बल्कि बात ये की
धांधलियां होती रहीं
इतनी आधारभूत जगहों में
जैसे कि आटे, चावल, दाल की मिलों में
चूड़े को कूटने और बेचने वाली दुकान के ठीक सामने
जबकि और जगह धांधलियों की बातें
इन क्षेत्रों से निकलकर
बड़ी कंपनियों
विदेशी निवेशों
लागतों, साझों की बातों में उछाली जा रही थीं
पर यहाँ तो सड़क ही घोटाला है
जाने कब से
है ही नहीं
जापानी सहयोग से बन जाने के बाद भी नहीं
खँगाल जाती है
उसे हर साल बाढ़
नदी नहीं बाढ़
नदियाँ तो यहाँ शांत हैं
मैदानों में सम्भली, संभाली
समतल पर सड़क भी आसान है
रखना, बचाना
पर है ही नहीं
कहीं नज़र में
दूर दूर तक जापानी निर्देशन में बनी सड़क भी......................
  

इस बार की भारत पाक वार्ता

 
औरों के आस पास भी होते होंगे
ऐसे पहरे
तुम सोचो, समझो
और मत करो बयान
उस पहरे का हाल
इन दिनों जब कभी
पहरे की बात होती है
बात चीन के वाच टावर्स की होने लगती है
इन दिनों जब कभी बात
पड़ोसी के हस्तक्षेप की होती है
बात पाकिस्तान की होने लगती है
पाकिस्तान जैसे प्रतीक है
हस्तक्षेप का
वैसे पाकिस्तान के समर्थक
जाने किन बातों का
प्रतीक हैं
जाने किन मनसूबों के लोग हैं वो
किन मांगो के भी
कौन मित्र हैं उनके
और क्या है आज़ादी के माने
इस बार जब सरकार ने धरा
फिर छोड़ा
फिर धरा अलगाववादियों को
क्या लगा कि वह भी कोई
समाधान नहीं निकालना चाहती
बस वो कश्मीर जो
अधिकृत है
वैसे रह जाएगा
इतिहास के पन्नो में क्या?

 ज़िद और बर्बादी


जो बात राज़ी ख़ुशी
अपने आप
मुस्कुराहटों के साथ हो रही हो
उसे लगभग रद्द कर
तय की हुई दूरी से
बातों को वापस लौटाकर
जिन रास्तों पर हँसते हुए
चलते आये
लगभग उनपर आँसू समेत चलवाकर
उसी मंज़िल पर पहुँचना, पहुँचाना
कितनी और कैसी बर्बादी है
शक्ति, समय, सामर्थ्य और भावनाओं की भी...........

