Saturday, August 13, 2011

सतह के नीचे' की हलचल

   - महेश चंद्र पुनेठा   09411707470
  कविता आसपास के जीवन की जिंदा रची तस्वीर है। जीवन में भावों की यथासिथति को जो तोड़े वह जीवंत कविता है। कविता एक जीवन-साधना है। निरंतर साधना से ही कवित्व अर्जित किया जा सकता है।कवि का परिवेश और उसका अध्यवसाय उसके कवि व्यकितत्व का विकास करता है। इसे पूरी तन्मयता और सावधानी से करना होता है। इसके लिए किसान-सा धैर्य और विश्वास जरूरी होता है। यह बात सही है जिस प्रकार अपने परिवेश और मिटटी को समझे बिना सफल खेती नहीं हो सकती उसी प्रकार अपनी परपंरा के जीवन तत्वों की पहचान , अपनी धरती ,अपने लोग , अपने परिवेश व जातीयता से जुड़ाव और अपने युग के अंतर्विरोधों को समझे बिना एक बड़ी रचना संभव नहीं है।.एक बड़ा कवि अपनी काव्य संवेदना में  जीवन,प्रकृति और विशाल संसार की समग्रता तथा प्रचुरता को आत्मसात करते हुए अपनी ऐतिहासिक परिसिथतियों के साथ जातीयता  तथा परंपरा का गहरा बोध व उसे विकसित करने की इच्छा रखता है। उसमें  भाषा को विकास के छोर तक ले जाने की बेचैनी और विश्वदृषिट तथा संकल्प की दृढ़ता होती है।यथार्थ को गहरार्इ तक पकड़ने के लिए सामान्य जन की भाषा को अपनाना होता है।  भाषा कि्रयाशील मनुष्य से सीखनी पड़ती है। उसकी संगत करनी पड़ती है। उसे बोलते व व्यवहार करते हुए देखना होता है। इस साधना के लिए पूरा जीवन समर्पित करना पड़ता है। कवि को त्रिआयामी संघर्ष करना होता है -पहला , वर्ग चेतन समाज में अपने वर्ग शत्रु से। दूसरा, समाज में व्याप्त विसंगतियों ,विडंबनाओं और तीखे अंतर्विरोधों से । तीसरा , अपने अंदर के अंतर्विरोधों से । पाँचों इंदि्रयों से अनुभव  ग्रहण करने पड़ते हैं जिसके लिए उसके भीतर एक भूख  होनी चाहिए। एक कवि को यह सब करना पड़ता है। अगर वह अपने समय की नब्ज को समझना चाहता है तो इंदि्रयों को खुला और चौकन्ना छोड़े । चेतना को सदा बुद्धि संगत बनाए । संवेदना का सदा पुनर्गठन करे । अनुभवों का बड़ा संसार ही रच लेना काफी नहीं है -बलिक हर अनुभव को एहसास बना के उसके कण को फोड़ पाना यह भी कवि को करना होता है।बहुत दमदार एहसास पाने को आदमी के करीब आना जरूरी है। ऐसा आदमी जो कि्रयाशील है। कवि को हर समय बड़े अनुशासन में जीना पड़ता है। जीना चाहिए। जीवन में और रचना कर्म करते समय। सृजन कर्म न तो बंधन समझ कर न थोपी हुर्इ शर्त समझ कर करना चाहिए।
  कवि जो कुछ भी मनुष्य जाति को देता है वह पूरी तरह बोधगम्य हो। रमणीय भी हो। वह हमारी इंदि्रयों को असर दे सके। वह हमें उददीप्त कर सके। वह प्रतिफल प्रीतिकर लगे। यह सब हमारे मन को उदवेलित करके भी हमें मन के संतुलन बनाए रखने में मदद करे। हम आतंरिक शांति का अनुभव करें। एक बार को लगे कि हम अपनी सीमाओं से ऊपर उठ रहे हैं। यानी हम ने मनुष्यता की उच्चभाव भूमि पा ली है। हमारी चेतना को उन्नत और विकसित करे। कवि को चाहिए वह अपनी संवेदना को सघनतर बनाकर उसका पुनर्गठन करे। तभी वस्तुगत सिथतियों का यथार्थपरक चित्रण हो पाएगा। एक कवि को पहले अयस्क उत्खनित करना पड़ता है । फिर जीवन की धधकती भटटी में उसे तपाना पड़ता है। यह प्रकि्रया खनिज को पकाने से भी ज्यादा लंबी और कठिन है। कष्टदायक भी। कवि को मनुष्य रूप में भी बहुत कुछ खो देना पड़ता है। यह ऐसा तप है जिसकी कोर्इ समय सीमा नहीं है। कवि का सारा खनिजदल प्रत्यक्ष ज्ञान से ही अर्जित नहीं होता । उस ज्ञान का तीन-चौथार्इ ज्ञान उसे परोक्ष अनुभव से भी अर्जित होता हर्ै यानी सुनकर ,पढ़कर ,जानकर ,समझ कर। अपने इतिहास और अपनी प्राचीन संस्कृति से। उस ज्ञान के बिना प्रत्यक्ष ज्ञान अधूरा और अधकचरा है। कवि को अपनी इंदि्रया सजग रखने -बहुत ही सहज ,सकि्रय तथा निसर्गोन्मुखी जीवन जीना ही बेहतर है।  
