Monday, November 28, 2016

तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया ?

पाँच सौ और हज़ार रु की नोटबंदी पर जमकर घमासान हो रहा है और अब लोहिया ,मधु लिमये और ज्योतिर्मय बसु का ज़माना रहा नहीं कि संसद में भारतीय राजनय के गंभीर विमर्श में इतिहास रचने वाले सारगर्भित वक्तव्य दिए जायें , हो हल्ला कर के सदन का स्थगन करने में सत्ता और विरोधी पक्ष दोनों का हित सधता है। जनता की परेशानियों की रिपोर्ट सामने आती है तो देशभक्ति का सवाल उठा कर कभी महाराणा प्रताप तो कभी भगत सिंह का का नाम आगे कर दिया जाता है। इन ख़बरों के बीच जम्मू के सांभा इलाके से जो वाक्य सामने आया है वह किसी मुहम्मद हारुन नाम के बकरवाल युवक का है जिसका नौ साल का बेटा उसके कन्धों पर गाँव जंगल में तीस किलोमीटर तक घिसटते घिसटते दम तोड़ देता है क्योंकि बस और डॉक्टर को देने के लिए उसकी जेब में छोटे नोट नहीं थे - ध्यान रहे कि उन्तीस हज़ार रु उसकी जेब में थे पर पाँच सौ और हज़ार रु के नोट थे।सरकारी अस्पताल पहुँच कर जब उसने बेटे को निचे उतार तो उसकी साँस थम चुकी थी। अब जैसा कि तमाम मामलों में होता है इसकी उसकी रिपोर्ट मँगवाई जा रही है ताकि ज़िम्मेदारी बाँधी जा सके। यह घटना मुझे मेक्सिको क्रांति के अनूठे चितेरे जुआन रुल्फ़ो की बेहद चर्चित कहानी "क्या तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया?" (मूल स्पेनिश में इसका शीर्षक "No oyes ladrar los perros" है जिसको अंग्रेज़ी अनुवाद में "You Don't Hear the Dogs Barking" लिखा गया है )की याद दिलाती है। बीमार बेटे को सिर पर टोकरी में उठाये उठाये कथा नायक पहाड़ी से रात भर चल कर जब शहर के अस्पताल पहुँचता है तो बदहवासी और जल्दी पहुँचने की धुन में न उसको शहर के कुत्तों का भौंकना सुनाई देता है न बेटे का लुंज पुंज होकर टोकरी में लुढ़क जाना - टोकरी सिर से उतार कर जब वह नीचे टिकाता है तब असलियत मालूम होती है। मेक्सिको के क्रांति के उथल पुथल और अराजक माहौल और सत्तर साल के आज़ाद और सबसे तेज़ तरक्की करने वाले देश भारत के बीच इतनी समानता अचरज और चिंता में डाल देती है। यहाँ मित्र पाठकों के लिए जुआन रुल्फ़ो का परिचय और उपर्युक्त कहानी प्रस्तुत है : प्रस्तुति: यादवेन्द्र

लैटिन अमेरिका के प्रतिष्ठित और सर्वमान्य लेखकों में शुमार किये जाने वाले जुआन रुल्फो 1917 में मेक्सिको में एक जमींदार परिवार में जन्मे पर उनके माँ पिता बचपन में ही गुजर गए - पिता की लुटेरों(या क्रांतिकारियों ने?) ने गोली मार कर हत्या कर दी और चार वर्ष बाद माँ भी बीमारी से चल बसीं।दादा दादी ने उनकी परवरिश की जिनकी खानदानी जमीन मेक्सिको क्रांति के दौरान उनके हाथ से छिन गयी। अनाथालय और चर्च के खैराती स्कूल में पढ़े कभी सेना में भरती हुए तो कभी वकालत में दाखिल लिया पर इनका मन ऐसे किसी काम में नहीं लगा।साहित्य के प्रति उनकी रूचि धीरे धीरे मुखर होती गयी और उन्होंने एक साहित्यिक पत्रिका शुरू की हाँलाकि सेल्समैन की नौकरी करते हुए अपने देश के सुदूर इलाकों में घूमने का मौका खूब मिला।मेक्सिको क्रांति की उथल पुथल ने उनके जीवन पर ही नहीं बल्कि उनके लेखन पर बहुत गहरा असर डाला था।रुल्फो ने खुद अपने बचपन के बारे में लिखा है कि घनघोर अराजकता और मारकाट के दौर में मेरा बचपन घर के अन्दर घुस कर किताबें पढ़ते रहने में बीता -- घर से बाहर कदम निकालना खतरे से खाली नहीं था,जाने कब कौन गोली मार दे। संगठित तौर पर लिखने का मौका उन्हें 1952 - 54 के बीच एक फेलोशिप के दौरान मिला जब उन्होंने अपनी दोनों किताबें लिखीं। जोर्गे लुइस बोर्खेस के साथ रुल्फो को बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में गिना जाता है पर दिलचस्प बात यह है कि रुल्फो की सिर्फ दो किताबें प्रकाशित हैं--एक उपन्यास और दूसरा एक कहानी संकलन।अंग्रेजी में उनका कहानी संकलन"द बर्निंग प्लेन एंड अदर स्टोरीज"शीर्षक से प्रकाशित।मेक्सिको और स्पेन की सरकारों ने उन्हें साहित्य के सर्वोच्च सम्मान प्रदान किये। अंग्रजी में अनूदित उनकी दो कहानियां बेहद चर्चित हैं "टेल देम नॉट टु किल मी" और "यू डू नॉट हियर द डॉग्स बार्किंग".(यहाँ उनकी यही कहानी प्रस्तुत है). जादुई यथार्थवाद का जो सम्मोहन गेब्रियल गार्सिया मार्केज के साथ पूरी दुनिया को अपने घेरे में लेता गया कहते हैं उसकी शुरुआत रुल्फो ने अपने इकलौते और सिर्फ सवा सौ पृष्ठों के उपन्यास से की थी।हहे बोर्खेस हों,मार्केज हों या ओक्तोवियो पाज़ हों सब एक स्वर से रुल्फो को इसका श्रेय देते भी हैं।स्लेट मैगजीन मार्केज को उधृत करती है कि 1961 में जब मैं मेक्सिको सिटी गया तो पहली बार जुआन रुल्फो का नाम सुना और जब उनका उपन्यास मेरे हाथ लगा तो एक रात में मैंने दो दो बार उसको पढ़ डाला ...उसके बाद भी कई बार उसको पढता रहा और इतनी बार पढ़ लेने के बाद मुझे वह किताब पूरी तरह से कंठस्त हो गयी ...आप आगे से कहें या पीछे से मैं उसके शब्दशः सुना सकता था ...इस किताब की गहराई ने भविष्य में मुझे मेरे उपन्यासों को लिखने की प्रेरणा दी। मार्केज रुल्फो के बारे में यह भी कहते हैं कि वे अन्य क्लैसिक लेखकों से इस मायने में एकदम भिन्न थे कि उनकी किताब तो खूब खूब पढ़ी गयी पर उनपर चर्चा और बहसें बहुत कम की गयीं। रुल्फो ने अपने बारे में खुद भी बहुत कम लिखा है।उनका अपने बारे में मत था कि वे कोई प्रोफेशनल लेखक नहीं है बल्कि जब किसी बात नें उन्हें उद्वेलित किया तब उसको लिख डाला।रुल्फो के जीवनीकार लुइस लील का कहना है कि"पेड्रो पारमो" के बाद भी उन्होंने कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे पर पहले उपन्यास के तब लगभग अचर्चित रह जाने के कारण संकोचवश उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया और फाड़ कर फेंक दिया। उनका 1955 में प्रकाशित उपन्यास "पेड्रो पारमो" एक ऐसे इंसान की कहानी है जो हाल में दिवंगत हुई अपनी माँ के अतीत के बारे में जानने के लिए उनके गाँव जाता है और इस लगभग उजाड़ गाँव में उसको अपने पिता के बारे में दिलचस्प बातें सुनने को मिलती हैं।खूब चहल पहल वाले समय और अब लगभग उजड़ चुके गाँव के दृश्यों के बीच और अनेक स्त्रियों को भोग चुके दबंग पिता और अब विधवा होकर गाँव लौटी बचपन की अपनी प्रेमिका के असंतुलित बर्ताव से खिन्न और हताश पिता की छवियों के बीच आधा आधा बँटी हुई यह कृति लैटिन अमेरिका के जादुई यथार्थवाद का प्रेरक ग्रन्थ मानी जाती है।शुरू के चार वर्षों में इस किताब की महज दो हजार प्रतियाँ बिकीं पर बाद में इसको लैटिन अमेरिकी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति माना गया और दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में उसके अनुवाद लाखों की संख्या में बिके। उनके नाम से स्थापित फाउंडेशन में उनके हजारों फोटोग्राफ संरक्षित रखे गए हैं। "जुआन रुल्फोज मेक्सिको" शीर्षक से उनके श्वेत श्याम छायाचित्रों का संकलन प्रकाशित है जिसमें मेक्सिको के शीर्ष लेखकों ने उनके बारे में लिखा है और उनका मानना है कि ये फोटो किस्से नहीं कहते बल्कि विचार प्रस्तुत करते हैं। क्रांति के बाद के ग्रामीण मेक्सिको की ये तस्वीरें उनके लेखन के समकक्ष महत्वपूर्ण मानी गयी हैं। उनकी अनेक कहानियों और इकलौते उपन्यास पर एक से ज्यादा बार भिन्न भिन्न निर्देशकों ने लोकप्रिय फ़िल्में बनायीं हैं।

जुआन रुल्फो (मैक्सिको)
  
"अरे इग्नेसियो, तुम जगे हुए  हो न? बताओ क्या तुम्हें  कहीं से कोई  आवाज सुनायी दे रही है ... या कोई रोशनी दिखायी दे रही है?"

