Friday, March 12, 2021

आक्रामक खेल के बीच शेष विरल कोमलता

यादवेन्द्र



खेल आम तौर पर निर्मम आक्रामकता के लिए जाने जाते हैं - खास तौर पर आमने सामने एक दूसरे को चुनौती देने वाले खिलाड़ी ज्यादा रसहीन इंसान साबित होते हैं।टेनिस की दुनिया पर दशकों राज करने वाली सेरेना विलियम्स वैसे भी अपने विजय अभियान और रिकॉर्ड को लेकर बहुत सजग और निर्मम मानी जाती हैं पर पिछले कुछ वर्षों में उन्हें एक युवा अश्वेत टेनिस सितारे से बार बार मुखातिब होना पड़ा -- नाओमी ओसाका ने चौबीस ग्रैंड स्लैम जीतने के उनके स्वप्न को एक नहीं अधिक बार तोड़ा।पर टेनिस कोर्ट के इन धुर प्रतिद्वंद्वियों के बीच दुनिया ने जिस ढंग की आत्मीय सहचरी देखी वह भी टेनिस की दुनिया में विरल है - खेल समीक्षक मानते हैं कि ओसाका सेरेना की सुयोग्य उत्तराधिकारी साबित होने की राह पर अग्रसर हैं।



हाल में संपन्न हुए ऑस्ट्रेलियन ओपन में विजय का ताज पहनने के बाद के इंटरव्यू में जब नाओमी ओसाका से (इसके सेमी फाइनल में उन्होंने सेरेना विलियम्स को पराजित कर टूर्नामेंट से बाहर कर दिया था) एक पत्रकार ने पूछा:
"अभी कुछ दिन पहले आपने कहा था कि जब तक सेरेना खेलती रहीं वे टेनिस का चेहरा हुआ करती थीं। क्या आपको लगता है कि ऑस्ट्रेलियन ओपन में आपने जो उनके खिलाफ जीत हासिल की वह पूर्व स्थिति के बदलाव का सूचक है?"
युवा पर चतुर ओसाका को पल भर भी सोचने की जरूरत नहीं पड़ी,बोलीं: नहीं,ऐसा बिल्कुल नहीं है।"
(20 फरवरी 2021 का WTA Insider का एक ट्वीट)
इसी टूर्नामेंट के दौरान ओसाका ने ट्वीट कर सेरेना विलियम्स के बारे में कहा: "जब मैं छोटी थी और उन्हें खेलते हुए देखती थी तो हमेशा मुझे  लगता था कि कभी मैं उनके साथ खेलूं... यह मेरा एक सपना था...जब जब भी मैं उन के साथ खेलती हूं तो मुझे बचपन के वे दिन याद आते हैं और मुझे लगता है कि मैं उन मौकों को हमेशा याद रखूंगी... ये खेल मेरे लिए कुछ खास हैं।"
"जहां तक मेरा सवाल है मैं उन्हें हमेशा खेलते हुए देखना चाहती हूं। मेरे अंदर एक बच्चा भी रहता है।"

2018 के यूएस ओपन फाइनल मैच में नाओमी ओसाका से मुकाबला करते हुए अंपायर ने मां बनने के बाद पहला बड़ा मैच खेल रही सेरेना पर अपने कोच के इशारों के अनुसार खेलने का आरोप लगाया था और अंपायर के साथ सेरेना की तीखी नोकझोंक हुई थी। सेरेना ने बार बार दंडित करने वाले अंपायर को झूठा भी कहा था और गुस्से में अपना रैकेट तोड़ कर कोर्ट में फेंक दिया था। उन्होंने अपने कोच से निर्देश लेने के आरोप से इनकार किया और अंततः मैच हार गई थीं - वह भी ढाई दशक से टेनिस के शिखर पर राज करने वाली सेरेना अपने से सोलह साल जूनियर और बिल्कुल नयी खिलाड़ी नाओमी ओसाका से।यहां यह जानना समीचीन होगा कि ओसाका भी हैतियन पिता और जापानी मां की अश्वेत संतान हैं और अमेरिका में रहती हैं।