     कविता और कवि कर्म के संदर्भ में उक्त बातें कविवर विजेंद्र की सध प्रकाशित डायरी  सतह से नीचे ' को पढ़ने के बाद सार रूप में निकलती हैं। ये बातें केवल किसी उपदेश या दर्शन के रूप में नहीं कही गर्इ हैं बलिक विजेंद्र जी ने स्वयं अपने जीवन में इन्हें पोषित किया है। अपने कवि को बचाए रखने के लिए वे खुद से और समाज से निरंतर संघर्ष करते रहे हैं जो आज भी जारी है। उनकी डायरी के पन्नों में इस बात को देखा-समझा जा सकता है। यहाँ कविता ,कवि कर्म ,सौंदर्यशास्त्र ,काव्य भाषा , कवि की तैयारी तथा उसके सामाजिक दायित्व आदि के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। कवि के रूझान ,रूचियों ,चिंताओं और आस्वाद का पता चलता है। उनका व्यकितत्व सामने आता है। कवि की प्रतिबद्धता एवं सरोकारों का पता चलता है। भाषा को लेकर डायरी में बहुत सारी बातें कही गर्इ हैं। यहाँ भाषा के संकट , भाषा के गठन , भाषा के सीखने ,काव्य भाषा की ताकत को लेकर महत्वपूर्ण बातें आर्इ हैं। उनकी निगाह में भाषा मनुष्य जाति की सबसे अच्छी और सबसे ऊँची रचनात्मक उपलबिध है। यह हमारे सांस्कृतिक उन्नयन में सदा सहायक है। लेकिन हम अपनी भाषा से कितना प्यार करते हैं-यह कहने से नहीं वरन उसे रचने ,समृद्ध करने से -बलिक उसे हर वक्त जीवन देने से व्यक्त करना चाहिए । भाषा का उपयोग हम सिर्फ परस्पर संवाद को ही नहीं करते बलिक उससे हम यथासिथति की जड़ता भी तोड़ते हैं। लेकिन यह जड़ता हम निर्जीव भाषा से नहीं तोड़ सकते। इसके लिए बहुत जीवंत ,वेगवान और रचनाशील भाषा चाहिए । ऐसी भाषा संघर्ष धर्मिता से आती है। .....श्रमिक ,खेतीहर ,मजदूर ,छोटे किसान , कारीगर ,मिस्त्री ,लुहार ,बुनकर ,बढ़र्इ मोची ,पत्थर तोड़ा और रात-दिन शहर की सफार्इ में लगे इंसान ही इसके रचियता है। .....श्रमवान लोगों की भाषा में तेज और तप दोनों घुले-मिले रहते हैं।
 भाषा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वे आगे कहते हैं कि इस तरह के कवि भी होते हैं जो जनता के हितों को झुठलाने के लिए दिग्भ्रम फैलाते रहते हैं । वह यथार्थ को एक चमकदार भाषा और शब्दों के खेल से ढक देते हैं। उसे विकृत करते हैं। ......भाषा का इस्तेमाल कवि वैसे ही करता है जैसे किसान अपने बीजों को उर्वर धरती में बोकर इंतजार करता है। दरअसल सबसे कठिन काम है आम आदमी की भाषा में जीवन के औदात्य और उसकी संशिलष्टता को बड़ी सहजता से कविता में रच पाना। .....जो लेखक -वे चाहे किसी भाषा के हों जीवन और प्रकृति से दूर रहते हैं -वे एक अनुदित भाषा लिखने के अभ्यासी बन जाते हैं। भाषा के प्रति विजेंद्र जी का यह दृषिटकोण सबसे अलग और विशिष्ट है। यह व्यावहारिक ,वैज्ञानिक एवं जनपक्षीय दृषिटकोण है।साथ ही कवि को लोक से जोड़ने वाला है। इससे रचना में ताजगी और जीवंतता का संचार होता है।  वे अपनी कविताओं में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह उनके द्वारा लोक के संपर्क से खुद अर्जित भाषा है ,जिसमें उनकी अपनी लय और भंगिमा है। जो भाषा के प्रति उनके इस दृषिटकोण को प्रमाणिक साबित करती है। 
