Tuesday, June 22, 2010

प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही "बारी" व्यवस्था

पहाड़ हो चाहे मैंदान, मरूस्थल हो चाहे समुद्री किनारा- जल, जंगल, जमीन से बेदखल किए जाते स्थानीय निवासियों पर चलने वाले डण्डे की मार एक जैसी ही है। हरे चारागाहों के शिकारी पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन जैसे तर्कों से लदी भाषा के साथ न सिर्फ कानूनी रूप से बलपूर्वक, बल्कि जनसंचार के माध्यमों के द्वारा विभ्रम फैलाकार सामाजिक रुप से भी, खुद को दुनिया को खैरख्वाह और स्थानीय निवासियों को उसका दुश्मन करार देने की कोशिश में जुटे हैं। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से लाता गांव में उत्तर चिपको आंदोलन के बाद शुरु हुए  छीनों-झपटो आंदोलन के प्रणेता धन सिंह राणा का यह खुला पत्र जिसका संपादन डॉ सुनील कैंथोला ने किया है, ऐसे ही सवालों से टकराता हुआ कुछ प्रश्न खड़े कर रहा है। पत्र मेल द्वारा भाई सुनील कैंथोला के मार्फत पहुंचा है जिसको एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहां पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।    


असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

सेवा में,
प्रो.सत्या कुमार
भारतीय वन्य जीव संस्थान
देहरादून, भारत

आदरणीय साहब,
आशा है कि आप स्वस्थ और राजी खुशी होंगे और आपका रिसर्च करने का धंधा भी ठीक-ठाक चल रहा
होगा। हम भी यहां गांव में ठीक-ठाक हैं। ऐसा कब तक चलेगा, ये तो ऊपर वाला ही जानता है लेकिन हमारा अभी तक भी बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंकि गांव में सड़क से ऊपर पर्यावरण संरक्षण का शिकंजा है और सड़क से नीचे बन रहे डाम का डंडा हम सब पर बजना शुरू हो चुका है। यहां पिछले कई वर्षों से हम आपका बड़ी बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं। हमें लगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण का इतना बड़ा पुजारी है कि जिसके शोध के हिसाब से हमारी भेड़-बकरी के खुर पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो नंदा अष्टमी के अवसर पर नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में सदियों से चली आ रही दुबड़ी देवी की पूजा तक को बंद करवाकर इस आजाद देश में धार्मिक स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकार तक छीन ले, वह महान वैज्ञानिक हमारे गांव की तलहटी पर बन रहे डाम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर अवश्य चिंतित होगा और अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर बांध का निर्माण चुटकी बजाते ही रुकवा देगा। अब हमें लगने लगा है कि हो न हो दाल में जरूर कहीं कुछ काला है। अत: इस शंका के निवारण के लिए ही गांव के बड़े बुजुर्गों की सहमति से यह पत्र आपको लिख रहा हूं।
आदरणीय साहब,
आप तो हिमालय के चप्पे-चप्पे में घूमे हैं। आपकी शिव के त्रिनेत्र समान कलम ने हिमालय में निवास करने
वाले लाखों परिवारों की आजीविका और संस्कृति का संहार किया है। पूरे विश्व का बि(क समाज आपके इस
पराक्रम के आगे नत मस्तक है। ऐसे में हे! मनुष्य जाति के सर्वश्रेष्ठ संस्करण, आपकी ही कलम से ध्वस्त हुआ
मैं, धन सिंह राणा और उसका समुदाय, आपको, आपके जीवन के उन गौरवशाली क्षणों की याद दिलाना चाहते हैं, जब आपने हमारा आखेट किया था।

हे ज्ञान के प्रकाश पुंज,

नाचीज, ग्राम लाता का एक तुच्छ जीव है, जो पिछले जन्मों के पापों के कारण मनुष्य योनि में पैदा हुआ। मेरा
गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी में स्थित है। यह इलाका भारत में पड़ता है और पूरे विश्व में नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यदि मेरी स्मृति सही है, तो हमारी भूमि पर आपके कमल रूपी चरण पहली बार संभवत: 1993 में पड़े थे। आप भारतीय सेना के एक अभियान दल के साथ नंदादेवी कोर जोन के भ्रमण पर आए थे, जिसमें सेना के सिपाहियों ने नंदा देवी कोर जोन से कचरा साफ किया था। आपसे दिल की बात कहना चाहता हूं, जिसे आप लोग कचरा कह रहे थे, उसमें अनेक चीजें ऐसी थी कि जिन्हें देखकर हमारी लार टपक रही थी। मुझे याद है कि जब अपने गांव से हम लोग पोर्टर बनकर नंदादेवी बेस कैंप जाते थे, तब महिलाओं का एक ही आग्रह होता था कि बेस कैंप से दो-चार खाली टिन के डिब्बे लाना मत भूलना। टिन के ये खाली डिब्बे हमारे नित्य जीवन में बड़ी सक्रिय भूमिका निभाया करते थे। अभियान दल की वापसी पर आप लोगों द्वारा ग्राम रैंणी के पुल पर एक मीटिंग का भी आयोजन किया था, जिसमें आपने फौज द्वारा लाए गए कचरे को हमारे सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया था, जैसे कि वह हमारे द्वारा प्रकृति के साथ किए गए अपराध का ठोस सबूत हो।

हे! पर्यावरण के अखंड तपस्वी,

यही वह अवसर था, जब आपके साक्षात् दर्शन हुए थे। मैं अबोध और गंवार आपके हृदय में हिलोरे लेते प्रकृति प्रेम के सागर और उसमें पनप रहे उस तूफान से तब पूर्णत: अनभिज्ञ था, जो हमें समूचा लील जाने को अधीर था। इस नाचीज ने तब आपसे यह प्रश्न करने का साहस किया था कि इस कचरे का असली जिम्मेदार कौन
है? और आपने कहा था- इंसान। वह बड़ी अजीब स्थिति थी। एक तरफ मैं अपने समुदाय को इस अपराध से परे
रखने का तर्क रखना चाहता था और दूसरी तरफ, मां कसम, आपको चूम लेने की इच्छा भी हो रही थी। आपने
एक ही झटके में अमीर-गरीब, गोरा-काला, पोर्टर-मैंबर की सारी दीवारें गिरा दी थी और हमें भी इंसानों की श्रेणी में शामिल कर दिया था।

हे अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाले विधियात्मा,

वर्ष 2003 में आपके द्वारा नंदादेवी बेस कैंप यात्रा का स्मरण करने की अनुमति चाहता हूं। संदेश मिला कि
प्रोफेसर सत्या कुमार साहब के साथ गए फौज के दस्ते का वायरलैस ऑपरेटर कोर जोन से लौटते समय बीमार
पड़ गया है। जैसे कि हमारे गांव की परंपरा रही है, सूचना मिलते ही मैं व अन्य ग्रामीण मदद पहुंचाने के उद्देश्य से तुरंत दुब्बल घाटी रवाना हो गए। आपके दल से मिलने पर पाया कि मरीज की जान खतरे में है और खराब मौसम के कारण हैलीकॉप्टर का उतरना असंभव है। आपको याद होगा कि दुब्बल घाटी से पोर्टर आप लोगों का सामान लेकर लाता खर्क निकल गए थे और उस भीषण वर्षा में थोड़े से राशन और तिरपाल की सहायता से मैंने भी आपके साथ दो रातें मात्र उस वायरलेस ऑपरेटर की जान की रक्षा के लालच में गुजारी थी। प्रोफेसर सत्या कुमार साहब थोड़ा और याद करेंगे तो आपको यह भी ध्यान आ जाएगा कि ये दो दिन और रात हम लोगों ने आस-पास की घास-पत्ती उबालकर और सूखी लकड़ियों को जलाकर बिताई थी। गांव लौटने पर जब इस घटना का जिक्र मैंने आपके साथ गए पोर्टरों से किया, तो वे आपको बुरा-भला कहने लगे। उनका कहना था कि ये आदमी पाखंडी है। बेस कैंप की यात्रा के दौरान बोझा ढोने वाला कोई पोर्टर यदि घास को पकड़कर सहारा लेने की कोशिश करता था, तो ये साहब जोर से चिल्लाने लगता था। जब तक इसके पास तंबू था, तो खराब मौसम में भी पत्थरों की आड़ में रात बिताने वाले पोर्टरों को आग जलाने की अनुमति न थी और जब अपनी जान पर बन आई तो सारे नियम-धर्म ताक पर रख दिए। बहरहाल! मैंने गांव वालों को यह कहकर शांत कर दिया था कि वे बड़े विद्वान पुरुष हैं। उन्हें परमात्मा ने वन्य जीवों के रक्षार्थ भेजा है। अत: मानवीय संवेदनाएं व सरोकार उनकी समझ के परे हैं।

हे संरक्षित क्षेत्रों के इष्ट गुरू!

मनुष्य होते हुए भी पशुवत् जीवन जीने वाला यह तुच्छ प्राणी क्या आपकी करूणा का पात्र नहीं है? हमारे पुराणों में रावण का उल्लेख है, जिसे दशानन अर्थात् दस सिर वाला भी बोलते थे। अपनी गंवार जड़ बुद्धि से मुझे
लगता है कि रावण के दस सिर जरूर दस किस्म की बात करते रहे होंगे। ऐसा ही उसकी दृष्टि के साथ भी रहा होगा।

हे! जैव विविधता के आराध्य देव,

क्या आपको कभी ऐसा प्रतीत हुआ है कि आप भी दशानन के एक मुख का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्योंकि जो आप कहते और देखते हैं, वह आपके शरीर के दूसरे सिर को दिखाई नहीं देता! वन्य जीव संस्थान के रूप में
आप भी सरकार हैं और टी.एच.डी.सी.व एन.टी.पी.सी।
भी सरकार हैं। यह कैसा प्रभु का मायाजाल है कि आपके ज्ञान चक्षुओं से जहां जैव विविधता का भंडार है, जो ग्रामीणों के हगने-मूतने से भी नष्ट हो सकता है। उसी क्षेत्र में डाम विशेषज्ञों को कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती और आप दोनों के ही सिर उस शरीर से जुड़े हैं, जिसे हम आदिवासी, 'सरकार’ कहते हैं। यह खेल गज़ब है। वन विभाग माणा से मिलम गांव तक बायोस्फेयर के नाम पर प्रतिबंध लगाता है और बांध के विशेषज्ञ नीति घाटी को नंदादेवी पार्क से बाहर बताते हैं। हमारे लिए इसका एक ही मतलब है यानि जो आपकी कलम का शिकार होने से बच गया, उसके लिए बांध के बुलडोजर की व्यवस्था है।

हे दुर्निग्रहम! अर्थात कठिनता से वश में होने वाले,

इस जगत में कीट-पतंगों से लेकर घास, कुशा और फूल-पत्तियों का भी अपना अस्तित्व है। ये सब एक-दूसरे
से जुड़े हैं। जैसे- हमारे घरों में होने वाली मधुमक्खियों का अस्तित्व मात्र मधु उत्पन्न करने के लिए नहीं, बल्कि फूलों के परागकणों की अदला-बदली के लिए भी था। मधुमक्खियां थीं, तो फूलों के प्रजनन की गारंटी थी। जैसे- फूल मधुमक्खियों के जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त। मधुमक्ख्यां इसलिए थी, क्योंकि उन्हें हमारे घर में आश्रय मिलता था। यह आश्रय इसलिए मिलता था, क्योंकि हमें उनसे मधु मिलता था। अब न मुमक्खी है, न मधु। कदाचित आपका ध्यान इस ओर नहीं भी जाएगा, परंतु हे विद्या के मंदिर के गर्भगृह! हमारे समुदाय से मधुमक्खी की प्रजाति के नाश का आपकी जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इस पर आप जैसे विद्वान की दृष्टि का न जाना सुनियोजित लगता है।

हे जैव विविधता के सचिन तेंदुलकर!

