विजय गौड
जांसकर जा रहे हैं। जांसकर पहले भी जा चुके हैं - 1997 में और 2000 में। उस वक्त भी जांसकर एक बंद डिबिया की तरह ही लगा था। जिसमें प्रवेश करने के यूं तो कई रास्ते हो सकते हैं पर हर रास्ता किसी न किसी दर्रे से होकर ही गुजरता है। 1997 में दारचा से सिंगोला पास को पार करते हुए ही जांसकर में प्रवेश किया था। जांसकर घाटी के लोग मनाली जाने के लिए इसी रास्ते का प्रयोग करते हैं। वर्ष 2000 में लेह रोड़ पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा को पार कर यूनून नदी के बांयें किनारे से होते हुए खम्बराब दरिया पर पहुंचे थे और खम्बराब को पार कर दक्षिण पश्चिम दिशा को चलते हुए फिरचेन ला की ओर बढ़ गये थे। फिरचेन ला को पार कर जांसकर घाटी के भीतर तांग्जे गांव में उतरे। फिरचेन ला के बेस से यदि दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ जाते तो सेरीचेन ला को पार कर जांसकर के कारगियाक गांव में पहुंच जाते। यह सारे रास्ते मनाली, हिमाचल की ओर से रोहतांग दर्रे को पार कर जांसकर में पहुंचते हैं। लेह-कारगिल मोटर रोड़ पर स्थित बौद्ध मठ लामायेरू से भी पैदल जांसकर के भीतर घुसा जा सकता है। इस रास्ते पर अनेकों दर्रे हैं। जांसकर को एक छोर से दूसरे छोर तक नापने वाले ढेरों सैलानी हैं। जो दारचा से लामायेरु या लामायेरु से दारचा तक जांसकर घाटी की यात्रा करते हुए हर साल गुजरते हैं। लेकिन इनमें विदेशी सैलानियों की संख्या ही बहुतायत में होती है। दारचा की ओर से जांसकर नाले और बर्सी नाले का मिलन स्थल जांसकर सुमदो हिमाचल की आखरी सीमा है। बर्सी नाले को पुल से पार करते ही जम्मू कश्मीर का इलाका शुरु हो जाता है। जांसकर इसी जम्मू कश्मीर के लद्दाख मण्डल का अंदरुनी इलाका है। यदि लद्दाख को एक बड़ा बंद डिब्बा माने तो जांसकर उस ड़िब्बे के भीतर चुपके से रख दी गयी डिब्बिया। पदुम जांसकर की तहसील है। पदुम से हर दिशा में रास्ते फूटते हैं। चाहे पश्चिम दिशा में बढ़ते हुए दर्रो की श्रृंखला को पार कर लामयेरु निकल जाओ और चाहे पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए सिंगोला दर्रे को पार कर दारचा। पदुम से दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए फिर वैसे ही दर्रे को पार कर कश्मीर के किश्तवार में पहुंच जाओ और उत्तर पूर्व की ओर बढ़ते हुए दर्रो को पार कर लेह रोड़ पर सर्चू निकल जाओ। ये सभी पैदल रास्ते हो सकते हैं। पदुम जांसकर का हेड क्वार्टर है। जहां से बाहर निकलने के लिए दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर जो मोटर रोड़ है वह भी पेंजिला दर्रे को पार कर कारगिल पहुंचाती है। जांसकर नाम की इस बंद डिबिया के भीतर पूरा धड़कता हुआ जीवन है। नदियों का शोर है। हलचल है। उल्लास है। जीवन के सुख और दुख का जो संसार है उस पर लद्दाख के रुखे पहाड़ो की हवा का असर है। चेहरे मोहरों पर पड़ी सलवटों में उसी रुखी हवा की सरसराहट और बर्फीले विस्तार की चमक बिखेरती नाक और गाल के हिस्से पर कुछ उभर गयी सी पहाड़ियां हैं। आंखें गहरे गर्त बनाकर बहती नदियों के बहुत ऊंचाई से दिखायी देते छोटे छोटे स्याह अंधेरें हैं। इस दुनिया के भीतर झांकने के लिए बर्फीली ऊंचाइयों पर स्थित दर्रों को पांव के जोर से ही खोलना होता है। स्मृतियों, सपनों और रूखे पहाड़ों से टकराकर आने वाली हवाओं ने जांसकर की दुनिया के चित्र पर बौद्ध मठों, अष्टमंगल चिन्हों के साथ-साथ ऊं मणि पदमे हूं की गहरी छाप छोड़ी हुई है। नदियों के किनारे-किनारे उतरती ढालों पर लम्बाई में स्थित गांवों के दोनों छोरों पर छोड़तन और मोने के रुप में की गयी निर्मितियां पहाड़ों के सूनेपन में जीवन के राग रंग की पहचान करा देती है। मंगल कामनाओं के ये चिन्ह धूसर रंग के पहाड़ों के बीच उल्लास की चमक बिखेरते हैं।
जांसकर जाना चाहता हूं। उसकी आबो हवा को पहचानना चाहता हूं। यूं ही गुजरते हुए कितना तो जान पाऊंगा? रात्री भर विश्राम भी नाकाफी ही है। साल के बारह महीनों को मात्र बारह-पन्द्रह दिनों में महसूस नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी कहूंगा, सुना सुनाया होगा, बस। निश्चित ही इस खास समय विशेष का ही सच हो सकता है। वो भी उतना ही, जितना देख सकने की सामर्थय है। घटता हुआ भी पूरी तरह से न देख पाना तो मेरी ही नहीं, ज्यादातर की सीमा होता है। अपने ही में जकड़े कहां तो देख पाते हैं कि जमाने की तकलीफें किस किस तरह से रूप धर कर दुनिया को जकड़ती जा रही है। पढ़ लिख कर ही जीवन को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। पुरानी कहावत है, बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं। स्वर्ग और नरक नाम की कोई जगह इस ब्रहमाण्ड में हैं, इस पर यकीन नहीं। जो कुछ जीवन है, सिर्फ वही अन्तिम सत्य है - यही मानता हूं। जांसकर के जीवन की हलचल तो सिर्फ आंखों देखी होनी है। मैदानी इलाकों में इस वक्त भीषण गर्मी पड़ रही है। बारिश भी है तेज। जांसकर में तो हाथों को चाकू की धार से काट देने वाला ठंडा पानी है। चोटियों से पिघलता हिम है। तो फिर सर्दियों की जम-जम बर्फ में जीवन का संगीत कैसे गूंजता होगा, क्या उसे जान पाऊंगा ?