   डायरी, किसी कवि की रचना प्रकि्रया को जानने का सबसे उपयुक्त माध्यम है । कोर्इ रचना जो पाठक तक पहुचती है वह उससे पहले किन-किन पड़ावों से होकर गुजरती है ?इसका पता चलता है। वस्तु के अंतर्वस्तु बनने की पूरी प्रकि्रया की जानकारी मिलती है। मुकितबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात करते हैं उन तीन क्षणों का पता चलता है। रचना से कम रोचक नहीं होती है उसकी रचना प्रकि्रया और उससे गुजरना । इससे रचना की तैयारी ,उसकी पूर्व पीठिका ,रचनाकार की बेचैनी और उसके आत्मसंघर्ष का पता चलता है। एक रचना को पूरी तरह समझने के लिए यह जरूरी भी है। कविता की रचना-प्रकि्रया ही नहीं कवि बनने की प्रकि्रया का भी पता चलता है। कवि संवेदना के रचे जाने के  स्तरों का भी पता चलता है। प्रस्तुत कृति कवि विजेंद्र के संदर्भ में इन सारी बातों को जानने का अवसर प्रदान करती है। पाठक को पता चलता है कि  विेजेंद्र जी ने निरंतर साधना से अपने कवित्व को अर्जित किया है। वे हमारे समय के विलक्षण चिंतक हैं । तथ्यों की गहरार्इ में जाकर अपने पूरे तर्कों के साथ उन्हें विश्लेषित करते हैं। जीवन के प्रति रागात्मकता के साथ-साथ विचार के प्रति सजगता एवं सतर्कता ने उनके कवि को जिंदा रखा है। माक्र्सवाद में उनकी आस्था आज भी दृढ़ बनी हुर्इ है। इस विचारधारा के प्रति वे कहीं भी सशंकित नहीं दिखते हैं।जबकि उनके तमाम साथी विचारधारा से दूर जा चुके हैं । कुछ यदि जुड़े भी हैं तो केवल नाममात्र के लिए।  माक्र्सवाद में गहरी आस्था के बावजूद  वे मानते हैं- केवल विचारधारा से चिपक कर -उसका ढोल पीटकर ही कुछ नहीं हो सकता । उसके लिए बेहतर आचरण ,उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजगता और सहज मानवीय गुण भी चाहिए । वामपंथी युवक -चाहे वे राजनीति में हों या साहित्य में -ज्यादातर आचरण से हमें अपनी तरफ आकर्षित नहीं करते । उन्होंने विरासत में बड़े जीवन मूल्यों को हासिल न कर शार्टकट तिकड़मों पर ज्यादा ध्यान दिया है। ......दरअसल कोर्इ भी विचारधारा जीवन के बड़े संकल्प का रचनामूलक अनुशासन है। दूसरे ,प्रतिबद्ध शब्द का अर्थ साहित्य में  बधना' नहीं वरन किसी दर्शन से संबद्ध होना है। उससे लगाव-जुड़ाव होना है। .....प्रतिबद्धता एक दिशा ही तो है। जहाँ दिशा नहीं वहाँ अराजकता होती है। या फिर हताशा।.....हम अनेक विचारों या विचारधाराओं में किसी एक को चुनते हैं। जो हम चुनते हैं जरूरी नहीं कि दूसरों को वह स्वीकार्य हो -तो फिर सच्ची विचारधारा कौनसी है?इसके लिए वाद-विवाद जरूरी है। यह एक वैचारिक संघर्ष है जो बराबर चलता  रहना चाहिए जब तक हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुचें। 
   प्रस्तुत कृति में यत्र-तत्र वैचारिक सूत्र फैले हैं जो पाठक को समृद्ध करते हैं। बीच-बीच में कविताएं भी हैं यह डायरी लेखन का विजेंद्र जी का अपना निराला अंदाज है। बीच-बीच में कविताओं का आना गध की एकरसता को भंग करने में  सफल रहा है वैसे डायरी इतनी रोचक है कि कहीं भी एकरसता का भान कम ही होता है। एक कथा सी रोचकता इसमें निहित है। हाँ ,इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि जिसने उनका समग्र साहित्य पढ़ा हो उसे यहाँ कुछ बातों का दुहराव लगेगा। मुझे लगता है यह दोहराव स्वाभाविक भी है क्योंकि विजेंद्र जी कविता ,कवि-कर्म तथा एक मनुष्य के लिए जिन बातों को जरूरी मानते हैं उन्हें वे बार-बार उलिलखित करते हैं। उनके प्रति उनका विशेष आग्रह रहता है। उनके लिए लेखन रचनाकार कहलाने मात्र का माध्यम नहीं है बलिक मनुष्यता को बचाए रखने का औजार है।
