( वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूडी की दो कवितायें १९७७ में प्रकशित संग्रह "बची हुई पृथ्वी" से दी जा रही हैं)
मौलिकता
जडें
वही हों
उसी तने पर
वे ही टहनियां हों
ज्याद अच्छे लगते हैं
तब
नये पत्ते
वरना नये पौधे में तो वे होते ही हैं
आऊंगा
नये अनाज की खुशबू का पुल पार करके
मैं तुम्हारे पास आऊंगा
ज्यों ही तुम मेरे शब्दों के पास आओगे
मैं तुम्हारे पास आऊंगा
जैसे बादल
पहाड़ की चोटी के पास आता है
और लिपट जाता है
जिसे वे ही देख पाते हैंजिनकी गरदनें उठी हुई हो>
मैं वहां तुम्हारे दिमाग में
जहां एक मरूस्थल है
आना चाहता हूं
मै आऊंगा
मगर उस तरह नहीं
बर्बर लोग जैसे कि पास आते हैं
उस तरह भी नहीं
गोली जैसे कि निशाने पर लगती है
मै आऊंगा
आऊंगा तो उस तरह
जैसे कि हारे हुए
थके हुए में दम आत है
Monday, November 1, 2010
Monday, October 11, 2010
कृष्ण पर लोहिया
हाल ही में अकार का ताजा अंक आया है.यह राम मनोहर लोहिया पर केन्द्रित है. इस अंक के प्रमुख आकर्षण हैं -लोहिया के प्रसिद्ध लेख और संसद में एक पैसा बनाम तीन पैसा पर दिया गया भाषण.यहां कृष्ण पर लोहिया के लेख का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत किया जा रहा है . इस अंश को आप एक ललित निबन्ध की तरह पढ़ सकते हैं
सरयू और गंगा कर्तव्य की नदियां हैं. कर्तव्य कभी-कभी कठोर होकर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल, केन तथा दूसरी जमुना-मुखी नदियां रस की नदियां हैं.रस में मिलन है, कलह मिटाता है.लेकिन आलस्य भी है, जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है.इसी रस भरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की,लेकिन कुरू-धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया.बाद में हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी, आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमी पर रसमय कर्तव्य का उदय होगा. कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं . कैसे तुमने राधा- लीला को कुरू -लीला से निभाया.लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा नाम तक नहीं . बात इतनी सच नहीं, क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं . सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते हैं, जो मझते हैं वे , और जो नहीं समझते वे भी.. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है.राधा काक वर्णन तो वहीं होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. राम का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है. नजाने हजार वर्षों से अभी तक पलडा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण !
-१९५५,जुलाई; जन से
सरयू और गंगा कर्तव्य की नदियां हैं. कर्तव्य कभी-कभी कठोर होकर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल, केन तथा दूसरी जमुना-मुखी नदियां रस की नदियां हैं.रस में मिलन है, कलह मिटाता है.लेकिन आलस्य भी है, जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है.इसी रस भरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की,लेकिन कुरू-धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया.बाद में हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी, आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमी पर रसमय कर्तव्य का उदय होगा. कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं . कैसे तुमने राधा- लीला को कुरू -लीला से निभाया.लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा नाम तक नहीं . बात इतनी सच नहीं, क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं . सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते हैं, जो मझते हैं वे , और जो नहीं समझते वे भी.. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है.राधा काक वर्णन तो वहीं होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. राम का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है. नजाने हजार वर्षों से अभी तक पलडा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण !
-१९५५,जुलाई; जन से
Tuesday, October 5, 2010
भरोसे के सूत्र आंकड़ों में नहीं पनपते
5 -6 अगस्त की रात जिस अबूझ विभीषिका ने लदाख के लेह नगर के लोगों को अपने खूनी बाहुपाश में जकड़ लिया था उसकी जितनी भी तस्वीरें देख ली जाएँ ,वास्तविक नुक्सान का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा. लेह भारत का क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला है पर इसमें आबादी का घनत्व मात्र 3 व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है,इसलिए ढाई सौ के आस पास बताई जाने वाली मौतें देश के प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहुत भयानक नहीं मानी जायेंगी...हांलाकि 300 लोग दुर्घटना के महीने भर बीतने के बाद भी लापता बताये जा रहे हैं.पैंतीस के लगभग गाँव इसकी चपेट में आ के नक्शे से लगभग लुप्त ही हो गए....मीलों लम्बी सड़कें,दर्जनों पुल और सैकड़ों खेत बगीचे इसकी विकराल धारा के हवाले हो गए,वो भी देश के उस हिस्से में जहाँ सड़कें और पुल सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माने जाते हैं.अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर सीमा सड़क संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि अकेले लद्दाख के इलाके में ढाई से तीन सौ करोड़ तक की सड़के ध्वस्त हो गयी हैं। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे की ऊँची लाइनें देखी जा सकती हैं--उनके अन्दर से झांकते कपडे लत्ते और घर के साजो सामान साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं.कभी कभार इनके अन्दर से लाशें अब भी निकल आती हैं. लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि मरने वाले अधिकतर लोग या तो सोते हुए मारे गए, या फिर बदहवासी में घर से निकलकर भागते हुए। बाजार में अनेक दुकानें ऐसी हैं जो हादसे के बाद से अब तक खुली ही नहीं हैं...जाने इन्हें हर रोज झाड पोंछ कर खोलने वाले हाथ जीवित बचे भी हैं या नहीं?
-यादवेन्द्र
विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका साफ़ साफ़ ये अर्थ होता है कि बहुत छोटी अवधि में एक क्षेत्र विशेष में (20 से 30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं)अ साधारण तीव्रता के साथ -- एक घंटे में 100 मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा-- बरसात हुई.भारत सरकार ने हांलाकि बादल फटने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई मानक तय नहीं किया है पर मौसम विभाग अपनी वेबसाईट पर ऊपर बताई परिभाषा का ही हवाला देता है.अब पूरे मामले के कारणों की बात करते समय यदि हम 5-6 अगस्त की रात को लेह में हुई बरसात के आधिकारिक आंकड़ों की बात करेंगे तो मौसम विभाग ( लेह नगर में उनकी वेधशाला मौजूद है) चुप्पी साध लेता है.नगर के दूसरे हिस्से में स्थित भारतीय वायु सेना के वर्षामापी यन्त्र का हवाला देते हुए मौसम विभाग जो आंकड़ा प्रस्तुत करता है वो इतना काम है कि बादल फटने की घटना पर संदेह होने लगता है-- पूरे 24 घंटे में 12.8 मिली मीटर बरसात,बस.वाल स्ट्रीट जर्नल ने इस पर विस्तार से लिखा है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी उस काली रात में हुई बरसात का कोई आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका.यहाँ ये ध्यान देने की बात है कि पिछले कई सालों से अगस्त माह का बरसात का औसत मात्र ... है.दबी जुबान से अनेक लोगों ने ये कहने की कोशिश की कि यह विभीषिका कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी,बल्कि चीन के मौसम बदलने वाले प्रयोग का एक नमूना