"नहीं,कहीं कुछ नहीं दिखायी दे रहा."
"पर लगता है जैसे हम शहर के कहीं आस पास ही हैं."
"लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा है ... पर सुनायी तो कुछ नहीं दे रहा."
"अपने आस पास ढंग से आँखें खोल कर देखो."
"मुझे कुछ भी नहीं  दिखायी दे रहा है."
बेचारा इग्नेसियो.
इंसानों  की लम्बी काली परछाईं  ऊपर नीचे हरकत करती हुई दिखायी दे रही थी ... नदी के किनारे चट्टानों  पर फिसलती हुई – कभी विशाल आकार धारण कर लेती तो कभी सिमट  जाती.
यह अकेली परछाईं  थी – हवा में लहराती हुई.
चन्द्रमा धरती के सिर के ऊपर मचलता हुआ प्रकट  हुआ और रोशनी का छिड़काव करने लगा. 
"हमें  जल्द से जल्द उस शहर तक पहुँचना  है इग्नेसियो. तुम्हारे कान खुले हुए हैं ... आस पास निगाह दौड़ाओ और सुनो कि कुत्तों  का भौंकना सुनायी पड़ रहा है ? उसी से हमें  पता चलेगा कि तोनाया शहर पास आ गया है. हमें अपने गाँव से चले हुए  तो कई  घंटे हो चुके  हैं ."
"आपकी  बात दुरुस्त है... पर मुझे तो कहीं  कुछ दिखायी नहीं  दे रहा."
"मैं  तो अब बुरी तरह थक चुका हूँ ."
"आप ऐसा करो... मुझे सिर से नीचे उतार दो."
बूढ़ा आदमी पीछे चलते हुये एक दीवार तक पहुँचा और उस से टिक कर सिर की टोकरी को ऊपर ऊपर ही इस ढंग  से संतुलित करने लगा जिस से उसको धरती पर नीचे न उतारना पड़े. उसकी टाँगें  थकान से कांप  रही थीं  पर नीचे बैठने का उसका कोई इरादा नहीं था  क्योंकि एक बार बैठ  जाने पर बेटे  का उतना  बोझ लेकर दुबारा  उठा  पाना  उसके अकेले के बस का नहीं था.घंटों  पहले जब वह बेटे  को गाँव से लेकर चला था तब भी कई लोगों  ने बेटे  को टोकरी में  लाद कर उसके सिर तक उठाने में मदद की थी. इतनी देर से वह उसको अपने सिर पर लादे वैसे ही चलता आ रहा है.
"अब तुम्हारी तबीयत कैसी लग रही है बेटे ?"
"बहुत खराब ."
वे आपस में  बहुत कम बातचीत कर रहे थे ... बोलते भी तो एक दो शब्द. चलते हुए ज्यादातर समय वह सोता ही रहा – बीच बीच में उसका बदन बिल्कुल बरफ जैसा ठंडा पड़  जाता – तब वह बुरी तरह काँपने लगता. इस तरह की कँपकपी को वह तुरत भाँप जाता क्योंकि उसके  सिर पर लदा हुआ  टोकरा  हिलने डगमगाने लगता – उसको गिरने से बचाने के लिये बूढ़े को  अपने पंजे धरती पर गहराई  से अन्दर घुसाने पड़ते . दौरा पड़ते ही उसका बेटा अपनी बाँहें उसकी गर्दन के चारों  ओर कस कर लपेट  लेता – कई कई बार तो वह झटके के कारण  गिरते गिरते बचा. 
उसने अपने दाँत  किटकिटाये पर इस हिफाजत के साथ कि जीभ कटने से बची रहे ... बेटे से उसने पूछा:
"क्या तकलीफ बहुत हो रही है?"
"हो तो रही है" ... बेटे ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
पहले उसने कहा था कि "मुझे आप सिर से नीचे उतार दीजिये ...आप पैदल शहर की ओर बढ़िये ,मैं धीरे धीरे आपके पीछे पीछे चल कर कल तक अपने आप आपके पास पहुँच जाऊँगा ... हो सकता है और ज्यादा समय लगे ,पर आ ही जाऊँगा धीरे धीरे" ... उसने यह बात रास्ते में कम से कम पचास बार दुहराई होगी ... पर अब उसकी हिम्मत टूट रही थी।
सिर के ऊपर चाँद चमक रहा था ... और इस अँधेरे समय में वो चाँद उनकी आँखें ज्यादा आलोकित कर रहा था ... उनकी लम्बी होती जाती छाया धरती पर पड़ती उसकी रोशनी को बीच बीच से खंडित कर रही थी।
"मुझे पता नहीं चल रहा है हम जा कहाँ रहे हैं" ... उसने कहा।
इसके बाद चुप्पी छाई रही,बूढ़े ने कोई जवाब नहीं दिया। 
वह चाँदनी में नहाया हुआ उकडूँ होकर बैठा था पर चेहरा रक्तविहीन  और हल्दी जैसा पीला    
---उसके शरीर से प्रतिबिंबित होकर आ रहा प्रकाश भी मरियल .
"मैंने जो बोला तुमने सुना इग्नेसियो ?मुझे लग रहा है कि तुम्हारी तबियत ज्यादा ही ख़राब है" ...
दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
बूढ़ा जैसे तैसे भी हिम्मत बाँधे आगे बढ़ता रहा -- उसने कन्धों को थोड़ा झुकाने और फिर शरीर को सीधा करने का यत्न किया।

"यहाँ तो कोई सड़क भी नहीं दिखाई दे रही है ... लोगों ने कहा था कि इस पहाड़ी को पार करते ही तोनाया शहर आ जाएगा ...हमने पहाड़ी पार कर ली पर दूर दूर तक शहर का कहीं कोई नामो निशान नहीं ...कहीं से कोई शोर शराबा भी नहीं उठ रहा जिस से पता लगे कि हम आबादी के आस पास हैं ...तुम्हें तो ऊपर से सब दिखाई दे रहा होगा ...बताओ कहीं कुछ हलचल दिखाई दे रही है?"
"मुझे सिर से नीचे उतार दो ...पापा।"
"तुम्हारी तबियत ज्यादा ख़राब लग रही है?"
"हाँ सो तो है" ....
"देखो,चाहे जो हो जाये मैं तुम्हें तोनाया पहुँचा कर ही दम लूँगा ...वहाँ तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई तो  मिलेगा  ...लोगों ने बताया था कि डाक्टर है वहाँ, उसके पास तुम्हें दिखाने ले चलूँगा ...जब इतनी दूर से तुम्हें अपने सिर पर ढो कर लाया हूँ तो यहाँ ऐसे खुले आसमान के नीचे छोड़ कर चला कैसे जाऊँ....मैं तुम्हें मरने कैसे दे सकता हूँ?" 
बूढे की लड़खड़ाहट बढ़ गयी थी ..उसके कदम डगमगाए पर जल्दी ही वह संभल गया।
"मैं जब तक तुम्हें तोनाया पहुंचा नहीं देता दम नहीं लूँगा।"
"मुझे नीचे उतार दो" ....
बेटे की आवाज मुलायम होती गयी, लगा जैसे फुसफुसा रहा हो ....
"मुझे थोड़ा आराम करने दो पापा " .... 
"वहीँ बैठे बैठे सो जाओ बेटे ...मैंने तुम्हें कस के पकड़ा हुआ है।" 
आकाश बिलकुल साफ़ था और चंद्रमा पूरे निखार पर था ...उसका रंग धीरे धीरे नीला पड़ता जा रहा था।बूढ़े का चेहरा पसीने से लथपथ हो चुका था और चाँदनी उस गीलेपन पर जैसे चिपक सी गयी हो।सिर पर बोझ होने और बेटे की बाँहें गर्दन से लिपटी होने की वजह से वह सिर्फ नाक की सीध में सामने देख सकता था सो सिर के ऊपर दमक रहा चन्द्रमा उसकी निगाहों से बाहर था। 
"मैं तुम्हारे लिए जो कुछ भी कर रहा हूँ तुम्हारे वास्ते नहीं कर रहा हूँ ...तुम्हारी गुज़र चुकी माँ की खातिर कर रहा हूँ ...तुम आखिर उसी के बेटे हो ...यदि मैंने तुम्हें ऐसे ही छोड़ दिया तो वह मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी ..उसकी ख़ुशी के लिए मुझे ये सबकुछ करना है ...जब मैंने उस बुरी और दयनीय हालत में बीच सड़क पर तुम्हें पड़े हुए देखा तो मुझे एकदम से एहसास हुआ कि तुम्हारा इलाज करवा कर चंगा कर देना मेरा दायित्व बनता है ...इतनी दूर से तुम्हारा वजन उठा कर मैं ले आया इसके लिए शक्ति भी उसी ने मुझे दी, तुमने नहीं ...वजह सीधी सी है कि जीवन भर तुमने मुझे कष्ट और जलालत के सिवा क्या दिया ..भरपूर संताप....और जितना हो सकता था उतना अपमान ..." इतना बोलते बोलते वह पसीने से तर बतर हो गया पर धीरे धीरे बहती हुई हवा ने पसीना सुखा दिया --- पर हवा के मद्धम पड़ते ही पसीना फिर से आने लगा।
"मेरी कमर चाहे टूट जाये पर मैं तुम्हें तोनाया तक पहुँचा कर ही दम लूँगा -- तुम्हारे बदन पर जो जख्म हैं उनको ठीक करा कर ही मुझे चैन मिलेगा ... हाँलाकि मुझे पक्के तौर पर मालूम है कि ठीक होते ही तुम अपनी पुरानी शैतानी राह पर लौट जाओगे ...पर मेरे लिए तुम्हारे इस बर्ताव के ज्यादा मायने नहीं क्योंकि तुम मेरी निगाहों से दूर रहोगे,बस मुझे तुम्हारी खुराफातों और कारस्तानियों का पता न चले ... ईश्वर करे ऐसा ही हो ...मैं मानता हूँ कि तुम्हारा मेरा बाप बेटे का कोई रिश्ता है ही नहीं ...मुझे अपने लहू के उस कतरे पर शर्म आती है जो तुम्हारे बदन की बनावट में शामिल है ... यदि मेरा वश चले तो मैं तुम्हारे गुर्दे के अंदर बह रहे अपने लहू को शाप दे दूँ कि उसमें कीड़े पड़ जाएँ  .जिस दिन मुझे पता चला कि तुम राह चलते लोगों को लूटते हो ,डाका डालते हो और क़त्ल करते हो ...वो भी निर्दोष राहगीरों का क़त्ल ...उस दिन से मेरे मन में तुम्हारे लिए ऐसी नफ़रत पैदा हो गयी ...मेरी बात पर यकीन न आ रहा हो तो मेरे दोस्त ट्रैन्किलिनो से दरियाफ्त कर सकते हो ...उसी ने तुम्हारा बप्तिस्मा किया था ...तुम्हारा नाम भी उसी का रखा हुआ है ...अफ़सोस की बात कि तुम्हारे ही कारण उसको बहुत सारी जलालत भी भुगतनी पड़ी।जब तुम्हारी कारस्तानियों के बारे में यह सब मुझे पता चला तो मैंने फ़ौरन निश्चय किया कि अब से तुम्हें मैं अपना बेटा नहीं मानूँगा..अब देखो,कहीं कुछ दिखाई पड़ रहा है? ...या फिर कोई आवाज सुनाई पड़ रही है?...जो भी देख सुन पाओगे तुम्हीं कर पाओगे,मैं तो ऐसे ही बहरा बना हुआ मानुष हूँ।"
"मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।"
"तुम्हारी किस्मत ही फूटी हुई है ...मैं क्या कर सकता हूँ।"
"मुझे बहुत तेज प्यास लगी है।"
"जरा ठहरो ...लगता है हम शहर के करीब तक पहुँच गए हैं ...हमारी बदकिस्मती है कि हमें यहाँ तक आते आते रात हो गयी ...लोगों ने अपने अपने घरों की रोशनी बुझा दी है ...पर रोशनी न भी दिखाई दे तो कुत्तों का भौंकना तो सुनाई पड़  ही जायेगा ...कान लगा कर सुनो,कहीं से कुछ आहट आ रही है?"
"प्यास से मैं मरा जा रहा हूँ ...कहीं से भी मुझे पानी लाकर दो।" 
"मेरे पास पानी है कहाँ...आस पास दिखाई भी नहीं पड़ रहा है ...चारों और पत्थर ही पत्थर ...पर एक बात कान खोल कर सुन लो ...यदि मुझे पानी दिखाई दे भी जाता है तो मैं पानी पीने के लिए तुम्हें नीचे उतारने वाला नहीं ...दूर दूर तक जहाँ कोई परिंदा न दिखाई दे वहाँ तुम्हें दुबारा मेरे सिर के ऊपर चढाने में कौन मदद कौन करने आएगा भला...मेरे बस का अकेले तुम्हें जमीन से उठा कर सिर पर रख लेना नहीं है।"
"लगता है तुरत पानी नहीं मिला तो मेरी जान ही निकल जाएगी ...चलते चलते मैं थक भी बहुत गया हूँ।"  
"तुम्हारी बातें सुन के मुझे तुम्हारे जन्म का समय याद आ रहा है ...जन्म लेते ही तुम्हें जोर की प्यास लगी थी और भूख भी ...खा पी कर तुम गहरी नींद सो गए थे ...तुम्हारी माँ की छाती में जितना दूध था तुम इसकी एक एक बूंद चूस गए फिर भी तुम्हारी राक्षसी भूख प्यास ख़तम नहीं हुई ...फिर माँ ने तुम्हें पानी पिलाया पर तुम इस से भी संतुष्ट नहीं हुए ...बचपन में तुम बेहद शरारती और उद्दंड थे ,पर बचपन की शरारत देख के मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि बाद में तुम्हारे कारण हमें ऐसे दुर्दिन देखने पड़ेंगे ...मैंने जो सोचा भी नहीं था आखिर हुआ वही।तुम्हारी माँ हमेशा यही दुआ करती रही कि तुम खूब बलवान हट्टे कट्टे बाँके जवान बनो ...जीवन भर उसकी यही आस लगी रही कि बड़े होकर तुम उसकी परवरिश करोगे...दरअसल तुम्हारे सिवा उसके पास और था भी कौन ? दूसरा बेटा तो सिर्फ उसकी जान लेने आया था -- इधर उसने जन्म लिया उधर तुम्हारी माँ चल बसी ... धरती पर पाँव रखते ही उसने माँ की जान ले ली ...गनीमत है तुम्हारी यह दुर्गति देखने को वो जीवित नहीं रही वर्ना उसको तो दुबारा शर्म से मरन पड़ता ... बेचारी दुखियारी ।"
अचानक बूढ़े को एहसास हुआ कि उसके सिर के ऊपर रखी टोकरी में बैठा हुआ इंसान हिल डुल नहीं रहा है ,अपने गठरी जैसे शरीर को कभी इधर तो कभी उधर खिसका कर संतुलन बनाने की कोशिश भी नहीं कर रहा है ...और उसके सिर से पसीना ऐसे चू रहा है जैसे कातर रुलाई से मोटे मोटे आँसू गिर रहे हों।
"इग्नेसियो ...इग्नेसियो ...तुम रो रहे हो?...माँ की इतनी याद आ रही है?...पर अपने दिल पर हाथ रख के पूछो तुमने अपनी पूरी जिंदगी में कभी उसके लिए कुछ किया?...हमें तो तुमने सिर्फ दुःख, शर्म  और अपमान ही दिए ... अब देखो जिनके साथ मिलकर तुमने यह सब किया उन्होंने बदले में तुम्हें क्या दिया -- सिर्फ घाव न?दिन रात तुम्हारे लिए कसमें खाने वाले दोस्तों का भी क्या हस्र हुआ ...वे सब के सब भी आपसी लड़ाई झगड़ों में मारे गए ...पर उनके लिए रोने वाला कोई नहीं था ...वे कहा भी करते थे कि हमारे पीछे स्यापा करने वाला कोई नहीं है ...पर तुम्हारे अपने लोग तो थे इग्नेसियो -- तुमने अपने लोगों को अपने कुकर्मों से संताप के सिवा क्या दिया?"