यह ओसाका के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी और वे इतनी भावुक हो गईं कि लगभग सुबकने लगीं।उम्मीद से पलट नतीजे से नाखुश उपस्थित दर्शक शोर मचाने लगे और सेरेना जैसी दुर्दमनीय खिलाड़ी को मात देने वाली नाओमी ओसाका को हूट करने लगे।इस पर ओसाका बोलीं:
"मैं जानती हूं यहां इकट्ठा सभी लोग उन (सेरेना विलियम्स)के लिए तालियां बजा रहे हैं, चीयर कर रहे हैं।मुझे अफ़सोस है कि इस मैच को इस तरह खत्म होना था....आप आए और आपने मैच देखा,इसके लिए हार्दिक आभार।"
सेरेना ने अप्रत्याशित सहृदयता दिखाते हुए आगे बढ़ कर उत्तेजित दर्शकों से अपील की:
"मेरी गुजारिश है कि आप अब किसी तरह का सवाल मत उठाइए। मैं आपसे कहना चाहती हूं कि आज  ओसाका बहुत अच्छा खेली... यह उसका पहला ग्रैंड स्लैम है। अब आप उसे हूट करना बंद करिए।"

इस ऐतिहासिक घटना पर theundefeated.com (8 सितम्बर 2018) ने लिखा : "विजयी होकर भी जीत के लिए माफी मांगती और सुबकती हुए नाओमी ओसाका को सेरेना ने आगे बढ़ कर गले लगाया - पल भर भी नहीं लगा कि सेरेना प्रतिद्वंद्वी की भूमिका छोड़ कर रोती हुई ओसाका को सांत्वना देती हुईं मां की भूमिका में आ गईं।"

इस घटना के अगले दिन ओसाका से जब यह पूछा गया कि मैच के बाद सेरेना विलियम्स उन्हें गले लगाते हुए कान में क्या कह रही थीं तो ओसाका ने जवाब दिया: "सेरेना ने मुझे कहा कि मुझे तुम पर गर्व है और दर्शकों की भीड़ चिल्ला चिल्ला कर तुम्हें अपमानित नहीं कर रही थी। मुझे उनका यह कहना कितना अच्छा लगा, मैं बता नहीं सकती।"

इसके बाद सेरेना ने गहरे विचार मंथन के बाद नाओमी ओसाका को चिट्ठी लिखी जिसका एक अंश पढ़िए:
" हाय नाओमी, मैं सेरेना विलियम्स! जैसा मैंने कोर्ट में भी कहा था, मुझे तुम पर बहुत गर्व है... और जो कुछ भी उस समय हुआ उस का अफसोस भी। उस समय मुझे ऐसा लगा था कि मुझे अपनी बात पर अड़े रहना चाहिए और ऐसा करते हुए मैं सही कर रही हूं। लेकिन मुझे कतई इसका आभास नहीं था कि मीडिया इस घटना के बाद हमें और तुम्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देगा। उन पलों को मैं चाहती हूं एक बार फिर से जीना संभव हो पाता... काश कि हम फिर से कोर्ट पर आमने सामने  हो पा ते। मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूं,खुश थी और हमेशा खुश रहूंगी और तुम्हें सपोर्ट करती रहूंगी। मैं कभी नहीं चाहूंगी कि कामयाबी की रोशनी किसी दूसरी स्त्री से हट कर अलग किसी और पर चली जाए - खासतौर पर जब वह रोशनी एक काली स्त्री खिलाड़ी पर पड़ रही हो। तुम्हारे भविष्य को लेकर मैं बहुत ज्यादा इंतजार अब नहीं कर सकती और मेरा यकीन करो, तुम्हें खेलते हुए देखना और वह भी तुम्हारे बहुत बड़े फैन के रूप में देखना मुझे बहुत अच्छा लगेगा। आज की बात करें तो तुम्हारी सफलता के लिए मैं शुभकामनाएं देती हूं... लेकिन यह सिर्फ आज तक सीमित नहीं है, भविष्य में भी तुम्हारा मार्ग बहुत प्रशस्त हो। एक बार फिर, मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत गर्व है। मेरा ढेर सारा प्यार...
तुम्हारी फैन
सेरेना "
(हार्पर बाजार पत्रिका/9 जुलाई 2019)