Friday, July 18, 2008
Wednesday, July 16, 2008
ये दुर्ग नहीं लद्दाख के पहाड हैं
यात्रा से लौट आया हूं। जांसकर को फिर से देखा। दारचा से पदुम तक की पैदल यात्रा के बाद मन था कि कारगिल से कश्मीर होते हुए वापिस देहरादून लौट जायें। लेकिन कम्बख्त जमाने की सूचनायें बता रही थी कि कश्मीर के रास्ते जम्मू होकर निकलना आसान न होगा। यातायात बंद है। जूलूस और चक्काजाम है। लिहाजा कारगिल से लेह और लेह से मनाली होते हुए ही वापिस लौटे। अमरनाथ साइनबोर्ड को जमीन देने पर कश्मीर से लेह लद्दाख तक के लोग, जो हमें मिले, एक ही राय रखते थे। धारा 370 के उलंघन पर वे एक मत थे।
बाकि बातें विस्तार से लिखूंगा, थोड़ा समय चाहिए। अभी तो कुछ तस्वीरें, जो इस दौरान हमारी यात्रा की गवाह हैं, प्रस्तुत हैं। लेह से नुब्रा घाटी तक की यात्रा भी की, जहां लद्दाख का रेतीलापन पसरा पड़ा रहता है, तस्वीरों में दिख ही जायेगा। ये कुछ तस्वीरें हैं :
Saturday, June 21, 2008
हमारी स्मृतियों में जिन्दा रहेगा जांसकर
कल यानी 22 जून को लद्दाख के अंदरुनी इलाके जांसकर की यात्रा पर निकल रहा हूं। यात्री दल में मेरे अलावा चार अन्य साथी राजेन्द्र नेगी, अनिल काला, महेन्द्र क्षेत्री और संजीव बहुगुणा शामिल है। देहरादून से मनाली और मनाली से दारचा, बस या किसी भी अन्य वाहन की सवारी करके ही पहुंचेगें। दारचा से वह रास्ता शुरु हो जायेगा जो हरे घास के चारागाहों से होता हुआ पलामू, जांसकर सुमदो और चुमी नापको होते हुए हमें सिंगोला पास के करीब पहुंचा देगा। बीच में बोल्डरों भरा कठिन रास्ते और दरिया को भी पार करना होगा। सिंगोला पास जो लगभग 16500-17000 फुट की ऊंचाई पर है, को पार कर उस बंद डिबिया में प्रवेश कर जायेगें जिसे जांसकर कहते हैं। जम्मू कश्मीर का यह इलाका एक बंद डिबिया ही है। इसके भीतर घुसने के लिए दर्रों को पार किये बगैर घुसा ही नहीं जा सकता। इससे पहले 1997 में भी मैं अपने अन्य साथियों के साथ इसी मार्ग से जांसकर गया था। राजेन्द्र नेगी उस वक्त भी था। वर्ष 2000 में यूनून नदी से होते हुए फिरचेन ला वाले रास्ते से जांसकर जाना हुआ था। उस दौरान अनिल काला साथ था। फिरचेन ला को पार कर हम जांसकर के तांग्जे गांव में निकले थे। सिंगोला को पार कर लाकोंग में उतरेगें। लाकोंग के बाद कारगियाक तांग्जे, पुरनै, इचर, रारु होते हुए पदुम पहुंच जायेगें। पदुम से मोटर रोड़ शुरु हो जाती है और किसी भी वाहन की सवारी से कारगिल और कारगिल से लेह। कुल मिलाकर लगभग दस दिन की पैदल यात्रा जो अनुमानत: 130 किमी की होगी, हम तय करेगें। बाकी का विवरण यात्रा से लौटने के बाद।
Wednesday, June 18, 2008
जवानी के इन दिनों में
(वो बरगद का पेड मुझे अब भी छाया देता है, डा० अनुराग के ब्लाग पर लगा शीर्षक मजबूर कर रहा है कि कुछ डाल ही दिया जाये, वरना मन था कि आज कुछ भी नहीं डालूंगा.)
बचपन के उन दिनों में
नहीं रहा उतना बच्चा
जितना खरगोश
जितनी गिलहरी
जितना धान का पौधा
जवानी के इन दिनों में
नहीं हूं इतना जवान
जितना गाय का बछड़ा
अमरुद का पेड
फ़िर बुढ़ापे के उन दिनों में
कैसे होऊंगा ऐसा बूढ़ा
जितना बरगद का पेड़ ।
इससे पूर्व यह कविता बया के दिसम्बर २००७ वाले अंक में प्रकाशित हुई है. हालांकि १९९६ में लिखी गयी थी.
