Tuesday, July 21, 2009

उम्मीदों की एक नई पहल

अभी अभी एक मेल प्राप्त हुई। एक ऎसी खबर जिसके सच होने की कामना ही की जा सकती है।

प्रिय मित्र,

कुछ समय पहले सुप्रतिष्ठित पत्रिका पहल कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई थी। संपादक ज्ञानरंजन की ओर से की गई इस घोषणा को लेकर साहित्य एवं बौद्धिक जगत में अच्छा-ख़ासा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। पहल के चाहने वालों को पत्रिका का इस तरह अचानक बंद होना बेहद अखरा था।

लेकिन अब खुशी की बात ये है कि पहल को फिर से शुरू करने की योजना बन रही है। इस ख़बर को लेकर आप क्या सोचते हैं ये संपादक ज्ञानरंजन और पत्रिका को फिर से शुरू करने वाले लोग जानना चाहते हैं। अत: आपसे निवेदन है कि अपनी विचार हमें फौरन info@deshkaal.com पर भेजें।

हम आपकी प्रतिक्रिया का व्यग्रता से इंतज़ार कर रहे हैं, इसलिए भूलें नहीं।

धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
संपादक
www.deshkaal.com

Monday, July 20, 2009

महिला समाख्या एवं साहित्य अकादमी के कार्यक्रम


18 एवं 19 जुलाई 2009 देहरादून के हिसाब से साहित्यक, सामाजिक रूप से हलचलों भरे रहे। एक ओर महिला समाख्या, उत्तराखण्ड एवं चेतना आंदोलन के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित सम्मेलन जिसमे शिक्षा का अधिकार बिल जो कि लोकसभा में पारित होना है पर समझदारी बनाने तथा बिल के जनपक्षीय पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया तो वहीं दूसरी ओर साहित्य अकादमी दिल्ली की उस महती योजना का पहला आयोजन- रचना पाठ।
शिक्षा विद्ध अनिल सदगोपाल,


गांधीवादी और जनपक्षीय पहलुओं पर अपनी स्पष्ट राय रखने वाले डा ब्रहमदेव शर्मा, इतिहासविद्ध शेखर पाठक के अलावा नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन शाह, पी.सी.तिवारी, शमशेर सिंह बिष्ट के साथ-साथ कई अन्य सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनो में हिस्सेदारी करने वाले कार्यकर्ताओं ने शिक्षा के सवाल पर विचार विमर्श किया। कुछ ऐसे सवाल जो इस दौरान उठे और जिन पर सहमति और असहमति की एक स्थिति बनती है उस बाबत विस्तार से लिखे जाने का मन है, उम्मीद कर सकते है कि जल्द ही उसे लिखा जाएगा।


वहीं दूसरी ओर 19 जुलाई के एक दिवसीय कार्यक्रम में साहित्य अकादमी दिल्ली के द्वारा आयोजित रचना पाठ के चार सत्र एक अनुभव के रूप में दर्ज हुए। दो सत्र कविताओं पर थे जिसमें विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, लीलाधर जगूड़ी, शेरसिंह बिष्ट, देवसिंह पोखरिया, दिनेश कुमार शुक्ल, शंभु बादल, बुद्धिनाथ मिश्र, माधव कौशिक, हरिश्चंद्र पांडेय, रति सक्सेना, हेमन्त कुकरेती, रमेश प्रजापति, यतीन्द्र मिश्र के साथ-साथ मैंने भी अपनी कविताओं का पाठ किया।

कहानी के सत्रों में विद्यासागर नौटियाल, बटरोही, सुभाष पंत, मंजुला राणा, अल्पना मिश्र, ओम प्रकाश वाल्मिकि एवं जितेन ठाकुर ने अपनी-अपनी कहानियों के पाठ किए।

वे कविताएं जिनका मैंने पाठ किया, उनकी रिकार्डिंग प्रस्तुत है जो कि कार्यक्रम के दौरान नहीं हुई है, अलबत्ता उन्हें अलग से रिकार्ड कर यहां प्रस्तुत किया है।




डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें।

Thursday, July 16, 2009

हरेला के शुभ अवसर पर

उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक प्रमुख त्यौहार हरेला भी है। इस त्यौहार को मुख्यतया कृषि के साथ जोड़ा जाता है।
हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।

हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।

इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।

10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे विधि - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -
लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये


(अर्थात - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीर्घायु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले।)

जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

-विनीता यशस्वी

Monday, July 6, 2009

खिलाड़ी के पांवों से भी फूटती है संगीत की स्वर लहरियां

६ जुलाई २००९
देहरादून।





जीवन का उबड़-खाबड़पन भी उनके चित्रों में ऐसा समतल होकर उभरता है कि उम्मीदों भरा एक संसार आकार लेने लगता है। दो फलकों पर फैले चित्रों को त्रीआयामी बनाने के लिए चित्र को बहुत गहराई में उकेरने की बजाय वे दो अलग-अलग फलकों पर उनको रचते रहे। उनकी डाइगनल श्रैणी में भी इसको देखा जा सकता है। पेन्टिंग द्विआयामी विधा है। द्विआयामी समतल पर उसे त्रीआयामी संभव करना आसान नहीं।