यह कैसा विरोधाभास है कि आप कंक्रीट की इमारत में रहकर भी प्रकृति की इबादत करते हैं और हम प्रकृति
के बीच रहकर भी उसके दुष्मन हैं। हमारे और आपके कार्बन उत्सर्जन में भले ही विराट असामानता हो, पर
प्रकृति की रक्षा का जिम्मा हमेशा आपकी ही बिरादरी का रहेगा। अंग्रेजों के जमाने से ही हमारे जंगलों का शोषण होता आ रहा है। ये अब जंगल भी कहां रहे। ये तो आप लोगों के खेत हैं। जिसमें आप अपनी आवश्यकता के हिसाब से पेड़ बोते हैं। हमारी जरूरतें और हमारे जंगलों में रहने वाले वन्य प्राणियों की जरूरतें आपकी जरूरतों से भिन्न हैं। मान्यवर, जंगलों में अब वन्य प्राणियों के लिए आहार बचा ही कहां है? भूख से बैचेन वन्य प्राणी जंगलों से बाहर आ रहे हैं और गांवों, बस्तियों व खेतों पर आफत ढा रहे हैं। इसमें भोले-भाले इंसान भी मर रहे हैं और बेजुबान वन्य जीव भी। इस सब के लिए कोई दोषी है, तो आप और आपकी बिरादरी द्वारा की जा रही शोध और उससे उपजा वन प्रबंधन।
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यशालाओं में गरजने वाले ओ मिट्टी के शेर, हमारे यहां एक कहावत है कि- जो सो रहा हो, उसे जगाया जा सकता है। पर जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे जगाना नामुमकिन है। चूंकि आप हमारे नीति नियंता हैं, तो यह पूछने का अधिकार तो हमारा बनता ही है कि मान्यवर क्या आप सो रहे हैं या फिर सोने का नाटक कर रहे हैं। प्रकृति हो या समाज, उस पर आधिपत्य जमाने की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति खत्म कहां हुई है? अंगुलि बंदूक के घोड़े पर हो या फिर अंगुलियों के बीच फंसी कलम को ही बंदूक बना दिया गया हो। निशाना लगने के बाद अनुभूति तो शिकारी की ही होती है न प्रोफेसर सत्या कुमार साहब! आज मेरा गांव जोशीमठ के बाजार के बिना जिंदा नहीं रह सकता। सदियों से किसानी करने वाला अब खेत के कम और बाजार के ज्यादा चक्कर काटता है। हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा? आदरणीय प्रोफेसर साहब! अपने अभिजात्य वर्ग के लालन-पालन के कारण यदि आप इस कौशल को सीखने से वंचित रह गए हैं, तो गांव लाता का कोई भी बच्चा आप लोगों को यह बिना कंस्लटैंसी या मानदेय के सिखाने को तैयार है।
हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा?

परम आदरणीय साहब,

हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं और साथ ही उस अलौकिक सत्ता में भी जिसने बिना किसी परियोजना अथवा विश्व बैंक की सहायता से इस जंगल का निर्माण किया। जब हम पर विपत्तियां आती हैं, तो हम दोनों के ही दरवाजे खटखटाते हैं, लोकतंत्र के भी और उस परम सत्ता के भी जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया। इस मामले में तो मैं आपको कतई बदकिस्मत ही कहूंगा कि आप नंदादेवी विश्व धरोहर की जैव विविधता को समझने तो आए, पर हमारे क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने व आत्मसात करने से वंचित रह गए। अपने पूर्वाग्रहों के कारण आपने स्वयं अपनी ज्ञानप्राप्ति के वह दरवाजे बंद कर दिए, जो आपको एक स्वावलंबी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के उसके प्राकृतिक वातावरण के साथ सदियों से स्थापित सतत सहजीवी संबंधों को समझने की दिशा प्रदान करते। आपके अधूरे शोधों ने लोकतंत्र के कानों को बंद और उसके दिमाग को दूषित कर दिया है। पर ऐसा करते हुए स्वयं आपके दूषित मंतव्य भी जग जाहिर हो गए हैं।
पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है!
क्योंकि बांधों से प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों की लड़ाई में आप नदारद हैं। हमारे लोगों का यह भी मानना है कि संभवत: अपनी रोजी-रोटी और नौकरी के चलते आप दिल से चाहकर भी यह कदम उठा ना पा रहे हों। हमारे यहां प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही 'बारी" व्यवस्था है। इसके अंतर्गत हम आपकी व्यवस्था करने को प्रतिबद्ध रहेंगे। यदि आप यथोनाम तथो गुण को चरितार्थ करने का साहस करें। जाहिर है कि आप और आपकी कथित वैज्ञानिक बिरादरी के पास अपने तर्क होंगे, जिसमें अपनी नौकरी को बचाने और बाल-बच्चे पालने के भी सरोकार होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है। पर आपके जूठे बर्तनों को धोने और नित्य फर्श पर पोचा लगाने जो आती है, उसके अस्तित्व को आप अपने पारिस्थितिकीय के समग्र ज्ञान में कहां रखते हैं प्रोफेसर साहब? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक लाखों आदिवासी परिवारों को कहीं संरक्षण तो कहीं बांध अथवा खान के नाम पर बेदखल किया गया है, जो आप जैसे साहब लोगों के लिए सस्ती मजदूरी से लेकर मानवीय अंगों और विकृत मनोरंजन का मुख्य स्रोत बन जाते हैं। पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है! हमारे लोकगीतों में सृष्टि की रचना के गीत हैं, जिसमें निरंकार का भी जिक्र है और अहंकार का भी। आपके पास भी अपने ज्ञान का अहंकार है पर आपका ज्ञान अधूरा है और आपका अहंकार प्रकृति के अहंकार के सामने बौना है। इन्हीं रहस्यमयी रास्तों से हमारी व्यथा भी उस तक पहुंचती है, जिसके समग्र नियमों को समझने में आप
असफल रहे हैं। उसी के मायावी संसार में "हाय" अथवा "असकार" भी एक शब्द है, बल्कि पूरी व्यवस्था है। हम
मानते हैं कि यह अत्याचारियों और आतताईयों को सबक सिखाती है। यह हमारे हाथ के बाहर की बात है पर हमारा करुण रुदन और विलाप इसके कारण हो सकते हैं। फिर भी हम इतने घटिया या तुच्छ नहीं कि किसी
के अनिष्ट के बारे में सोचें। पर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि हमारे साथ हुए अन्याय का 'असकार" जगत के
उन्हीं अनबूझे नियमों के तहत एक स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया है। शांत मन से, बिना किसी पूर्वाग्रह के आंखों को बंद करके सोचेंगे तो इसी नतीजे के इर्द-गिर्द पहुंचेंगे कि जिस रास्ते से आप अपने संरक्षण के विषय को ले जाना चाहते हैं, वह वहां नहीं ले जाता, जहां उसे ले जाना चाहिए था। इसके बाद आईने में अपनी आंखों से आंखें ईमानदारी से मिलाएंगे तो आपको स्वत: यह अहसास हो जाएगा कि अब तक का जीवन व्यर्थ गया। यही "असकार" है, पर यह अंत नहीं! पश्चाताप करने का कोई समय या आयु सीमा नहीं होती।
बाकी फिर कभी
लाता से धन सिंह और उसके ग्रामवासी


धन सिंह राणा द्वारा लिखित एवं डॉ. सुनील कैंथोला
द्वारा संपादित-
खुला पत्र


भेड़ चरवाहे

ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं
चरवाहे रहते हैं
भेड़ों में डूबी उनकी आत्मायें

खतरनाक ढलानों पर
घास चुगती हैं

पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर
रक्त बनकर दौड़ता है

उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी
भोंथरा कर देती है

ढंगारों से गिरते पत्थर या,
तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को

ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें

वे चाहें तो
किसी भी ऊंचाई तक
ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह
बुग्याल ही हैं
ये भी जाने हैं

ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो
तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी
बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक

भेड़ों के बदन पर
चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का
खेल खेलते हुए भी
रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर
कब्जा करती व्यवस्था जारी है,

ये जानते हुए भी कि
रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लोग
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये
रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती
घास है
और है फूलों का जंगल

बदलते हुए समय में
नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने
छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी
कम पड़ जाएंगे

भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें

उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सुनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में
पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने
अपने खुरों से की है


-विजय गौड़     

Thursday, June 17, 2010

जिक्र जिसका होना ही चाहिए

क्या सोचने लगे  कथाकार सुरेश उनियाल का हाल ही में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं। पिछले दिनों इसी संग्रह से एक कहानी किताब का जिक्र यहां किया गया था, जिस पर इस ब्लाग के पाठकों की प्रतिक्रिया जो टिप्पणी और  फ़ोन द्वारा मिली उसमें कहानी को पढ़्ने की इच्छा ज्यादातर ने जाहिर की। पाठकों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए कहानी प्रस्तुत की जा रही है। 
 
