Sunday, May 25, 2008

कविता का भूगोल

(कविताओं में स्थानिकता भाषा और भूगोल दोनों ही स्तरों पर दिखायी दे तो छा रही एकरसता तो टूटती ही है। महेश चंद्र पुनेठा ऐसे ही कवि है जिनके यहां पहाड़ अपने पूरे भूगोल के साथ मौजूद है। इधर के युवा कवियों में महेश की यह विशिष्टता ही उसकी पहचान बना रही है। इस युवा कवि की कविताओं को वागर्थ, कृति ओर, कथादेश आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में पढ़ने का अवसर समय समय पर मिलता रहा है। कविताओं के अलावा महेश पुस्तक-समीक्षा लेखन में भी सक्रिय हैं। गंगोलीहाट, पिथोरागढ़ में रहने वाले महेश चंद्र पुनेठा विद्यालय में शिक्षक हैं। महेश की ताजा कविताओं को प्रकाशित करते हुए हमें खुशी हो रही है।)


महेश चंद्र पुनेठा


सिंटोला


बहुत सुरीला गाती है कोयल
बहुत सुन्दर दिखती है मोनाल
पर मुझे
बहुत पसंद है - सिंटोला

हां, इसी नाम से जानते हैं
मेरे जनपद के लोग
भूरे बदन, काले सिर
पीले चोंच वाली उस चिड़िया को
दिख जाती है जो
कभी घर-आंगन में दाना चुगते
कभी सीम में कीड़े मकोड़े खाते
कभी गाय-भैंसों से किन्ने टीपते
तो कभी मरे जानवर का मांस खींचते

या जब हर शाम भर जाता है
खिन्ने का पेड़ उनसे

मेरे गांव की पश्चिम दिशा का
गधेरा बोलने लगता है उनकी आवाज में

बहुत भाता है मुझे
चहचहाना उनका एक साथ
दबे पांव बिल्ली को आते देख
सचेत करना आसन्न खतरे से
अपने सभी साथियों को कर लेना इकट्ठा
झपटने का प्रयास करना बिल्ली पर

न सही अधिक,
खिसियाने को विवश तो कर ही देते है वे
बिल्ली को।



गमक


फोड़-फाड़कर बड़े-बड़े ढेले
टीप-टापकर जुलके
बैठी है वह पांव पसार
अपने उभरे पेट की तरह
चिकने लग रहे खेत पर

फेर रही है हाथ
ढांप रही है
सतह पर रह गये बीजों को

जैसे जांच रही हो
धड़कन

गमक रहा है खेत और औरत।


सूचना: हमारे साथी राजेश सकलानी इधर एक श्रृखंला शुरु कर रहे हैं। जो किन्हीं भी दो कवियों की एक ही विषय वस्तु को लेकर लिखी गयी कविताओं पर केन्द्रित है। कविताओं पर उनकी टिप्पणी भी होगी। बकोल राजेश सकलानी, "ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी जायेगीं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।"

Saturday, May 24, 2008

भाषा संवाद का एक माध्यम है

(भाषा का सीधा-सीधा संबंध साहित्य से है और साहित्य वही जो हमारे दैनिक जीवन को सम्प्रेष्रित करे। भाषा पर चंद्रिका के विचार यहां इस बहस को जन्म दे रहे है कि साहित्य के सरोकार क्या है ? उसका जन जीवन से क्या लेना देना है ? चंद्रिका युवा है। गम्भीरता से विचार करते हैं। दखल की दुनिया, उनके द्वारा जारी ब्लाग इस बात का गवाह। हिन्दी रचनाजगत और रचनाकारों से संवाद की उनकी पहल का स्वागत है।)


चंद्रिका - 09766631821



मेरे कुत्ते ने आज दूध नहीं पिया!
वह गोश्त चाह रहा था!
पर उसका गोश्त मांगना।
परसों मेरी बेटी के झींगा मछली मांगने जैसा नहीं था।
बेटी - बेटी थी।
कुत्ता - कुत्ता था।
भाषा की इस बहस में अभी तक की प्रविष्टियाँ बतौर साहित्यकार आयी है। भाषा का मतलब सम्प्रेषणियता से ही है पर सिर्फ़ सम्प्रेषणियता नहीं। सम्प्रेषणियता से भी ज्यादा जरूरी होता है उसका भाव। साहित्य के अर्थ में ये मायने और भी बढ़ जाते हैं। भाषा में भावनिहित अर्थ ही सम्प्रेषक के मायने को सही अर्थों में प्रेषित करता है। क्योंकि भाषायी प्रभाव मूलत: मनोवैज्ञानिक तरीके से परिलक्षित होता है। एक ही भाषा में बोली गयी बात अपने-अपने सच का एक पाठ रचती है।