बचपन के उन दिनों में
नहीं रहा उतना बच्चा
जितना खरगोश
जितनी गिलहरी
जितना धान का पौधा
जवानी के इन दिनों में
नहीं हूं इतना जवान
जितना गाय का बछड़ा
अमरुद का पेड
फ़िर बुढ़ापे के उन दिनों में
कैसे होऊंगा ऐसा बूढ़ा
जितना बरगद का पेड़ ।
इससे पूर्व यह कविता बया के दिसम्बर २००७ वाले अंक में प्रकाशित हुई है. हालांकि १९९६ में लिखी गयी थी.
Tuesday, June 17, 2008
अपने वतन का नाम बताओ- चार
विजय गौड
(यात्रा संस्मरण की यह अंतिम किश्त है. पूर्व प्रकाशित अंशों को आप यहां पढ सकते है - अपने वतन का नाम बताओ, अपने वतन का नाम बताओ- दो, अपने वतन का नाम बताओ- तीन )
सुबह पांच बजे ही लमखागा की ओर बढ़ लिये यह सोच कि किसी तरह सुबह नौ बजे तक पास पर पहुंच जायें तो पास पार करना आसान हो जायेगा। सूरज का ताप जब तक रात भर सख्त हो चुकी बर्फ को गलाने न लगे, चलना आसान होता। वरना पांव गहरे तक धंसता, जिसको निकालने में ही इतनी ऊर्जा खत्म हो जाती कि पास पार कर लेना संभव ही नहीं। हिमाचल के पिन पार्वती पास का यह अनुभव जल्द से जल्द बर्फ भरे रास्तों को पार कर लेने के लिए सचेत करता रहता है।
जहां चल रहे थे, पूरा पहाड़ कच्चा था। कच्चे पहाड़ पर चलते हुए डर लगता। एक पत्थर सरका नहीं कि ढेरों पत्थरों के सरकते जाने का खेल रास्ते भर देखते ही आये थे। बड़ी बड़ी शिलायें भी हल्के से इशारे पर सरक जातीं। जिस धार पर चढ़े थे उसके अन्तिम छोर पर लम्बा मैदान दिखायी दिया। सफेद-भूरी बर्फ की चादर बिछी हुई थी। ग्लेशियर का कच्चापन भी जगह जगह झांक ही रहा था, जिसने किसी भी तरह की मस्ती करते हुए भी सचेत रहने की हिदायत दे दी- पोली बर्फ कब आगे बड़ने से रोक दे और न जाने पाताल के किस कोने में स-शरीर पहुंच जायें। बर्फ भरे मैदान को पार किया। अभी तक का सबसे कठिन रास्ता शुरु हो गया।
एकदम तीखी चढ़ाई। पहाड़ का वही कच्चापन। पत्थरों के लुढ़कने का खतरा यहां पहले से भी ज्यादा दहशत भरा। मजबूरी थी हिम्मत नहीं छोड़ना और साथियों को हिम्मत बंधाना। एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते रहे। कहीं-कहीं जानवरों की मानिंद चलना पड़ा। पास पर पहुंचे चुके तिरेपन और धर्म सिंह अपना सामान वहीं पटक उन साथियों की मद्द के लिए नीचे उतरने लगे, जो हिम्मत छोड़ सकते थे।
किशन की चाल बड़ी ही मस्त थी। सबसे ज्यादा बोझ उसी के कंधों पर रहा होगा, तो भी वह चाहता तो तेज गति से निकलकर पास पर सबसे पहले पहुॅच सकता था। पर इस दौरान देख चुके थे कि पूरी टीम के साथ आगे बढ़ना वह अपनी जिम्मेदारी समझता था। बेशक उसका रास्ता वह नहीं होता जहां से दल के अन्य साथी गुजर रहे होते तो भी आखिरी साथी भी उसकी निगाहों में हमेशा रहता। यही वजह थी कि किशन का रास्ता किसी दूसरे का रास्ता नहीं हो सकता था। हम लोग जिस वक्त किसी जगह से चलना शुरु कर रहे होते उस वक्त वह इतमीनान से आस-पास की चोटियों को निहारता। डायरी निकालता। आवश्यक विवरण नोट करता। आस-पास की स्थितियों को स्केच करता और फिर हमारे समानान्तर ही उस ओर को चलने लगता जहां से उसकी निगाहें हमारे ऊपर पड़ रही होती।
टॉप पर पहुंचा हुआ विमल ऊपर चढ़ते साथियों की तस्वीर कैद करता रहा। पास की इस आखिरी चढ़ाई में मैं और महेश किशन के पीछे ही हो लिये। हमारा यह फैसला दूसरी ओर फंसे हुए साथियों को देखने के बाद लिया गया फैसला था। अमरसिंह, अनिल काला एवं आदित्य जिस ओर से चढ़ रहे थे, उसी रास्ते पर होकर आगे निकल चुके साथी चढे थे। सो रास्ता खोजने की जहमत से तो बचा जा सकता था पर पहले गुजर चुके साथियों के पांवों ने वहां टिके पत्थरों और सरकती मिट्टी को भी ढीला कर दिया था।