किताब

गलती मुझसे ही हो गई थी, यह स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है। इनसान हूं और इनसान होता ही गलती का पुतला है।
किताब की खोज मेरी गलती नहीं थी। गलती यह थी कि अपनी खोज के पूरी होने से पहले ही मैंने इसके बारे में अपने दोस्त अनंतपाणि को बता दिया था। अनंतपाणि ठहरा व्यावसायिक बुद्धि। वह तो मेरी इस खोज में अपने लिए रुपए की खान देख रहा था।
मैंने उसे बताने की भरसक कोशिश की कि अभी किताब की खोज शुरुआती अवस्था में है। इसे पूरा होने में समय लगेगा। मैं अभी किताब के भीतर जाने का रास्ता ही बना सका हूं, बाहर निकलने का नहीं। इस बात की संभावना तो जरूर थी कि भीतर गया आदमी अपने लिए रास्ता बना सकता था और सुरक्षित बाहर आ सकता था लेकिन इस सबकी प्रोग्रामिंग मैं अभी कर नहीं पाया था। मेरे हाथ में तो इतना था कि मैं किसी आदमी को किताब के अंदर भेज सकूं और अंदर की किताब की दुनिया में उसे छोड़ दूं।
यह सब कुछ वैसा ही था जैसे महाभारत में अभिमन्यु वाले किस्से में होता है कि उसे चक्रव्यूह में जाने का रास्ता तो पता था लेकिन बाहर आने का तरीका पता नहीं था। यहां फर्क इतना है कि अंदर गए आदमी को जान का कोई खतरा नहीं था। कम से कम किसी बाहरी हमले का उसे डर नहीं था, कमजोर दिल का कोई आदमी वहां के थ्रिल को बर्दाश्त न कर सके और दिल के दौरे से मर जाए, यह बात अलग है।
मेरा डर था भी यही। मैं चाहता था कि मैं किताब की खोज पूरी कर लूं। आदमी किस तरह किताब के भीतर जाए, वहां किस तरह किताब का पूरा मजा ले और फिर किस तरह किताब से बाहर निकले, इसकी मैं पूरी प्रोग्रामिंग तैयार कर लेना चाहता था।
मैं ऐसी व्यवस्था रखना चाहता था कि कोई व्यक्ति अगर पूरी किताब से गुजरे बिना, किसी वजह से बीच में ही बाहर आना चाहे तो उसे बाहर निकाला जा सके। इस सबकी प्रोग्रामिंग मैं अभी तक नहीं कर पाया था।
माफी चाहूंगा, मैं अपनी धुन में यह सब कहे जा रहा हूं, बिना इस बात का खयाल किए कि आप मेरी बात समझ भी पा रहे हैं या नहीं। और आप समझेंगे भी कैसे। आप कैसे जानेंगे कि मैं किस किताब की बात कर रहा हूं। इक्कीसवीं सदी के इन आखिरी सालों में किताब का जिक्र ही आपको बेवकूफी लग रहा होगा।
    आपका सोचना गलत नहीं है। किताब जैसी चीज तो कोई सौ बरस पहले हुआ करती थी। वह कंप्यूटर क्रांति से पहले की चीज थी। कंप्यूटर क्रांति ने धीरे धीरे किताब को प्रचलन से बाहर कर दिया था। जो कुछ पहले किताबों में उपलब्ध था, वह अब कंप्यूटर की हार्ड डिस्क, सीडीज़ और डीवीडीज़ पर आ गया था। इंटरनेट पर भी हर घड़ी यह आपके लिए उपलब्ध था। पहले होता यह था कि किसी किताब की जरूरत है तो किताबों की दूकानों या लाइब्रेरियों की खाक छानते फिरो। कंप्यूटर और फिर इंटरनेट के आने के बाद दुनिया की कोई भी किताब आपके मॉनीटर के परदे पर आ सकती थी। जरूरी किताब है तो वह आपकी हार्ड डिस्क पर होगी ही वरना उसकी सीडी या फ्लॉपी आपके पास होगी। न हो तो इंटरनेट पर आप आसानी से उसकी तलाद्गा कर सकते थे। या फिर अपने किसी दोस्त से, जिसके पास वह किताब उपलब्ध हो, ई-मेल से मंगवाकर अपने सिस्टम में ले सकते थे।
    जाहिर है, किताब के रूप में किताब की उपयोगिता खत्म हो गई थी। दुनिया का सारा ज्ञान आपके कंप्यूटर के की-बोर्ड पर उंगलियां चलाने मात्र से, आपके मॉनीटर पर आ सकता था।
    इतना ही नहीं, दुनिया का सारा साहित्य वीडियो बुक्स के रूप में भी आ गया था। एनिमेशन की तकनीक इक्कीसवीं सदी के शुरू के दस-बीस सालों में ही इतनी विकसित और इतनी सस्ती हो गई थी कि उसके बाद का साहित्य शब्दों के बजाय वीडियो छवियों के द्वारा तैयार किया जाने लगा था। यानी सीधे विजुअल में ही बनने लगा था। धीरे-धीरे पुराना सारा साहित्य भी इसी तरह वीडियो बुक्स में आ गया था।
    इसमें कोई शक नहीं कि शब्दों में लिखे साहित्य की तुलना में दृश्यों में तैयार किया गया वीडियो साहित्य लोगों के लिए ज्यादा ग्राह्य था। उन्हें शब्दों के आधार पर कल्पना करने के बजाय सीधे दृश्य रूप देखने को मिल रहे थे।
    शाब्दिक पुस्तक से दृ्श्य पुस्तक की ओर ले जाने की यह प्रक्रिया बहुत सहज थी। फिल्म और टेलीविजन ने बहुत पहले से ही घटनाओं को दृश्य रूप में देखने की आदत लोगों में डाल दी थी ।
    जब किताब थी, तब लोगों को पढ़ने आदत ज्यादा नहीं थी। ज्यादातर काम हाथ से ही करने पड़ते थे। मशीनें भी धीमी रफ्तार की होती थीं इसलिए आदमी के पास किताबें पढ़ने की फुरसत ही कम होती थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आधे तक आते-आते ज्यादातर काम रोबो और कंप्यूटरों के हवाले कर दिए। तब इनसान के पास फुरसत ही फुरसत हो गई।
    इस फुरसत में वह मनोरंजन के लिए वीडियो पुस्तकों और वीडियो खेलों में व्यस्त हो गया।
    लेकिन वीडियो पुस्तकें एक सीमा तक ही आदमी को बहला सकती थीं। आखिर इस सबमें आदमी की अपनी भूमिका क्या है? वह दर्शक ही तो है न। अपने सामने चीजों को घटते देखता है। उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं कर सकता।
    वीडियो गेम में जरूर हिस्सेदारी होती थी। एक तरफ आदमी खुद होता था और दूसरी तरफ कंप्यूटर होता था। और खेल की बिसात होती थी। लेकिन यहां दित यह थी कि खेल की शुरुआत में कंप्यूटर भले ही बाजी मार ले जाता, लेकिन धीरे-धीरे आदमी की समझ में कंप्यूटर की चालें आने लगतीं और वह कंप्यूटर को मात देने लगता। यानी यहां भी आदमी बोर होने लगा। उसे कुछ नया चाहिए।
    इसे मैंने चुनौती के रूप में लिया और तय किया कि मैं कोई ऐसी चीज खोज निकालूंगा जो आदमी की इस बोरियत को दूर करे। अब मेरे सामने संकट यह था कि इस काम में समय पता नहीं कितना लगे। और तब तक मैं कुछ और कर नहीं सकूंगा। इस दौरान मेरी रोजी-रोटी का क्या होगा और जो खर्चा इस खोज पर होगा वह कहां से आएगा?
    इस संकट से मुझे उबारने के लिए मेरा व्यवसाई दोस्त अनंतपाणि आगे आया। उसने मुझे आश्वासन दिया कि जब तक मेरी यह खोज पूरी नहीं होती, तब तक के मेरे पूरे खर्चे वह उठएगा। द्गार्त सिर्फ यह होगी कि मेरी इस खोज पर उसका कॉपीराइट मेरे बराबर का ही होगा। इससे जो भी कमाई होगी, उसके आधे-आधे के हिस्सेदार हम दोनों होंगे। इस आशय का एक इकरारनामा भी हम दोनों ने तैयार कर लिया था। इसकी एक-एक प्रति हम दोनों के वकीलों के पास सुरक्षित रख दी गई। और मैं बेफिक्र होकर अपने काम पर जुट गया।
    सबसे पहला सवाल यह था कि खोज के लिए किस दि्शा में काम किया जाए। वीडियो खेलों और वीडियो पुस्तकों से लोग उब गए थे। तो अब ऐसा क्या हो जो इससे आगे की चीज हो?
    अचानक मेरे दिमाग में कौंधा कि क्यों न इन दोनों को मिला दिया जाए। वीडियो पुस्तक हो लेकिन आदमी सिर्फ उसका दर्शक या निर्माता न हो बल्कि वह स्वयं भी उसका एक पात्र हो। वह अपने सामने घटनाओं को सिर्फ घटता ही हुआ न देखे बल्कि वह खुद भी उन घटनाओं के बीच में हो। यह किसी नाटक या फिल्म में अभिनय करने जैसा भी न हो क्योंकि वहां तो सब कुछ तयशुदा होता है और तयशुदा चीजों में थ्रिल नहीं होता। बल्कि वह तो कहीं ज्यादा उबाऊ होता है।
    तो फिर यह सब कैसे किया जाए! आदमी उन स्थितियों के बीच में हो लेकिन फिर भी न हो। आदमी को लगे कि वह घटनाओं के बीच हिस्सेदारी कर रहा है लेकिन वह वास्तव में वैसा कुछ भी न कर रहा हो। जो कुछ हो, वह उसके महसूस करने के स्तर पर हो। और यह महसूस करना ऐसा भी हो कि आदमी को कहीं से यह न लगे कि वह वास्तव में उन स्थितियों के बीच में नहीं है। क्योंकि ऐसा लगते ही सारा थ्रिल, सारा मजा खत्म हो जाएगा।
    यानी मामला पूरी तरह मानसिक होना चाहिए।
    इस तरह का मानसिक वातावरण रचना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल काम नहीं था। टेलीपेथी का सिद्धांत तब तक आम हो चुका था। जब आदमी कुछ सोचता है तो उसके दिमाग से एक खास तरह की विद्युतचुंबकीय तरंगें निकलती हैं। हर आदमी के दिमाग में इस तरह की विद्युतचुंबकीय तरंगों का रिसीवर भी होता है। जब कभी रिसीवर की फ्रीक्वेंसी आने वाली विद्युतचुंबकीय तरंगों की फ्रीक्वेंसी के बराबर हो जाती है तो रिसीवर उन विचारों को पूरी तरह पढ़ लेता है।
    अब मेरा काम आसान हो गया था। मेरे काम का पहला हिस्सा यह था कि मैं एक ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार करूं जिससे किसी व्यक्ति के दिमाग के रिसीवर की फ्रीक्वेंसी पता की जा सके। दूसरे हिस्से में उसी फ्रीक्वेंसी पर विद्युतचुंबकीय तरंगें उस व्यक्ति की तरफ छोड़नी होंगी जिनसे उसके रिसीवर को उस पूरे वातावरण की अनुभूति हो सके जिसमें उसे ले जाना चाहता हूं।