शहर आ गया था ...घरों की छत पर चाँदनी बिखरी हुई थी ...पर जब आखिरी बार उसने अपनी कमर सीधी करने की कोशिश की तो बूढ़े को ऐसा लगा कि वो अपने बेटे के बोझ तले दबकर वहीँ मर जायेगा।शहर में घुसते ही जो पहला मकान मिला बूढ़ा उसके पास थोडा ठहर कर सुस्ताने को हुआ --- उसने सिर की टोकरी नीचे उतारने की कोशिश की तो उसको एकदम से महसूस हुआ जैसे शरीर का कोई अंग अचानक कट कर दूर जा गिरा हो ।
अपनी गर्दन पर कस कर लिपटी हुई हथेलियाँ उसने बड़ी मुश्किल से ढीली कीं ...कान के ऊपर से बेटे की हथेली हटते ही उसको अपने चारों और कुत्तों का भौंकना सुनाई पड़ना शुरू हो गया।
"ताज्जुब है,इतने सारे कुत्ते चारों ओर भौंक रहे हैं  पर तुम्हें इनका भौंकना सुनाई नहीं पड़ा इग्नेसियो?...समय रहते शहर तक पहुँच जाने और डाक्टर को दिखा देने के भरोसे को जिन्दा रखने में भी तुमने मेरी मदद नहीं की...मरते हुए भी तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं ही आये...जीते जी तो तुमने मेरे साथ दगा किया ही, मरते हुए भी मुझे नहीं बख्शा ....

Friday, November 25, 2016

बैल की जोड़ी

नंद किशोर हटवाल की यह कहानी परिकथा के ताजे अंक में प्रकाशित है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की खेती बाड़ी आज भी पारम्‍परिक तरह से हल बैल पर आधारित है। हटवाल की चिन्‍ताओं में शामिल उसके चित्र उन पशुओं के प्रति विनम्र अभिवादन के रूप में आते हैं। कहानी पर पाठकों की राय मिले तो आगे बहुत सी बातें हो सकती हैं। इस उम्‍मीद के साथ ही कहानी यहां प्रस्‍तुत है।