  विजेंद्र जी डायरी के गध को अपने लिए कविता का अनिवार्य 'वर्कशाप जैसा मानता है। एक तरह का रियाज। कविता रचे जाने के बाद जो बेचैनी बच जाती है उसकी रचनात्मक अभिव्यकित।  कवि को जो कुछ स्पंदित करता रहा वह सभी है इस डायरी में है ।
   इस कृति में  प्रकृति के विविध रंग विखरे हैंं। वे प्रकृति की बारीक से बारीक कि्रयाओं को भी अपनी कविताओं की तरह यहाँ भी दर्ज करते हैं । पाँचों इंदि्रयों से प्रकृति का रसास्वादन करते हैं।प्रकृति के रूप ,रंग ,गंध , स्वाद को कवि ने नजदीक से अनुभव कर व्यक्त किया है। राजस्थान के घना और भरतपुर अंचल की प्रकृति इस डायरी में भरपूर आयी है। फाग उमड़ने ,सूर्योदय जैसे दृश्यों का चित्रण बहुत सुदंर तरीके से हुआ है। वे डायरी में एक जगह लिखते भी हैं - मैं अपने यहाँ की धरती से गहरा परिचय कराने की गरज से यहाँ खड़ा हू। इस डायरी में आए प्रकृति के सूक्ष्म चित्रों और उसकी विस्तृत परिचय से समझा जा सकता है कि विजेंद्र जी को प्रकृति से कितनी रागात्मकता है। वह अपने आसपास की एक-एक वनस्पति , जीव-जंतु ,फूल-फल आदि की जैसी जानकारी रखते हैं वैसी जानकारी केवल किसान ही रख सकता है। कभी-कभी उनकी जानकारी चमत्कृत करती है कि एक कलम चलाने तक सीमित व जीवनभर अध्यापकी करने वाले व्यकित को इतनी गहरी जानकारी! किसी किसान से कम नहीं है यह । उनकी यह विशेषता नए और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले हम जैसे कवि-रचनाकारों को सीखने को प्रेरित करती है।  न केवल प्रकृति बलिक अपने आसपास श्रम करने वालों की गतिविधियों को भी वे बहुत बारीकी से चित्रित करते हैं। उनके आसपास के  अनेक चरित्र यहाँ आए हैं जिनका जीवंत चित्रण हुआ है। लगता है जैसे किसी कविता की पंकित पढ़ रहे हाें। उन्होंने ,अपनी आँखों से देखे हैं अपने आसपास के फूल ,पेड़ ,लताएं , घास ,मिटटी , लोगों की कि्रयाएं ,उनकी आकृतियाँ ,कीचड़-गडढे ,नहर , भरा हुआ पानी , फूलते कासों की लंबी-लंबी कतारें .....और छोटी सी लोहे की सिल्ली से बनती पतली सरिया । सूघी है यहा के फूलों की खुशबू ,मछुआरों के बदन से आती मछरियांद ' और किसान ,हलवाहों ,पत्थरतोड़ाओं और लावों के जिस्म से आती पसीने की  खटियाद'। गढि़या लुहार , खलासी , गैंगमैन , मिस्त्री ,मोची ,डाकिया जैसे अनेकों छोटे-मोटे श्रम करने वालाें को वे भूलते नहीं हैं। इनका केवल नामोल्लेख ही नहीं बलिक उनके जीवन की कि्रयाओं , भावनाओं ,संवेगों ,संघर्षों का भी वर्णन किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि वे इन लोगों को कितनी सम्मान की नजर से देखते हैं तथा जीवन में उनके महत्व को कितनी शिददत से महसूस करते हैं। इससे पता चलता है कि विजेंद्र जी अपने जन और जमीन से कितनी गहरार्इ से जुड़े हैं। यही अपेक्षा वे दूसरे कवियों से भी किया करते हैं । नए रचनाकारों को लिखे पत्रों में वे हमेशा उनको अपने जन और समाज को पहचानने की सीख देते रहते हैं। विजेंद्र जी अपने आसपास को जानने के लिए सचेत रूप से प्रयास करते हैं। कविता की तरह रूपक और बिंबों का प्रयोग यहाँ दिखार्इ देता है। वैचारिक सूत्र हर जगह हैं। इस डायरी से विजेंद्र की कवि विजेंद्र में बदलने की पूरी प्रकि्रया का पता चलता है। पता चलता है उन्होंने इसके लिए कितनी सचेत तैयारी की है।