किशन का रास्ता तो और भी कठिन लगा। लेकिन किशन का साथ हिम्मत बंधाता रहा। आगे-आगे किशन, बीच में महेश और पीछे मैं। महेश को पत्थरों पर चलने में ज्यादा तकलीफ हो रही थी। अभ्यास न होने की वजह से उसका शरीर बार-बार डगमगा रहा था। कंधें में झूलते पिट्ठू की वजह से भी उसके लिए संयत होकर चलना मुश्किल हो रहा था। कई बार उसके पांवों से सरकते पत्थर मेरे पास से निकलते रहे। किशन के लिए भी बढ़ना आसान नहीं हो रहा था। पर वह तो पर्वतारोही था। अगर कहूं कि माऊंटेन मैन (पहाड़-पुत्र) तो ज्यादा ठीक होगा। उसके पांव इतना चुपके से आगे बढ़ते कि पांवों के नीचे से गुजर चुके पत्थरों को आभास ही नहीं होता कि कोई उनके ऊपर से गुजर गया। किशन की एकाग्रता उसे वो सही पत्थर ढूंढ लेने में मद्द करती जो जल्दी से सरकता नही।
जैसे तैसे लमखागा की ऊंचाई पर एक-एक कर पहुंचते रहे। पास पर थोड़ी देर सुस्ताये। नीचे की ओर झांका तो वही सीधी दीवार यहां भी। इस तरफ बर्फ भी ज्यादा। सूरज की रोशनी ठीक से न पड़ने की वजह से बर्फ की पूरी दीवार ज्यों की त्यों। नीचे दिखायी देता वही बर्फीला मैदान इधर भी ।
लमखागा को शंकुवाकार पास कहा जा सकता है। दोनों ओर से कुछ कोणों पर उठती हुई दीवार ऊपर जिस जगह पर मिल रही है वही टॉप। बर्फ की सीधी दीवार पर कुछ दूर रस्सी की मद्द से उतरे फिर फिसलते हुए सीधे बर्फ के मैदान में पहुंचे । बर्फ पर फिसलना निश्चित ही रोमांचकारी है, बशर्ते कोई दुर्घटना न घटे। एक के बाद एक, हर एक का फिसलना देखते रहे।
बर्फिले मैदान पर पांव धंसनं शुरु हो चुके थे। मौसम साफ था। धूप चमक रही थी। पिछले दिन को देखकर अनुमान लगाना कठिन था कि मौसम इस कदर मोड़ ले लेगा। लमखागा पार हो चुका था। धर्म सिंह का चेहर खिल गया। अपनी स्मृतियों पर उसे भरोसा था। साथियों के चेहरे पर थकान के बावजूद चमक दिखायी देने लगी। बर्फ पर ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं- सोचकर आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर तक बढ़े-बढ़े पत्थर दिखायी दिये। मानो बर्फ के ऊपर किसी ने बड़े ही इतमीनान से उन्हें रखा हो। ग्लेशियरों के नीचे बहते पानी की आवाज कहीं-कहीं सुनायी देती। मिट्टी और बर्फ इस कदर गुंथे हुए थे कि अनुमान मारना कठिन था कि बर्फ है या मिट्टी। ताजे उभरते 'क्रैवासेस" भी दिखायी देते रहे। पत्थरों के आकार बदलने लगे। पतली सलेट-नुमा पत्थर- काले, भूरे रंग के। भूरा रंग ऐसा मानो घड़े का रंग। उनको पार कर ही हल्की-सी घास दिखायी दी। टीन के डिब्बे, जली हुई लकड़ियां उकसा रही थी कि टैन्ट लगा लेना चाहिए। सुबह का सूरज अपनी पूरी रोशनी बिखेरने लगा। जुलाई महीने में लमखागा हिमाचल की ओर वाले बेस पर धूप अच्छी लगी। अब रास्ते की दुर्गमता का कोई खौफ नहीं । आराम से धूप सेंकते रहे।
जब चले तो बस्पा का बांयां छोर पकड़ लिया और सफेद खण्ड के नजदीक दुमती पर रुके। बस्पा के दूसरी ओर आईटीबीपी की चैक पोस्ट दिखायी दे रही थी। सफेद खण्ड से पहले नीथल पर विश्राम किया, जहां रोहणु का गद्दी अपने डेरे में मौजूद था। गद्दी बताता रहा कि नदी पार जो खण्ड है वहां से नेलंग जा सकते हैं। नेलंग में शायद अब कोई नहीं रहता। भारत-चीन युद्ध के दौरान ही नेलंग वालों को वहां से विस्थापित कर हर्षिल के पास बगौरी में बसा दिया गया है। उसी छोर पर यदि थोड़ा पीछे चलें तो गंगोत्री खण्ड है, जहां से हम आगे निकल आये थे। सफेद खण्ड के नजदीक जहां रुके, कैम्प नहीं किया जा सकता था। पत्थर ही पत्थर चारों ओर बिखरे हुए थे। मजबूरी थी- रुकना ही पड़ेगा। सफेद खण्ड पार नहीं होने देगा। बहाव इतना तेज कि लाख सचेत हों तो भी अपने साथ खींच ही लेगा। पानी के साथ बहते पत्थरों की आवाज भी सुनायी दे रही थी। अनुभव कह रहा था कि सुबह के वक्त पार करना ही ठीक रहेगा। उस वक्त पानी कम हो जायेगा और बहाव भी। यदि पहले से मालूम होता कि सफेद खण्ड को पार करना संभव न होगा तो पीछे छोड़ आये मैदान पर ही रुका जा सकता था। पर अब पीछे कौन लौटे और वहीं पत्थरों को खोदकर टैन्ट लगाने भर की जगह को समतल करने लगे। अगले दिन दुमती से आगे बढ़े, सौन्च्यू खण्ड को पार किया तो घास का मैदान और भोज-पत्रों के वृक्ष दिखायी देने शृरु हो गये। रा