जैसे सद्दाम को हुई फ़ांसी। सद्दाम हुए कुर्बान। या, अफजल की फ़ांसी टली। अफ़जल को फिर बख्सा गया। या, उत्तराखन्ड में पत्रकार प्रशांत राही की गिरफ्तारी पर आये समाचारों की भाषा। या, दिन-प्रतिदिन के अखबारों की भाषा को आप देख सकते हैं। झूठ कौन बोल रहा है? सम्प्रेषणियता कहाँ नहीं हो रही है? पर एक ही समाचार में एक ही भाषा में छिपे भाव अलग-अलग हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी हमारे यहां भी और पूरी दुनिया के स्तर पर भी रूलिंग क्लास की भाषा बन चुकी है। जिसको लेकर अक्सर हिन्दी प्रेमी लोग गालियाँ दिया करते हैं। यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी भाषा का विस्तार सम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया है और इसी के साथ ही संभव हुआ है। जो आज प्रत्यक्ष रूप में बेशक न दिखायी दे रहा हो पर परोक्ष रूप में मौजूद है। और अंग्रेजी उसकी सहायता कर रही है। परन्तु यहां यह भी देखना है कि जो चिन्तन अंग्रेजी में हुआ है वैसा अन्य भाषा में नही है, क्यों ? कारण स्पष्ट है, यहाँ चिन्तन का अर्थ किसी भाषा की लेखनी से ही नहीं है बल्कि उस समाज, जिसकी यह भाषा है, दर्शन से भी है। भाषा का सीधा-सीधा सम्बंध उस समाज से है जिसमे वह बोली जा रही है, सोची जा रही है होती है। अब हिन्दी को ही लें हिन्दी भाषी समाज में या कहें मुख्यधारा के भारतीय समाज में आध्यात्म वादी दर्शन इतना हावी रहा है कि वैज्ञानिक तरीके से बहुत कम सोचा गया। यानि मानवीय समस्या का हल मानव समाज से दूर जाकर परलोक में खोजने की कोशिश की गयी। जबकि ये अपने आप में स्पष्ट है कि दुनिया की 1/6 जनसंख्या होने के बावजूद भी हमने रोशनी के लिये ढिबरी तक नहीं बनायी।
भाषा का निर्माण एवं विकास उत्पादन और उत्पाद की उपयोगिता पर भी निर्भर करता है। जब हमने रेलगाड़ी नहीं बनायी तो उसे लोह चक वाहिनी कहने की जिद कैसा हास्य पैदा करती है, यह किसी से छुपा नहीं है। फिर भी चुटिया धारी मानसिकता ऐसी ही जिद के साथ होती है, यह भी हर कोई जानता ही है। स्पष्ट है कि उत्पादन के महत्व पूर्ण रूप में ही भाषा का विकास निर्भर करता है। यदि किसी समाज में खोज, निर्माण, अविष्कार अधिक होगा, मूल रूप से उसी भाषा में उनका नामकरण किया जायेगा। इसके बाद भारतीय भाषा संस्थान के अलसाये हुए लोग भले ही कम्प्युटर को संगणक, माउस को चूहा कहते रहे। उससे सिर्फ उनकी आत्मतुष्टि ही हो सकती है पर उस शब्द या भाषा की स्थापना नहीं।
भाषा के विकास के लिये मौलिक चिंतन, शोध, अविष्कार निर्माण की जरूरत होती है। फिर भारत जैसे बहुभाषी समाज में हिन्दी भाषा के लोग अन्य भारतीय भाषाओं को ही सीखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। तेलगू के बरबर राव के अलावा हिन्दी पाठक तेलगू के ही कितने अन्य कवि लेखक को जानते है? यही हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का वर्चस्व है। यही कारण है कि हिन्दी के कुछ विद्वान हिन्दी को दुनिया की दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा और हिन्दू को सबसे बडी जनसंख्या और हिन्दोस्तान को देश का सबसे बडा और गर्व से लिया जाने वाला नाम मानते है। इस बात का भी कई लोगों को मलाल है कि बांगला साहित्य में पाठक हिन्दी साहित्य के पासंग बराबर नहीं है। अरे भई बांगला के लेखक कवि अपनी कलम सिर्फ दिल्ली में या कलकत्ता में बैठ कर कागज पर नही उतारते बल्कि वे खुद सडकों पर भी उतरते हैं, जनता के लिये। नंदीग्राम के मसले पर इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।
हमारे गांव में लोगों को यह नहीं पता है कि प्रेमचद के बाद भी कहानी-वहानी लिखि गयी या, लिखी जा रही है। वे नहीं जानते उदय प्रकाश कौन है ? या हिन्दी में कौन-कौन लेखक हैं ? प्रेम चंद को इसलिये जानते हैं क्योंकि जिस क्लास तक वे पढते हैं, प्रेमचंद की पूस की रात या कफ़न पढा ही दी जाती। पर बंगला के साथ यह नहीं है। आज के उपभोक्ता वादी युग में जहा एक खास संस्क्रिति के विकास और बचाव के लिये पूरा संचार माध्यम जुटा है लेखक जनता से जुडकर नही लिखेगा या उसकी लेखनी में जन समस्यायें नहीं होगी, तो पाठक कैसे उन्हें अपनी रचना समझेगा ? जब तक रचनाओं में पात्र के रुप में वह खुद नही होगा या मह्सूस नहीं करेगा तब तक आप क्या उम्मीद करते है ?
इस बात का कोई मायने नहीं है कि फैलती संचार माध्यमों की व्यवस्था साहित्य के विकास में बाधक है। विदेशों में संचार माध्यम हमसे कमजोर नही हैं पर साहित्य पढना भी इस तरह से बंद नही हुआ है। असल बात है कि सामाजिक स्थितियाँ विकट होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा में सिर्फ शिल्प के स्तर पर गुल खिलाये जाते रहे हैं। गरम कोट पहन कर आदमी विचार की तरह कोरे कागजों पर चल रहा होता है।