नंद किशोर हटवाल


    इंदरू कल जाने की तैयारी में है।
    ...गज्जू रै गया अकेला। रज्जू ने धोका कर दिया..।...बीच में छोड़कर चला गया।
    दो महीने हो गये रज्जू को चट्टान से गिरे।...ये पहाड़ है माराज। चारों तरफ चट्टान, खाईयां, रपटे और घाटियां। समतल काँ मिलेगा चरने को।...क्या ढोर डंगर..क्या आदमी। पेट की खातिर चट्टान-खाईयों में तो जाना ही जाना है।...जवान था रज्जू अभी...पर आ गई काल घड़ी। इस बार बैल गिर कर चट्टान पर ऐसी जगह अटका कि देखने तक नहीं जा सका इंदरू। साम को सीधे गिद्द घूमते दिखे।
    ...धन्नी ताऊ जीवित होते तो मुझे समझाणे पहुँच जाते...कि..कि..खेती किसाणी करने वाले काँ निभा पाते शौक..।
    ये रां! बिचारे धन्नी ताऊ। अपने गज्जू-रज्जू बैलों के खांखरों की झमणाट और घण्टियों की खमणाट के साथ हो ऽ ऽ ऽ हा ऽ ऽ ऽ करता इंदरू जब भी दिखता धन्नी ताऊ के अंदर आग पैदा हो जाती थी। कहते....खेती किसाणी करने वालों पर काँ फबती है अकड़! शौक तो उन पर फबते हैं जो मिट्टी में हाथ नयीं डालते।...हल लगाते समय हलिया का तो सिर नीचा रैता है हमेशा..तो नीचा ही रैणा चायिये।...हम तो मिट्टी के आदमी हुये..मिट्टी की तरों ही रैणा खपता।...खेत तबि तैयार होंगे जब सिर नीचा रखेंगे! सिर उठायेगा तो गिरेंगे..नाक टूटेगी। हमारी तो चार दिन की फ्वीं-फ्वां होती। एक बैल चट्टान-घाटी में लुड़का नयीं कि फूक सरक जायेगी। जवानी के चार दिन के फुंफ्याट हैं ये! रोब-दाब...शौक-शाक...इधर खेती किसाणी में काँ चलते।..ठसक तो राज्जा-माराज्जों के होते..पूरी जिंनगी निभाणे की ताकत जिनपे है!!
     धन्नी ताऊ बैलों के शौकिया थे। पर उनकी खूबसूरत जोड़ी के एक बैल को बाघ ने मार दिया था। जैसे-तैसे उन्होंने फिर जोड़ी बनाई तो फिर कुछ समय बाद एक बैल गाँव की बगल से ही खाई में गिरा। तब तो उठ नहीं पाये थे धन्नी ताऊ। तभी से किसी की खूबसूरत बैलों की जोड़ी देखते तो जल-भुन जाते थे।
     इंदरू ने मेहरू गल्दार को बुलाया था साथ चलने के लिए। मना कर दिया उसने।...इंदरू के साथ बैल खरीदणे के लिए जाणा तो ब्येकूबि..है..। सिब सिंग भी बड़ी मुश्किल से साथ चलने को तैयार हुआ। बहाने कर रहा था।...काँ जायेंगे..। मिल काँ रे बैल? लोग पाल बि रे हैं बैलों को अब...?
    भादी ने इंदरू की उमर का हवाला दिया, ‘‘...तू साथ में रै के समझाणा जरा।...अपणी चलाते रैते हैं।’’
    ‘‘...समझते काँ कि उमर हो रयी कह के..? बछड़े बणे रैते...!’’    
    दूसरे दिन इंदरू और सिब सिंग मुंह अंधेरे ही गाँव से निकल गये। गाँव से सीढ़ीनुमा खेतों से सीधे नीचे को उतरते हुए अलकनंदा पर बने झूलापुल को पार किया। आगे की खड़ी चढ़ाई चढ़ ही रहे थे कि गड़..गड़..गड़ गड़ाम्म! बादल गरजे। पौ फटने लगी थी। सिब सिंग ने देखा, ‘‘ओ प्पापा!...ठिक्क आज गणाईं का पाड़ घन्नाघोर बणा है!’’
    ‘‘आंह! बरखा काँ आयेगी! ठग बद्दल हैं!’’ इंदरू ने कहा।
    पहला बसेरा गणाईं पहुँचे। वहाँ पोस्ट मास्टर साहब के पास बताया था किसी ने बैल। गोसाला गये। इंदरू ने बैल देखा-परखा। आगे-पीछे। पीठ पर दो-चार हाथ मारे। टाँगों को छूकर देखा। सींगों को हाथ से नापा। सिब सिंग ने बैल को छूने की कोशिस की तो मना कर दिया।...इन चीजों को तू क्या समझता..! फिर कुछ देर इंदरू अपनी नजरों से एकटक बैल को देखता रहा। गज्जू से मिलान किया। और मना कर दिया।
    दूसरे दिन पहुँचे सेम गाँव। वहाँ भी एक बैल देखा। रंग थोड़ा भूरा था। गज्जू एकदम काला है। सस्ते में मिल जाता पर इंदरू ने साफ मना कर दिया, ‘‘जोड़ा नहीं बैठा तो चाहे मोफत में बि मिले...! बिना रंग मिले तो...!’’
    तीसरे दिन रतगाँव और साम को बज्वाड़ गये। इन गाँवों में बैल थे ही नहीं बिकाऊ। किसी ने ऐसे ही गलत सूचना दी। साठ-सत्तर मवासों में बीस-पच्चीसों ने पाले हैं बैल।
    नौ दिनो में पन्द्रह गाँव घूमे इंदरू और सिब सिंग। कहीं बालभर छोटे-बड़े सींग या कद-काठी तो कहीं डील-डौल, ऊंचाई में फर्क। और बातें मिल बि जातीं पर रज्जू के जैसे सींग..! क्या फिट्ट मिलते थे गज्जू से..!
    दसवें दिन पहुँचे स्वींग गाँव। स्वींग के पंचम सिंग के पास था एक बिकाऊ बैल।
    ‘‘ओ ब्बेट्टा पंचम! अब पाल्टी पड़ती तेर को जबड़दस्त!’’
    ‘‘अब्बे पैले बिकणे तो दे। देखते हैं कितना झड़ता है।’’
    ‘‘ओब्बै, झड़ जायेगा ढंग से। भौत दिन से घूम रा सुना हमने ये। अब जादा डबड्याणे के चक्कर में नयी पड़ेगा।’’
    ‘‘अबे तुम पटाणे में मदद करोगे तबि तो पाल्टी करूंगा।’’
    ‘‘उस बकील को बि बुला!...अबे उसे क्या पता कि ये असली बकील है कि नकली!’’
    ‘‘ये ठिक्क बोला तुमने!! बकील जिरै करेगा तो बैल की ठिक्क कीमत मिल जायेगी।’’
    इंदरू पंचम के घर पहुँचा तो पंचम ने इंदरू का बड़़ा सम्मान किया।
    ‘‘इंदर सिंग जी मैंने आपका बड़ा नाम सुणा है।’’ पंचम के मुँह से जैसे मोती झड़ रहे थे।
    पंचम के बैल पास की पहाड़ी पर चर रहे थे। पंचम वहीं ले गया इंदरू को अपना बैल दिखाने। दूर से ही देख लिया इंदरू ने। दोनो सींग टूटे थे बैल के। ...आं..इसीलिए.. ये मिट्ठी जुबान हो रयी थी...।
     बिना कुछ कहे वहीं पर से वापस लौट गया इंदरू। ‘क्या हुआ? क्या हुआ?’ कहता पंचम सिंग इंदरू के पीछे-पीछे भागता रहा। पर इंदरू कुछ नहीं बोला।
     इंदरू सीधे मूनाकोट के रास्ते लग गया।
    पंचम सिंग ने कहा, ‘‘अरे इंदर सिंग जी बात तो बताओ क्या हुआ? चलो हट्टाओ खरीदणा-बेचणा..। मूनाकोट दूर है...साम को ही पोंछेगे। भात काँ खायेंगे..। भात खा के तो जावो।’’
    ‘‘ये सयी कै रे हैं।’’ सिब सिंग ने कहा।
    ‘‘आप लोग मेरे घर आये मेमान हैं। भूखे जायेंगे? लोग क्या बोलेंगे मेरे को..? गज्जब बात! भात का टैम बि हो रा।’’
    कुछ तो भात सुन कर और कुछ मेहमान का दर्जा पाकर इंदरू रूक गया, ‘‘आं..हां, भात तो खा ही लेते हैं। आज तो नाश्ता-पाणी बि नयी हुआ।’’
    पंचम ने परिचय कराया, ‘‘ये बकील साब हैं। नियम कानून इनकी मुट्टी में रैता है। सिद्दे पड़दान मंतरी के फोन आते इन्को। और ये हैं सिताब सिंग जी। बड़े काँन्टैक्टर हैं। कुरड़ों के ठेके चल्ते हैं। और ये हैं..ये तो भाय..बस क्या बोलें..डारिक्ट मुख्यमंत्री से इनकी पोंछ है..। खाऽऽस..अपणे आदमी हैं..। और ये राम्प्रसाद जी हैं..। डारिक्ट डीयम के साथ उठणा बैठणा है इनका..! और ये हैं गोविंद सिंग जी। इनका नाम सुणा होगा तुमने..। इनकी दिल्ली बम्बे में अपनी फैकटरी हैं। और ये सिरण के इंदर सिंग जी हैं..।’’ 
    ‘‘ओ स्यमन्या माराज स्यमन्या। ओ प्पापा! बड़े-बड़े ल्वोग हैं भाय! ब्वाह! दरसन हो गये!’’ इंदरू ने दोनो हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया।
    ‘‘बैल खरीदणे आये थे ये..तो हमने का बैठ के बात कर लेते हैं?’’ पंचम ने लोगों को बताया।
    ‘‘भौत बड़िया। तुमारा बैल तो एकदम टन्न है।’’ सिताब िंसंग ने कहा।
    ‘‘भै पंचम दा, हल लगाणे में कोई मुकाबला नयी कर पायेगा तुमारे बैल का इलाके भर में।’’
    ‘‘अबे? बेचणे लग गया बैल को? अब्बे! पैले बोल्ता, मैं खरीद लेता! अब्बे यार तु बि..। इतना गज्जब का बैल..।’’
    ‘‘देख लिया इनोने..बस कीमत होणी है!..जितना ये कहेंगे उतने में ही दे दूंगा।’’ पंचम ने उन लोगों से कहा।
    ‘‘कीमत क्या होणी..!..पर मेरे को पसंद नयीं आया माराज।’’ इंदरू ने भी लोगों को ही जवाब दिया।
    ‘‘क्यों?’’ बकील ने पूछा।
     ‘‘असली चीज तो हैं ही नयी उसपे!’’ इंदरू ने कहा।
    ‘‘असली चीज माने?’’ आँह! बकील जिरै करने लग गया। ठिक बणा देगा इंदरू को।
    ‘‘सिंग!’’
    ‘‘सिंग? असली चीज तो हलिया है...कि बैल कैसा हल लगाता है?’’
    ‘‘वो तो है। सिंग बि जरूड़ी हैं। सिंग शान होती हैं बैल की। बैल का अच्छा हलिया होणा अपणी जगा पे ठीक है।’’ इंदरू ने कहा।
    बकील घचपचा गया।..दिखणे में तो हलिया से भी गया बीता लगता है..पर...! इंदरू का हाथ जोड़ कर जी जी न कहना और ऐसे अपनी बात को कहना बकील को बड़ा नागवार गुजरा। हलिया दर्जे का आदमी, बैल का खरीदार ऐसे बात करे..। बकील को कमजोरी महसूस होने लगी और असंतुलित हो गया।
    ‘‘तुम लोग सिंगों से तो नयी लगाते हल?’’ 
    ‘‘अब सिंगों से तो क्या लगाणा...पर ...मेरे को पसंद नयीं हैं बिना सींग का बैल।’’
    ..येई ऽ ऽ ऽ! हलिया की भी पसंद-नापसंद..! अकड़ देखो इसकी! खरीदने आया है बैल...और बातें...?
    ‘‘तुम थ्वोकदार हो!’’ 
    इंदरू ‘थ्वोकदार’ पर हंसा, ‘‘अरे थ्वोकदार-थूकदार काँ मराज। मैं तो घरी में रैता, ख्येत्ती किसाणी करता हूं।’’
    ‘‘..हमने सोचा तुम लंदन-अमरिका रैते..।’’
    ‘‘हा! हा!! हा!!!’’ सभी हंसे। वे इंदरू के लंदन-अमेरिका न रहने और घर में ही रहने पर हंसे तो इंदरू उनकी हंसी पर हंसा। 
    ‘‘नयी माराज, तुमने गलत सोचा। मैं लंदन-अमरिका कयीं नयी रैता। गाँव में यी रैता हूँ। ख्येत्ती-किसाणी करता हूँ...हलिया आदमी हूँ।’’
    ...हल्या नयीं जिला जज होगा जैसे! हल्या आदमी दोनो हाथ जोड़कर, सर झुका कर बात न करे तो भद्दा तो लगता ही है। ..शर्मिन्दा होकर बात करणी चाहिए कि....खेती किसानी का धंधा करने के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ..। आपके सामने नतमस्तक हूँ कि आप मिट्टी में हाथ नयीं डालते..। यही तो सनातन से होता चला आया है...। पर ये साला सनातनी परम्परा को तोड़ रहा...घंतर आदमी..!   
    ‘‘खैर पसंद तो अपणी-अपणी हुयी पर.....देशों में तो कुछ बैलों के सींग ही नयी होते?’’ पंचम ने संभाला।
    ‘‘अब सींग नयी होते, वो अलग बात है..पर ये तो सींग वाले बैल होते हैं ना।’’