नी गण्डा के पुल से बस्पा का किनारा बदल गया। लकड़ी के पुल से नदी को पार किया और दाहिने छोर पर चलने लगे। नदी का बांया छोर भोज-पत्रों के घने जंगलों से घिरा हुआ था। मेरी अभी तक की स्मृतियों में भोज-पत्रों का इतना घना जंगल कहीं और नहीं। वृक्ष के आधार तने का कत्थई रंग और उनकी छाया का सम्मिलित प्रभाव स्मृतियों में दर्ज है। भोज-पत्रों का जंगल उधर बुलाता रहा, पर वहां रास्ता ही नहीं। पत्थरीली चट्टान सीधे बस्पा में उतरती है। बस्पा के इस किनारे ही आगे बढ़ते रहे और नागेस्ती चैक-पोस्ट पहुंचे, जहां से छितकुल दिखायी देने लगा।
पहाड़ों की जिन्दगी ही अपने आप में कठिन है फिर हम तो पहाड़ों के पहाड़ पर चल रहे थे। दरकते पहाड़, फटते ग्लेशियर, उफनते दरिया, पत्थरों भरे रास्ते और कठोर चट्टानों पर चलते हुए यदि दृष्टि की एकाग्रता चूकी तो पहाड़ अपनी गोद में ले लेता और छोड़ता नहीं।
यह सब कहने के लिए मैं पहाड़ों की यात्रा नहीं करता रहा। पहाड़ों की खूबसूरती मेरे लिए सिर्फ इतनी ही है, जितनी एक रेगिस्तानी के लिए रेगिस्तान की। जंगलों में जीवन जीते लोगों के लिए जंगलों की। समुद्र के किनारे बसे लोगों के लिए समुद्र की। रसूल हमजातोव का दागिस्तान मेरे भीतर उत्तराखण्ड बनकर जिन्दा रहे। राज्य का नाम मेरी पहचान को न मिटा सके। अपने दागिस्तान का जिक्र करते हुए रसूल एक कथा सुनाता है:
एक बुजुर्ग पहाड़ी आदमी ने जवान पहाड़िये से पूछा-तुमने अपनी जिन्दगी में आग देखी है, कभी उसमें से गुजरे हो ?
मैं उसमें कूदा था जैसे पानी में।
बर्फ जैसे ठण्डे पानी से कभी तुम्हारा वास्ता पड़ा है, कभी उसमें कूदे हो ?जैसे आग में।
तुम बालिग हो चुके पहाड़ी आदमी हो अपने घोड़े पर जीन कसो, मैं तुम्हे पहाड़ों में लेचलता हूं।
जलंधरी गाड़ को पार करते हुए लमखागा को पार कर गये। कोरु खण्ड, सफेद खण्ड और सौन्च्यू खण्ड में बहती हुई बर्फ को उसमें उतरकर ही पार किया। बेशक सांगली का रहने वाला पाटील पहली दफा पहाड़ों के इतना करीब गया। बेशक अलीगढ़ और उसके आस-पास रहने वाले आदित्य एवं महेश जिस वक्त पास के एकदम नजदीक पहुंचने-पहुंचने को होते हुए भी हिम्मत छोड़ने लगे हो, पर कमर तक ठोस बर्फ में तो उतर ही चुके थे। अपनी छ: फुटी लम्बाई के बावजूद भी सौन्च्यू खण्ड को पार करते हुए अपने कच्छे को भीगने से वह भी नहीं बचा पाया था।
दागिस्तानी बूढ़ा यदि यह सब देख रहा होता तो काकेशिया की पहाड़ियों से चिल्लाता-अपने वतन का नाम बताओ पहाड़ी युवकों, मैं दागिस्तानी हूं।
हम बालिग हो चुके पहाड़ी थे।
बस्पा नदी के पार दुमती चैक-पोस्ट इस रोमांचक कार्यवाही को देखते जवानों ने हाथ हिलाकर उत्साह बढ़ाया था। पहाड़ की मिट्टी हमारे छिद्रों से हमारे भीतर घुस चुकी थी। कहीं कच्ची और कहीं ठोस होती चट्टानों को हमारे पांवों ने स्पर्श किया थां गाड़, गधेरों में बहती बर्फ हमें आग के नजदीक रहने को मजबूर कर चुकी थी। बुग्यालों की हरी घ्ाास भेड़ वालों की मुस्कराहटों के रुप में हमारे भीतर दर्ज हो चुकी थी। लमखागा के पार बारिस न हो पाने की वजह से बुग्यालों का मटमैलापन रोहणु के गद्दी को ही नहीं हमें बेचैन करता रहा। लमखागा की यह कैसी दीवार है जो बारिस को सोख लेती है ?