चित्रकार प्रमोद सहाय का यह विश्लेषण दिवंगत चित्रकार तयेब(Tayeb) मेहता की स्मृतियों और उनके रचनात्मक अवदान को याद करने के लिए आयोजित संवेदना की मासिक गोष्ठी का हिस्सा है। पिछले दिनों चित्रकार तयेब मेहता (Tayeb Mehta) और सरोद वादक अकबर अली खां हमसे विदा हो गए। दोनों ही रचनाकारों को संवेदना के साथियों ने अपनी मासिक रचनात्मक गोष्ठी में याद किया। अकबर अली खां पर मुहममद हम्माद फारूखी ने विस्तार से बात रखी और उनके उस पहलू को भी याद किया जिसमें एक संगीतकार को फुटबाल खिलाड़ी के रुप में भी जाना जा सका। अकबर अली खां एक महत्वपूर्ण संगीतकार के साथ-साथ एक दौर में मध्य प्रदेश इलेवन के भी चहेते खिलाड़ियों में शामिल रहे।
कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र शर्मा, अल्पना मिश्र, विद्या सिंह, दिनेश चंद्र जोशी, गुरूदीप खुराना, शिव प्रसाद सेमवाल, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, कृष्णा खुराना, दर्शन कपूर, सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक मनमोहन चडढा, सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला सिंह, राजेन्द्र गुप्ता आदि गोष्ठी में मौजूद थे |

सभी चित्र इंटरनेट पर विभिन्न स्रोतों से,सूचनार्थ प्रस्तुति के लिए, साभार लिए गए हैं।

Saturday, July 4, 2009

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था

(नागर्जुन की कविता हरिजन गाथा पर एक टिप्पणी)



साहित्य में दलित धारा की वर्तमान चेतना ने दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा को ही चुनौति नहीं दी बल्कि जातीय आधार पर अपनी पहचान को आरोपित ढंग से चातुवर्ण वाली व्यवस्था में शामिल मानने को भी संदेह की दृष्टि से देखना शुरू किया है। जहां एक ओर दलित धारा के चर्चित विद्धान कांचा ऐलयया की पुस्तक ''व्हाई आई एम नॉट हिन्दू" इसका स्पष्ट साक्ष्य है। वहीं हिन्दी की दलित धारा के विद्धान ओम प्रकाश वाल्मिकी की पुस्तक ''सफाई देवता" को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है। चातुवर्णय व्यवस्था की मनुवादी अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए दलितों को शुद्र मानने से दोनों ही विद्धान इंकार करते हैं।
हिन्दी साहित्य में दलित धारा का शुरूआती दौर ऐसे ही सवालों के साथ विकसित भी हुआ। उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि अपने शुरूआती दौर में वह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से भी वह टकराता रहा है। यानी एक तरह का घ्ार्षण-संघ्ार्ष, जो स्थापित मानयताओं को चुनौति भी दे रहा है और आलोचना के औजार को पैना करने की दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा जो पहचान के रूप्ा में शब्दावली के तौर पर हरिजन रूप्ा में आई, वह भी अस्वीकार्य हुई है। यहां अभी तक के प्रगतिशील विचार पर शक नहीं पर उसकी सीमाओं को चिहि्नत तो किया ही जा सकता है। थोड़ा स्पष्टता के साथ कहा जाए तो कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने भारतीय समाज की उन सिवनों को उधेड़ना शुरू किया है जो पूंजीवाद विकास के आधे-अधूरे छद्म और सामंती गठजोड़ पर टिका है। साथ ही दलित धारा की इस विकासमान चेतना पर भी सवाल तो अभी है ही कि सिर्फ और सिर्फ सामाजिक बुनावट के षडयंत्रकारी सच को उदघ्ााटित कर देने के बाद भी सामाजिक बदलाव के संघर्ष की उसकी दिशा, बदलाव के संघ्ार्ष की स्थापित वेतना से फिर कैसे अलग है ? संघर्ष का वह मूर्त रूप्ा कैसे भिन्न है ? और दलित चेतना के विचारक अम्बेडकर की वे स्थापित मान्यताएं जो पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर ही एक सुरक्षित जगह घेर लेने तक जाती है, कैसे दूसरे संघर्षों से अपने को अलग करेंगी ?
यह सारे सवाल जिन कारणों से मौजू हैं उसमें नागार्जुन की कविता ''हरिजन गाथा" का एक भिन्न पाठ भी उभरता है। दलित चेतना की दया, करूणा वाली अवधारणा ने दलितों को जो श्ब्द दिया है और जिससे वह इतिफाक नहीं रखती है, नागार्जुन भी उसी शब्द के मार्फत दलितों के प्रति अपनी पक्षधरता को जब रखते हैं तो कविता की सीमाएं चिहि्नत होने लगती हैं। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि हरिजन गाथा के उन प्रगतिशील तत्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने के वक्त तक मौजू थे। जैसे लाख तर्क वितर्क के बाद भी प्रेमचंद के रचना संसार में दलितों के प्रति मानवीय मूल्यों को दरकिनार करना संभव नहीं वैसे ही हरिजन गाथा के उस उत्स से इंकार नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने की वजह है और जिसमें जातिगत आधार पर होने वाले नरसंहारों का निषेघ है।
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, बावजूद इसके जो कुछ भी हुआ था, वह अमानवीय था। एक यातनादायक कथा कविता का हिस्सा है। हरिजन गाथा ऐसे ही नरसंहार को निशाने पर रखती है और उन स्थितियों की ओर भी संकेत करती है जो इस अमानवीयता के खिलाफ एक नये युग का सूत्रपात जैसी ही है।