    इसके बाद का काम ज्यादा जटिल था। उस आदमी के खास तरह की स्थितियों के बीच पहुंच जाने पर उसके अपने दिमाग से भी प्रतिक्रिया के रूप में कुछ विद्युतचुंबकीय तरंगें निकलेंगी जिन्हें अपने कंप्यूटरीकृत रिसीवर पर लेकर मैं यह पता लगा सकूं कि वह क्या करना चाहता है।
    मैं समझ रहा हूं, इस तरह के तकनीकी ब्योरों से आप जरूर ऊब रहे होंगे। सीधे शब्दों में मैं इतना बता सकता हूं कि यह सपने या स्मृति या हेलुसिने्शन से आगे की अवस्था होती है। यहां पर इनसान पूरी तरह जागते हुए थी काल्पनिक दुनिया में विचर रहा होता है।
    अपनी खोज में मैं यहां तक ही पहुंच पाया था। ऐसा प्रोग्राम मैं तैयार कर सकता था कि आदमी को किसी कहानी की शुरुआत में भेज दूं। पूरी कहानी की प्रोग्रामिंग भी कर सकता था लेकिन कहानी की इन स्थितियों में वह आदमी क्या कर रहा है, यह जानने का जरिया और अगर वह भटक गया है तो उसे बाहर निकालने का तरीका मैं अभी खोज नहीं पाया था।
    यहां तक पहुंचने में ही मुझे करीब एक साल लग गया था। हर महीने मैं अपनी प्रगति की रिपोर्ट अनंतपाणि को भेजता रहता था। इसके बावजूद काम में होती जा रही देरी का उलाहता देते हुए वह गाहे-बगाहे मुझे फोन करता रहता।
    आदत से वह बहुत उतावला था। यों भी उसका पैसा लग रहा था और वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरा काम पूरा हो और वह पैसा गई गुना बढ़कर उसके पास लौटकर आ सके। हो सकता है उसका डर यह भी हो कि मैं काम पूरा हो जाने के बाद कहीं उसे अंगूठा ही न दिखा दूं। वह हमेशा मुझे उस कांट्रेक्ट की याद भी परोक्ष रूप से दिलाता रहता।
    अपनी इस खोज का नाम मैंने 'किताब" रखा था। यह तो मैं आपको शुरू में ही बता चुका हूं। इसके दो हिस्से थे, एक में कंट्रोल रूम था और दूसरा एक बंद केबिन, जिसमें वह आदमी बैठता था जो किताब में जाना चाहता था। यों तो इस काम के लिए उसकी सीट की काफी थी लेकिन बाहर की बाधाएं उसकी एकाग्रता में खलल न डाल सकें इसलिए केबिन की जरूरत थी।
    एक दिन मैंने अनंतपाणि को बुलाकर यह सब दिखाया और उसे बताया कि अपनी खोज का महत्वपूर्ण हिस्सा मैं पूरा कर चुका हूं, थोड़ा-सा काम बाकी रह गया है।
    मैंने जो कुछ उसे दिखाया उससे वह चमत्कृत था। मैंने उसे बताया कि इतना मैंने कर लिया है कि किसी को भी किताब के अंदर भेज सकूं। प्रयोग के तौर पर मैंने उसे 'भेड़िया आया" वाली कहानी का प्रोग्राम सेट करके किताब के अंदर भेज दिया।
    वह बाहर आया तो खु्श था। कहने लगा, 'मैंने कहानी को ही बदल दिया है। तीसरी बार जब भेड़ चुगाने वाले ने 'भेड़िया आया--- भेड़िया आया" की पुकार लगाई तो कोई उसके पास नहीं गया। लेकिन मैं एक झाड़ी के पास छिपकर बैठ गया। जैसे ही भेड़िया आया, मैंने अपनी बंदूक से उसे मार गिराया और वह लड़का बच गया।
    इस प्रयोग के बाद मैंने अंदाजा लगा लिया था कि किताब के अंदर जाने वाले ज्यादातर लोग मूल कहानी का तो सत्यानाश ही करेंगे। कम ही लोग ऐसे होंगे जो कहानी को कोई रचनात्मक मोड़ दे पाएं।
    लेकिन इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। किताब के अंदर मौजूद आदमी कहानी का कुछ भी करता रहे, मूल कहानी का मेरा प्रोग्राम कंप्यूटर की मेमोरी में ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता।
    मेरा खयाल था कि यह सब देख लेने और किताब के भीतर से गुजर चुकने के बाद अनंतपाणि को यकीन हो जाएगा कि मेरी खोज सही दि्शा में जा रही है और जल्द ही अपनी खोज पूरी करके मैं इसका व्यावसायिक इस्तेमाल करने के लिए उसे दे दूंगा।
    लेकिन उस पर इसका दूसरा ही असर हुआ। उसे लगा कि खोज का असली काम तो पूरा हो चुका है। क्यों न इसका व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर दिया जाए।
    मैंने उसे समझाने की को्शिश की कि अभी हमने शुरुआती सफलता ही हासिल की है। एक तरह से हमारी खोज का पहला चरण ही पूरा हुआ है। दूसरे और तीसरे चरण के काम अभी बाकी हैं। उन्हें पूरा किए बिना खतरा हो सकता है। और दूसरे यह भी कि उनके बिना न तो इस खोज का पेटेंट हमारे नाम हो सकेगा और न व्यावसायिक लाइसेंसिंग विभाग इसे व्यावसायिक रूप से इस्तेमाल करने का लाइसेंस ही देगा।
    लेकिन अनंतपाणि ने यह कहकर मेरा मुंह बन्द कर दिया कि मेरा काम सिर्फ खोज के तकनीकी पक्ष तक सीमित है। व्यावसायिक पक्ष वह खुद देख लेगा। उसने मुझे एक तरह से हिदायत देते हुए कहा कि इस खोज की तकनीकी तफसील मैं उसे मेल कर दूं। आगे का काम वह देख लेगा।
    मैंने एक बार फिर उसे जल्दबाजी के खतरों से आगाह करने की कोशिश की तो अनंतपाणि ने यह शक जाहिर किया कि कहीं मेरी नीयत में खोट तो नहीं आ गया है। उसने चेतावनी दी कि उसके जैसे चतुर व्यवसायी के सामने किसी तरह की चाल चलने की मैं कोशिश भी न करूं वरना मेरे शरीर के कपड़े तक बिक जाएंगे। क्योंकि ऐसा करने पर वह मेरे खिलाफ अनुबंध तोड़ने का मामला बना देगा और जितने पैसे उसने मुझे इस खोज के सिलसिले में दिए हैं, उन्हें ब्याज और हरजाने समेत वसूल कर लेगा।
    जाहिर है, मैं उसकी इस धमकी से घबरा गया। मैं फौरन इस खोज की तकनीकी तफसील तैयार करने में लग गया। पूरी रात जागकर मैंने वह तफसील तैयार की। कोशिश यही थी कि इस खोज के अधूरेपन की तरफ किसी का ध्यान न जाए। जहां जरूरी था, ग्राफ और डायग्राम भी बनाए। सुबह तक मेरा प्रेजेंटे्शन तैयार हो गया था। एक बार पूरे ध्यान से मैंने प्रेजेंटे्शन को देखा। एक-दो जगह कुछ सुधार किए और जब तसल्ली हो गई कि इसमें किसी तरह की कोई कोर-कसर नहीं छूटी, तब मैंने यह पूरा प्रेजेंटे्शन अनंतपाणि को मेल कर दिया।
    थोड़ी ही देर बाद अनंतपाणि का धन्यवाद भी मेल से मुझे मिल गया। उसने मेरे प्रेजेंटे्शन की बहुत तारीफ की और पिछले दिन के अपने व्यवहार के लिए माफी भी मांगी। उसने उम्मीद जाहिर की कि मैंने उसकी बात का बुरा नहीं माना होगा और इस बात को लेकर हमारी दोस्ती या अनुबंध में किसी तरह की दरार नहीं आएगी।
    मैं इस तरह के संदेष की उम्मीद कर रहा था। मैं जानता था कि अनंतपाणि बहुत ही व्यावहारिक किस्म का आदमी है। उसकी यह दिखावटी विनम्रता उसकी इसी व्यावहारिकता की वजह से थी। वरना वह अव्वल दर्जे का धूर्त है। जहां उसे चार पैसे मिलने की उम्मीद होती है, वहां तो वह विनम्रता का पुतला है लेकिन जहां जरा नुकसान होता दिखने लगे, फौरन सांप की तरह फन फैलाकर फुफकारने लगता है। लेकिन यह सब समझने के बावजूद मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था।
    मुझे पूरा भरोसा था कि दो या तीन दिन के भीतर ही वह किताब का पेटेंट करा लेगा और इसके व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए लाइसेंस भी ले लेगा। और हुआ भी ऐसा ही। उसने मुझे यह भी बताया कि लाइसेंस उसने मेरे ही नाम से लिया है, अपना नाम तो मेरे पार्टनर के तौर पर ही डाला है। यह सब उसने क्यों किया यह तब तो मेरी समझ में नहीं आया और जब समझ में आया तब तक काफी देर हो गई थी।
    अपनी इस सफलता की जानकारी देने जब वह मेरे पास आया, तब एक बार मन हुआ कि फिर से उसे इसके खतरों से आगाह कर दूं लेकिन उसकी नाराजगी के डर से इतना ही कहा कि इसका व्यावसायिक प्ाक्ष वही देखे, मैं फिलहाल किताब के दूसरे और तीसरे चरण पर अपना काम जारी रखना चाहूंगा।
    इसके लिए वह राजी हो गया। लेकिन उसकी दो शर्तें थीं। एक तो यह कि किताब को ऑपरेट करने का काम मैं उसके किसी आदमी को सिखा दूं और दूसरे यह कि उसके खयाल से तो 'प्रोजेक्ट किताब" का काम पूरा हो चुका है, इसलिए वह इस पर और पैसा खर्च करने के जिए तैयार नहीं है। अगर मैं चाहूं तो किताब से होने वाली आय के अपने हिस्से में से इस पर पैसे लगा सकता हूं। इतना अश्वासन उसने जरूर दिया कि किताब की खोज के दूसरे और तीसरे चरण पूरे हो जाने के बाद, अगर उसे लगा कि किताब में इन्हें जोड़ने का कोई फायदा हो सकता है तो इसके ऐवज में इस मद में हुए मेरे खर्चे की वह पूरी भरपाई कर देगा।
    मैंने उससे कहा कि इसका भी अनुबंध कर लेते हैं तो उसने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी में बहुत कुछ ऐतबार से भी होता है।
    चूंकि मैं इस अधूरी किताब के खतरों से परिचित था इसलिए मैंने अनंतपाणि के आदमी को कुछ छोटी-मोटी बाल कथाओं के प्रोग्राम ही बनाकर दिए : जैसे कछुए और खरगो्श की दौड़ की कहानी, बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती की कहानी, चालाक खरगोद्गा और घमंडी शोर की कहानी, भेड़िया आया वगैरह वगैरह। ये सब छोटी-छोटी कहानियां थीं और इनमें किताब के भीतर गए व्यक्ति द्वारा ज्यादा छेड़-छाड़ की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि ये कहनियां इसी रूप में बचपन से सबके दिमागों में बैठी हुई हैं।