लमखागा पर चढ़ते हुए तो बेस तक बारिस की वजह से ही चलना आसान नहीं हो रहा था। पर उसको पार करते ही मात्र एक दिन की दूरी पर ही मौसम इस कदर मोड़ लेगा, आश्चर्य होता।
लमखागा के पार हिमालय की जसकार रेंज शुरु हो चुकी थी। भूरे पहाड़, जहां बारिस यदा-कदा ही होती। हां, बर्फानी हवाएं पूरी मस्ती में बहती, जिसका सूखापन हमारे चेहरे की त्वचा को फाड़ चुका था। जब घर लौटे तो कन्धों पर उचकते बच्चों ने पूछा था-तुम्हारी नाक पर जी खूनी पपड़ी क्या भालू की मार है ?नहीं बच्चों, यह बर्फ के थपेड़ों का असर है।
(यात्रा संस्मरण की यह अंतिम किश्त है. पूर्व प्रकाशित अंशों को आप यहां पढ सकते है - अपने वतन का नाम बताओ, अपने वतन का नाम बताओ- दो, अपने वतन का नाम बताओ- तीन )
सुबह पांच बजे ही लमखागा की ओर बढ़ लिये यह सोच कि किसी तरह सुबह नौ बजे तक पास पर पहुंच जायें तो पास पार करना आसान हो जायेगा। सूरज का ताप जब तक रात भर सख्त हो चुकी बर्फ को गलाने न लगे, चलना आसान होता। वरना पांव गहरे तक धंसता, जिसको निकालने में ही इतनी ऊर्जा खत्म हो जाती कि पास पार कर लेना संभव ही नहीं। हिमाचल के पिन पार्वती पास का यह अनुभव जल्द से जल्द बर्फ भरे रास्तों को पार कर लेने के लिए सचेत करता रहता है।
जहां चल रहे थे, पूरा पहाड़ कच्चा था। कच्चे पहाड़ पर चलते हुए डर लगता। एक पत्थर सरका नहीं कि ढेरों पत्थरों के सरकते जाने का खेल रास्ते भर देखते ही आये थे। बड़ी बड़ी शिलायें भी हल्के से इशारे पर सरक जातीं। जिस धार पर चढ़े थे उसके अन्तिम छोर पर लम्बा मैदान दिखायी दिया। सफेद-भूरी बर्फ की चादर बिछी हुई थी। ग्लेशियर का कच्चापन भी जगह जगह झांक ही रहा था, जिसने किसी भी तरह की मस्ती करते हुए भी सचेत रहने की हिदायत दे दी- पोली बर्फ कब आगे बड़ने से रोक दे और न जाने पाताल के किस कोने में स-शरीर पहुंच जायें। बर्फ भरे मैदान को पार किया। अभी तक का सबसे कठिन रास्ता शुरु हो गया।
एकदम तीखी चढ़ाई। पहाड़ का वही कच्चापन। पत्थरों के लुढ़कने का खतरा यहां पहले से भी ज्यादा दहशत भरा। मजबूरी थी हिम्मत नहीं छोड़ना और साथियों को हिम्मत बंधाना। एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते रहे। कहीं-कहीं जानवरों की मानिंद चलना पड़ा। पास पर पहुंचे चुके तिरेपन और धर्म सिंह अपना सामान वहीं पटक उन साथियों की मद्द के लिए नीचे उतरने लगे, जो हिम्मत छोड़ सकते थे।
किशन की चाल बड़ी ही मस्त थी। सबसे ज्यादा बोझ उसी के कंधों पर रहा होगा, तो भी वह चाहता तो तेज गति से निकलकर पास पर सबसे पहले पहुॅच सकता था। पर इस दौरान देख चुके थे कि पूरी टीम के साथ आगे बढ़ना वह अपनी जिम्मेदारी समझता था। बेशक उसका रास्ता वह नहीं होता जहां से दल के अन्य साथी गुजर रहे होते तो भी आखिरी साथी भी उसकी निगाहों में हमेशा रहता। यही वजह थी कि किशन का रास्ता किसी दूसरे का रास्ता नहीं हो सकता था। हम लोग जिस वक्त किसी जगह से चलना शुरु कर रहे होते उस वक्त वह इतमीनान से आस-पास की चोटियों को निहारता। डायरी निकालता। आवश्यक विवरण नोट करता। आस-पास की स्थितियों को स्केच करता और फिर हमारे समानान्तर ही उस ओर को चलने लगता जहां से उसकी निगाहें हमारे ऊपर पड़ रही होती।
टॉप पर पहुंचा हुआ विमल ऊपर चढ़ते साथियों की तस्वीर कैद करता रहा। पास की इस आखिरी चढ़ाई में मैं और महेश किशन के पीछे ही हो लिये। हमारा यह फैसला दूसरी ओर फंसे हुए साथियों को देखने के बाद लिया गया फैसला था। अमरसिंह, अनिल काला एवं आदित्य जिस ओर से चढ़ रहे थे, उसी रास्ते पर होकर आगे निकल चुके साथी चढे थे। सो रास्ता खोजने की जहमत से तो बचा जा सकता था पर पहले गुजर चुके साथियों के पांवों ने वहां टिके पत्थरों और सरकती मिट्टी को भी ढीला कर दिया था।