भूगोल की किताबों में लदाख को सहारा जैसा रेगिस्तान बताया जाता है,फर्क बस इतना है कि यहाँ का मौसम साल के ज्यादातर दिनों में भयंकर सर्द बना रहता है.मनाली या श्रीनगर चाहे जिस रास्ते से भी आप लेह तक आयें,रास्ते में नंगे पहाड़ और मीलों दूर तक फैले सपाट रेगिस्तान दिखेंगे... हरियाली को जैसे सचमुच कोई हर ले गया हो.दशकों पहले रेगिस्तान को हरा भरा बनाने को जो नुस्खा पूरी दुनिया में अपनाया जाता रहा है-- पेड़ पौधे रोपने का -- वो नुस्खा लदाख में भी आजमाया गया और लदाखी जनता को वृक्ष रोपने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते नगद इनाम देने की योजना राज्य सरकार ने शुरू की.साथ साथ लेह में स्थापित रक्षा प्रयोगशाला ने भी बड़े पैमाने पर इस बंजर इलाके को हरियाली से पाट देने का अभियान शुरू किया.आज वहां दूर दूर तक हरियाली के द्वीप दिखाई देने लगे है.रक्षा प्रयोगशाला दावा करती है की लेह में उनके प्रयासों से हवा में आक्सिजन की उपलब्धता 50 % तक बढ़ गयी है और इस क्षेत्र की सब्जी की करीब साठ फीसदी आपूर्ति उनके प्रयासों से स्थानीय स्तर पर पूरी की जा रही है.सब्जी की करीब 80 नयी और सेब की लगभग 15 नयी प्रजातियाँ इस समय वहां उगाई जा रही हैं.पिछले सालों में जहाँ इस क्षेत्र में हरियाली की चादर बढ़ी है वहीँ वर्षा की मात्रा भी निरंतर बढती गयी है.हांलाकि सरकार के दस्तावेज अब भी लदाख क्षेत्र में हरियाली से ढका हुआ क्षेत्र महज 0 .1 % ही दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग मानता है कि हरियाली को मौसम प्रभावित करने के लिए कम से कम अपना दायरा 30 % तक बढ़ाना पड़ेगा-- पर इस बार की अ प्रत्याशित त्रासदी ने ऐसे लोगों का एक वर्ग तो खड़ा कर ही दिया है जो लदाख के सर्द रेगिस्तान को हरा भरा करने के अभियान को शंका की दृष्टि से देखता है और अत्यधिक बरसात से बाढ़ जैसी स्थिति पैदा करने के लिए हरियाली को ही दोषी मानता है.दबी जुबान से लेह के एक सम्मानित धर्मंगुरु जो राज्य सभा के सदस्य भी रहे हैं,ने भी विभीषिका के लिए इसको ही दोष देने की कोशिश की.लेह में लोगों से बात करने पर कई लोगों ने ये भी कहा कि दलाई लामा भी पिछले कई सालों से अपने उद्बोधनों में लदाख में हरियाली की संस्कृति को रोकने की अपील करते आ रहे हैं.त्रासदी के दिनों के उपग्रह चित्रों को देखने से मालूम होता है कि कैसे देश के सुदूर दक्षिण पश्चिम सागर तट से काले मेघ पूरा देश पार करके उत्तरी सीमाओं तक पहुँच गए.यह एक अजूबी घटना है और अब मौसम वैज्ञानिकों ने इसका विस्तृत अध्ययन करने की घोषणा की है.
अचानक आई इस बाढ़ से हुए नुकसानों के बचे हुए अवशेष ये बताते हैं कि ध्वस्त होने वाले घरों कि बनावट में कोई कमी रही हो ऐसा नहीं है -- लेह बाजार के पास अच्छी सामग्री और डिज़ाइन से बने टेलीफोन एक्सचेंज और बस अड्डे में जिस तरह का नुक्सान अब भी दिखाई देता है,ये इस बात का सबूत है कि मलबे की विकराल गति ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया.यूँ साल में तीन सौ से ज्यादा धूप वाले दिनों के अभ्यस्त लोग लदाख क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मकान मिट्टी की बिन पकाई इंटों से बनाते हैं, नींव भले ही पत्थरों को जोड़ कर बना दिया जाए.इलाके की सर्दी को देखते हुए दीवारें मोटी बनायीं जाती हैं और मिट्टी बाहर की सर्दी को इसमें आसानी से प्रवेश नहीं करने देता.छत सपाट और स्थानीय लकड़ियों, घास और मिट्टी की परतों से बनायीं जाती हैं.अब कई भवन टिन की झुकी हुई छतों से लैस दिखाई देते हैं पर स्थानीय लोग इनको सरकार के दुराग्रह और दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे वास्तुकारों की ढिठाई का प्रतीक मानते हैं.हाँ, चुन चुन कर पत्थर की ऊँची पहाड़ियों के ऊपर किले की तरह बनाये गए किसी बौद्ध मठ को कोई क्षति नहीं हुई.जब साल दर साल बढ़ रही बरसात के सन्दर्भ में लोगों से बात की गयी तो छतों के ऊपर किसी ऐसी परत(जैसे तिरपाल) को मिट्टी की परत के अन्दर बिछाने की जरुरत महसूस की गयी जिस से बरसात का पानी अन्दर न प्रवेश कर पाए.हमें लेह में ढूंढने पर भी स्थानीय स्तर पर कम करने वाले वास्तुकार नहीं मिले,जिनसे और गहन विचार विमर्श किया जा सकता.