इस किताब को ऑपरेट करने का काम सीखने के लिए अनंतपाणि ने जिस नौजवान को भेजा था वह बहुत उत्साही लग रहा था। उसका नाम अभिषेक था। हालांकि मैं उसे उतना ही बताना चाहता था जितना किताब के संचालन के लिए जरूरी था लेकिन वह इसके अलावा भी बहुत कुछ जानना चाहता था। मैं उसके उत्साह को खत्म नहीं करना चाहता था इसलिए उसने जो कुछ पूछा मैं बताता चला गया।
जब अभिषेक कहानियों की प्रोग्रामिंग के तरीके पूछने लगा तब मैंने उसे बताया फिलहाल वह उन्हीं कहानियों को ऑपरेट करे जिनकी प्रोग्रामिंग उसे दी गई है। जरूरत के मुताबिक मैं उसे और कहानियों की प्रोग्रामिंग देता रहूंगा।
   
अनंतपाणि की किताब अच्छी चल निकली। यह मैंने उसे समझा ही दिया था कि किताब का ज्यादा प्रचार प्रसार न करे क्योंकि इसकी फिलहाल हमारे पास एक ही प्रति है। अधिक प्रतियां तैयार करने का खतरा अभी नहीं लिया जा सकता। जल्दी ही इसके मॉडल में सुधार करने पड़ेंगे। इस बीच इस मॉडल को कुछ सीमित ग्राहकों को ही उपलब्ध कराया जाए। यह भी देख लिया जाए कि लोगों को यह किताब कितनी पसन्द आती है।
    बात अनंतपाणि की समझ में फौरन आ गई। मामला जहां पैसों का हो वहां अनंतपणि की समझ काफी तेज हो जाती है।
    उसने अपने कुछ अमीर दोस्तों के माध्यम से किताब की जबानी पब्लिसिटी की। वह जनता था कि अगर उसने इंटरनेट या टेलिविजन चैनलों के जरिए किया और किताब क्लिक कर गई तो मुद्गिकल हो जाएगी।
    चूंकि जिन कहानियों की प्रोग्रामिंग मैंने की थी, वे सभी छोटी-छोटी कहानियां थीं इसलिए किताब का हर पाठक दस मिनट से आधे घंटे के भीतर ही किताब के अंदर रह पाता था। शुरू में किताब की दस-बारह द्गिाफ्ट रोज लग जाती थी। फिर शिफ्टें धीरे-घीरे बढ़ने लगीं।
    अभिषेक के बाद तीन और लड़्कों को किताब के ऑपरेटर के रूप में ट्रेनिंग दी गई। छह-छह घंटों की शिफ्ट में किताब 'पढ़ी"    जाती रही। जाहिर है, अनंतपाणि का और उसके साथ ही मेरा भी मुनाफा बढ़ता जा रहा था।
    किताब के इस ज्यादा इस्तेमाल से मेरे मन में डर पैदा हो रहा था कि कहीं उसके सिस्टम में कोई गड़बड़ी पैदा न हो जाए। लेकिन जब हर हफ्ते एक मोटी रकम मेरे बैंक खाते में आने लगी तो मैंने अनंतपाणि को रोकने या सचेत करने की कोशिश भी नहीं की। खुद को यह कहकर समझा लिया कि अगर मैंने ऐसी को्शिश की भी तो वह कहां मानने वाला है।
    मैंने इतना जरूर किया कि किताब के अगले चरण के काम में जी जान से जुट गया।
    इस बीच अनंतपाणि के कई संदे्ष वीडियोफोन और मेल पर मुझे मिले कि मैं कुछ और कहानियों की प्रोग्रामिंग करके उसे भेजूं क्यॊंकि जितनी कहानियों की प्रोग्रामिंग मैंने उसे दी थी, वे सब बच्चों की कहानियां थीं और उनमें ऐसा कुछ नहीं था जो उन्हें बार-बार देखा जाए। अनंतपाणि चाहता था कि मैं ऐसी कहानियों की प्रोग्रामिंग करके दूं, जो एडवेंचरस हों, कुछ सैक्स वैक्स हो, कुछ हिंसा, मारधाड़ हो।
    मैं जानता था कि वह ऐसा ही कुछ चाहेगा। मैंने उससे साफ कह दिया कि जब तक दूसरे और तीसरे चरण का काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक मैं उसे ऐसी किसी कहानी की प्रोग्रामिंग नहीं दूंगा।
जब कई दिनों तक मैं उसकी इस मांग को पूरा करने से इनकार करता रहा तो एक दिन वह मेरे घर पर ही आ धमका।
    मैंने उसे बताया कि दूसरे और तीसरे चरण का काम काफी हद तक पूरा हो गया है। जल्दी ही किताब का नया संस्करण तैयार करके मैं व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए उसे दे दूंगा। तब जिस तरह की कहानी वह चाहेगा, उसकी प्रोग्रामिंग उसे मिल जाएगी।
    उसने मेरे साथ ज्यादा बहस नहीं की। मेरा खयाल था, मेरी बात उसकी समझ में आ गई है और वह मुझसे सहमत है। लेकिन उसे समझने में पहली बार मैंने गलती की।
    इसका पता मुझे उस दिन चला जिस दिन मैंने किताब के दूसरे और तीसरे चरण का काम पूरा कर लिया था। यही बताने के लिए मैंने उसके वीडियाफोन पर संपर्क किया। मैंने उसे बताया कि अब मैं किताब का नया संस्करण भी जल्दी ही तैयार कर दूंगा और फिर हम बड़े पैमाने पर इसका उपयोग कर पाएंगे।
    जवाब में उसन मुझे बधाई दी और कहा कि मैं फौरन उसके पास पहुंच जाऊं।
    उसकी आवाज काफी थकी हुई लग रही थी। उसमें वह उत्साह नहीं था जो आम तौर पर किताब के मामले में किसी सफलता की खबर मिलने पर होता था। मैंने उससे कहा कि थोड़ा सा काम बाकी रह गया है। और फिर मैं थक भी गया हूं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अगले दिन सुबह मिल लें।
    लेकिन वह अगले दिन सुबह तक इंतजार करने के लिए तैयार नहीं था। वह कह रहा था कि सारा काम छोड़ कर मैं फौरन उसके पास पहुंच जाऊं। यह इमरजेंसी है।
    उसकी आवाज में धबराहट थी। मैंने उससे जानना चाहा कि अचानक ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ गई है लेकिन वह एक ही बात दोहराए जा रहा था कि यह सब वह मुझे वहां पहुंचने के बाद ही बताएगा। बस मैं वक्त बरबाद किए बिना फौरन उसके पास पहुंच जाऊं।
    मैंने महसूस किया कि उसकी आवाज की घबराहट लगातार बढ़ती जा रही थी। तब पहली बार मुझे खटका हुआ कि कहीं किताब के साथ तो कोई गड़बड़ी नहीं हो गई है?
   