किशन का रास्ता तो और भी कठिन लगा। लेकिन किशन का साथ हिम्मत बंधाता रहा। आगे-आगे किशन, बीच में महेश और पीछे मैं। महेश को पत्थरों पर चलने में ज्यादा तकलीफ हो रही थी। अभ्यास न होने की वजह से उसका शरीर बार-बार डगमगा रहा था। कंधें में झूलते पिट्ठू की वजह से भी उसके लिए संयत होकर चलना मुश्किल हो रहा था। कई बार उसके पांवों से सरकते पत्थर मेरे पास से निकलते रहे। किशन के लिए भी बढ़ना आसान नहीं हो रहा था। पर वह तो पर्वतारोही था। अगर कहूं कि माऊंटेन मैन (पहाड़-पुत्र) तो ज्यादा ठीक होगा। उसके पांव इतना चुपके से आगे बढ़ते कि पांवों के नीचे से गुजर चुके पत्थरों को आभास ही नहीं होता कि कोई उनके ऊपर से गुजर गया। किशन की एकाग्रता उसे वो सही पत्थर ढूंढ लेने में मद्द करती जो जल्दी से सरकता नही।
जैसे तैसे लमखागा की ऊंचाई पर एक-एक कर पहुंचते रहे। पास पर थोड़ी देर सुस्ताये। नीचे की ओर झांका तो वही सीधी दीवार यहां भी। इस तरफ बर्फ भी ज्यादा। सूरज की रोशनी ठीक से न पड़ने की वजह से बर्फ की पूरी दीवार ज्यों की त्यों। नीचे दिखायी देता वही बर्फीला मैदान इधर भी ।
लमखागा को शंकुवाकार पास कहा जा सकता है। दोनों ओर से कुछ कोणों पर उठती हुई दीवार ऊपर जिस जगह पर मिल रही है वही टॉप। बर्फ की सीधी दीवार पर कुछ दूर रस्सी की मद्द से उतरे फिर फिसलते हुए सीधे बर्फ के मैदान में पहुंचे । बर्फ पर फिसलना निश्चित ही रोमांचकारी है, बशर्ते कोई दुर्घटना न घटे। एक के बाद एक, हर एक का फिसलना देखते रहे।
बर्फिले मैदान पर पांव धंसनं शुरु हो चुके थे। मौसम साफ था। धूप चमक रही थी। पिछले दिन को देखकर अनुमान लगाना कठिन था कि मौसम इस कदर मोड़ ले लेगा। लमखागा पार हो चुका था। धर्म सिंह का चेहर खिल गया। अपनी स्मृतियों पर उसे भरोसा था। साथियों के चेहरे पर थकान के बावजूद चमक दिखायी देने लगी। बर्फ पर ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं- सोचकर आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर तक बढ़े-बढ़े पत्थर दिखायी दिये। मानो बर्फ के ऊपर किसी ने बड़े ही इतमीनान से उन्हें रखा हो। ग्लेशियरों के नीचे बहते पानी की आवाज कहीं-कहीं सुनायी देती। मिट्टी और बर्फ इस कदर गुंथे हुए थे कि अनुमान मारना कठिन था कि बर्फ है या मिट्टी। ताजे उभरते 'क्रैवासेस" भी दिखायी देते रहे। पत्थरों के आकार बदलने लगे। पतली सलेट-नुमा पत्थर- काले, भूरे रंग के। भूरा रंग ऐसा मानो घड़े का रंग। उनको पार कर ही हल्की-सी घास दिखायी दी। टीन के डिब्बे, जली हुई लकड़ियां उकसा रही थी कि टैन्ट लगा लेना चाहिए। सुबह का सूरज अपनी पूरी रोशनी बिखेरने लगा। जुलाई महीने में लमखागा हिमाचल की ओर वाले बेस पर धूप अच्छी लगी। अब रास्ते की दुर्गमता का कोई खौफ नहीं । आराम से धूप सेंकते रहे।
जब चले तो बस्पा का बांयां छोर पकड़ लिया और सफेद खण्ड के नजदीक दुमती पर रुके। बस्पा के दूसरी ओर आईटीबीपी की चैक पोस्ट दिखायी दे रही थी। सफेद खण्ड से पहले नीथल पर विश्राम किया, जहां रोहणु का गद्दी अपने डेरे में मौजूद था। गद्दी बताता रहा कि नदी पार जो खण्ड है वहां से नेलंग जा सकते हैं। नेलंग में शायद अब कोई नहीं रहता। भारत-चीन युद्ध के दौरान ही नेलंग वालों को वहां से विस्थापित कर हर्षिल के पास बगौरी में बसा दिया गया है। उसी छोर पर यदि थोड़ा पीछे चलें तो गंगोत्री खण्ड है, जहां से हम आगे निकल आये थे। सफेद खण्ड के नजदीक जहां रुके, कैम्प नहीं किया जा सकता था। पत्थर ही पत्थर चारों ओर बिखरे हुए थे। मजबूरी थी- रुकना ही पड़ेगा। सफेद खण्ड पार नहीं होने देगा। बहाव इतना तेज कि लाख सचेत हों तो भी अपने साथ खींच ही लेगा। पानी के साथ बहते पत्थरों की आवाज भी सुनायी दे रही थी। अनुभव कह रहा था कि सुबह के वक्त पार करना ही ठीक रहेगा। उस वक्त पानी कम हो जायेगा और बहाव भी। यदि पहले से मालूम होता कि सफेद खण्ड को पार करना संभव न होगा तो पीछे छोड़ आये मैदान पर ही रुका जा सकता था। पर अब पीछे कौन लौटे और वहीं पत्थरों को खोदकर टैन्ट लगाने भर की जगह को समतल करने लगे। अगले दिन दुमती से आगे बढ़े, सौन्च्यू खण्ड को पार किया तो घास का मैदान और भोज-पत्रों के वृक्ष दिखायी देने शृरु हो गये। रा