Friday, May 23, 2008

टीआरपी और भाषा

(टीआरपी का भाषा से क्या लेना देना है ? यह सवाल कई दिनों से कोंध रहा है। ब्लाग की दुनिया भी क्या टीआरपी की दुनिया है? टीआरपी बढ़ानी है तो जो कुछ लिखा जाये क्या उसमें भाषा भी कोई भूमिका निभा सकती है ? यदि नहीं तो फिर एक स्वस्थ बहस की बजाय व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की भाषा में एक झूठा विवाद क्यों खड़ा हो जाता है। बहस बेशक उत्तेजक हो लेकिन तार्किक परिणिति तो होनी ही चाहिए।

भाषा को लेकर मोहल्ले में चल रही बहस शायद समाप्त हो चुकी है। शायद इसलिए कि आज जो पोस्ट लगी है पिछले कुछ दिनों पहले शुरु हुई बहस की झलक उसमें दिखायी नहीं देती। अब यह तो मोहल्ले वाले ही बता सकते हैं कि बहस समाप्त हुई या स्थगित!

वैसे जिस तरह से बहस शुरु हुई थी उम्मीद की जा सकती थी कि कुछ ऐसे प्रश्न उठेगें और उन पर गम्भीरता से विचार भी होगा जो समकालीन दुनिया के पेचोखम को भाषा के माध्यम से खोल पाये। लेकिन जैसे जैसे बहस आगे बढ़ी तो दिखायी देता रहा कि नितांत व्यक्तिगत किस्म के आरोप और प्रत्यारोपो का सिलसिला शुरु हो चुका है।
हलांकि बहस में शामिल दोनों ही रचनाकारों ने शुरुआती दौर में एक संतुलित बातचीत को आगे बढाया था। पर बहुमत के रुप में समर्थकों की भीड़ के हमले आरम्भ से ही इतने तीखे और पैने थे कि बहस में शामिल रचनाकार भी एक हद तक उससे उद्वेलित (कुछ कुछ उत्तेजित भी) हो ही गये। अच्छा ही हुआ जो बहस को रोक कर आज मोहल्ले पर कुछ अलग पोस्ट किया गया। वैसे एक स्वस्थ बहस की निश्चित ही जरुरत है। खास तोर पर ऐसे मुद्दों पर जिनकी उपस्थिति बहुत इकहरी नहीं है।
अपने इतिहास में भी और समकालीन दुनिया में भी भाषा का मसला ऐसा ही एक विषय जो उतना इकहरा नहीं कि तुरत फुरत में किन्हीं नतीजों पर पहुंचा जा सके।
भाषा के सवाल पर दलित धारा के रचनाकार ओमप्राकद्ग्रा वाल्मीकि का एक आलेख यहां प्रस्तुत है। यह आलेख पिछले दो आलेखों (वरवर राव और नवीन नैथानी )का ही विस्तार है। माहोल्ले पर चली भाषा सम्बंधी बहस के प्रश्न भी इसमें स्वभाविक रुप से आये ही हैं। यह अलग बात है कि आलेख हमारे अनुरोध पर लिखा गया और मोहल्ले की बहस से ओम प्रकाश वाल्मीकि अपरिचित नही हैं। वसुधा के 1857 पर केन्द्रित अंक में ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रकाशित आलेख में इसकी हल्की झलक पाठक अलग से देख सकते हैं।
कोशिश रहनी चाहिए कि टीआरपी को ध्यान में न रखते हुए भाषा की सादगी को बचाया जा सके। इस सवाल के साथ ही भाषा पर विमर्श जारी रखने का प्रयास किया जा रहा है। भाषा के सवाल पर कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की प्रतिक्रिया के बाद हमें दो और आलेख प्राप्त हुए है। दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि और युवा रचनाकार चंद्रिका ने हमारे अनुरोध पर जिन्हें लिखा है। चंद्रिका का आलेख आगे प्रस्तुत किया जायेगा। )


ओमप्रकाश वाल्मीकि - 094123319034, opvalmiki@yahoo.com

भारत में भाषा का मसला काफी गंभीर है। यहां एक ही राज्य में कई बोलियां है, जिन्हें भले ही हिन्दी या उस राज्य की विशेष भाषा का अंग माने। लेकिन इन बोलियों का अपना अस्तित्व है, अपनी सांस्कृतिक महत्ता है जिसे भाषा-विमर्श में अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
हिन्दी राजभाषा कही जाती है लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का कायम है। ऐसा पहली बार हुआ है कि साधारण जन भाषा राजभाषा बनी है।