और सचमुच ऐसा ही था। जब मैं वहां पहुंचा तो अनंतपाणि और अभिषेक के चेहरे लटके हुए थे।
    मुझे देखते ही अनंतपाणि मेरी तरफ लपका। उसने मुझे बताया कि एक आदमी किताब के अंदर पिछले चौबीस घंटे से है।
    चौबीस घंटे से वह किताब के अंदर क्या कर रहा है? मैंने जितनी भी कहानियों की प्रोग्रामिंग उन्हें दी थी, किसी में भी इतना समय लगने की गुंजाइश नहीं थी। मैंने अभिषेक से पूछा कि किताब में किस कहानी की प्रोग्रामिंग में उसे भेजा गया है।
    अभिषेक का चेहरा अभी तक लटका हुआ था। मेरे मुंह से अपना नाम सुनकर उसने चेहरा उठाकर मेरी तरफ देखा। कुछ कहने की कोशिश में मुंह भी खोला। लेकिन वह इस कदर घबराया हुआ था कि उसके मुंह से द्गाब्द तक नहीं निकल रहे थे। कुछ अस्पष्ट से स्वर उसके मुंह से निकले। वह अनंतपाणि की तरफ इशारा कर रहा था। काफी को्शिश के बाद मैं इतना ही समझ पाया कि वह एक ही वाक्यांश लगातार दोहरा रहा था : इन्होंने ही कहा था--- इन्होंने ही कहा था---
    अनंतपाणि बहुत गुस्से से उसकी तरफ देख रहा था। मैंने अनंतपाणि से जानना चाहा कि अभिषेक क्या कह रहा है?
    अनंतपाणि ने बताया कि जो व्यक्ति अंदर है, वह शहर के प्रशासक का बेटा है। उसे मेरी कहानियां पसंद नहीं आ रही थीं। वह कुछ थ्रिलर चाहता था। उसी के दबाव में आकर अनंतपाणि ने एक बार मुझसे भी ऐसी ही कुछ कहानियों की प्रोग्रामिंग करने के लिए कहा था। जब मैंने टका-सा जवाब दे दिया तो उसने अभिषेक से ऐसा करने के लिए कहा। अभिषेक काफी तेज दिमाग का लड़का था। गुरुमंत्र वह मुझसे ले ही चुका था। लिहाजा उसने एक थ्रिलर कहानी की प्रोग्रामिंग तैयार कर ली।
    प्रोग्रामिंग तैयार कर लेने के बाद उसका इसरार था कि वह प्रोग्रामिंग एक बार मुझे जरूर दिखा दी जाए। लेकिन अनंतपाणि का मानना था कि मैं जरूर इस बात पर ऐतराज करूंगा और कोई न कोई अड़ंगा लगा दूंगा।
    वह सही सोच रहा था।
    लेकिन उसकी एक दित यह भी थी कि द्गाहर के प्रद्गाासक का बेटा उसे लगातार धमका रहा था कि अगर उसे किताब में कोई थ्रिलर न मिला तो वह किताब का लाइसेंस कैंसिल करवा देगा। अनंतपाणि यह भी जानता था कि उसकी धमकी कोरी नहीं थी। वह ऐसा कर भी सकता था। वह प्रशासक का लाडला बेटा था और प्रशासक उसकी किसी बात को टाल नहीं सकता था।
    वह रोज पूछता कि किसी थ्रिलर की प्रोग्रमिंग तैयार हुई या नहीं। जब उसे पता चलता कि अभी उस पर काम चल रहा है तो वह काम जल्दी पूरा करने की ताकीद देता और फिर अपनी धमकी दोहरा देता।
    जैसे ही उसे पता चला कि प्रोग्रामिंग पूरी हो गई है, वह फौरन आ धमका। किताब के अंदर भेजने से पहले अभिषेक ने उसे समझाना भी चाहा था कि वह कहानी में ज्यादा उलझने की कोशिश न करे और जितनी जल्दी हो सके, बाहर आ जाए। लेकिन वह उस थ्रिलर की कल्पना में इस कदर उलझा हुआ था कि उसने किसी की कोई बात नहीं सुनी।
    किताब का पाठक कहानी में कहां पहुंच गया है, यह जानने का जरिया तो था। एक मॉनीटर पर वह सारी छवियां उभर आती थीं जहां से कहानी का पाठक गुजर रहा होता। लेकिन उस समय किताब का मॉनीटर बिल्कुल काला था। उस पर कोई चित्र नहीं था।
    मैंने अनंतपाणि से पूछा कि स्क्रीन ब्लैंक क्यों है तो उसने बताया कि कहानी में कुछ अपराधी नायक का अपहरण कर लेते हैं और उसे एक अंधेरे कमरे में बन्द कर देते हैं। जब से वह अंधेरे कमरे में गया है तभी से स्क्रीन ब्लैंक है।
    ऐसी स्थिति में मेरी किताब के नए संस्करण में तो व्यवस्था थी। मैं ऐसे मानसिक सुझाव उसे भेज सकता था कि वह वही सब करता जो मैं चाहता। लेकिन किताब के इस पुराने संस्करण में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
    फिर भी कुछ न कुछ तो किया ही जाना चाहिए। अभी तो प्रशासक को पता नहीं है कि उसका बेटा कहां है एक-दो दिन तो वह बिना बताए भी घर से गायब होता रहता था। लेकिन तीन-चार दिन बाद तो वह उसकी खोज-खबर शुरू करेगा ही। ऐसे में यह जानना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा कि बेटा दरअसल कहां गायब हुआ है।
    यहां अनंतपाणि ने मुझे यह भी आगाह कर दिया कि उसकी जिम्मेदारी कम और मेरी ज्यादा बनती है। किताब में आने वाली किसी भी तकनीकी खामी के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। यह पूरा धंधा मेरा ही है। अनंतपाणि तो इसमें सिर्फ पैसा लगा रहा है।
    उसकी इस बात के जवाब में मैंने यह कहने ही कोशिश की कि किताब को इस रूप में इस्तेमाल करने की सहमति तो मैंने कभी नहीं दी थी और उसने जो कुछ किया, मेरी इच्छा के विरुद्ध ही किया। यह बात मैं एक दोस्त से शिकायती लहजे में कह रहा था लेकिन जवाब एक चतुर व्यवसायी की तरफ से आया।
    अनंतपाणि कह रहा था कि यह सब जबानी बातें हैं। इनका कोई प्रमाण नहीं है जबकि उसके पास प्रमाण के तौर पर हमारे बीच हुआ वह शुरुआती इकरारनामा है जिसके अनुसार किताब के इस धंधे में उसकी भूमिका सिर्फ पैसे लगाने वाले की है, उसकी पूरी तकनीकी जिम्मेदरी मेरी है। और फिर लाइसेंस भी तो मेरे ही नाम से था।
    मै उसके जाल में पूरी तरह फंस गया था। मैं समझ गया था कि प्रशासक के बेटे के गायब होने की पूरी जिम्मेदारी वह मेरे सिर पर डालकर खुद किनारा कर लेगा। और एक तरह से यह भी तय हो गया कि अब जो कुछ करना है, मुझे ही करना है।

किताब के दूसरे और तीसरे चरण का पूरा ब्लूप्रिंट मेरे दिमाग में साफ था। मैं ऑपरेटर की कुर्सी पर बैठकर की बोर्ड पर झुक गया। मेरी कोशिश यह थी कि किसी तरह किताब के दूसरे और तीसरे चरण के अपने काम का इस्तेमाल इस किताब में कर सकूं।
    लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था इसमें होती तो यह सब हो पाता। कई घंटे तक मैं कीबोर्ड से जूझता रहा लेकिन सब बेकार। मैं किसी भी तरह से भीतर फंसे् प्रशासक के बेटे तक नहीं पहुंच पा रहा था। जब तक वह भीतर से कोशिश नहीं करेगा, तब तक किताब का दरवाजा नहीं खुल सकता। किताब को ऑफ करके दरवाजे को खोलने की को्शिश भी मैं नहीं कर सकता था क्योंकि ऐसा होने पर मानसिक आघात से उसकी मौत भी हो सकती थी।
    कुछ हताशा और कुछ गुस्से में आकर मैं कीबोर्ड की कुंजियों को अनाप-द्गानाप दबाने लगा। अचानक मैंने देखा कि मॉनीटर का स्क्रीन काले से सफेद हो गया है। लेकिन अब भी उस पर किसी तरह की छवि नहीं थी।
    तभी मैंने देखा, अभिषेक उछला और किताब के दरवाजे की तरफ लपका। दरवाजा खुला हुआ था।
    मैंने राहत की सांस ली और दरवाजे की तरफ देखने लगा। मुझे भरोसा था कि किसी भी क्षण अभिषेक प्रशासक के बेटे को हाथ पकड़कर बाहर लाता हुआ दिखाई देगा। ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है, वह अंदर बेहोश पड़ा हो। मरने की कोई आशंका नहीं थी।
    अभिषेक बाहर आया तो उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। उसने बताया कि प्रशासक का बेटा वहां नहीं है।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    मैं लपक कर किताब के भीतर गया।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
किताब की पूरी तकनीक आदमी के दिमाग से ताल्लुक रखती है। उसके भीतर बैठकर आदमी कुछ करता नहीं है। उसके सारे अनुभव मानसिक होते हैं। शारीरिक रूप से तो वह एक सोए हुए व्यक्ति और एक लाश के बीच की स्थिति में होता है।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    प्रशासक का बेटा ऐसे कैसे गायब हो सकता है? उसके साथ ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता था कि वह किसी मानसिक आघात से मर जाता लेकिन इसकी भी संभावना नगण्य थी। लेकिन उसके शरीर को तो किताब के अंदर होना चाहिए था।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    मेरे दिमाग में लौट-लौटकर एक ही सवाल आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है?
    मैंने अभिषेक से प्रोग्रामिंग दिखाने के लिए कहा। प्रोग्रामिंग के एक-एक स्टेप को अच्छी तरह जांचा-परखा। उसमें कुछ गड़बड़ियां जरूर थीं लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसकी वजह से इनसान का द्गारीर ही गायब हो जाए।
    लेकिन ऐसा हुआ है। अब मेरे पास एक ही रास्ता बचा था कि मैं खुद किताब के भीतर जाऊं। प्रोग्रामिंग यही हो। अभिषेक से मैंने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया को वह सेव करे। हार्ड डिस्क की केपेसिटी कई मिलियन जीबी की थी इसलिए जगह की कोई समस्या नहीं थी।
   
किताब के भीतर का अनुभव जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं ज्यादा रोमांचक था। किताब के भीतर अपनी कुर्सी पर बैठने के बाद मैंने अपने दिमाग को खुला छोड़ दिया। मैं नहीं चाहता था कि मैं अपने दिमाग को अपनी तरफ से कुछ सुझाव दूं। क्योंकि ऐसा होने पर मैं उस रास्ते पर न जा पाता जिस प्रशासक का बेटा गया होगा।
    जल्दी ही मैं कुर्सी के बजाय एक कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा था। कार एक खूबसूरत वादी में से गुजर रही थी। लेकिन मेरा दिमाग वादी की खूबसूरती का मजा लेने के बजाय अपने मकसद में उलझा था। आगे दुद्गमनों का एक गुप्त अड्डा था। एक कसीनो की आड़ में वह गुप्त अड्डा चल रहा था।
    कसीनो की एक डांसर को मैंने पटा रखा था। वह उस दिन मुझे उस गुप्त अड्डे के भीतर जाने का रास्ता बताने वाली थी।
    जब मैं कसीनो के भीतर पहुंचा तो वह नाच रही थी। नाच पूरा होने के बाद उसने मुझे इशारा किया। मैं स्टेज के पीछे बने उस कमरे में गया, जहां डांसर अपने कपड़े बदलती थी। मैं कमरे में घुसा तो वहां कोई नहीं था। अचानक दरवाजा धकेलते तीन-चार आदमी अंदर घुसे और उन्होंने मुझे दबोच कर मेरे हाथ-पांव रस्सियों से बांध लिए। मैंने देखा, उनके पीछे वही डांसर खड़ी थी। उसने मुझे धोखा देकर फंसा दिया था।
    वे लोग मुझे एक कॉरीडोर में से घसीटते हुए ले गए। वहां से वे एक कमरे में घुसे। कमरे में एक अलमारी रखी थी। मैंने देखा उस अलमारी के उपर टाइम मशीन लिखा था। मैं समझ गया था कि ये लोग मुझे टाइम मशीन के जरिए किसी दूसरे वक्त में भेज रहे हैं ताकि मैं उनके वक्त में लौट कर फिर कभी उन्हें तंग न कर सकूं।
    टाइम मशीन का दरवाजा बंद होते ही अंधेरे ने मुझे घेर लिया। अचानक मैंने अपने आपको बहुत हल्का महसूस किया।
    और मैंने यह भी महसूस किया कि मैं किताब के मानसिक संवेग से मुक्त था। मुझे याद आ गया कि मैं प्रशासक के बेटे की तलाश में किताब के भीतर आया था।
    फिर धीरे-धीरे अंधेरा दूर होने लगा। मैंने देखा कि मैं एक पहाड़ी जगह पर हूं। कुछ-कुछ वैसी ही जगह जैसी कसीनो के आसपास थी। लेकिन वहां कसीनो नहीं था। कसीनो कहानी में था। लेकिन यह जगह कहानी में नहीं थी। फिर मैं यहां कैसे? मुझे तो किताब के भीतर होना चाहिए था।
    तभी एक विचित्र बात हुई। मुझे अनंतपाणि और अभिषेक की आवाजें सुनाई देने लगीं।
    दोनों परेशान थे कि प्रशासक के बेटे की तरह मैं भी गायब हो गया हूं। मैंने आवाज देकर उन्हें अपनी मौजूदगी का एहसास कराना चाहा लेकिन शायद मेरी आवाज उन तक पहुंच ही नहीं रही थी। क्योंकि वे आपस में ही बात करते रहे, मेरी किसी बात का जवाब वे नहीं दे रहे थे।
    आपस में काफी विचार-विमर्ष करने के बाद उन दोनों ने यह तय किया कि किताब को ही डिसमेंटल कर दिया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
    मैं उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश करना चाहता था लेकिन मेरे पास बात उन तक पहुंचाने का कोई जरिया ही नहीं था।               
    इसके बाद कुछ खटपट की आवाजें सुनाई दीं और फिर सब कुछ शांत हो गया।
    अब मेरा ध्यान अपनी स्थिति की ओर गया।
    जहां मैं था, उसके थोड़ा नीचे से एक सड़क गुजर रही थी। उस पर से इक्का-दुक्का गाड़ियां भी गुजर रही थीं। मैंने देखा ये सभी बहुत पुराने जमाने की गाड़ियां थीं। कुछ-कुछ वैसी जैसी सौ साल पहले होती थीं।
    तो कहीं मैं बीसवीं सदी में तो नहीं पहुंच गया हूं?
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    किताब की खयाली टाइम मशीन मुझे यथार्थ में सौ साल पीछे कैसे धकेल सकती है?
    और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अब मैं यहां उस प्रशासक के बेटे को कैसे तलाश करूंगा? और अगर वह मिल भी गया तो उसे कैसे आगे के वक्त में ले जा पाऊंगा?
    और क्या मुझे भी हमेशा के लिए यहीं रहना पड़ेगा?
    क्या आप मेरी कोई मदद कर सकते हैं?