Friday, February 26, 2021

कमेरी औरत

 

  

यह गेहूं की फसल के तैयार होने का वक्त है। किसान खेतों की बजाए सड़कों पर हैं। उनकी नाराजगी उस सरकार से है, जो उनके जीवन व्यापार को ध्वस्त करने के लिए कानूनी वैधता का सहारा लेना चाहती है। उनका आक्रोश बेशक उनके वर्गीय हितों से जुड़े मुद्दों का पौधा बनकर धरती की देह फाड़कर बाहर निकला है लेकिन एक बेल की तरह वह देशभर में फैलता जा रहा है। मजदूर, मेहनतकस और युवा-बेरोजगारों से उसका जुड़ाव, जैसा कि अभी सीधे-सीधे दिख नहीं रहा तो भी इस बिना पर उनके संघर्ष को खारिज तो नहीं किया जा सकता।

कथाकार सुभाष पंत की कहानी मक्के के पौधे का किसान जो एक सरकारी मुलाजिम भी हो गया है और जो नौकरी को अपने अमुक प्रदेश पर लटका कर किसानी हेकड़ी में रहता है, एकाएक याद आ रहा है। मक्का के पौधे सुभाष पंत द्वारा बहुत शुरूआती दौर में लिखी कहानी है, खेती किसानी की जद्दोजहद के साथ मानवीय धरातल पर विकसित हुई मानसिकता का प्रतिबिंब सामने रखती है। कहानी पर अन्‍य कोई टिप्पणी किए बिना सीधे-सीधे प्रस्‍तुत है- मक्का के पौधे।

विगौ

मक्का के पौधे

सुभाष पंत

 

शक तो लालता को रात ही हो गया था। हालांकि यह सावन की बरसात थी। वह नींद की खुमारी में था, जिसे टिन पर बरसते पानी की मोहक धुन ने मीठे नशे में बदल दिया था। फिर भी चूड़ियों की सहमी आवाज उसने सुनी थी। फिर नारी देने की अनचिह्नी भीनी खुशबू और फिर कुछ दबी-दबी-सी परिचित और अपरिचित फुसफुसाहटें भीतर ही भीतर पकते किसी षड्यंत्र की तरह लेकिन उसे यह कतई परवाह करने वाली बात नहीं लगी थी। आखिर शेर की मांद में शेर के खिलाफ हो ही क्या सकता है।

सुबह उठकर उसने पाया कि घर का मिजाज कुछ बदलाव हुआ है। उसकी औरत सुगनी हड़बड़ाते हुए उसे चाय देने आई। वह उससे आंखें चुरा रही थी और कमरे से तुरंत भाग जाने की अवश व्याकुलता से भरी हुई थी।

''क्या बात है? तू क्यों रही है?'' चाय का गिलास पकड़ते हुए वह गुर्राया।

''कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं'' सुगनी ने संयत होने की कोशिश करते हुए कहा, ''बस जरा उठने में देर हो गई।''

उसने महसूस किया सचमुच कुछ हुआ है, सुगनी जिसे उससे छिपाने की निरीह, बेमानी और व्यर्थ चेष्‍टा कर रही है। उसकी आंखों में देर से उठने की अलसाहट की जगह रात-भर जागने की सूखी लाली थी। उसने सिर उठाकर जंगले से बाहर झांका। वैसा ही उदास था, जैसा इस मौसम में बिना बारिश वाले दिन अमूमन उसे चाहे दिए जाते वक्त होता था। झूठ पकड़े जाने की कुटिल, घातक और काइयां मुस्कान उसके होठों पर उभरी। ''देर तो नहीं हुई,'' सुगनी को गिरफ्त में फांसते हुए उसने कहा।

 

वह पहले ही हड़बड़ाई हुई थी। अपने को गिरफ्त में आते देखकर वह और हड़बड़ा गई। ''बस मुझे ऐसा लगा,'' उसने हकलाते हुए कहा और बात पूरी किए बिना तेजी से बाहर की ओर लपकी।

''तू भाग क्यों रही है मैं बाग बघेरा हूं क्या?''