    ‘‘हल सींगों से लगाते या नसेड़े से?’’ बकील ने कहा।
    ‘‘हा! हा!! हा!!!’’ पंचम ने दाद दी।
    इंदरू ने कहा, ‘‘देखो माराज, मेरे को बिना सींग के बैल नयीं पसंद हैं तो नयीं हैं। बैल के सींग टूटणे का क्या मतलब है? या तो वो लड़ाख्या है और या...क्या...बोलते..मतलब...चालू टैप का है..।...बाकी उसके सींग क्यों टूटेंगे?...बैल लड़ता क्यों है? किस चीज के लिए लड़ता है? बोलो! वो बिधैक यमपी है?’’
    लोग हंसे। बकील जिरह के लिए कुछ सोच रहा था।
    इंदरू खड़ा हो गया, ‘‘क्या उसका भौत राजपाट छिन रा है? बौडर पर लड़ता है वो? सिपे की तरौं ? किसी को बचाणे के लिए लड़ता है वो? वो पेट के लिए बि नयीं लड़ता। जीवित रैणे के लिए बि नयीं लड़ता। जो आदमी उसे संताता उससे तो कबि नयीं लड़ता। यूँ ढाँगे बण जायेंगे भूख से... पर जो उन्को भूका रख रा उससे कबि नयीं लड़ेंगे...!..घास डालेंगे एक मुट्ठी और सारा दिन हल लगायेंगे, उन पर तो नयी मारता लात वो कबि। ऐसे बि लोग हैं कि जिंनगी भर हल लगायेंगे अर बुढ़ापे में जंगल रप्टा देंगे,   उनको तो नयी घोंपता वो सींग कबि। वो तो सिरप अपनी ही जाति से लड़ता है..बैल जाति से। अपणे भायी-बिरादरों से...। बल्कि जो जरा खारा-पीरा होगा वो अपने सींगों से कमजोर बैल को डरायेगा कि मुझपे तुझसे जादा ताकत है ..सिरप..ऐसा दिखाणे को। ..या फिर गाय को पाने के लिए करेगा ऐसा...।..लड़ाई के पीछे वही स्वारथ होता उसका..। क्यों लड़ा? क्यों जीता? कुछ पता नयीं।’’
    सब हँसे। बकील ने भी हँसने की कोशिस की पर नहीं हँस पाया।
     ‘‘अपणे डण्डे वाले मालिक को दिखाणे के लिए कि मैंने दूसरे का बैल मार दिया। अंकार मालिक का...शांत करे बैल..। जो बैल ऐसे लड़ता है वो मूरख है।....वो खाली इसलिए लड़ता कि उसे सींग मिले हैं।..मूरख बैल को ये पता ही नयीं चलता कि सींग तेरी शान है भायी! अर तेरी शान मालिक की शान!...मालिक की शान तेरी शान नयीं..। बैल का सींग टूटा है माने वो लड़ाख्या है और बैल का लड़ाख्या होना अच्छा नयीं होता! सींग टूटा मतलब..उसकी भावना अच्छी नयीं...सुभाव अच्छा नयीं। सिंग हैं मतलब वो ‘राज्जा’ है। लड़ाई वाला राज्जा नयीं! बिना लड़ाई के राज्जा बणो तब बात है ना! ही! ही! बकील साब!  अच्छा स्यम्न्या! मैं चलता हूं।....भौत सुणा दिया!!’’
    ‘‘भात बण गया, खा के जावो!’’ पंचम बोला।...एक बार और कोसिश करके देखणे में कोई हरज नयीं..।
    ‘‘हाँ ठीक कै रे हैं ये।’’ सिब सिंग ने कहा।
    ‘‘नयीं नयीं चल्ते हैं।’’ कहते हुए इंदरू ने सिब सिंग को ‘चल्ल’ कहा और मूनाकोट की तरफ निकल पड़ा।
    एक आध मील तक तो इंदरू ऐसे भागा कि जैसे पंचम पीछे से आकर सींग टूटा बैल उसकी जेब में न ठूंस दे। पीछे पीछे बेमन से चल रहा सिब सिंग उस घड़ी को कोश रहा था जब वो इंदरू दा के साथ आया।
    ‘‘...भूख तो लगी है पर अब ठीक नयी था पंचम के याँ भात खाणा।...ये भात ही तो काम गड़बड़ करता।’’ इंदरू ने रास्ता चलते चलते कहा।
    ‘‘तुम सब जगा ऐसेयी करेंगे तो कैसे होगा!’’
    ‘‘ऐसे भात खाणा ठीक नयी कि जो मैं बोलूंगा उस्पे तुम हाँ हाँ करो..। मैं तुमारे सिर में बैठुंगा अर तुम भात खावो..।..अगर पंचम ने भात खाणे के लिए बुलाया था तो बैल की बात नयीं करणी चायिये थी।..नियम तो ययी बोल्ता..। पर वो भात खाते टैम फिर खिचिर-खिचिर करता।..तब भात गले लग जाता..। कुछ बोल नयी पाते हम। भूख में आदमी कमजोर तो पड़ता ही है...पर भूखे को जब खाणे को मिल्ता तो उस टैम वो दुन्या का सबसे कमजोर इंसान होता है..।...सम्झा बात को ?.. उस टैम कुछ बी मनवा लो..। .इसलिये ऐसे भात पे मारो लात..!’’
    ....मैं कैता था ना अपणी चलायेंगे..!
    बीच में बांज-बुरांश का जंगल था। तेज ढलान। टूटा हुआ रास्ता। जब तक गपसप चलती इंदरू सिब सिंग के साथ-साथ चलता। बातें ज्योंही थमती इंदरू रीछ की तरह भागने लगता।
    घस्स घस्स घस्स। सिब सिंग ने ढलान पर थोड़ा अपना पैर फिसलाया और धम्म से बांज बुरांश के झड़े पत्तों के ढेर में गिर गया।
    ‘‘...ये म्येरी ब्वेई...’’ सिब सिंग ने इतनी जोर से बोला कि इंदरू के कान तक पहुंच जाय।
    ‘‘...बकील इस रास्ते के लिए जिरै नयीं..करता..! बैल की खरीद-फरोखत में टांग अड़ा रा!’’ इंदरू वापस सिब सिंग के पास दौड़ा।
    सिब सिंग पिछवाड़ा सहलाते हुए कराहने लगा। 
    मूनाकोट पहुँचे तो दुकाने बंद हो चुकी थी। अंधेरा घिर आया था। पौन-पंछियों का वृक्षों पर बसेरे के लिए संघर्ष बढ़ने लगा...चकर-चकर...चुकुर-चुकुर। पेड़ के तनो से चिपके झींगुर अपने स्वर यंत्रों के तार कश रहे थे... झींग-झींग...झांग-झांग। हाक्क! हाक्क!! काखड़ की आवाज सुनाई दी। आसमान का सिंदूरीपन काला पड़ने लगा था। मूनाकोट में चाय की भट्टियों की आग अभी बुझी नहीं थी।
    ‘‘...आह! जाड़ा बि लग रा है।’’ इंदरू ने भट्टी की आग जलायी और आग तापने लगा।
    ‘‘याँ कुछ खाणे-पीणे का...इंतजाम...।’’ कहते हुए सिब सिंग दुकान का मुआयना करने लगा। उस दुकान का अंदर का कमरा बिना दरवाजे का था। टाट-पट्टी से बंद किया गया।
    ‘‘...काँ हो पायेगा!’’
    ‘‘...जाँ हो रा था वाँ से भाग के आये...!’’
    ‘‘आज ऐसे ही लटकणा पड़ेगा...। अब कल की कली है..।’’ कहते हुए इंदरू भट्टी के पास ही पसर गया। सोने की कोशिस करने लगा। भूख और थकान को इंदरू ने कई बार पटकणी दी है...लेकिन जो ये बकील बण रा था ना इसकी बि अक्कल ठिकाणे लग गयी होगी..।
    खर्र र्र र्र.! गहरी नींद सो गया इंदरू।
    सिब सिंग आग तापता रहा। कुछ देर बाद उठा और बाहर को निकल गया। चार पाँच दुकाने थी वहाँ पर। सभी अस्थाई रूप से बनीं और जुगाड़ से बंद की गयीं। एक ने तो केतली और ट्रे भी बाहर ही छोड़ी थी। पर ट्रे में कुछ नहीं था खाने को।
    भट्टी की दूसरी तरफ लकड़ी की एक बैंच पड़ी थी। उसी में लटक गया सिब सिंग। सोने की कोशिश करने लगा। ..बेंच असजीला है..।...कुछ चुभ रा..है। वो खड़ा होकर देखने लगा।...खर्र खर्र खर्र..।   ...अपणे आप मजे से सो गया इंदरू दा...। अच्छी रयी..ये बि..।..अनाड़ी आदमी। ..फालतू फंसा इसके साथ।...मेहरू गल्दार ने ठीक किया जो..पैले ही ना कह दिया साफ..।...खर्र खर्र खर्र..।
    सिब सिंग दूसरी दुकान के अंदर चला गया।..वहाँ जमीन पर टाट बिछा था, उसमें पसर गया।...मैं मना ही कर रा था...।..भाबी के कारण..आणा पड़ा। ..नयीं बात थोड़ी है ये..। पैले बि ऐसेयी आफत निकाली है इसने..।
    सिब सिंग ने बाहर नजर मारी।...रात काफी हो गई थी।...उसकी आँख लगने लगी। सुबह नींद टूटी तो इंदरू उसे हिला हिला कर उठा रहा था।   
    ‘‘उठ भाय!..अब आगे बि तो चलणा है!’’
    ‘‘ओह! इंदरू दा मेरी टांग पे भौत दर्द हो रा।’’ सिब सिंग ने कराहते हुए कहा।
    ‘‘बासी पिड़ा है।..कल गिर गया था!’’
    ‘‘आँह!’’ सिब सिंग कराहा।
    ‘‘तू आज घर चले जा। मैं बि दो-चार दिन और खोजता हूं। ...मिल जाये तो ठीक न मिले तो...’’
    ‘‘न मिले तो?’’
    ‘‘फिर बण्ड पट्टी का टूर पुरगराम बणाएंगे। तब तक तू बि ठीक हो जाता है।’’
    ‘‘आह!’’ सिब सिंग और जोर से कराहा।
    ‘‘...घर जाते ही नमक-पाणी का सेंक करणा।’’
    ‘‘ठिक गज्जू के जैसा जोड़ मिलणा...ठिक उतने ही बड़े सींग..रंग..’’
    इंदरू बीच में ही खाँस पड़ा, ‘‘दिखा जरा, जादा तो नयीं लगी?’’
    ‘‘नयीं नयीं ज्यादा तो नयीं पर गुम चोट है।...एक बैल मिलणा मुश्किल होता है ना। पैले की बात हौर थी...जमाना..।’’
    ‘‘...ये दुकान्दार लोग पता नयीं कब तक आते!’’
    ‘‘...इतना भटका-भटक करके फैदा बि क्या है..’’
    ‘‘परसों रतगाँव जाते टैम फिसला तो कमर पे झटका पड़ा। उस्टैम पता नयीं चला..पर अब दर्द कर रा..आह!’’
    ‘‘नयीं तो गज्जू को बेच लो..। एक जैसी नयी जोड़ी तो मिल जायेगी।’’
    इंदरू को ये बात जँची, ‘‘बण्ड में बि नयी मिला तो ऐसेयी करणा पड़ेगा।’’   
    ‘‘ठीक है, अच्छा मैं चलता हूँ।’’ कराहते हुए सिब सिंग घर के रास्ते लगा। जब तक इंदरू की नजरों में रहा लंगड़ा कर चलता रहा। और फिर ढलुवा पगडण्डी पर सरपट भागने लगा...भगवान बचाये इस इंदरू दा से...।   
    इंदरू देर तक मूनाकोट में बैठा रहा।...पाणी की आवाज काँ से आ रयी है? ...उधर सैद कोई गधेरा है। वह झाड़-झंकार को हाथ से दाँए-बाँए हटाते, झुकते हुए आवाज की तरफ बढ़ा। खत्तबत्त खत्तबत्त..। पेड़ों और झाड़ियों के बीच से छुपता-बहता पानी। इंदरू मुँह धोने के लिए उकड़ू बैठा तो...ऐऽयी..! पैर दर्द कर रे हैं। भूख से बदन सुस्त हो गया है। उसने हाथ-मुँह धोया।...ठण्डा पाणी..कुछ जान आयी!...कुछ देर रूकी जाता हूँ।..दुकान्दार आयेंगे तो आगे के बारे में उनसे पूछ-जाँच करना ठीक रहेगा..।
    उसने पैर सहलाये।..चलूँगा तो अपणी जगा पे ठीक आ जायेंगे।...उमर का असर हो रा है। अपणे टैम पर आयी जाती है उमर बि..।
    आसमान को छूते खड़े पहाड़ और पेड़ों के झुरमुटों के पीछे से सूरज की किरणे मूनाकोट पर पड़ने लगी थी। खच्चर वालों की आवाजाही बढ़ गई। दुकानदार पहुँचने लगे।
    इंदरू ने भरपेट भात खाया। बैल के बारे में पूछा। कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला।...झूमाखेत..मोल्टा या सिमखाल में कयीं मिल सकता है...पर जैसा तुम चा रे हैं ठिक वैसा तो..।...अब काँ बैलों की च्वैस रै गयी..। 
    मूनाकोट से झूमाखेत सात मील था। खड़ी चढ़ाई। सिमखाल ग्यारह मील। लेकिन हल्की चढ़ाई, थोड़ा सीधा। झूमाखेत से ऊपर ही ऊपर चलो तो बीच में मोल्टा गाँव पड़ता है। वहाँ से भी सिमखाल जाया जा सकता है। जंगल का रास्ता, थोड़ा खराब है पर चल सकते हैं। बीच में एक गधेरा पड़ता है। उसमें पुल नहीं है। वैसे ही पार करना पड़ता है।