अभी तक राजसत्ता की भाषा को नीचे की ओर लाया जाता था। यानि राजसत्ता या उच्चवर्ग की भाषा ही राजभाषा राजभाषा होती थी। वह चाहे संस्कृत हो, फारसी या अंग्रेजी हो। सभी उच्चवर्ग की या सत्ताधारियों की भाषा रही है। कालिदास के साहित्य में राजा, ब्राहमण ही संस्कृत बोलते हैं। स्त्रियां, कर्मचारी, सैनिक, दास-दासियां प्राकृत बोलते हैं।
1857 के बाद भाषा को लेकर जो भी माहौल बना उसने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। इसके तथ्य साहित्य में मौजूद हैं।
नव जागरण के उस दोर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय धार्मिक संस्थाओं को जाता है। डा। जगन्नाथ प्रसाद ने अपनी पुस्तक हिन्दी गद्य शैली का विकास में लिखा है - 'आर्य समाज के तत्कालीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन के प्रसार के निमित जो व्याख्यानों और वक्ताओं की धूम मची, उससे हिन्दी गद्य को प्रोत्साहन मिला। दयानन्द ने राष्ट्रीयता के लिए हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित किया था। उन्होंने एक पत्र में लिखा था - 'मेरी आंखें उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब एक भाषा समझने और बोलने लगेगें।'
उत्तर पश्चिम भारत में आर्य समाज की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही थी। रामगोपाल अपनी पुस्तक स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास में जिसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने प्रकाशित किया था, लिखते हैं - 'आर्य समाज की गणना भी वैमनस्य तथा विवादोत्पादक संस्थाओं में की जाती थी, उसे एक ओर मुसलमान अपना शत्रु समझते थे, तो दूसरी ओर हिन्दुओं का एक भाग प्राचीन हिन्दु धर्म को विकृत करने वाला घोषित करता था। संयोग से इन सभी विरोधात्मक तत्वों द्वारा हिन्दी को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।'
उस काल में देवनागरी लिपि और फारसी लिपि को लेकर हिन्दू ओर मुसलिम उच्चवर्ग के शिक्षित वर्ग के मतभेद बढ़ गये थे। भाषा का मसला एक साम्प्रदायिक मसला बन गया था। धर्मिक संस्थाओं ने इसे हवा दी।
विरोध और प्रतिरोध ने हिन्दी-उर्दू के प्रश्न को हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न बना दिया था। जिसे ब्रिटिश शासकों ने और भी ज्यादा हवा दे दी थी। इसी नवजागरण के प्रमुख व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय भी थे। राजा राम मोहन राय ब्रहम समाज के प्रचारक थे। ओर अपने विचारों के व्यापक प्रचार के लिए उन्होंने जो पुस्तके छपवायी थी, वे हिन्दी में थी। उनकी परम्राओं को आगे बढ़ाते हुए केशव चंद्र सेन, राजनारायण बोस, भूदेव मुखर्जी, नवीनचंद्र राय ने हिन्दी के माध्यम से समाज-सुधार के कार्य आगे बढ़ाये थे। पंजाब प्रांत में उर्दू-फ़ारसी का आधिपत्य था। लेकिन श्रद्धाराम फुल्लोरी जैसे लोगों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। पंजाब में उर्दू विरोध ओर हिन्दी समर्थन से जो स्थितियां उत्पन्न हुई थी, वहां जोश ओर विरोध ने साम्प्रदायिक रुप ले लिया था, जिसे नवजागरण की चर्चा में हमेश अनदेखा किया गया। जिसकी परिणिति ने इतिहास में एक काला पृष्ठ जोड़ दिया।
महात्मा गांधी हिन्दी समर्थक थे। उन्होंने 'हिन्द स्वराज (1908) में लिखा था - 'भारत की सर्वग्राह भाषा हिन्दी होनी चाहिए और इच्छानुसार नागरी या फारसी अक्षरों में लिखी जाये।' उन्होंने भड़ौच में द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देते हुए कहा था - 'यह निश्चयी है कि मुसलमान अभी उर्दू की लिपि का प्रयोग करेंगे और अधिकांश हिन्दू हिन्दी का। मैंने अधिकांश इसलिए कहा कि आज भी हजारों हिन्दू उर्दू लिपि में लिखते हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो नागरी लिपि जानते ही नहीं हैं। अंत में, जब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में लेश मात्र भी संदेह न रहेगा, जब अविश्वास के सब कारण दूर हो जायेगें, तब वह लिपि जो अधिक शक्तिशाली है, अधिक व्यापक प्रयोग में आ जायेगी और राष्ट्रीय लिपि बन जायेगी।'