   विजेंद्र जी , मजदूर-किसानों के सामने अपने काम को छोटा मानते हैं । उनके काम को अधिक मान देते हैं। हमेशा उनसे सीखने का प्रयास करते हैं। किसान के भीतर एक विश्वास तथा धैर्य होता है तूफान , वर्षा ,आँधी ,सूखा ,बाढ़ ,शीत और अन्य व्याधियाँ सहते हुए भी खेती करना नहीं छोड़ता हैं । उनकी कविताओं में श्रम करने वालों के प्रति जो सम्मान और प्रेम हमें दिखार्इ देता है वह यहाँ और अधिक खुलकर सामने आता है। एक सच्चा कवि ही गरीबी ,भूख ,उत्पीड़न , शोषण को देख इतना संवेदनशील हो सकता है। अपने अभिजात्यपन को लेकर उनके मन में जो अपराधबोध है , वे मनोभाव भी इस डायरी में दर्ज हुए हैं। कवि की बेचैनी-तड़फ-अंतर्मन की पीड़ा डायरी में शुरू से अंत तक महसूस की जा सकती  है । यही है जिसने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया है। उनकी पीड़ा-बेचैनी को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरल नहीं है एक कवि होना ।कवि के मन को समझने के लिए यह डायरी महत्वपूर्ण है।
   इसमें कवि की आत्मस्वीकृतियाँ भी हैं और पति-पत्नी के बीच का प्रेम भी । लगभग आधी सदी के वैवाहिक जीवन के बाद भी पति-पत्नी के बीच जो प्रेम यहाँ दिखार्इ देता है वह मनमोह लेने वाला है और दुर्लभ है।इस डायरी में विजेंद्र जी के केवल कवि रूप के ही नहीं बलिक एक पिता ,एक पति ,एक अध्यापक  रूप के दर्शन भी होते हैं। इन सारे दायित्वों को विजेंद्र पूरी र्इमानदारी से निभाते हैें। अत: एक रचनाकार के रूप में ही नहीं बलिक एक इंसान के रूप में भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।   
    कविवर विजेंद्र रूढि़यों को तोड़ने वाले कवि हैं । यहाँ भी विधा के रूप में उन्होंने यह रूढि़ तोड़ी है परम्परागत रूप में उनकी यह रचना डायरी नहीं लगती है। उनकी डायरी में नितांत निजी स्तर पर घटित घटनाओं और तत्संबंधी बौद्धिक-भावनात्मक प्रतिकि्रयाओं का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। यह बोझिल रोजनामचा नहीं है। यह जीवन और जगत के प्रति अनुराग पैदा करने तथा जीवन में भावों की यथासिथति को तोड़ने वाली कृति है, जिसमें कविताएं भी हैं संस्मरण भी ,यात्रा वृतांत भी ,पत्र भी ,आलेख भी और टिप्पणिया भी। कुछ पृष्ठ  तो  साहित्य और समाज पर टिप्पणियों सा आस्वाद प्रदान करते हैं। कहीं-कहीं उन्होंने विभिन्न साहितियकों द्वारा उनके नाम लिखे गए पत्रों को भी शामिल किया है। उनकी डायरी में जीवन-सार जगह-जगह उदघाटित होता है। जीवन-वर्णन ही नहीं जीवन-निष्कर्ष भी हमको मिलते हैं जो पाठक को एक नया आलोक प्रदान करते हैं। जीवन-वर्णन के दौरान विजेंद्र जी कब अचानक बाहर से भीतर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है। उनकी भीतर-बाहर की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। इसके चलते कभी-कभी डायरी की क्रमबद्धता भी बाधित होती है।ऐसा ही कविता संबंधी बातों पर भी होता है। जीवन-प्रसंगों की बातें करते-करते अचानक कविता और कवि कर्म पर बातें शुरू हो जाती है।  प्रकृति के प्रतीकों से कविता की गहरी से गहरी बातों को समझा देते हैं। इससे लगता है कि उनके लिए कविता जीवन से और कवि-कर्म जीवन-कर्म से अलग नहीं हैं । दोनों एक-दूसरे में गुँथे हैं। इसलिए तो वे कवि को उसके व्यकित से अलग करके नहीं देख पाते ।