Sunday, May 22, 2016

यह है राग भोपाल




दुश्‍मनों से लगातार लड़ते रहने वाले और लड़ते-लड़ते ही शहीद हो जाने वाले कवि पाश की कविता का सूत्र वाक्‍य, '' बीच का रास्‍ता नहीं होता'' , आज यकायक याद आया और याद आयी कवि सिद्धेश्‍वर की वह कविता जिसमें पाश की सिखावन के बावजूद बीच के रास्‍ते को पूरी तरह से अस्‍वीकार न करना अभिष्‍ट है। कविता अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित सिद्धेश्‍वर के काव्‍य संग्रह ''कर्मनाशा'' में है। संग्रह 2012 में प्रकाशित हुआ था और तब से ही मेरे पास है। उसी आधार पर कह सकता हूं कि उस वक्‍त सिद्धेश्‍वर की कविता के उस पाठ को पकड़ नहीं पाया था जिसमें एक सचेत कवि आखिर क्‍यों उस बीच के रास्‍ते की कामना कर रहा था या, उसको भी एक सहारा मान रहा था जिसका कि पाश पूरी तरह से निषेध करने की सलाह दे गये। पाश ने जिन अर्थों में बीच के रास्‍ते का निषेध किया वह स्थितियां स्‍पष्‍ट हैं कि एक तरफ आवाम के दुश्‍मनों का रैला है और दूसरी ओर उन आक्रमक कार्रवाइयों की मुखालफत के स्‍वर होते स्‍वरों की एकजुटता की कामना है। इन दोनों के बीच एक गली है जो अपने दोनों छोरों से करीबी बनाते हुए चलने में ही अपनी राह बनाती चलती है। सिद्धेश्‍वर, बेशक उस बीच के रास्‍ते पर होते हुए संघर्षरत छोर के साथ चलने वाली रचनाधर्मिता के कवि है और उसके बचे रहने को हमलावरों के परास्‍त होते जाने में ही सुरक्षित मानते हैं। अफसोस, कि उनकी इस चाहना के बावजूद भी जमाना हमलावारों की षडयंत्रकारी जीत की ओर है। सिद्धेश्‍वर की यह कविता और संग्रह की अन्‍य कविताएं भी उसी त्रासदी को दर्ज करते हुए ऐसा ऐतिहासिक दस्‍तावेज होती गयीं हैं, जिसकी भविष्‍यवाणी कथाकार योगेन्‍द्र आहूजा ने भी कहानी मर्सिया में कर दी थी- यह वर्ष 2012 है, हिन्‍दू साहित्‍य का समय। जिसके आचार्य कहते हैं कि.......(मर्सिया योगेन्‍द्र के संग्रह अंधेरे में हंसी को पलटते हुए पढ़ी जा सकती है, या पहल के किसी पुराने अंक में जब 2004 में पहली बार प्रकाशित हुई थी।)। पाश को याद करते हुए सिद्धेश्‍वर खुद ही चौंक जाते हैं और पाते हैं कि स्थितियां तो बीच के रास्‍ते वाली भी नहीं बची हैं। हमलावर पूरी तरह से वातावरण में छा चुके हैं।       

नहीं थी/ कहीं थी ही नहीं बीच की राह
            खोजता रहा/ होता रहा तबाह।
जब तक याद आते पाश
            सब कुछ हो चुका था/बकवास।
अवचेतन में वास करती जा रही बकवास हो गई इन स्थितियों की शिनाख्‍त सिद्धेश्‍वर की कविता में बार बार हुई है। जमाने को लगातार अपने रंग में रंगने वाले हमलावारों की हर धीमी से धीमी पदचाप को अन्‍य कविताओं में भी सुना जा सकता है। अपने आसपास के जनसमाज और प्रकृति में मौजूद बिम्‍बों के मार्फत सिद्धेश्‍वर उसे बयां करने की कोशिश करते रहते हैं।
नदी की /उदासी का हाल/बताएंगी मछलियां
मछलियों की उदासी/ प्रतिबिम्बित होगी जल मे जाल में।
एक ओर चित्र,
यहां सब कुछ शुभ्र है/ सब कुछ धवल है
बीच में बह रही है/ सड़कनुमा एक काली लकीर।

एक और कविता, जिसका संबंध बेशक किसी राग भोपाली से हो या न हो पर उस राग भोपाल को जिसमें याद किया गया है, जिसका क्रंदन नथुनों के रास्‍ते आज भीतर उतरता है और मृत्‍यु-गंध का उच्‍छवास हो जाता है। अफसोस की जालिम जमाना और उसके रहनुमा बने राग भोपालियों के सिपहसलार उस राग भोपाल के पूरी दुनिया में गाते फिर रहे हैं और तमाम जनभूमि को मरघट बनाने देने वाले हालातों से भी विचलित नहीं हो रहे हैं।  

दिलचस्‍प है यह देखना कि लगातार की विपरीत स्थितियों में बीच के उस काले रास्‍ते के निषेध के विचार को सिद्धेश्‍वर आत्‍मसात करते जाते हैं और सब कुछ चौपट हो जाने वाली स्थितियों में भी निराशा की बजाय उम्‍मीदों की बची हुई तस्‍वीरों को देख और रख पाते हैं,
                                    घास पर/ ठहरी हुई ओंस की एक बूंद
                                    इसी बूंद से बचा है/ जंगल का हरापन
                                    और समुद्र की समूची आर्द्रता।

