रोज की जरूरतों में शामिल इच्छाएं ही नहीं बल्कि आवश्यक जरूरतों की चीजों को भी दूभर बना दे रहे मौजूदा तंत्र की आक्रमकता आज छुप न पा रही है। चीजों के दाम पिछले कुछ दिनों में जिस बेतहासा तेजी के साथ दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं, क्या वह चिन्ता का कारण नहीं होना चाहिए ? न सही संतुलित भोजन- जिसमें दाल, सब्जी और दूसरे भोज्य पदार्थ शामिल हों पर पेट भरने के लिए, बेशक सूखी रोटी ही सही, चाहिए तो है ही। पर अफसोस कि दूसरे सामानों की तरह आटा और चावल के दाम भी, जिनके बिना तो जीने की कल्पना ही बेइमानी हो जाएगी, बेतहासा रूप से बढ़ते जा रहे हैं। हमेशा से पिटे-पिटाये लोग ही नहीं बल्कि कसमसाते हुए अपनी सीमित आय से जीने के रास्ते तलाशते परिवारों के लिए भी इस स्थिति को, यदि कुछ और दिन यथावत जारी रही, झेलना शायद संभव न रहे। सड़कों पर उतरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उनके पास शेष न होगा। कवि राजेश सकलानी की कविता पंक्ति अनायास याद आ रही है -
हमें गहरी उम्मीद से देखो बच्चों
हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका तदभव के 20 वें अंक में प्रकाशित मदन केशरी की कविताएं जो ऐसे ही दूसरे सवालों को छेड़ रही हैं, ध्यान खींचती हैं। मदन केशरी की रचनाओं से मेरा यह पहला साक्षात्कार है। उनकी कविताओं में वे राजनैतिक शब्दावलियां जिन्हें साम्राज्यवाद या पूंजीवाद जैसे भारी भरकम शब्दों में व्यक्त किया जा रहा होता है, एक कवि के रचनात्मक कौशल में बहुत सहज तरह से परिभाषित हो रहे हैं। अपने विन्यास में भी ये कविताएं जो चित्र प्रस्तुत करती हैं वे एक दम साफ-साफ नजर आते हैं। शिल्प की दृष्टि से भी और एक कवि की वैचारिक स्पष्टता की दृष्टि से भी- द्विविधा या संशय जैसा भी कहीं कुछ, जो कई बार पाठक को बोझिल बना रहा होता है, कविताओं में दिखाई नहीं देता। यहां यह कहने की जरूरत भी नहीं लगती कि साम्राज्यवाद और स्वस्थ पूंजीवाद का भेद क्या होता है। अदृश्य दुकानदार के भ्रम जाल को रचता साम्राज्यवाद कैसे एक सीमित रूप के ही सही, स्वस्थ पूंजीवाद को भी तहस नहस कर देने के षड़यंत्र रच रहा है, कवि ने उसे भी बहुत सटीक तरह से पकड़ा है -
अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास
मदन केशरी की कविताओं से यह साक्षात्कार उस गौरवशाली परम्परा को याद करना ही है जिसमें जनता के पक्ष की प्रबल इच्छाएं जन्म लेती हैं। मदन केशरी की ये कविताएं तदभव से साभार हैं। कवि और तदभव सम्पादक की सहमति के बाद ही इन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।
हमें गहरी उम्मीद से देखो बच्चों
हम रद्दी कागजों की तरह उड़ रहे हैं
हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका तदभव के 20 वें अंक में प्रकाशित मदन केशरी की कविताएं जो ऐसे ही दूसरे सवालों को छेड़ रही हैं, ध्यान खींचती हैं। मदन केशरी की रचनाओं से मेरा यह पहला साक्षात्कार है। उनकी कविताओं में वे राजनैतिक शब्दावलियां जिन्हें साम्राज्यवाद या पूंजीवाद जैसे भारी भरकम शब्दों में व्यक्त किया जा रहा होता है, एक कवि के रचनात्मक कौशल में बहुत सहज तरह से परिभाषित हो रहे हैं। अपने विन्यास में भी ये कविताएं जो चित्र प्रस्तुत करती हैं वे एक दम साफ-साफ नजर आते हैं। शिल्प की दृष्टि से भी और एक कवि की वैचारिक स्पष्टता की दृष्टि से भी- द्विविधा या संशय जैसा भी कहीं कुछ, जो कई बार पाठक को बोझिल बना रहा होता है, कविताओं में दिखाई नहीं देता। यहां यह कहने की जरूरत भी नहीं लगती कि साम्राज्यवाद और स्वस्थ पूंजीवाद का भेद क्या होता है। अदृश्य दुकानदार के भ्रम जाल को रचता साम्राज्यवाद कैसे एक सीमित रूप के ही सही, स्वस्थ पूंजीवाद को भी तहस नहस कर देने के षड़यंत्र रच रहा है, कवि ने उसे भी बहुत सटीक तरह से पकड़ा है -
अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास
मदन केशरी की कविताओं से यह साक्षात्कार उस गौरवशाली परम्परा को याद करना ही है जिसमें जनता के पक्ष की प्रबल इच्छाएं जन्म लेती हैं। मदन केशरी की ये कविताएं तदभव से साभार हैं। कवि और तदभव सम्पादक की सहमति के बाद ही इन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।
-वि. गौ.