       डायरी में उन्होंने अपने दोस्तों से मुलाकात के विवरण भी दिए हैं । इस दृषिट से दिल्ली की डायरी' बहुत रोचक है। दिल्ली के तमाम रचनाकारों तथा साहित्य के माहौल के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। साहित्य के लोग एक दूसरे से कैसी र्इष्र्या और द्वेष रखते हैं इसका भी खुलासा होता  है। यह डायरी साहित्य की राजनीति का चिटठा खोलती है। इस रूप में विजेंद्र जी के पूरे कालखंड को जानने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराती है। त्रिलोचन , शमशेर , विष्णु चंद्र शर्मा ,रामकुमार कृषक ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,भगवत रावत , जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा ,नरेश सक्सेना ,विश्वंभर नाथ उपाध्याय ,वाचस्पति मोहन श्रोत्रिय , नंद भारद्वाज , नंद चतुर्वेदी , अशोक वाजपेयी ,कर्ण सिंह चौहान ,मैनेजर पांडेय , रमेश उपाध्याय , अरूण कमल ,सुधीश पचौरी ,उदय प्रकाश , एकांत श्रीवास्तव सहित तामम आलोचकों और कवियों के बारे में लेखक की बेबाक राय पता चलती है। यहाँ उनकी बेवाक टिप्पणियाँ विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।जिसके बारे में जो लगा उसे उन्होंने बिल्कुल साफ-साफ लिखा है। उसमें यह नहीं देखा कि वह उनके कितने करीब या दूर है। इस बात की परवाह नहीं कि कौन इस बात से खुश होगा और कौन नाराज। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में दिखार्इ देता है। इसी साफगोर्इ के चलते वे आज अलग-थलग हैं। उनके इस स्वभाव ने उनके अनेक दुश्मन खड़े किए हैं। इस डायरी को पढ़े जाने के बाद बहुत सारे और  लोग उनसे नाराज हो जाएंगे। पर उन्हें इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है । उन्हें तो केवल सच्चे लोग चाहिए। वे कहते हैं - जो जीवन और रचना को समर्पित हैं -सरल-सहज जन चाहे कितने ही सामान्य क्यों न हों -मैं उनके लिए नतमस्तक हू।  एक ऐसे दौर में जबकि साहितियक जगत में सहिष्णुता छीजती जा रही है। व्यकितगत आलोचना तो छोडि़ए रचना की सीमाओं की ओर संकेत मात्र भी किसी को सहन नहीं होता है। युवा से युवा रचनाकार तक अपनी आलोचना सुनने को तैयार न हों। थोड़ी सी बात पर भड़क उठते हों तब  विजेंद्र जी का इस तरह अपने समकालीनों को लेकर बेवाक और दो टूक राय व्यक्त करना साहित्य के प्रति विश्वास बढ़ाता है। उनकी यह डायरी उनके साहस  के लिए विशेष रूप से जानी जाएगी। यहाँ तक कि उन्होंने खुद को भी नहीं छोड़ा है। यह बहुत बड़ी बात है। बहुत कम होते हैं जो अपनी निर्मम आलोचना कर पाते हों।इसे एक कवि की र्इमानदारी ही कहा जा सकता है कि कवि इतनी निर्ममता से अपने आप को कटघरे में खड़ा कर देता हैै। अपनी स्वयं की आलोचना इस डायरी को एक अतिरिक्त गरिमा प्रदान करती है। युग समाज ,व्यकित तथा साहित्य के प्रति लेखक की गहरी प्रगतिशील निष्ठा और आकांक्षा को सूचित करती है।  इससे उनके लिखे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। 