Wednesday, May 18, 2016

व्‍यक्तिगत पहल की सामूहिक गतिविधियां




7-8 मई 2016 को कुशीनगर में जोगिया जनूबी पट्टी में संपन्‍न हुआ लोक उत्‍सव इस बात की बानगी है कि लोक नाट्य, लोकगीत, जनगीत और समाज, साहित्‍य, संस्‍कृति के साथ साथ अभिव्‍यक्ति की आजादी की बातें कैसे गांव वालों की बतकही का हिस्‍सा बनायी जा सकती है। आनंद स्‍वरूपा वर्मा, रविभूषण, मदनमोहन सरीखे हिन्‍दी के बुद्धिजीवि, आलोचक, रचनाकारों के साथ साथ देश भर के भिन्‍न भिन्‍न भागेां से आये लोक कलाकारों का सामूहिक जमावड़ा दो दिनों तक वहां लोक को समझने ओर समृद्ध करने की उस औपचारिक कार्यवाही का हिस्‍सेदार रहा जो पिछले नौ वर्षों से जोगिया जनूबी पट्टी की हलचल बना हुआ है। कुशीनगर का यह लोक उत्‍सव जनभागीदारी की एक सहज और स्‍वाभाविक गतिविधि के रूप में जाना जाने लगा है। इस बार का कार्यक्रम हिन्‍दी के जन कवि विद्रोही जी को समर्पित था, और उस मूल विचार के अनुकूल था जिसका लक्ष्‍य मानवता के दुश्‍मनों को पहचानने और उनसे टकराने के लिए जनसमूहों के बीच व्‍यापक एकता के सूत्र बनाते रहने में यकीन रखने वाला होता है।
कुशीनगर में हर वर्ष आयोजित होने वाला यह लोक उत्‍सव पूर्वांचल की उस हवा का का एक कतरा कहा जा सकता है, जिसका लगातार बहाव पिछले कुछ वर्षों से इस भूगोल में मौजूद है। हिन्‍दी भाषा का विशाल क्षेत्र, जिसे अक्‍सर हिन्‍दी पट्टी कह दिया जाता है, पश्चिम में राजस्‍थान से लेकर पूरब में बिहार, झारखण्‍ड तक एवं उत्‍तर में उत्‍तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र के राज्‍य हिमाचल और उत्‍तराखण्‍ड से लेकर मध्‍यभारत तक फैला हुआ है। विविध सांस्‍कृतिक विशिष्टिताओं वाले जनसमाजों के बावजूद इस पूरे भू भाग में संयुक्‍त रूप से होने वाली किसी भी सांस्‍कृतिक गतिविधि की कोई बड़ी गूंज सुनायी नहीं देती है। इसे सांस्‍कृतिक शून्‍यता तो इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया का जो कुछ भी है वह ज्‍यादतर इन जगहों से ही आता है। तो भी एक प्रकार से यहां  के माहौल सांस्‍कृतिक जड़ता की व्‍याप्ति तो दिखायी देता ही है। कारणों को खोजे राजनैतिक, सामाजिक आंदोलन का आभाव मूल वजह के रूप में दिखता है। जिसकी वजह से रचनात्‍मक लोगों के बीच भी एकजुटता बनने का कोई रास्‍ता बनता हुआ नहीं दिखता है।