मदन केशरी की दो कविताएं
वैश्विक बाजार में लुप्त होने से पहले पटरी बाजार का एक शब्दचित्र
वैश्विक बाजार में लुप्त होने से पहले पटरी बाजार का एक शब्दचित्र
ताजी सब्जियों से भरे पुराने तिपहिये आने लगे हैं
खड़खड़ाहट की आवाज के साथ वे खड़े होने लगे हैं अपनी नियत जगह पर
कुछ टेढ़े मेढ़े जैसी गंुजाइश हुई वैसी, कुछ एक के साथ दूसरे लगे सीधी कतार में
टेम्पुओं से उतर रहे भारी भरकम गट्ठर, धूल झाड़ते बोरे, बड़े बड़े संदूक
गिर रहे मटमैले तिरपाल, कील और छेदभरी बल्लियां
करीने से लपेटे बिजली के तार और बल्ब, रस्सी से बंधी पेट्रोमैक्स की बत्तियां
अभी दो बजे हैं और पटरी वाले अपनी अपनी जगहों पर
टाट और रेक्सीन की नीली चादरें बिछा माल उतारने में व्यस्त हैं
दुकान लगाते, सामान फैलाते पटरी वाले थकान से चूर हैं
और शाम की बिक्री के खयाल से उत्साहित
चिराग दिल्ली से शेख सराय के बीच की पटरी सुगबुगाने लगी है
पटरी पर बिछता माल हर बार वही होता है
नये सिरे से जरूरतों को पूरा करता हुआ
कोल्ड स्टोरों और गोदामों में जो न अंटे वे फल सब्जियां, अनाज दलहन
चीनी मिट्टी के कप प्लेट, तश्तरियां, फूलदान
जो नुक्स के कारण निकाल दिये गये निर्यात की पहली ही खेप से
चादर, गिलाफ, पर्दे, दरियां जो न पहुंच सके
कनॉट प्लेस, करोलबाग, कमला नगर के शोरूमों तक
महंगे बाजारों के छंटुआ स्टील और प्लास्टिक के बर्तन
गांधी नगर के फैब्रिकेटरों के अतिरिक्त जीन्स, जैकेट, स्कर्ट, टॉप
बंद पड़ी फैक्ट्रियों का बचा हुआ माल
और बची हुई फैक्ट्रियों का बंद पड़ा माल
कतारों में एक गझिन बुनावट में गुंथी दुकानों पर
दफ्तरों से वापस लौटे लोगों और प्रतीक्षा करती औरतों की भीड़ घनी होने लगी है
बल्लियों से लटकते बल्ब के नीचे चमक रहे रेहड़ी पर अंटे सामान
अचार मुरब्बा बड़ियां पापड़ गजक रेवड़ी पट्टी बताशा
बल्बों की जगमग में रह रह कर भभक उठता है गुब्बारे वाले का धुंधुवाता पेट्रोमक्स
गुप्ता जी की कचौड़ी की गर्माहट लोगों की जेबों तक पहुंच रही है
सौ रुपये में पुरानी रेशमी साड़ियां इच्छाओं के गिर्द लिपटने लगी हैं
दस रुपये में ढाई किलो टमाटर बार बार याद दिला रहा फ्रिज का छोटा होना
मोल तोल के बीच, प्याज के बोरे तेजी से खाली हो रहे हैं
बहुतों के स्वाद में उतरने लगा है तरबूज का गहरा लाल रंग
सड़क की धूल और हरे धनिये की गंध हवा का वजन बढ़ा रही है
जहां रोज की जरूरतों में शामिल है इच्छाओं को मारना
यह पटरी बाजार बचाये हुए है चीजों को आम आदमी की सोच से लुप्त होने से
अभी भी अरहर की दाल में पड़ सकती है कभी कभार
एक चम्मच असली घी में भुने हुए जीरे की छौंक
पच्चीस रुपये में एक किलो रस्क बदल सकता है शाम की चाय का जायका
लक्मे या रेवलॉन न सही, अनजान लेबल वाला लिपस्टिक
भर सकता है औरत के होठों में कामुकता का रंग
बच्चों की नींद में अभी भी गिर सकती है रबर की गेंद
यूनीलीवर, प्रॉक्टर एंड गैम्बल और पेप्सीको की बाजार नियंत्रक सत्ता के बावजूद
आमजन की खरीददारी में अभी भी शामिल हैं चीजों के रंग और स्वाद