वह रुक गई और उसने मुड़कर लालता की तरफ देखा। कुछ छिपाने के अपने निश्चय पर वह अभी कायम थी, हालांकि अक्सर उसकी किलेबंदी को वह आसानी से ध्वस्त कर देता था।

वह रुक गई तो लालता ने आश्‍वस्ति के साथ चाय का घूंट पर भरते हुए पूछा, ''शंकर आया है क्या?''

सुगनी का चेहरा कापा और स्‍याह पड़ गया। शंकर तो चुपचाप घर में घुसा था। तब आधी रात  थी और ऊपर से आसमान बरस रहा था। उसके आने का कैसे पता चला? वह बचाव-सा करते स्वर में बोली, ''रात देर से आया।''

''सो रहा है?''

''नहीं, मुंहअंधेरे ही कहीं काम पर चला गया।''

 

लालता को अपमान भरा अचरज हुआ। शंकर जब भी लौटता था मस्ती के झोंके के साथ लौटता था। घर में जश्‍न चलता और कई कई दिन चलता। बकरा भूना जाता। शराब की बोतल खुलतीं और बाप बेटे दोनों के जाम टकराते। उनके बीच दारू और गोश्त की मजबूत बुनियाद पर टीका अजीब-सा दोस्ताना था, जो पिता-पुत्र के रिश्ते से कहीं ज्यादा आत्‍मीय, महत्वपूर्ण और भावनात्मक था। वह ट्रक ड्राइवर था और ज्यादातर माल लेकर लंबी यात्राओं पर रहता। लौटते हुए कई-कई जगहों की, विविध जायके और नशें की दारू की बोतल लेकर आता और उसकी आत्मा को अनोखी चमक से जगर-मगर कर देता। इस बार वह चोर की तरह आया और उसने बिना मिले मुंहअंधेरे ही गायब हो गया। उसके भीतर आशंका के सांप ने अपना फन फैला दिया। उसने मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ''इस बार क्या वह चूड़ियां पहन के आया है?''

सुगनी का चेहरा छिती मूंज-सा हो गया। मानो चोरी करते पकड़ी गई हो। एकाएक उसकी समझ में नहीं आया कि आदमी को सब कुछ मालूम हो गया है, या, वह सिर्फ मजाक कर रहा है। वैसे उसका मजाक करना भी खतरे से खाली नहीं होता। यह उसका एक ऐसा हथियार है, जिसके जरिए वह कारीकी से तह में घुसता है और उसकी एक-एक परत उधेड़ देता है। बहुत सख्तजान और घाघ आदमी है।

''तू डर क्यों गई? मैंने तो बस ऐसे ही पूछ लिया, ठिठोली में। रात चूड़ियों की आवाज सुनी, वह तेरी चूड़ियों की आवाज नहीं थी, गौरी की भी नहीं। सोचा अपना शंकर तो चूड़ियां नहीं पहने लगा?'' उसने कहा और छक्का लगाया। यह ऐसा ठहाका था जिसने बारिश से भारी सुबह को झकझोर दिया और जिससे सुगनी की पसलियां टिन के पतरे की तरह बजने लगीं।

उसे लगा कि उसका कवच जो उसने बेटे की हिफाजत के लिए तैयार किया था धड़ धड़ाकर गिर पड़ा है। आत्म-समर्पण करते हुए बोली, ''वह चूड़ियां पहन कर नहीं, चूड़ियोंवाली को लेकर आया है।''