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

जीवन के उल्लास का यह रंग जिस अमानवीय और हिंसक प्रवृत्ति के कारण है यदि उसे हरिजन गाथा में ही देखें तो ही इसके होने की संभावनाओं पर चकित होते वृद्धों की आशंका को समझा जा सकता है।
यदि इस यातनादायी, अमानवीय जीवन के खिलाफ शुरू हुए दलित उभार को देखें तो उसकी उस हिंसकता को भी समझा जा सकता है जो अपने शुरूआती दौर में राजनैतिक नारे के रूप में तिलक, तराजू और तलवार जैसी आक्रामकता के साथ दिखाई दी थी। और साहित्य में प्रेमचंद की कहानी कफन पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए थी। यह अलग बात है कि अब न तो साहित्य में और न ही राजनीति में दलित उभार की वह आक्रामकता दिखाई दे रही और जिसे उसी रूप में रहना भी नहीं था, बल्कि ज्यादा स्पष्ट होकर संघ्ार्ष की मूर्तता को ग्रहण करना था। पर यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय आजादी के संभावनाशील आंदोलन के अन्त का वह युग, जिसके शिकार खुद विचारवान समाजशास्त्री अम्बेडकर भी हुए ही, इसकी सीमा बना है। और इसी वजह से संघ्ार्ष की जनवादी दिशा को बल प्रदान करने की बजाय यथास्थितिवाद की जकड़ ने संघर्ष की उस जनवादी चेतना, जो दलित आदिवासी गठजोड़ के रूप में एक मूर्तता को स्थापित करती, उससे परहेज किया है और अभी तक के तमाम प्रगतिशील आंदोलनों की उसी राह, जो मध्यवर्गीय जीवन की चाह के साथ ही दिखाई दी, अटका हुआ है। हां वर्षों की गुलामी के जुए को उतार फेंकने की आवाजें जरूर थोड़ा स्पष्ट हुई हैं। हिचक, संकोचपन और दब्बू बने रहने की बजाय जातिगत आधार पर चौथे पायदान की यह हलचल एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हो और ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश् आवाम के जीवन की खुशहाली के लिए भी संघर्षरत हो नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा का एक पाठ तो बनता ही है।
संघर्ष के लिए लामबंदी को शुरूआती रूप में ही हिंसक तरह से कुचलने की कार्रवाइयों की खबरे कोई अनायास नहीं। उच्च जाति के साधन सम्पन्न वर्गो की हिंसकता को इन्हीं निहितार्थों में समझा जा सकता है। जो बेलछी से झज्जर तक जारी हैं।
नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा कि पंक्तियां यहां देखी जा सकती है जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण की डिमांड करती हैं। नागार्जुन उस सभ्य समाज से, जो हरिजनउद्वार के समर्थक भी हैं, प्रश्न करते हुए देखें जा सकते हैं -

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/हरिजन माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को/ खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में/ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं/तेरह के तेरह अभागे/अकिंचन मनुपुत्र/जिन्दा झोंक दिये गये हों/प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में/साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले/सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/महज दस मील दूर पड़ता हो थाना/और दारोगा जी तक बार-बार/खबरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

नागार्जुन समाजिक रूप से एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। अमानवीय कार्रवाइयों को पर्दाफाश करना अपने फर्ज समझते हैं और श्रम के मूल्य की स्थापना के चेतना सम्पन्न कवि हो जाते हैं। खुद को हारने में जीत की खुशी का जश्न मानने वाली गतिविधि के बजाय वे सवाल करते हैं। हिन्दी कविता का यह जनपक्ष रूप्ा ही उसका आरम्भिक बिन्दु भी है। सामाजिक बदलाव के सम्पूर्ण क्रान्ति रूप को ऐसी ही रचनाओं से बल मिला है। वे उस नवजात शिशु चेतना के विरुद्ध हिंसक होते साधन सम्पन्न उच्च जातियों के लोगों से आतंकित नहीं होती बल्कि सचेत करती है। उसके पैदा होने की अवश्यम्भाविता को चिहि्नत करती है।
श्याम सलोना यह अछूत शिशु /हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का / बेडा सचमुच पार करेगा
हिंसा और अहिंसा दोनों /बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे / कभी नहीं तकरार करेंगी।।।






-विजय गौड़

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय जी के आदेश पर लिखी गई यह टिप्पणी इससे पहले यहां प्रकाशित हुई है।