उस नीम के पेड़ के नीचे मुट्ठी में बीड़ी रख सुट्टा खींचता
वह खुरदरे चेहरे वाला आदमी
बीस साल से यहां प्याज की ढेरी लगाता है
हर मंगलवार रोशनी में चमकता है उसके प्याज का गहरा बैगनी कत्थई रंग
मगर प्याज की चमक से बाहर, इस बीच चीजें तेजी से बदलती रही हैं
बदल गया है अर्थतंत्रा की हिंसा का शिल्प
अब वह सीधे बाजार से विस्थापित नहीं किया जायेगा
सब कुछ बिल्कुल प्रजातांत्रिक तरीके से होगा
महज परास्त कर दिया जायेगा उसका उद्यम
निरस्त कर दी जायेगी दुकानदारी की उसकी अर्जित कला
और एक दिन अपने अंधेरे में वह खरीदेगा सल्फास
वह दूसरा जो वॉल्स आइसक्रीम के ठेले के पीछे खड़ा है
धारियों वाली गुलाबी कमीज और नीली पतलून के यूनिफॉर्म में
पिस्ते वाली कुल्फी बनाता था और बेचता था घंटी बजा कर
उसकी कुल्फी के लिए लड़के शाम तक बचा कर रखते थे जेब में पांच रुपये
व्यावासायिक डार्विनवाद में पहननी पड़ी उसे वॉल्स की यूनिफॉर्म
वह कोई और है जो पापड़ बड़ियां बेचते बेचते
खींचने लगा एक दिन अचानक रिक्शा
आ चुका है यह पटरी बाजार वैश्विक बाजार के मानचित्रा के नीचे
मगर लुप्त होने से पहले अभी इस शाम
औरत मर्द बच्चों की आवाजों से गूंजता
बल्बों और पेट्रोमैक्स की रोशनी में सराबोर, फैला है
सड़क के इस छोर से उस छोर तक
तेल के दाग भरे कैलेण्डर में चमकता मंगलवार का दिन
यह सप्ताह का वह दिन है जब औरतें घर के अनेक कामों के बीच
अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेती हैं
घर की साफ सफाई, रसोई पानी, कपड़े लत्ते की धुलाई
सारा काम खत्म कर लेती हैं दोपहर तक
बच्चों को स्कूल बस से लाकर जल्दी उनके कपड़े बदलती हैं
एक बर्नर पर सुबह की सब्जी गरम करने को रख दूसरे पर फुल्के सेंकते सोचती है
अभी चार बजे हैं, दो घंटे बाद निकल जायेंगे
थोड़ा समय मिल जायगा बातचीत का, पास पड़ोस का समाचार जानने का
बहुत दिनों से जबसे बच्चों की परीक्षा चल रही है
किसी से ठीक से दो शब्द बात न हो सकी
केवल आते जाते देख कर थोड़ा मुस्करा दिया या "कैसी हो" पूछ लिया
उस दिन रसोई की खिड़की से बाहर चमकती धूप
चल कर उनके चेहरे पर पहुंचती है
क्या क्या खरीदना है?
कनस्तर में खत्म हो रहा है आटा, पिसवाने के लिए दस किलो गेहूं
काला चना, साबूत मसूड़, चित्ती वाला राजमा एक एक किलो
धनिया, मिर्च, अमचुर सौ सौ ग्राम, एक पाव लहसुन
इस बार बहुत जल्दी खत्म हो गयी हल्दी
पुर्जी पर लिखती हैं चीजों को
जिनके रंग और गंध पहचानती है केवल औरत
"आ रही हो मंगल बाजार?"
खिड़की से एक पूछती है सामने की तीसरी मंजिल की सहेली से
"छै बजे निकलते हैं, आठ बजे बिट्टू के पापा आ जाते हैं दफ्तर से!"
तीसरी मंजिल की सहेली बरामदे से बतियाती है पहली मंजिल की नयी आयी पड़ोसन से
"क्या कर रही हो? काम निपटा लिया? आज पटरी बाजार लगता है, चलोगी साथ
"अरे वह तो अपने पति के साथ जायगी!
किस्मत वाली है, हमारी तरह नहीं!" दूसरे बरामदे से आती है आवाज
"यार, हम भी कोई बुरे किस्मत वाले नहीं!