    इंदरू झूमाखेत की चढ़ाई चढ़ने लगा। साम तक पहुँच गया गाँव में। पहला घर सतबीर सिंग का था। 
    ‘‘..ये कौन आया? हाँ जी क्या काम है?’’ सतबीर ने पूछा।
    ‘‘स्यमन्या माराज। सिरण गाँव का हूँ। इंदर सिंग नाम है मेरा। बैल का ख्वज्यारा हूँ।’’
    ‘‘बैल का ख्वज्यारा....? माने?’’
    ‘‘बैल खरीदणे के वास्ते आया हूँ..।’’
    सतबीर ने एक बार पूरा देखा इंदरू को, ‘‘तुमको क्या लग रा है? हम बैल बेचणे का धंधा करते हैं याँ ?’’
    ‘‘ओए प्पापा! इतनी बड़ी गाली सच्ची देता तुमको माराज।’’ इंदरू ने दोनो हाथ जोड़ दिये और झुक कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘बैल बेचणे का धंधा हैं! चोरी अर नाजैज काम से बि घट्या काम..! दा ब्वोलो!!’’
    ‘‘क्या मतलब?’’
    ‘‘कुछ धंधा तो करते ही होंगे माराज...। पेट कि खातिर क्या करते होंगे? मनखी देखणे में तो अच्छे ही लग रे हैं..पर धंधे..!’’
    सतबीर की ब्वारी बड़बड़ाते हुए बाहर निकली, ‘‘...इस दारू को लगे आग! बज्जर पड़़े..!..घर आये मैमान की बिज्जती करते हैं..!’’
    ‘‘इधर काये को दिमाक पकाणे आया भायी ये? काँ का है? जान न पैछान हम तुमारे मैमान!’’ सतबीर की जुबान लड़खड़ाने लगी।
    ‘‘तुम भित्तर चलो हें सिद्धे..! इज्जत परमत का बि नयी रैता..न अपणी न दुसरे की..।’’ सतबीर की ब्वारी सतबीर को अंदर धकेलने लगी।
    ‘‘अरे नयी माराज तुमारे पास थोड़ी आया हूँ। मैं तो याँ गाँव में आया हूँ बैल खरीदणे कि किसी के पास होगा।...कोई बता रा था बच्चू पदान..।’’
    ‘‘बच्चू-फच्चू पदान कोई नयीं है याँ ! वाँ गाँव में जावो। वाँ पूछो।’’ सतबीर की ब्वारी सतबीर को अंदर ले गई थी लेकिन उसने फिर बाहर आकर कहा। 
    ‘‘हाँ गाँव में यी जा रा हूँ। याँ पर तो ऐसेई आ गया।..सोचा जो बि होगा..आदमी ही होगा..!’’ कहकर इंदरू गाँव की तरफ निकल गया।
     घुप्प अंधेरा था। घरों के अंदर से आ रही रोशनी रात पर उजाले के रंग फेंकती। चारों तरफ के खामोश और निस्तब्ध पहाड़ आसमान की झिलमिल काली चादर ओढ़ कर सो गए थे। इंदरू की आहट से कुत्ते भौंकने लगे। घर का मालिक बाहर निकला।
    ‘‘कौन होगा?’’
    ‘‘मैं हूँ माराज, इंदर सिंग, सिरण का। बच्चू पदान का घर ययी होगा?’’
     ‘‘हाँ, है तो ययी। बैठा माराज।’’
    चाय-पानी के बाद इंदरू ने बच्चू पदान को अपने आने का मकसद बताया। बच्चू पदान के बैल का पूरा हुलिया लिया। साइज-अगले पैरों से जुंड (कंधे) तक की ऊंचाई और सिर से लेकर पूंछ तक की लम्बाई। रंग..सींग..दाँया-बाँया..गर्दन खड़ी रखता कि झुका के चलता, सींग मारने वाला, लात चलाने वाला आदि बहुत सारी बातें।
    बच्चू पदान को कुछ याद आया,    ‘‘क्या नाम बोला अपणा?’’
    ‘‘इंदर सिंग..सिरण..।’’
    ‘‘पच्चीस...तीस साल हो गये होंगे..।’’ बच्चू पदान याद करने लगा, ‘‘तुमारे याँ बण्ड से कोई बैल खरीदणे आया था।’’
    ‘‘...बण्ड से बैल खरीदणे..?..आया होगा..। आया था भौत पैले..।...हां मैंने मना कर दिया था।...बण्ड्वालों को मैंने कब्बि नयीं बेचे बैल। वे बूढ़े बैलों को जंगल रप्टा देते हैं।..वाँ उनको बाग मार देता है या वे चट्टान-खाई-खंदकों में गिर जाते हैं।...ये गल्त बात है।...और फिर उनके याँ तलाऊ जमीन हैं। दस-दस बारा-बारा दिनों तक लगातार रोपाई में जुते रहेंगे बैल...एक दिन का भी आराम नयीं देते बैलों को..।..एकी जोड़ी बीस-बीस दिनो तक जुती रैती..! दूसरी जोड़ी नयी करेंगे...। मैंने तो देखे हाल हैं उनके..।’’
    ‘‘...और तुमने उस आदमी से पूछा था कि कितनी जमीन है? उसने अस्सी नाली बताई तो तुमने का कि मेरे बैल पचास नाली से जादा हल नहीं लगा पायेंगे..। फिर तुमने पूछा कि तुम क्या करते हो? उस आदमी ने का कि नौकरी। तुमने का कि मैं नौकरी वालों को नहीं बेचता अपने बैल।...जो आदमी खुद मालिक और खुद हलिया हो उसी को बेचूँगा...।’’
    ‘‘अब भाई मुझे इतना तो याद नयीं..पर इतना जरूर है कि जो हलिया बैलों की खुद देख-भाल नयीं करता..जनानियों के ऊपर छोड़ देता सबकुछ.. अपणे को लाटसाब बणा रैता..उनको मैंने बैल नयीं बेचे..आज तक।..नौकरी वाले...फौजी लोग..बैल खरीदते हैं और अपणा चले जाते हैं।...बैलों की क्या गति हो रयी है..हलिया उनके साथ कैसा बर्ताव कर रा? उनको घास-पाणी दे रा या नयीं..इससे कोयी मतलब नयीं रैता उनको..। ..तो ऐसों को बैल बेचणा अच्छा नयीं..।...पर ये इतनी पुराणी बात काँ से याद आ गयी..तुमको?’’
    ‘‘वो मेरे मामा थे ...और साथ में मैं था।..पैछाणा?.’’ बच्चू पदान हंसा, ‘‘मामा ने भौत खुशामद की तुमारी..। मुहमांगी कीमत देने को तैयार थे..। उनको नौकरी पर जाणा था..दूसरे दिन..। पर तुमने साफ मना कर दिया...कि बण्ड्वालों को तो देन्नायी नयीं। तुम बण्ड्वालों से भौत चिढ़े थे।..उस टैम तुमारे पास दो-दो जोड़ी बैल थे..।...और अबि तुम मेरे बैल का पूरा हुलिया ले रे हैं?..खरीदते टैम बि तुमी लेंगे हुलिया और बेचते टैम बि तुमी..। खरीदते टैम बि तुमारी चलेगी अर बेचते टैम बि तुमारी। ये अच्छी रयी!!’’
    ‘‘अरे मराज तुम बि पूछ लो..। ले लो हुलिया। कयीं पर कोई ऐतराज हो तो ना कर देणा।....मैं तो राज्जा बणा के रखता बैलां को..।’’
    ‘‘क्यों पूछो? अगर मैंने बैल बेच दिया..तुमसे पैंसे ले लिए तो...फिर मुझे बैल से मतलब?..तुम कुछ करें बैल के साथ..इससे मतलब?।’’
    ‘‘अरे माराज तुम राशन थोड़ी बेच रे..? आखिर जीबन बेच रे हैं.!’’
    ‘‘जीबन बेच रे का क्या मतलब होता है? फालतू बात लगा रे।’’
    ‘‘देखो पदान जी..मुझे कैणा नयी चायिये था पर कैणा पड़ रा है..। तुमारे गाँव वाले पैले बेटियों के पैंसे खाते थे..। वो बि बेचणा ही हुआ एक परकार से..। बेटी बेचते टैम घर-परिवार देखते थे कि नयीं?.उसके सुख-दुख का हुलिया लेते थे कि नयीं?..या बेच दिया तो तब कोई मतलब नयी?...कोयी कोऽछ करे..!’’
    ‘‘इसमें बेटी-बूटी की बात काँ से आ गयी?..कैसा आदमी है ये!’’
    ‘‘तुम समझ नी रहे तो समझाणे के लिए बोलणा पड़ रा मुझे।’’
    ‘‘..फालतू की बात लगा रे। नयीं बेचणा मुझे ऐसे आदमी को बैल..।’’ कह कर बच्चू पदान अपने घर के अन्दर चला गया।
    ‘‘मर्जी तुमारी माराज..। बैल तुमारा है।’’
    रात गहरा गई थी। इंदरू कुछ देर वहीं पर बैठा रहा। ...सब दिन एक समान काँ रैते इंसान के.....रात रैणे का ठिकाणा..!..ठिकाणा क्या चायिये मुझे! ..कयीं बैठे-बैठे बि रात काट लूंगा। वो उठा और गाँव में दूसरे घरों की तरफ निकला। सामने की पहाड़ी पर उसे कुछ काले-भूरे बादल दिखे।...नयीं नयीं यीधर नयीं आयेगी बारिश।..उधर चैना है...वयीं हो रयी होगी। चाइना का खयाल आते ही इंदरू खड़ा होकर एकटक उन बादलों को देखने लगा जो चाइना के ऊपर छाये थे। उसे बैलों की आकृति उभरती नजर आयी। खूबसूरत एक जोड़ी बैल! साफ दिख रे!...एकदम्म काले।....चैना में बि तो होते होंगे बैल? चैनीज बैल...! खित्त खित्त...उसे हंसी आ गई। इंदरू के पास उजाले का साधन नहीं था। मुश्किल से रास्ते का अंदाजा कर चल रहा था।...आज भौत काली रात है।...रात सफेद तो नयी होती ना!...आज तक कोई रात सफेद नयीं हुयी।..क..ट्टे..गी..कैसे!...कोई रात हम थोड़ी काटते हैं।...उसे कटणा पड़ता है।...मैं क्या काटूंगा इस काली रात को! इसे कटणा पड़ेगा। ...रात कितनी बि कठिण हो! पर सुबै होती ही होती है। कितनी बि काली हो पर सुबै उसका नामोनिशान खत्तम होणा ही होणा है...।...ये पदान समझता क्या है अपणे को...!!
    उस रात इंदरू को सपनों में बार बार धन्नी ताऊ दिखे।
    दूसरे दिन गाँव घूमा। कोई बिकाऊ बैल नहीं मिला।...कयीं धन्नी ताऊ..नयीं नयीं..। बिचारे धन्नी ताऊ..।
     अगला बसेरा पहुँचा मोल्टा। वहाँ दौलत सिंग से रिश्तेदारी निकल गई। रातभर समझाता रहा दौलत सिंग, ‘‘जंवैं जी, अब काँ वो जमाना रै गया।...अब कोई ख्येती हो रयी है? मजाक हो गया..। कोयी फैदा नयीं...पर तुमारी वयी पुराणी लैन पकड़ रखी..। जमन सिंग के याँ है एक बैल..। वयी उमर होगी जितनी तुमारे बैल की है। तुमारा दाँया है कि बाँया?’’
    ‘‘दाँया।’’
    ‘‘बिल्कुल फिट! वो बाँया है। अर जमन दा सस्ते में दे बि देगा।’’
    बैल देखने गये तो गजरीला रंग।
    ‘‘..पर हमारा तो काला है..येकदम! काला रिख की तरों...एकदम खड़े सींग हैं उसके..। रोबीला चेरा ।...ये तो झ्योंतू लग रा....इसके सींग नीचे को मुड़े हैं..!’’
    ‘‘तुम सैज देखो। दाँया-बाँया फिट मिल गया।..रंग-रुंग का रैणे दो। ठिक कीमत लगा दूंगा। छै मैंने से पाल रा हूँ मैं बि इस यकुले बैल को।..लड़के-बहू चले गये देश। अब हमसे बि नयी होते ख्येत..बोलो तुमी बोलो कीमत..। मैं लगा दूंगा।’’ जमन सिंग ने कहा।
     पर इंदरू तो गज्जू के रंग, कद, सींग से मिलान कर रहा था, ‘‘..काँ जोड़ी बैठ री फिट..!’’
    ‘‘भौत खरीदार आ रे। कयीं चित नयीं बूज रा। कयीं दांया-बांया का चक्कर फंस रा।..कयीं मनखी समझ में नयीं आ रा। मनखी की बि तो बात होती। कयी आ गये पर मेरी समझ में नयीं आया। ना बोल दिया। अपणे कीले पर रहेगा। तुम आ गये तो तुमारी बात कुछ हौर है..अब ये तो रिश्तेदारी वाली बात बि हो गयी.. तुम जो बोलोगे वयी लगा दुंगा..।’’
    ‘‘ल्यो! इससे ज्यादा अब क्या चायिये तुम्को!!’’ दौलत सिंग ने कहा।
    ‘‘वो तो ठीक है ना ज्योठू जी!..पर असली चीज है जोड़ी..। जोड़ी काँ बणी!!’’
    ‘‘जोड़ी काँ बणी माने?’’
    ‘‘जोड़ी बोल्ते जिस्को। एक रंग, एक जैसे सींग, एक सैज, गर्दन उठी हुई!..तब देखो तुम?’’   