अब भी मलबे हटाने का कम चल रहा है पर सबसे अचरज वाली बात ये लगी कि इनमें स्थानीय जनता की कोई भागीदारी नहीं है...विभीषिका की काली रात में तो सेना के जवान अपनी बैरकों से निकल कर आ गए,बाद में सीमा सड़क संगठन के लोग खूब मुस्तैदी से ये काम कर रहे हैं-- बिछुड़े हुए परिजनों और खोये हुए सामान को दूर से निहायत निरपेक्ष भाव से लोग खड़े खड़े निहारते दिखते हैं,पर पास आकर न तो कोई हाथ लगाता दिखता है और न ही बिछुड़ी हुई वस्तुओं को प्राप्त कर लेने का कुतूहल किसी के चेहरे पर दिखाई देता है.लोगों से बार बार इसका कारण पूछने पर लोगों ने बौद्ध जीवन शैली में जीवन और मृत्यु की अवधारणा के गहरे रूप में दैनिक क्रिया कलाप और व्यवहार में लोगों के अन्दर तक समा जाने की ओर इशारा किया.
-यादवेन्द्र
लेबल:
यात्रा संस्मरण,
यादवेन्द्र,
रिपोर्ट
Wednesday, September 29, 2010
कइयों को पसंद है मसखरी
आज के उफनते और तलवार भांजते माहौल में मुझे 1928 में जनमी प्रख्यात अश्वेत अमेरिकी कवियित्री माया एंजेलू की ये मशहूर कविता अनायास याद हो आई...एक पिद्दी से कोर्ट के फैसले को इतना दानवी बनाया जा रहा है कि जैसे पूरी मानव जाति इस से निकली घृणा के अन्दर भस्म हो जाएगी . मुझे लगता है कि इस कविता की चेतना समझदार लोगों को छू कर जरुर शांत और आश्वस्त कर पायेगी .यहाँ कविता का सम्पादित अंश दिया जा रहा है...प्रस्तुति यादवेन्द्र की है:
मानव परिवार
मैं देखती हूँ कि विविधताएँ बहुत हैं
मानव परिवार में
हम में से कई धीर गंभीर लोग हैं
और कइयों को पसंद है मसखरी...
कुछ लोग दावा करते हैं
उन्होंने पूरा जीवन जिया खूब गहरे डूब कर
कइयों को लगता है
सिर्फ वे ही हैं जो छू पाए हैं
जीवन की सच्चाइयों को सच में...
* * * * * *
मैं छान आया सातों समंदर
और ठहरा भी हर जगह
देखे दुनिया भर के अजूबे
पर नहीं मिले तो नहीं ही मिले
एक जैसे मिलते जुलते लोग...
* * * * * *
जुड़वां हमशक्ल हुए तो भी
उनके नाक नक्श एक दूसरे पर कसते हैं ताने
प्रेमी जोड़े चाहे कितने निकट लेटे हों
सोचते होते हैं अलग अलग ही...
* * * * *
अलग अलग स्थान और काल में
हम दिखते तो हैं एक दूसरे से बिलकुल जुदा
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं....
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं....
पर मेरे दोस्त,अपने अलगावों के मुकाबले
हम एक दूसरे के समान ज्यादा हैं...
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Monday, September 20, 2010
बारिश
उत्तराखण्ड में बारिश की भीषड़ मार को झेलते हुए एक दौर में लिखी गई यह कविता आज फिर याद आ रही है।
सब कह रहे हैं
बारिश बन्द हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा है पानी
पर घर के भीतर तो
पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है;
सड़क पर भी है पानी
आंगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिश बन्द हो चुकी है
सब कह रहे हैं
बारिश बन्द हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा है पानी
पर घर के भीतर तो
पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है;
सड़क पर भी है पानी
आंगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिश बन्द हो चुकी है
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