एक तथ्य और भी है जिसका रूप आज हिन्दी के संस्कृत रूप में सामने आ रहा है। यह मसला उस समय भी गंभीर था। महात्मा गांधी ने उस समय (1917) में भी यह स्पष्ट किया था - 'शिक्षित हिन्दू अपनी हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उसे मुसलमान समझ नहीं पाते हैं। इसी तरह लखनऊ के मुसलमान अपनी उर्दू का फारसीकरण कर देते हैं और वह हिन्दुओं के लिए अबोध हो जाती है।'
इन उद्धरणों से जो तसवीर बनती है, वहां भाषा को धर्म के साथ जोड़ने के प्रयास दिखायी देते हैं। जैसे संस्कृत को ब्राहमणों के साथ जोड़ कर देखना। नवजागरण में धर्म और संस्कृति को राष्ट्रवाद के साथ देखने की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसलिए नवजागरण सवर्ण हिन्दू नवजागरण है, जिसने भीतर छिपी साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर मजबूत किया है, जो देश के हित में कतई नहीं है।
भाषा के विकास में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं होता है। किसी भी समाज, राष्ट्र और देश की विकास यात्रा में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूण्र होती है। डा0 शम्भूनाथ ने एक जगह चार क्रान्तियों की चर्चा की थी - बुद्ध का संस्कृत की जगह पाली भाषा को अपनाना, अलवार, नयनार का शास्त्रीय भाषा को छोड़कर लोक भाषा को अपनाना, तुलसी का अवधी को अपनाना और नवजागरण के बाद अंग्रेजी की जगह अपनी भाषाओं को अपनाना। जैसे माइकल मधुसूदन दत्त का अंग्रेजी छोड़कर बंगला भाषा में साहित्य सृजन करना। ये तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि लोकभाषायें ही हमारी सांस्कृतिक पहचान बनाती है। हिन्दी भाषा का विकास भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
लेकिन नवजागरण काल के दौर में इसे जिस तरह से रूपांतरित किया गया, वह एक गंभीर समस्या का निर्माण करने में सहायक हुआ। हिन्दी-उर्दू को जो साम्प्रदायिक रूप दिया गया, वह भविष्य को कई और समस्याओं में उलझा गया। उस दौर में समाज की अग्रिम पंक्ति के लोग न तो अंग्रेजी का विरोध कर रहे थे,न दासता का।
नवजागरण काल में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के लिए संघर्ष करने वाले साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आंदोलन को अभूतपूव्र शक्ति प्रदान की। 1882 के शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भारतेन्दु ने कहा था- 'साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिन्दी में रखते हैं। हिन्दुओं का निजी पत्र व्यवहार भी हिन्दी में होता है। स्त्रियां हिन्दी लिपि का प्रयोग करती हैं। पटवारी के कागजात हिन्दी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिन्दी में शिक्षा देते हैं।'
राधाचरण गोस्वामि द्वारा सम्पादित तथा मथुरा से प्रकाशित समाचार पत्र भारतेन्दु ने 8 अगस्त 1884 के अंक में लिखा - '---इन देशवासियों की हिन्दी स्वाभाविक भाषा है, उर्दू अस्वाभाविक है, फिर भला उसमें लोगों की प्रवृत्ति कैसे हो ?'
इन उद्धरणों से आभास होता है कि हिन्दी के लिए जी जान से संघर्ष करने वाले उर्दू का विरोध कर रहे थे, न कि अंग्रेजी का। क्योंकि हिन्दी हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया था, जो एक गहरी साम्प्रदायिक सोच का परिणाम थी।