Monday, June 14, 2010

क्या यह मेरे आग्रह ही हैं

पिछले दिनों भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित कवियों पर वरिष्ठ आलोचक विष्णु खरे जी से असहमति दर्ज करते हुए मैंने अपने आग्रहों का जिक्र करते हुए उस प्रव्रत्ति की ओर ध्यान आक्रष्ट करना चाहा था कि आलोचना कैसे आज शार्ट लिस्टिंग करने की एक युक्ति होती चली जा रही है। संदर्भ के तौर पर कुछ युवा कथाकारों को लेकर मचाए गए हल्ले का भी जिक्र किया था कि समकालीन कहानियों पर लिखी जा रही आलोचनात्मक टिप्पणियां तो आज कोई भी उठा कर देख सकता है-जिनमें किसी भी रचनाकार का जिक्र इतनी बेशर्मी की हद तक होने लगा है कि यह उनकी दूसरी कहानी है, यह तीसरी, यह चौथी और बस अगली पांचवी, छठी कहानी आते ही उनकी पूरी किताब, जो अधूरी पड़ी है, पूरी होने वाली है। बाजारू प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत वह चलताऊ भाषा जिसमें क्रिकेट की कमेंटरी जैसी उत्तेजना है।
आज सुबह फ़िर वैसी ही एक प्रस्तुति अपने प्रिय ब्लाग सबद में देखने के बाद तुरंत प्रतिक्रिया करने का मन हुआ था और वह की भी। पर अफसोस की सबद जैसा जनतांत्रिक-सा दिखता मंच उस प्रतिक्रिया को प्रकाशित करने से गुरेज कर गया और उसे प्रकाशित न कर पाने की अपनी मजबूरी से भी उसने अपने पाठक को अवगत कराना जरूरी न समझा। जबकि टिप्पणी बेनामी भी नहीं थी-स्पष्टरुप से मैंने अपने नाम से ही की थी।
की गई टिप्पणी इस ब्लाग के पाठकों के लिए यहां दर्ज की जा रही है-
उम्र न सही
रचना पर ही हो जाए जलसा
६१वीं कविता लिख चुका है कवि
करो मित्रों घोषणा करो आयोजन की
ताकि युवा कवि लिख सके ६२वीं। 

Sunday, June 13, 2010

यदि इस संग्रह का शीर्षक ही किताब होता

कथाकार सुरेश उनियाल की कहानी किताब मौजूदा दुनिया का एक ऐसा रूपक है जिसमें पूंजीवाद लोकतंत्र के भीतर के उस झूठ और छद्म को जो एक सामान्य मनुष्य की स्वतंत्रता के विचार को गा-गाकर प्रचारित करने के बावजूद बेहद सीमित, जड़ और अमानवीय है, देखा जा सकता है। वह विचार जिसने, अभी तक की दुनिया की भ्रामकता के तमाम मानदण्डों को तोड़कर, दुनिया के सबसे धड़कते मध्यवर्ग को अपनी लपेट में लिया हुआ है। उस तंत्र की पूरी अमानवीयता को स्वतंत्रता मान अपनी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से स्थापित करने को तत्पर और हर क्षण उसके लिए सचेत रहने वाला यह वर्ग ही उस किताब की रचना करना चाहता है जो व्यवस्था का रूपक बनकर पाठक को चौंकाने लगती है। दिलचस्प है कि वह खुद उस रचना रुपी किताब का हिस्सा होता चला जाता है और कसमसाने लगता है। यह एक जटिल किस्म का यथार्थ है। उसी व्यवस्था के भीतर उसकी कसमसाहट, जिसका संचालन वह स्वंय कर रहा है, जटिलता को सबसे आधुनिक तकनीक की बाईनरीपन में रची जाती भाषा का दिलचस्प इतिहास होने लगता है जो इतना उत्तर-आधुनिक है कि जिसे इतिहास मानने को भी हम तैयार नहीं हो सकते। ज्यादा से ज्यादा कुशल और अपने पैने जबड़ों वाला यह तंत्र कैसे अपना मुँह खोलता जाता है, इसे कहानी बहुत अच्छे से रखने में समर्थ है। कोई सपने और स्मृती की स्थिति नहीं। बस व्यवस्था के निराकार रुप का प्रशंसक उसे साकार रुप में महसूस करने लगता है। स्वतंत्रता, समानता और ऐसे ही दूसरे मानवीय मूल्यों को सिर्फ सिद्धांत के रुप में स्वीकारने वाली भाषा के प्रति आकर्षित होकर दुनिया में खुशहाली और अमनचैन को कायम करने वाली ललक के साथ जुटा व्यक्ति कैसे लम्पट और धोखेबाज दुनिया को रचता चला जा रहा, कहानी ने इस बारिक से धागे को बेहद मजबूती से उकेरा है।
दुनिया के विकास में रचे जाते छल-छद्म और विचारधाराओं के संकट का खुलासा जिस तरह से इस कहानी में होता है, मेरी सीमित जानकारी में मुझे हिन्दी की किसी दूसरी कहानी में दिखा नहीं। कहानी की किताब मात्र एक किताब नहीं रह जाती बल्कि व्यवस्था में तब्दील हो जाती है। क्या ही अच्छा होता यदि इस संग्रह का शीर्षक ही किताब होता।

विजय गौड़

मार्च 2010 की संवेदना गोष्ठी में कथाकार सुरेश उनियाल के कहानी संग्रह क्या सोचने लगे पर आयोजित चर्चा के दौरान संग्रह में मौजूद कहानी "किताब" पर की गई एक टिप्पणी।

Monday, June 7, 2010

विलुप्ति के कगार पर भाषा-बोलियां

आज से पांच दशक पूर्व जब मैं शोध हेतु राजियों की जंगली बस्तियों में गया तो मैंने पाया कि वे अलगाव की स्थिति से बहुत कुछ उबर चुके थे। कभी की गुहावासी और पत्रधारिणी जाति के वे लोग अपने पड़ोसियों के खेतों में खेतिहर मजदूरों का काम करने लगे थे। लकड़ी के बरतनों के बदले अनाज लेकर चुपचाप खिसक जाने की जगह सौदा तय करने की स्थिति में आ गए थे। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों की भाषा सीखनी पड़ी और इस तरह उनकी भाषा में अन्य भाषा-बोलियों के शब्द घुसपैठ करने लगे। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दबावों के चलते आज राजी भाषा उनके अपने घर-परिवार से भी बहिष्कृत होने लगी है। डॉक्टर कविता श्रीवास्तव के अनुसार भी राजी भाषा आज उनके धार्मिक रीति-रिवाजों और घर-परिवार तक ही इतनी सीमित हो चुकी है कि वहां भी अब पड़ोस की भाषा-बोलियों के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा है। संपर्क की भाषा कुमाऊंनी-नेपाली या विशेष रूप से हिंदी हो चुकी है। नई पीढ़ी अपनी भाषा के प्रति पूर्णत: उदासीन लगती है और यह भाषा विलुप्त होने की जद में है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट में हिमालयी किरातस्कंधीय तथा अन्य उन बोलियों के नाम आए हैं जो खतरे में हैं लेकिन राजी का नाम नहीं है। जबकि इस अल्पसंख्यक जनजाति की भाषा का कोई भविष्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी के समीप पुरानी जौहारी जो दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी के अपने ही सर्वनामीय वर्ग की थीं, बहुत पहले विलुप्त हो गईं थीं और उसकी जगह आज कुंमाऊनी बोली जाती है। लगता है यही स्थिति राजी भाषा की भी होने वाली है।
- डॉ. शोभाराम शर्मा
डॉ. शोभाराम शर्मा
राजी, राजी भाषा और उसका क्षेत्र:


पश्चिम में हिंदुकुश-पामीर की वादियों से लेकर पूरब में अरुणाचल प्रदेश तक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल हिमालयी क्षेत्र में जिन भाषा-बोलियों का प्रचलन रहा या है उनमें से उत्तराखंड के पूर्वी छोर और पश्चिमोत्तर नेपाल के जंगलों में व्यवहृत एक अल्पसंख्यक राजी नामक जनजाति की भाषा भी है। काली नदी जो उत्तराखंड और नेपाल को अलग करती है, उसी के आर-पार के जंगलों में राजी भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। यह नदी नैनीताल जिले के टनकपुर-बनबसा तक काली कहलाती है और यहीं तक वह उत्तराखंड की पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। इसके आगे वह शारदा, अयोध्या में सरयू और अंतत: घाघरा नाम से गंगा में समाहित हो जाती है। उत्तराखंड के पूर्वी जिलों पिथौरागढ़ एवं चंपावत के धारचुला, डीडीहाट, पिथौरागढ़ और चंपावत तहसीलों के जंगल ही राजी भाषा-भाषियों के मुख्य आवास-स्थल हैं। इधर नैनीताल के चकरपुर में भी इनके कुछ परिवारों का पता चला है।
    भारतीय सीमा के भीतर सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 517 आंकी गई है। नेपाल की सीमा में भी इस जनजाति की लगभग यही स्थिति है। राजी के अतिरिक्त इन्हें बनरौत, रावत, वनमानुष या जंगली या जंगल के राजा भी कहा जाता है। अटकिन्सन आदि के अनुसार राजी राजकिरात का तद्भव है। पौराणिक ग्रंथ हिमालयी जनजातियों में किन्नर किरातों और राज किरातों का उल्लेख भी करते हैं। ये राजकिरात किरात ही थे या किरातों पर शासन करने वाली दूसरी जाति के लोग थे इसकी छानबीन करना सरल नहीं है। राजी अपने को अस्कोट के रजवारों में से मानते हैं। जबकि अस्कोट आदि के रजवार कत्यूरी वंश के हैं और कत्यूरी खस थे या बाद के शक-कुषाण, यह विवादास्पद है। राजियों के वर्तमान रूप-रंग और आकार-प्रकार को देखकर यही प्रतीत होता है कि राजी एक वर्णसंकर कबीला है जिसमें मुख्यत: निषाद जातीय तत्व प्राप्त होते हैं और गौण रूप में मंगोल प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यही कारण है कि वे तराई-भाबर के थारू एवं बोक्सों से अधिक मेल खाते हैं। इस दृष्टि से इस जाति को मलयेशियन जातियों के समकक्ष रखा जा सकता है। जिनमें मंगोल और आस्ट्रिक जातियों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है।
   राजियों की भाषा का अलग से कोई स्वतंत्र नाम नहीं है। जाति के नाम से ही इसे राजी नाम मिला है। विकल्प से इसे रौती या जंगली भी कह दिया जाता है और ये नाम भी बनरौत एवं जंगली जैसे जाति नामों पर ही आधारित हैं। जाति और उसकी भाषा के लिए जंगली नाम का उल्लेख सर्वप्रथम जार्ज ग्रिर्यसन ने सन् 1909 के अपने सर्वेक्षण में किया था।

राजी भाषा का संक्षिप्त इतिहास:

राजी जाति और उनकी भाषा का कोई क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं है। राजी भाषा-भाषी आज तक भी अर्धघुम्मकड़ वन्य कबीले के रूप में जीवन-यापन करने से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इनकी भाषा को सामान्यत: बोली कहा जाता रहा है। लेकिन यह न तो अपने चारों ओर की आर्य परिवार की खस-प्राकृत से निसृत कुमाऊंनी और नेपाली से मेल खाती है और न उत्तर में पड़ोस की किरातस्कंधीय-दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी जैसी तिब्बती-बर्मी वर्ग की बोलियों से ही सीधे-सीधे संबंधित है। अपने क्षेत्र विशेष में अलग-थलग पड़ी होने से इसे बोली की जगह भाषा कहना ही युक्तिसंगत लगता है।
भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता।

   तिब्बत-बर्मी उप परिवार की भाषा-बोलियां हिमालय के दक्षिणी ढलानों और पूर्वोत्तर में बोली जाती हैं। इसी परिवार के भाषा-भाषियों को किरात कहा जाता है। भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता। हिमाचल प्रदेश की कनावरी या किन्नौरी एक ऐसी ही बोली है जिसे कुछ भाषाविद् मुंडा परिवार की ही एक बोली मानते हैं। राजियों के समीप की किरातस्कंधीय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं किंतु उनके बोलने वाले भी राजी को समझ नहीं पाते। जबकि ग्रिर्यसन ने जंगली नाम से राजी भाषा को भी सर्वनामीय वर्ग में ही गिना जाता है। इसका कारण शायद यही है कि राजी भाषा में मुंडा के अवशेष इतने अधिक हैं कि उसे न तो किरातस्कंधीय और न आर्य भाषा-भाषी ही समझ पाते हैं। हिमालय के इस क्षेत्र में पूर्वी नेपाल की किरान्ति बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं। मेघालय की खासी बोली को तो भाषाविद् कुन (KUHN) ने आग्नेय परिवार की मौन-ख्मेर के साथ जोड़ा है। उधर पश्चिम में कनावरी और उसके आस-पास की कतिपय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की मानी जाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र कभी आस्ट्रो-एशियाटिक ;आग्नेय देशीय भाषा-भाषियों का गढ़ था और राजी भाषा भी उसी की एक बची-खुची निधि है जिस पर कालांतर में उत्तर की तिब्बत-बर्मी वर्ग की भाषा-बोलियों का प्रभाव भी कम नहीं है। कुछ लोग भौगोलिक सामीप्य और कुछ शब्दों के मिलने से उसे तिब्बत-बर्मी वर्ग की ही बोली मान लेते हैं। लेकिन राजियों की भाषा का वर्तमान रचनागत वैशिष्ट्य उसके मूल पर अधिक प्रकाश डालता है। राजियों की भाषा पर दो विजातीय प्रभाव तो स्पष्ट हैं, एकाक्षर परिवार की तिब्बत-बर्मी वर्ग का प्रभाव केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि एकाक्षर धातुओं की उपलब्धि भी उसी प्राचीन प्रभाव की ओर इंगित करती है। आर्य प्रभाव शब्द ग्रहण के रूप में अधिक व्यापक है किंतु इन दोनों परिवारों से राजी भाषा में जो भिन्नताएं प्राप्त होती हैं वे इतनी मुखर, व्यापक और सूक्ष्म हैं कि राजी भाषा का इन दोनों परिवारों में से किसी एक में स्थान निर्धारित करना असंगत है। जहां तक द्रविड़ परिवार का संबंध है उसकी किसी जीवित बोली का हिमालय क्षेत्र में आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। इस परिवार की भाषा-बोलियों से राजी भाषा की भौगोलिक दूरी ही नहीं अपितु रचनागत दूरी भी उतनी ही अधिक है। इस भाषा में यदि निम्न विशेषताएं प्राप्त न होतीं तो इसे बास्क, हायपर-बोरी, एनू और जापानी आदि की भांति भाषा परिवार की दृष्टि से अनिर्णीत कोटि में ही रखने पर बाध्य होना पड़ता। -

1 अश्लिष्ट योगात्मकता: राजी के क्रियापद में कर्म और कर्ता प्रत्ययवत् संयुक्त हो जाते हैं। भिन्न भावों और वृत्तियों तथा कालों के लिए प्रत्यय जुड़ते हैं। नए शब्द भी प्रत्यय जुड़ने से निर्मित होते हैं किंतु योग संश्लिष्ट नहीं हो पाता। कुछ वाक्यों में योगात्मकता संश्लिष्ट रूप में प्राप्त होती है किंतु उनकी संख्या नितांत न्यून है।
2 अंत: प्रत्यय की विद्यमानता।
3 क्रिया में निश्चयात्मकता के लिए निर्धारक निपात का योग।
4 क्रिया के आत्मबोधक, परस्पर बोधक और समभिहारार्थक रूप।
5 निपीड़ित व्यंजनों ;अर्धव्यंजनों की प्राप्ति।
6 कंठद्वारीय अवरोध।
7 आंशिक क्लिकत्व।
   उपर्युक्त विशेषताएं अपने-आप में इतनी महत्वपूर्ण हैं कि ये राजी भाषा के परिवार की ओर स्वत: इंगित कर देती हैं। आग्नेय-देशी-मुंडा आदि की इन विशेषताओं के प्राप्त होने से स्पष्ट हो जाता है कि राजी भाषा इसी परिवार से संबंध रखती है। शब्द-भंडार भी अधिकतर इसी मूल का है। युगों से संबंध टूट जाने से और भिन्नमूलक भाषाओं के प्रभाव स्वरूप अनेक अंतर भी उत्पन्न हो गए हैं। कंठद्वारीय अवरोध प्राप्त तो होता है किंतु उसका वही रूप नहीं है जो मुंडा वर्ग की भाषा-बोलियों में है। राजी भाषा में इस अवरोध के पश्चात प्राय: हृस्व या फुसफुसाहट वाले स्वरों का उच्चारण हो जाता है। इसी प्रकार चेतन पदार्थों में द्विवचन, बहुवचन के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम के रूपों का योग भी राजी भाषा में स्पष्ट नहीं है। स्वराघात की दृष्टि से भी राजी भाषा मुंडा के बलात्मक स्वराघात का अनुगमन नहीं करती। फिर भी राजी भाषा का ध्वन्यात्मक गठन, व्याकरण और शब्द-भंडार तीनों इस बात के प्रमाण हैं कि आज चाहे जितने स्थूल अंतर क्यों न उत्पन्न हो गए हों, राजी भाषा मूलत: आग्नेय परिवार से संबंधित मुंडा परिवार की बोली है।

संदर्भ-ग्रंथों की सूची:

1 कुमाऊं तथा पच्च्चिमी नेपाल के राजियों (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन,
डॉ. शोभाराम शर्मा
2 एस्से रिलेटिंग टू इंडियन सब्जैक्ट्स- खंड-1, ग्रियान हारटन हाग्सन
3 कुमाऊं का इतिहास, श्री बद्रीदत्त पांडे
4 गजेटियर(अल्मोड़ा) अटकिन्सन
5 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसन(हिंदी अनुवाद- भारत का भाषा सर्वेक्षण, डॉक्टर उदित नारायण तिवारी)
6 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, भाग-2, ;मौन-ख्मेर एवं ताई परिवार, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसनद्ध
7 भारत की भाषाएं तथा भाषा संबंधी समस्याएं, डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी
8 भारतीय संस्कृति में आर्येतरांश, श्री शिवशेखर मिश्र
9 हिमालय परिचय (कुमाऊं), राहुल सांकृत्यायन
10 राजी: लैंग्वेज ऑफ ए वेनिशिंग हिमालयन ट्राइब, डॉक्टर कविता श्रीवास्तव
11 प्रीहिस्टोरिक इंडिया, स्टूवर्ट पिगॉट