नी गण्डा के पुल से बस्पा का किनारा बदल गया। लकड़ी के पुल से नदी को पार किया और दाहिने छोर पर चलने लगे। नदी का बांया छोर भोज-पत्रों के घने जंगलों से घिरा हुआ था। मेरी अभी तक की स्मृतियों में भोज-पत्रों का इतना घना जंगल कहीं और नहीं। वृक्ष के आधार तने का कत्थई रंग और उनकी छाया का सम्मिलित प्रभाव स्मृतियों में दर्ज है। भोज-पत्रों का जंगल उधर बुलाता रहा, पर वहां रास्ता ही नहीं। पत्थरीली चट्टान सीधे बस्पा में उतरती है। बस्पा के इस किनारे ही आगे बढ़ते रहे और नागेस्ती चैक-पोस्ट पहुंचे, जहां से छितकुल दिखायी देने लगा।
पहाड़ों की जिन्दगी ही अपने आप में कठिन है फिर हम तो पहाड़ों के पहाड़ पर चल रहे थे। दरकते पहाड़, फटते ग्लेशियर, उफनते दरिया, पत्थरों भरे रास्ते और कठोर चट्टानों पर चलते हुए यदि दृष्टि की एकाग्रता चूकी तो पहाड़ अपनी गोद में ले लेता और छोड़ता नहीं।
यह सब कहने के लिए मैं पहाड़ों की यात्रा नहीं करता रहा। पहाड़ों की खूबसूरती मेरे लिए सिर्फ इतनी ही है, जितनी एक रेगिस्तानी के लिए रेगिस्तान की। जंगलों में जीवन जीते लोगों के लिए जंगलों की। समुद्र के किनारे बसे लोगों के लिए समुद्र की। रसूल हमजातोव का दागिस्तान मेरे भीतर उत्तराखण्ड बनकर जिन्दा रहे। राज्य का नाम मेरी पहचान को न मिटा सके। अपने दागिस्तान का जिक्र करते हुए रसूल एक कथा सुनाता है:
एक बुजुर्ग पहाड़ी आदमी ने जवान पहाड़िये से पूछा-तुमने अपनी जिन्दगी में आग देखी है, कभी उसमें से गुजरे हो ?
मैं उसमें कूदा था जैसे पानी में।
बर्फ जैसे ठण्डे पानी से कभी तुम्हारा वास्ता पड़ा है, कभी उसमें कूदे हो ?जैसे आग में।
तुम बालिग हो चुके पहाड़ी आदमी हो अपने घोड़े पर जीन कसो, मैं तुम्हे पहाड़ों में लेचलता हूं।
जलंधरी गाड़ को पार करते हुए लमखागा को पार कर गये। कोरु खण्ड, सफेद खण्ड और सौन्च्यू खण्ड में बहती हुई बर्फ को उसमें उतरकर ही पार किया। बेशक सांगली का रहने वाला पाटील पहली दफा पहाड़ों के इतना करीब गया। बेशक अलीगढ़ और उसके आस-पास रहने वाले आदित्य एवं महेश जिस वक्त पास के एकदम नजदीक पहुंचने-पहुंचने को होते हुए भी हिम्मत छोड़ने लगे हो, पर कमर तक ठोस बर्फ में तो उतर ही चुके थे। अपनी छ: फुटी लम्बाई के बावजूद भी सौन्च्यू खण्ड को पार करते हुए अपने कच्छे को भीगने से वह भी नहीं बचा पाया था।
दागिस्तानी बूढ़ा यदि यह सब देख रहा होता तो काकेशिया की पहाड़ियों से चिल्लाता-अपने वतन का नाम बताओ पहाड़ी युवकों, मैं दागिस्तानी हूं।
हम बालिग हो चुके पहाड़ी थे।
बस्पा नदी के पार दुमती चैक-पोस्ट इस रोमांचक कार्यवाही को देखते जवानों ने हाथ हिलाकर उत्साह बढ़ाया था। पहाड़ की मिट्टी हमारे छिद्रों से हमारे भीतर घुस चुकी थी। कहीं कच्ची और कहीं ठोस होती चट्टानों को हमारे पांवों ने स्पर्श किया थां गाड़, गधेरों में बहती बर्फ हमें आग के नजदीक रहने को मजबूर कर चुकी थी। बुग्यालों की हरी घ्ाास भेड़ वालों की मुस्कराहटों के रुप में हमारे भीतर दर्ज हो चुकी थी। लमखागा के पार बारिस न हो पाने की वजह से बुग्यालों का मटमैलापन रोहणु के गद्दी को ही नहीं हमें बेचैन करता रहा। लमखागा की यह कैसी दीवार है जो बारिस को सोख लेती है ?
लमखागा पर चढ़ते हुए तो बेस तक बारिस की वजह से ही चलना आसान नहीं हो रहा था। पर उसको पार करते ही मात्र एक दिन की दूरी पर ही मौसम इस कदर मोड़ लेगा, आश्चर्य होता।
लमखागा के पार हिमालय की जसकार रेंज शुरु हो चुकी थी। भूरे पहाड़, जहां बारिस यदा-कदा ही होती। हां, बर्फानी हवाएं पूरी मस्ती में बहती, जिसका सूखापन हमारे चेहरे की त्वचा को फाड़ चुका था। जब घर लौटे तो कन्धों पर उचकते बच्चों ने पूछा था-तुम्हारी नाक पर जी खूनी पपड़ी क्या भालू की मार है ?नहीं बच्चों, यह बर्फ के थपेड़ों का असर है।
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