Thursday, May 22, 2008

भाषा और बाजार

(भाषा के सवाल पर तेलगु कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की लिखित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई जिसको यहां प्रस्तुत करते हुए पाठकों से अनुरोध है कि नवीन नैथानी द्वारा छुए गये बिन्दु, हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप और बाजार की भूमिका पर अपनी विस्तृत राय के साथ उपस्थित हों। यदि संभव हो तो मेल करें। mail i d : vggaurvijay@gmail.com आपकी महत्वपूर्ण राय को पाठकों तक पहुंचाने में हमें प्रसन्नता होगी।
नवीन नैथानी पेशे से भौतिक विज्ञान के व्याख्याता हैं। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में पढ़ाते हैं। उनकी कहानियों का अपना एक पाठक वर्ग है। उनके लेखन की विश्वसनियता के चिन्ह को रमाकांत स्मृति सम्मान और कथा सम्मान के रूप में पाठक देख सकते हैं।)

नवीन नैथानी, 09411139155 -

भाषा के विभिन्न स्वरूपों में जन भाषा और राजभाषा की स्पष्ट विभाजक रेखा इतिहास में हम देख सकते हैं। राजभाषा मूलत: सत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए एक अभेद्य दुर्ग के रुप में गढ़ी गयी। व्याकरण की नियमबद्ध निर्मितियों में अभिव्यक्तिको बांधने की कोशिश को आप क्या कहेंगें ?
व्हां संवेदना के लिए स्थान नहीं है, जो सुनना है उसके विशेष अर्थ पर जोर है और जो अप्रिय है उसे व्याकरण निषिद्ध घोषित करते आये हैं। जन भाषा में कुछ भी अस्वीकार्य नहीं है, राजभाषा (इसे व्याकरणनिष्ठ भाषा भी पढ़े) में जनता द्वारा बहुत कुछ कहा गया दोषपूर्ण संरचना के खाते में डाल दिया जायेगा।
बहरहाल, वर्चस्व की इस लड़ाई को हम कानून की भाषा के रुप में सबसे सही तरीके से जान सकते हैं। अदालतों की भाषा एक विशेष कौशल की मांग करती है जो सिर्फ वकीलों के पास होता है। आप अपनी पूंजी उनके हवाले कीजिए और उनसे कानून की भाषा लीजिए। यह न्याय के इतिहास पर दृष्टि डालने के लिए एक सही प्रस्थान बिन्दु हो सकता है। बीसवीं शताब्दी का प्रख्यात दार्शनिक वाइट्जैस्टीन जब भाषा (उसका आशय निश्चित रूप से इसी भाषिक व्याकरण की तरफ है) की सीमाओं की तरफ संकेत करता है तो वह मनुष्य की अभिव्यक्ति की क्षमताओं पर शंका नहीं उठा रहा है, वह अभिव्यक्ति की असंख्य संभावनाओं को ही चिन्हित कर रहा है, जो दुर्भाग्य से, व्याकरण की परिधि के बाहर है।