    इधर सिब सिंग गाँव पहुँच गया था। उसे अकेले देख भादी घबरा गई।
    ‘‘..चार-पाँच दिन में आ जायेंगे। उनोने का तू घर चले जा। मैं बि दो-चार दिन और खोजता हूँ। ...मिल जाये तो ठीक, न मिले तो...’’
    ‘‘...न मिले तो?’’
     ‘‘..न मिले तो कै रे थे कि...कि..। ...नयीं नयीं कुछ नयीं कै रे थे।’’
    ‘‘तुमने समझाया नयीं कि जैसा मिलता वैसेयी ले चलो..।’’
    ‘‘मेरी सुणता कौन!....लेकिन ठीक जोड़ा काँ मिलेगा..? हैं कां बैल अब! अंत में जैसा मिले वैसा लाणा पड़ेगा। देखणा तुम..। इंदरू दा की जो ये अकड़ है ना ये उतर जायेगी..!’’
    ...इसी अकड़ पर तो लाड़ है भादी को!...ये उतर जायेगी तो रहेगा क्या...हमारे पास! अच्छा नहीं लगा भादी को।
    ‘‘खुदी लेके आयेंगे बिजोड़।..मैं चुपी रहा। तुमने बि तो आदत खराब करी है। कबि कुछ नयीं बोला तो..’’
    ‘‘...अब ....बोऽलऽणा बिऽक्याऽ..! समझाती तो हूँ ...।’’
    ‘‘काँऽहं समझाती! लाड़ करती रैती हैं..!’’
    ‘‘खित्त्..खित्त्’’ इंदरू के लिए भादी की लाज और लाड़ घुली खित खित। 
    ‘‘वैसे तो बिना भाबी के एक दिन नयीं रै सकते ददा..।..पर बैल खरीदणे गये तो कोई याद ही नयीं भाबी की...। बिल्कुल नयीं...कोई बात ही नयीं भाबी की। एकी रटन्त..एकी धुन है बैल..।’’
    ‘‘...आंणे दो घर..। इस बार तो....मैं.. चुप नयीं रहूँगी..ये उमर है ऐसे डबड्याणे की। ...अब बिजोड़ ही लेके आयेंगे वाँ..तुम ठीक कै रे...उतर जायेगी अकड़...। तब सुणाउंगी मैं. छक्क।. अब काँ गई अकड़..! एकी रटन्त..अच्छी काँ होती!’’ भादी को बैल से ईर्ष्या हो गई।
    ‘‘हड़काणा जरा..जम के..आं!’’
    ‘‘आं.ऽ..इस बार जरूर सुणाऊंगी मैं..।..एकी रटन्त..हैंय! ...और कोई याद-बात नयीं इतने दिनों तक?’’
    ‘‘काँ याद...किसकी याद,  वाँ तो बैल की ही पड़ी थी दिन-रात।’’
     भादी ने ठान ली...सुणाऊँगी।..मुझे बि क्या सुख दिया इनोने..। रोज वही बैल के पीछे रहे...अर अपणे को बि क्या सुख देखा...। ...एकी रटन्त..एकी धुन...कोई याद-बात नयीं!