   यहाँ प्रकाशकों की बेर्इमानी और उनके साथ शिखरस्थ साहित्यकारों का गठजोड़ भी सामने आया है। बड़े-बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक कितने कूढ़मगज और मूर्ख हैं पता चलता है- प्रकाशक की निगाह में एक अच्छा लेखक वह है जिसकी किताब एक मुश्त खरीदी जाए ,जो खरीद करवा सके ,वह उसे सबसे बड़ा लेखक .....उसका कूड़ा भी छापने को बड़े-बड़े प्रकाशक तैयार हो जाते हैं। विजेंद्र जी की यह बात बिल्कुल सही है। बड़े-बड़े प्रकाशनों की पुस्तक सूची उठाकर देख लीजिए उसमें आपको ऐसे-ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके बारे में एक लेखक के रूप में आपने कभी सुना भी नहीं होगा। उनकी पहचान एक लेखक की बजाय बड़े मंत्री या अधिकारी के रूप में अधिक होती है। साहित्य की जिस दुनिया को हम साफ-सुथरी दुनिया मानते आए हैं वहाँ भी कितनी गंदगी व्याप्त है इसमें देखा जा सकता है-  साहित्य के हालात से मन क्षुब्ध रहा। इधर बड़े-बड़े अफसरों ने साहित्य पर एकाधिकार जमाने के प्रयत्न किए हैं। धन की ताकत से वे अनेक लेखकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं।.....साहित्य अब कोर्इ पवित्र चीज नहीं रह गर्इ है। साहित्य में कामयाबी के लिए शार्टकट अपनाए जा रहे हैं। तिकड़में और जोड़-तोड़ हमारी आचार संहिता का हिस्सा बन गया है। नैतिक आचरण की बात पर लोग हसते हैं।.....साहित्य का हाल बुरा है । उस पर भी भ्रष्ट राजनीति और पूजीवाद की विकृतियाँ हावी है। ''   एक बात और यहाँ केवल कवि की रचना-प्रकि्रया ही नहीं बलिक किसी रचना के छपने की स्वीकृति तथा संपादक की सकारात्मक टिप्पणी से पैदा हुर्इ खुशी भी है। रचना का बनना , स्वीकृत होना ,छपना तथा पाठकों की प्रतिकि्रया पाना एक रचनाकार को कितना सुख प्रदान करती है ,इस भाव को यहाँ महसूस किया जा सकता है। यहाँ पता चलता है कि यह सुख केवल नए रचनाकार को ही नहीं बलिक वरिष्ठों को भी समान रूप से प्रफुलिलत करता है। सृजन का आनंद नि:संदेह अदभुत होता है। 
    यह कृति कविता और इंसान के रिश्तों को बताती ही नहीं बलिक मजबूत भी करती है तथा एक सच्चे इंसान की पहचान भी उजागर करती है।समाज में गिरते मूल्यों की चर्चा भी यहाँ मिलती है। कवि का संकल्प भी यहा व्यक्त हुआ है। यह कृति एक नए कवि के लिए जरूरी मार्गनिर्देशिका जैसी है । कुल मिलाकर इस डायरी में सीखने-समझने और अपने संवेदनात्मक ज्ञान के विवेक सम्मत पुनर्गठन के लिए बहुत कुछ है। ब्लर्ब में लिखी यह बात सही है , किसी भी रचनाकार या सामान्य पाठक को यह डायरी रूचिकर लगेगी। एक बार प्रारंभ करने के बाद शायद व इसे उपन्यास की तरह पढ़ना चाहेगा।''इसमें कोर्इ दो राय नहीं डायरी बाँधने वाली है। जैसा कि विजेंद्र जी स्वयं कहते हैं यह डायरी त्रिविध संवाद है। अपने से ,अपने समय से तथा अपने सुधी पाठकों से। इसमें कोर्इ संदेह नहीं ।  जहाँ तक डायरी के लिखने का कारण है उसके बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, गध हमें जूझने का यकीन देता है। बिना जूझे न जीवन है और न कददावर रचना। डायरी उसी सिलसिले में शुरू की।बाद में वह मेरी कविता की पूरक .....एक बेहतरीन रुहानी  दोस्त ।'' कविवर विजेंद्र 1968 से अटूट रूप से डायरी लिख रहे हैं । अभी तक दो हजार से अधिक पृष्ठों में फैली उनकी डायरी में से कुछ पृष्ठ तीन पुस्तकों के रूप में आ चुकी हैं। पहली  कवि की अंतर्यात्रा  दूसरी ' धरती के अदृश्य दृश्य ' तथा तीसरी  सतह से नीचे'। आशा की जानी चाहिए कि आगे यह सिलसिला जारी रहेगा ।