इस भाषिक वर्चस्व का एक अन्य उदाहरण हम बाजार की भाषा के रूप में देखते हैं। जन भाषा को किसी रणभेरी की जरुरत नहीं। लेकिन बाजार की भाषा को है। वह व्याकरण (सत्ता) और जन भाषा के बीच अपने संघ्ार्ष से एक नयी ही भाषा रचने के प्रयास में दिखायी पड़ता है। दरअसल यह निर्माण की नहीं बल्कि सत्ता के वर्चस्व की प्रक्रिया है।
पुस्तकों के प्रकाशन को ही लें। यह एक जाना माना तथ्य है कि हिन्दी अब भारतीय संदर्भ में एक बाजार-भाषा में तबदील हो चुकी है। बांग्ला, मराठी, मलयालम जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य जिस तरह से उन भाषा-भाषियों के बीच खरीदा जाता रहा है, हिन्दी का साहित्य उनके पासंग में भी नहीं है। इधर कुछ वर्षों से हिन्दी में बड़े प्रकाशन गृहों से अंग्रेजी के उपन्यासों के अनुवाद अच्छी खासी तादाद में छप रहे हैं। क्या यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी है ? इस प्रश्न का जवाब, मुझे उम्मीद है, मेरी शंकाओं को दूर करने में सहायक ही होगा।

Wednesday, May 21, 2008

राज-काज की भाषा और जनता की भाषा

(भाषा को लेकर पिछले कुछ दिनों से हमारे ब्लागर साथी एक ऐसी कार्यवाही में जुटे हैं जो मोहल्ले में विवाद नहीं तो चर्चा को तो जन्म दिये हुए ही है। कल यानि 20 मई को बुद्ध पूर्णिमा थी। वर्ष 2001 में बुद्ध पूर्णिमा के ही दिन मैंने और मेरे कथाकार साथी अरुण कुमार असफल ने तेलगू के कवि वरवर राव के साथ उनके अपने रचनाकर्म, समकालीन साहित्य सांस्कृतिक स्थितियों और तेलगू साहित्य पर कुछ बातचीत की थी। वर्ष 2002 में साहित्यिक कथा मासिक कथादेश के मई अंक में जो प्रकाशित हुई है। तेलगू के कवि वरवर राव द्वारा हिन्दी में दिया गया यह प्रथम साक्षात्कार था। हम दोनों ही साथी तेलगू साहित्य से पूरी तरह से अनभिज्ञ ही थे। कुछ छुट-पुट अनुवाद ही, जो कि सीमित ही हैं, हमने पढ़े भर हैं। बल्कि तेलगू ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की पर्याप्त संख्या में अनुपलबधता हमें उस से अपरिचित किये हुए है। जबकि अन्य विदेशी भाषा के साहित्य के अनुवाद भी हमने इनसे कहीं ज्यादा पढ़े होंगे। ये सवाल हमारे भीतर उस वक्त मौजूद था। अपनी बातचीत को हमारे द्वारा इसी बिन्दु से शुरु करते हुए हमारी जिज्ञासा को शांत करने के लिए भाषा पर दिया गया वी वी का वक्तव्य यहां इसी संदर्भ में पुन: प्रस्तुत है।)