लेकिन यह उल्‍लेखनीय है कि पिछले पच्‍चीस तीस सालों में पूर्वांचल यह भूभाग बीच बीच में कुछ ऐसी गतिविधियां का हिस्‍सा रहा जिनका उद्देश्‍य चारों ओर फैली हुई सांस्‍कृतिक जड़ता को तोड़ना रहा। एक समय में गोरखपुर एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में पैदा हुआ जनचेतना का आंदोलन जो राहुल फाउण्‍डेशन की शक्‍ल लेता हुआ बाद में लखनऊ तक विस्‍तार किया। लगभग उसी दौर के आस पास आजमगढ़ के जोकहरा गांव में स्‍थापित हुआ श्री रामानान्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय। लगभग पिछले दस वर्षों से जारी प्रतिरोध का सिनेमा कार्यक्रम जो अन्‍य नगरों तक विस्‍तार लेता हुआ है।  
जनचेतना एवं राहुल फाउण्‍डेशन और प्रतिरोध का सिनेमा जैसे कायर्क्रमों का चरित्र जहां आरम्‍भ से सांग‍ठनिक गतिविधियों का हिस्‍सा रहा, वहीं कुशीनगर का लोक उत्‍सव और जोकहरा गांव का श्री रामानन्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय अपनी अपनी में हिन्‍दी के दो लेखकों की स्‍वतंत्र-स्‍वतंत्र परिकलपानायें कही जा सकती हैं। गांव के हालातों पर अपने पैनी निगाह रखने वाले हिन्‍दी के महत्‍वपूर्ण कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाह ने अपने गृहगांव जोगिया जबूनी पट्टी में लोकरंग उत्‍सव की शुरूआत की तो कथाकार विभूति नारायण राय ने अपने पैतृक गांव जोकहरा के विकास को अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी मानते हुए पुस्‍तकालय की नींव रखी। विकास नारायण राय सरीखे प्रखर रचनाकारों का भी रचनात्‍मक सहयोग पुस्‍तकालय को मिलता रहा।

दिलचस्‍प है कि दो दिनों के लोक उत्‍सव का रंग पूरे गांव में साल भर तक बनी रहने वाली उस अमिट छाप के रूप में मौजूद रहता है जो प्रत्‍यक्ष तौर पर रंगों में उभरती आकृति होती हैं, लेकिन अप्रत्‍यक्ष तौर पर जिसके अक्‍श गांव के नौनिहालों के बचपन को एक बेहतर नागरिक बनाने वाले प्रभावों में दर्ज होते जा रहे हैं। ठीक इसी तर्ज पर पर 1993 में आजमगढ़ के जोकहरा गांव में की गयी पुस्‍तक संस्‍कृति के विकास की पहल आज ऐसे पुस्‍तकालय के रूप में है जिसके कामों का दायरा महिला हिंसा और जाति हिंसा सवालों के प्रति नागरिक चेतना के विकास में गांव भर के लोगों से रोज का संवाद होना भी हुआ है।  पुस्‍तकालय अपनी एक ऐसी बिल्डिंग के साथ खड़ा है जिसमें हिन्‍दी की तमाम लघु पत्रिकाओं के अनुपलब्‍ध अंक सुरक्षित रखे हैं। लघु पत्रिकाओं का ऐसा संग्रह मेरे जानकारी में तो देश के किसी अन्‍य पुस्‍तकालय में नहीं है। इस लिहाज से देखें तो शोधार्थियों के लिए यह एक महतवपूर्ण पुस्‍तकालय है जहां तथ्‍य की उपलब्‍धता संपादित होकर प्राकाशित हो चुकी पुस्‍तकों की बजाय समय काल की जीवन्‍त बहसों के रूप में है। हंस, कथादेश, सारिका ही नहीं, पहल, कल्‍पना, पूर्वग्रह, कहानी, कहानीकार, अणिमा आदि बहुत सी विलुप्‍त हो चुकी पत्रिकाएं भी यहां सुरक्षित ही नहीं है, अपितु जिनकी व्‍यवस्‍था के लिए नियमितता का तंत्र मौजूद है। पुस्‍तकालय की सेवाओं को प्राप्‍त करने के लिए आने जाने वाले अध्‍येताओं और अतिथियों की आवास और भोजन सुविधा को भी यहां अपने सीमित साधनों में निपटा लिया जाता है।
व्‍यक्तिगत प्रयासों से शुरू होने वाली ये दोनों ही गतिविधियां लगातार सामूहिकता की ओर बढ़ती हुई हैं जिनके असर में आयोजन स्‍थलों के आस पास का भूगोल आंदोलित होता हुआ है और सामाजिक माहौल को परिमार्जित, परिष्‍कृत करता हुआ है।