    उधर इंदरू मोल्टा गाँव से चढ़ाई नापने के बाद एक धार में पहुँच गया था। ऊँची धार। देवदार के दो पेड़ खड़े थे वहाँ पर। साँय साँय...हवा बहने से आवाज निकलती पेड़ों से। चारों तरफ पहाड़ियों की उठान और ढलान पर गाँव बिखरे थे। कहीं तड़तड़ा घाम था और कुछ गाँवों को पहाड़ों ने छाया से ढका था। इंदरू ने चारों तरफ नजर मारी। ...फाल्तू बसे हैं...बैल तो हैं ही नयीं..इनमें! कुछ दूर रास्ता धार ही धार जा रहा था। दाँई तरफ...बहुत गहरी घाटी। आँखें रिंगा गई इंदरू की।...कोई गिरे तो चकनाचूर हो जाय।...रज्जू!...ऐसे ही चट्टान से गिरा और आधे में अटका। इंदरू धारों धार आगे बढ़ता जा रहा था। अब उसे घाटी के तल पर बहती कोई गंगा दिखने लगी।...क्या नाम होगा इस गाड़ का! .
    आगे तेज ढलान आ गया। ....ऐई...मेरे घुटनो को क्या हो गया! ढलान उतरने के बाद एक गधेरे के किनारे पहुँचा इंदरू। गधेरे में पुल नहीं था। ...बता दिया था मूनाकोट के दुकान्दारों ने। इंदरू ने अपना सलवार उतार कर गर्दन पर बाँधा। जूते हाथ में लिये। छलांग मार कर गधेरे के बीच पानी के ऊपर झाँक रहे एक पत्थर पर चढ़ गया। लेकिन खड़ा नहीं रह पाया। संतुलन बिगड़ा और गल्ताम्म पानी में।
    ...ऐयीऽऽ बरफ का पाणी...! कुछ देर हाथ-पाँव मारने के बाद एक और पत्थर पकड़ लिया इंदरू ने। उस पर मेंढ़क की तरह चिपक गया। पानी की धार तेज थी।...हाथ छूटा तो फिर बचणा मुश्किल है। इंदरू को अकेला खड़ा गज्जू दिखने लगा। ....नयीं ...ऐसेयी थोड़ी छोड़ेगा जिनगी..को! कुछ देर तक उसने पानी की ताकत परखी। पत्थर की संभावनाएँ टटोली। एक अच्छी पकड़ मिल गई उसे। इंदरू रेंगते हुए पत्थर में चढ़ने की कोशिश करने लगा। पानी के हर थपेड़े से पत्थर पर चढ़ने में मदद लेता। और सफल हो गया। उस पत्थर से कूद कर वो दूसरे किनारे पहुँचा।...गज्जू ने बचा दिया!
    ठण्ड से इंदरू का बदन अकड़ गया। ...सीधे चलणा चाहिये। ...नयीं तो ठण्ड से यहीं पर गुड़ा जाऊँगा।
    दूसरी तरफ फिर चढ़ाई। पवित्र भोजपत्र का जंगल।...काये का पवितर भायी..?..हैत्त...!..सूरी बामण फाल्तू बक-बक करता..! इंदरू तेजी से चढ़ाई चढ़ने लगा। तेज हवा इंदरू के कपड़ों को जितना ठण्डा करती इंदरू उतनी तेजी से चढ़ाई चढ़ता। दो मील चढ़ने के बाद थोड़ा समतल रास्ता आया। इसके बाद इंदरू सिमखाल धार में पहुँचा।....ओ! दिख गया सिमखाल गाँव!...बस्स पहुँच गया! ...ऐत्तेरी...यहाँ पे तो भौत ठण्डा है!!
    ‘‘होऽऽय! होऽऽय! होऽऽय!’’ सहसा बैल के पीछे दौड़ता एक बच्चा दिखा इंदरू को, ‘‘रोऽऽक्क! रोऽऽक्क! रोऽऽक्क!’’ बच्चे ने कहा तो बैल रूक गया।
    ‘‘आह! एक्कदम्म! एक्कदम्म!...गज्जू के जैसा..।..फिट्ट जोड़ी!!’’ इंदरू बैल को देखता ही रह गया।   जिसकी सूरत मन में बसी है...वयी तो है ये..। जिसे वो खोज रा है।...इसी को ढ़ूँढ रा हूँ...। ...छबि मन में बसी.. तेरी मूरत मन में...। ..सूरी बामण ययी भजन गाता है!...येकदम्म सयी बोला है!...है तो बिलकुल यही...इसी तरह का...गज्जू की जोड़ी..रज्जू जैसा..।
    कुछ देर बाद पीछे से दूसरा बैल भी आता दिखा।
    ‘‘...आँ ये इसका जोड़ा है?’’ इंदरू ने बच्चे से पूछा।
    ‘‘हाँ’’ बच्चे ने कहा।   
    इंदरू को विश्वास नहीं हो रहा था। ...ऐसी बेढंगी जोड़ी!
    ‘‘किसके बैल हैं?’’
    ‘‘हम्मारे।’’
    इंदरू का दिल बैठ गया। पूछणा ही क्यों है येक बैल बेचणे के बारे में..जब जोड़ी है..।
    ‘‘...अरे बिस्सू गल्दार के बैल हैं।...कोई पैंसा फैंके तो अपणे को बि बेच दे!’’
    ऐं हं! इंदरू के अंदर आशा जागी। ..किसी भी कीमत पर इस बैल को हाथ से जाने नयीं देगा!...गज्जू की फिट जोड़ी। आज तक...यही ..ऐसा ही तो ढ़ूँढ़ रा था..।
    बिस्सू गल्दार एकदम भाँप गया। साफ ‘ना’ कह दिया, ‘‘जोड़ी है माराज। घर की जोड़ी। जोड़ी तोड़नी है मैंने?’’
    ‘‘तो कीमत बोलो, एक बार बता तो दो। जंचेगा तो ठीक, नयी तो न सयी।’’ इंदरू ने भी धीरज का परिचय दिया।
    ‘‘नयीं नयीं। कीमत शूट नयीं करेगी तुमको।....शौक तो सब पाल लेते हैं पर जब कीमत देणे की बात आती है तो फूक सरक जाती है।...सब शौक-शाक निकल जाता एक मिलट में बाहर...।’’ 
    ‘‘...जब तुम अपणी कीमत खुलायेंगे तबी तो...!’’   
    ‘‘दस हजार।’’
    ‘‘ये तो जाटा अर गंग्पार्या की जोड़ी से बि ज्यादा बोल दिया।’’
    ‘‘चौदंता है अर जाटा-फाटा, गंगपार्य-संगपार्या झक मारेंगे इसके सामणे। बायुबरण है बायुबरण।‘‘
    ...बात तो सयी है...जाटा-फाटा, गंगपार्य-संगपार्या सब द्यखावा है! मेरेको बि पसंद नयीं हैं बड़े नसल के बैल।...नाखून भर खेत और हाथ भर बैल...! अरे कोने-किनारे भी निकल पायेंगे? अलट-पलट भी पायेंगे बैल बित्ते-बित्ते भर खेतों में? हमारे यीधर तो ठेठ ब्वंगड़े (पहाड़ी नस्ल के) ही ठीक हैं..। हमारी खेती यीन्हीं के लिये बणी है।.. खिदमत हो तो ये करदें धरती आगास येक...!
    ‘‘..तो ययी तो मैं बि बोल रा..।’’
    ...एेंऽहं! यीस्ने कैसे सुणा...?
    ‘‘..कि...पसंद आणी चायिये चीज।...पसंद है तो ले जावो..। कीमत से क्या डरणा।..दिल बड़ा रखणा चायिये हमेसा..! छोटा दिल करके क्या फैदा..! चीज देखो..। कीमत-सीमत किसने देखणी!...लोग तो चीज देखेंगे.!’’
    सात हजार से नीचे नहीं आया बिस्सू गल्दार। चार नगद और तीन उधार करके बैल खरीद लिया इंदरू ने।
     पूरी दुनियाँ खरीद ली। उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्तों से हाँकता हुआ ढलान पर चल रहा था इंदरू। नहीं, उड़ रहा था। पाँव जमीं पे कहाँ थे।...उसके आगे बैल नहीं सपना चल रहा था। उसकी रगों में बहने वाला खून गति पकड़ने लगा। ठण्ड और भूख वहीं पर छूट गई थी जहाँ पर उसने इस बैल को देखा। इंदरू की हाऽऽ वोऽऽ से इतनी उर्जा निकलती कि पेड़-पौधे भी महक उठे।..उसका खोया राजपाट वापस मिल गया है।
    तेज ढलान। ...धीरे भायी धीरे..र..र..रज्जू..। हाँ रज्जू...हीऽहाऽ..रज्जू नाम ठीक है..। इंदरू को लगा उसका बैल जीवित हो गया।
     ‘‘...आराम से चल रे! फिसलेगा तो..।..बै ऽ ऽ ऽ क्या सूंग रा। तेरे काम की चीज नयीं..। भोज पत्तर हैं..पवितर भोज पत्तर।...सूरी बामण ने सयी बोला..। इन पर बेद-पुराण लिखे गये..।’’ रास्ते में पड़े भोजपत्र उठा कर जेब में रख लिए इंदरू ने।...सूरी बामण को दूंगा..!
    ‘‘..अब समतल आ गया भाय..!’’ आह! जौ के खेत!! बैल ललचाया। ‘‘रज्जू..रज्जू..!..अबी कोच्छ नयीं..सीधे चल्लो।’’ इंदरू गीत गुनगुनाने लगा-
    जौ कि हर्याली, पंचमी का जौऊ, जौ कि हर्याली।
    जौ कि हर्याली, कै द्योउ स्वभालो, जौ कि हर्याली।
     ...हाँ..पाँच दिन रै गये पंचमी आणे में..।
    दो दिन पैदल चलने के बाद साम को कुनबगड़ पहुँचा। वहाँ से छोटा ट्रक बुक किया और तीसरे दिन अपराह्न अपने गाँव के मोटर हैड हेलंग पहुँच गया। हेलंग से तीन किमी पैदल है। ...बैठूंगा तो रात हो जायेगी..।
    सीधे गाँव के रास्ते लगा इंदरू, ‘‘हे ऽ ऽ ऽ य! चल भाय...रज्जू!’’ 
    अंधेरा होने से पहले ही पहुँच गया गाँव। सीमा में पहुँचते ही इंदरू ने जोर की हाँक मारी। हे ऽ ऽ ऽ य! चल भाय..। पौंछ गये अब! यही है गाँव! किनारे किनारे से जाता था रास्ता गोसालाओं को। इंदरू जोर जोर से हे ऽ ऽ ऽ य! चल्ल!..लेऽ लेऽ करता हुआ हाँक रहा था बैल को ताकि लोग सुन लें। ..साम का टैम है..। ..सभी घर में होंगे..।..पर...पर...कोई बच्चा भी नयीं दिख रा...आता हुवा..!
    ...ठिक्क..सेम..वैसेयी..फिट्ट..क्या गज्जब्ब..जोड़ीदार लाए..!! ओय पीछे हटो! आगे नयीं..। सींग देखो इसके..भाय क्या फिट्ट है गज्जू के जैसा..।...कका रज्जू ही नाम रखो इस्का। ही.ह..वही नाम रखा है।...काँ से लाये..कितनी कीमत..।..ये रस्सी मेरेको दो मैं ले जाता...।   
    इंदरू ने आगे-पीछे देखा।...ऐंईं..कोई बि तो नयीं है! उसने कान खुजलाये।..ये आवाज क्यों सुणायी देरी मुझे..? फाल्तू में..!   
    इंदरू गोसाला पहुँचा। भादी इंतजार कर रही थी। पूरे उन्नीस दिन बाद लौटा था घर। हलजोत के दिन से ठीक दो दिन पहले। ...सुणाऊंगी मैं इस बार..। लेकिन बैल को देखते ही सब कुछ भूल गई भादी।
    ‘‘पाणी ला जरा। प्यास लगी होगी इसे।’’ बैल को गोसाला के बाहर खड़ा कर इंदरू ने कहा।
    भादी ने बैल को पानी पिलाया, इंदरू ने घास खिलाया।
    ‘‘...गज्जू देखते हैं..क्या सोचता है!’’ बैल को अंदर ले जाने से पहले एक बार फिर इधर-उधर देखा इंदरू ने।..कोई आरा हो!. बैल देखणे..!..न आए कोयी..!..कोयी जरूड़ी थोड़ी किसी का आणा..। दिखावा नयी होणा चायिये..!..ये कान बज रे..सैद.! इंदरू अंदर ले गया बैल को। परीक्षा की ये भी बड़ी घड़ी थी। गज्जू अपने कीले से बंधा था। बगल के खाली कीले से बांधने लगा रज्जू को।
    ‘‘फ्वींऽऽऽऽऽऽ’’ गज्जू ने एक बार नाक से जोर की हवा निकाली।
    ‘‘..रज्जू है रे ये...। तेरा नया जोड़ीदार।’’ इंदरू ने परिचय कराया।
    ‘‘घणमण, घणमण, घणमण‘‘ गज्जू ने गले के खाँखर और घण्टियाँ बजा कर सहमति दी।
    रज्जू ने भी उसी अंदाज में सिर हिलाया। ‘‘ऐई रुक! क्या हिलाता है खाली गर्दन..! खप बि रा है! नंगा रखा है तेरे मालिक ने। कैसे-कैसे लोग हैं इस दुन्याँ में?....एक मिलट रूक जा..।’’ इंदरू घण्टियों और खाँखरों से सजा पट्टा बाँधने लगा रज्जू के गले पर। ‘‘ये लो...हो गया..। फिट्ट हो गया...। अब हिला...जितना हिलाता है..।‘‘
    ...कितनी सुरीली आवाजें आती हैं इनसे।..दिल को छूने वाला संगीत बजता है।..दुनिया का कोई संगीत इसका मुकाबला नहीं कर सकता..। न्योली की तरह मिठास..। ...उदयराम लाला से खरीदे थे इनोने .बण्ड मेले में..।
    ...दोनो बैल एक साथ एक ही परात में पींडा खाने लगे...सीधे..! बिना किसी फ्वीं-फ्वाँ के!!
    ‘‘ठहर जरा हैं..रूक रूक..। पट्टा जरा ठीक से नयीं बंधा...।’’
    भादी पींडे की परात खींचने लगी ताकि पट्टा बाँधने के लिए वहाँ पर खड़े होने की जगह बन जाय। रज्जू ने एक बार ‘फ्वीं’ किया भादी के लिए।
    ‘‘ऐई क्या करता! अबि पैछाणा नयीं..। मालकिन है रे तेरी..! मेरी बि मालकिन ययी है रे!!’’
    ‘‘ओं मालकिन...मैं क्यूं होगी!...मालिक त तुम हैं..खित्त! खित्त!’’। इतना बड़ा पद! इतनी खूबसूरत..ऐसी सजीली...दुनिया की सबसे निराली बैल की जोड़ी की मालकिन! भादी के अन्दर हिलोरें उठ रही हैं।
    ‘‘मालिक की मैंमसाब मालकिन...! हा! हा!!’’..गज्जू सेतान...टुकर टुकर इधरी देख रा है..। नहीं ..तो एक बार हाथ चूम लेता भादी का, पैले पैले की तरौं!
    दोनो बैल घास-पींडा खा कर एकदम शांत खड़े हैं।
    इंदरू दरवाजे पर खड़े होकर देख रहा है दोनो को। एकदम फिट्ट..बराबर। आगे की तरफ से देख रहा है...क्या सज रहे हैं। इंदरू को अपने ही कारनामें पर विश्वास नहीं हो रहा है।
    .‘‘..पीछे से तो कोई नयीं पैछान पायेगा कि कौन गज्जू है और कौन रज्जू..।..मैं बि ब्येकूब बन जावूंगा!!’’
    इंदरू ने अब दोनो के पुट्ठों पर हाथ फेरा। घणमण, घणमण, घणमण..रज्जू ने थोड़ी असहमति जताई।
    ‘‘...ऐई क्या करता! ...थक गया क्या?...बस अब इसके बाद तो लेट का मोर्चा लेणा है..।’’ फिर ध्यान से देखा इंदरू ने दोनो को।
    भादी इंदरू को देख कर खित्त खित्त! हँस रही है।..ठिक्क बोला सिब सिंग ने..बछड़े बणे रैते..खित्त खित्त...। गोशाला के हल्के उजाले में...शुरू शुरू की तरौ दिख रयी है भादी इस टैम...।
    इंदरू को धन्नी ताऊ याद आ रहे हैं......सिर उठायेगा तो गिरेगा...!..नाक टूटेगी..!!
    इंदरू ने नाक पर हाथ लगा कर देखा। एकदम ठीक थी।

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