वरवर राव -

यह एक भूमिका की बात है। एक ऐसी भूमिका जिसका आधार राजनीतिक और आर्थिक सम्बंधों के कारण खड़ा हुआ है। हम भी हिन्दी कविताएं या हिन्दी साहित्य के बारे में थोड़ा बहुत ही जान पाये, या जान पा रहे हैं। पर अपने पड़ोसी तमिल, मराठी, कन्नड़, ओड़िया और अन्य किसी दूसरी भाषा के बारे में इससे भी कम समझ रखते हैं। हाल ही में मेरी तेलगु कविताओं का मराठी में अनुवाद हुआ। उसकी भूमिका में मैंने लिखा - 'दलित पैंथर' को छोड़कर मराठी साहित्य के बारे में मेरी जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। हां, थोड़ा-बहत सुना है तो पहले अमर शेख के बारे में बाद में अनाभाव साठे के बारे में इसका मुख्य कारण, उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलनों से रहा, जिससे कि मैं खुद भी जुड़ा हूं। जबकि पड़ोसी होने पर भी मराठी साहित्य के बारे में तो मैं जानता तक नहीं हूं। पड़ोसी की ही बात नहीं - तेलुगु, मराठी, कन्नड़ भाषा-भाषी बहुत साल तक एक ही राज्य में थे - हैदराबाद में। जहां से मैं आया हूं। यानि जिसमें तेलंगाना है। मैं उस तेलंगाना, मराठवाड़ा के चार जिले, कर्नाटक के तीन जिले (जिसे आज भी हैदराबाद कर्नाटक कहते हैं ) को मिलाकर कुल सोलह जिलों का भौगोलिक क्षेत्र ही हैदराबाद राज्य था। फिर भी हमको एक दूसरे की भाषा नहीं आती। यहां तक कि उनके साहित्य के बारे में भी कुछ नहीं सुना। कारण था कि राज की भाषा उर्दू थी। यानि हमारी भाषाओं ने कभी राज नहीं किया।
भाषा की सदैव दो भूमिका रही है, जबकि होनी चाहिए एक ही। वो एक मात्र भूमिका है, एक दूसरे को समझने की-सम्प्रेषण की। मगर इस देश में भाषा की एक राज करने की भूमिका भी रही है। राज करने वाले की यानि कुलीन वर्ग की भाषा रही है जिसे हम कह सकते हैं ब्राहमणीकल फ्यूडलिज्म। उस समय से लेकर मुगलों तक जनता की भाषा एक थी। राज काज की भाषा दूसरी।
भाषा का एक ऑथोरिटेरियन रोल था। यानि राज काज करने की भूमिका। जो भाषा राज-काज की भाषा रही, वह कभी किसी जनता की भाषा नहीं रही। हमारे देश के लिए यह एक खास बात है और दुर्भाग्यपूर्ण भी, जैसे कहा जाये दो हजार साल पहले जनता की भाषा थी पाली, प्राकृत और अनेक उपभाषाएं, जिन्हें डाइलेक्टस भी कहते हैं। इन सब भाषाओं से पाणिनि ने अष्टाध्यायी लिखा। ग्रामर की रचना और एक प्रमाणिक भाषा का निर्माण किया जिसे संस्कृत कहते हैं। जिसका ब्राहमण शास्त्रों में इस्तेमाल किया गया। वैसे ही एक सत्ता की भाषा बनी जो किसी की भी मातृभाषा थी ही नहीं। बुद्ध ने अपने धम्मपद पाली में लिखकर चेतना से इसका विरोध किया।
अब आधुनिक काल में आयें तो अंग्रेजी सत्ता की भाषा बन गयी। हमारी कोई भी मातृभाषा कभी भी सत्ता की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी जो दुनिया के शासकों की भाषा है, दुनिया के साहित्य की गवाक्ष भी बन गयी। जो भी अंग्रेजी से आ रहा है वह हमें प्राप्त हो रहा है।