अब अगर हमारे पति देर से आते हैं तो हमारे लिए ही तो खटते हैं!"
वह हंस कर देती है जवाब
उसके शब्द उसके उ+पर ही टूट कर गिरते हैं
दस रुपये में ढाई किलो बेचते प्याज वाले की दुकान पर मिल जाती हैं औरतें
रोजमर्रा से थोड़े बेहतर कपड़ों में
कुछ की आंखों में काजल से भी ज्यादा चमक है
कुछ के कपड़ों में इस्तरी वाले के कोयले की गर्मी अभी भी मौजूद है
कंधों पर लटकते झोलों में भर रहीं
दूर से बम्पुओं में लद कर आया मूली, हरा लहसुन, आलू, शलजम
जो उन्होंने खरीदा है रोज सुबह आवाज लगाते रेहड़ी वाले की बनिस्बत आधी कीमत पर
और मदर डेयरी, सुभीक्षा और रिलायंस फ्रेश से भी सस्ता
हाथों में झूलते पॉलीथीन में ठूंस ठूंस कर भरा बड़ियों, पापड़, बिस्कुट, रस्क का स्वाद
"अरे आज तो बड़ी जंच रही हो! एकदम फेयर एंड लवली! क्या बात है?"
करीने से बंधी साड़ी, जूड़े और गहरे लिपिस्टक में एक को
ऊपर से नीचे तक देखते कहती है दूसरी
सामने शीशे वाले की दुकान में लटकते आईने में पहली औरत निहारती है अपना चेहरा
"अब क्या! मगर पहले मेरा चेहरा मोहरा बहुत अच्छा था
बेहद शौक था फोटो खिंचवाने का!"
"और, आज टमाटर नहीं खरीदा?"
हरे और चम्पई रंग के सलवार कुर्ते में एक अर्थभरा प्रश्न करती है
"बड़ा बदमाश है, मैं टमाटर चुनती हूं और वह दबी नजर से देखे जाता है!"
"खोजता है हर सप्ताह तुझे!"
"एक बार उससे सब्जी न लेकर बगल से खरीदा
तो बोलने लगा कि आज तो मेरी दुकानदारी ही खराब हो गयी!"
पेट्रोमैक्स की बत्तियां जलने लगी हैं
उनकी रोशनी में चमकती है उनकी हंसी
खरीदती हैं वे चूड़ियां, बिन्दी, पाउडर, प्लास्टिक के क्लिप और रंगीन परांदे
चुनती हैं उनको भी वैसे ही जैसे तन्मयता से चुनती हैं टमाटर और भिण्डी
नाखूनों पर लगाती हैं गाढ़े रंग का आलता
जो बचाता है एक स्त्री को धुएं की कालिख में गुम होने से
छोले भटूरे की दुकान पर एक निकालती है ब्लाउज के अंदर से छोटा पर्स
दूसरी खोलती है रेक्सीन का कत्थई हाथबटुआ
बाकी की मुटि्ठयों में हैं पसीने में कुछ भीगे मुड़े तुड़े नोट
"पिछली बार तूने दिया था, इस बार मैं दूंगी!" रोकती है एक दूसरी का हाथ
"कोई बात नहीं, यार! तूने दिया या मैंने, एक ही बात है!"
देर तक उनकी उंगलियां चलती हैं प्लेटों में
झिलमिलाती हैं बिन्दी वाले माथे पर पसीने की बूंदें
बीतती शाम में नहीं बीतते पांच रुपये के छोले भटूरे
दरवाजे के पीछे टंगे कैलेण्डर में मंगलवार वह दिन है
जिस पर निशान लगाती है झाडू, बर्तन, रसोई में लुप्त एक औरत
6 comments:
उम्दा अभिव्यक्ति।
Bahut achhi post lagayi hai apne aaj ke samay ko dekhte hue... ek bahut achhi shuruat hue hai ye...
kavitao ka chayan bahut achha kiya hai apne bilkul aaj ke mahaul per satik nishana karti hai...
तद्भव में पढी थी कवितायें
तब भी अच्छी लगी थीं लेकिन शिल्प बहुत रुचा नहीं था।
वैश्विक बाजार पर लिखी कविता बहुत अच्छी
लगी । कुछ मेरे भाव :
http://kavita.hindyugm.com/2009/06/blog-post_7797.html
वैश्विक बाज़ार के समानांतर एक बाज़ार जो सबकी ज़रूरतों के मुताबिक़ ढलता.कहीं अपने लुप्त होने की आशंकाओं के बीच सहज दिखने की चेष्टा करता.अद्भुत,मार्मिक,मानवीय!
बाजारवाद का काव्यात्मक विश्लेषण।
------------------
11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
Post a Comment