सतह के नीचे ( डायरी) : विजेंद्र । प्रकाशक - वाड.मय प्रकाशन इ-776/7 लालकोठी योजना ,जयपुर-15
 मूल्य- तीन सौ रुपए

9 comments:

sharad Chandra Gaur said...

वितेन्द्र जी समकालीन कविता की किवदन्ती है. उन्के पत्रओ पर केन्द्रित सुत्र का अन्क भी मैने ्पडा था. कविता के प्रती समर्पण उन्की खूबी है. ्प्रस्तुत किताब ्पर पुनेठा जी का आलेख वास्तव मै महत्वपुर्ण है.

Nityanand gayen said...

बहुत - बहुत शुक्रिया , विजेंद्र जी स्वम में एक संस्था है . नई पीड़ी को बहुत कुछ सीखना है उनसे .

leena malhotra rao said...

yah ek bahut mahtvpoorn, jaankari poorlekh hai. yah na na keval vijendre ji ko jaanne ke liye balki kavi ke jin guno anrvirodho, apekshaon ka lekhak ne varnan kiya hai vah ek mujh jaise naye lekhak ke liye bahut labhprad hain. कवि जो कुछ भी मनुष्य जाति को देता है वह पूरी तरह बोधगम्य हो। रमणीय भी हो। वह हमारी इंदि्रयों को असर दे सके। वह हमें उददीप्त कर सके। वह प्रतिफल प्रीतिकर लगे। यह सब हमारे मन को उदवेलित करके भी हमें मन के संतुलन बनाए रखने में मदद करे। हम आतंरिक शांति का अनुभव करें। kitni sundarta se unhone kavi banne ki prkriya ka sampreshan kiya hai. vijender ji ki diary mai zaroor padhna chahungi. ek imandar lekhak ko padhna apne aap me ek anubhav hoga aisee meri aastha hai. dhanyavad maheshji aapko bahut badhai.

लीना मल्होत्रा said...

mai ise apni wall par share kar rahi hoon. bina aumati.. :)

वंदना शुक्ला said...

दरअसल सबसे कठिन काम है आम आदमी की भाषा में जीवन के औदात्य और उसकी संशिलष्टता को बड़ी सहजता से कविता में रच पाना। .....जो लेखक -वे चाहे किसी भाषा के हों जीवन और प्रकृति से दूर रहते हैं -वे एक अनुदित भाषा लिखने के अभ्यासी बन जाते हैं।'....विचारणीय सत्य

मोहन श्रोत्रिय said...

बहुत समझ कर और डूब कर लिखा है, महेश पुनेठा.ख़ासकर रचना-प्रक्रिया, विचारधारा,प्रतिबद्धता जैसे प्रश्नों को विजेन्द्रजी के सहारे जितने बेबाक़ तरीके से रखा है, वाह अद्भुत है. इसलिए भी की अक्सर इनके मायने कुछ और लगा लिए जाते हैं. तुमने जो लिखा है वाह सृजनात्मक समीक्षा का उत्कृष्ट नमूना है. लंबा लिखा है पर न केवल उबाऊ होने से बचालिया है इसे, पाठक को देर तक बंधे रखने की क्षमता भी बखूबी प्रदर्शित करदी है तुमने. बहुत बधाई.

मोहन श्रोत्रिय said...

पढ़ें'वह' अद्भुत से पहले. इसलिए के बाद 'कि'.सृजनात्मक के पहले 'वह'पढ़ें. मैं शर्मिंदा हूं कि पोस्ट करने से पहले पढ़ नहीं लिया.

शरद कोकास said...

बहुत अच्छी समीक्षा । बधाई महेश ।

कविता रावत said...

Kavita ka marm samjhate hue bahut badiya saarthak sameeksha prastuti ke liye aabhar!
Haardik shubhkamnayen!!