लालता इस सूचना से चौंका, जैसे सांप के फन पर पैर पड़ गया हो। लेकिन सहसा इस बात पर यकीन कर लेना उसे नागवार लगा। वह बेटे को सिर्फ प्यार ही नहीं करता था बल्कि उस पर अंधा विश्वास भी करता था और इन दिनों वह उसके लिए सुंदर-सुशील दुल्हन की तलाश में था। कितनी जगह से रिश्ते आ रहे थे और उसका मन कहीं टिकता नहीं नहीं था। वह गुर्राया, ''क्या मतलब? ''

सुगनी धम्‍म से जमीन पर बैठी और सुबकने लगी, ''शंकर किसी की औरत भगा लाया। ज्वान मरे ने हमारी नाक जड़ से ही कटा दी।''

''क्या बक रही है?'' वह चीखा, ''तूने औरत को घर में घुसने ही क्यों दिया? धक्के मार कर निकाल देती।''

 

उसने तो सचमुच उसे बाहर निकाल देना चाहा था। लेकिन क्या करती? बाहर पानी बरस रहा था। ऐसे में फिर वह उसे देखकर हक-बक रह गई थी। इसके अलावा उसके पास एक औरत का दिल भी तो है। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह जानती थी कि उसका आदमी उसकी कमजोरी पर चिल्लाएगा। शायद वह इसके लिए अपने को तैयार कर रही थी।

''और वह साला चोर कितनेकी तरह भाग गया।'' लालता ने हिकारत से कहा और बीड़ी सुलगाने लगा।  

''वह मुसीबत में है। कह रहा था कि लोग उसका कत्ल करने के लिए उसके पीछे लगे हैं।''

''अच्छा है, वे उसका कत्ल कर दें। उनसे नहीं हुआ तो मैं उसका गला रेत दूंगा।''

सुगनी को अपनी आदमी की बात बुरी लगी। हालांकि शंकर ने जो किया था वह भी माफ किए जाने वाला अपराध नहीं था।

''मेरे दफ्तर से लौटने तक औरत का पत्ता साफ हो जाना चाहिए।'' लालता ने हुक्‍म दिया और बीड़ी का कष्ट खींचा। लेकिन वह भूल चुकी थी। उसने बुझी बीड़ी जमीन पर फेंकी और उसे पैर से मसलने लगा, हालांकि इसका कोई मतलब नहीं रह गया था। बीड़ी बुझते ही दयनीय ढंग से अपनी शख्सियत हो चुकी थी।

 

सुगनी कोई जवाब दिए बिना उठ गई। उसे मालूम था कि वह ऐसा नहीं कर सकती। हालांकि औरत उसके गले की फांस है। फिर भी उसे धक्के मारकर कैसे निकाल सकती है। वह शंकर के विश्वास पर अपनी दुनिया में आग लगा कर आई है।

यह बात तो लालता भी जानता था। वे गहरे संकट में फंस गया। यूं वह फक्कड़ मस्त और 'फिकर नॉट' किस्म का आदमी था। भयानक किस्म की उत्सव प्रियता उसके खून में थी। वह उस जगह भी उत्सव ढूंढ लेता, जहां उत्सव का नहीं बल्कि शोक का अवसर होता। लेकिन यह मामला नाजुक था कि...

वह सरकारी नौकरी मैं था, जिसे वह अपने अमुक प्रदेश में लटकी हुई मानता था और उसके अनुरूप आचरण भी करता था। लेकिन इसके बावजूद वह इन दिनों जमादार खलासी के सम्मानित पद पर था। नौकरी के अलावा वह 10 बीघा उपजाऊ जमीन का मालिक था। वह गांव में रहकर किसानी करता और वहां से ही जंगल नदियां और आबादी पार करके 10 किलोमीटर पैदल नौकरी पर जाता। नौकरी पर पहुंचने के इस क्रम को वह सरकार पर उसके विनम्र सेवक का उपकार मानता और उपकार की इस पवित्र भावना से उसकी आत्मा इतनी भव्य रहती कि कोई दूसरा सरकारी काम करना उसे अपनी गरिमा के विरुद्ध लगता। वह अपनी मर्जी का मालिक था और मर्जी के हिसाब से ही नौकरी करता था। आए दिन उसे मेमो मिलते रहते और उन्हें उन दस्तावेजों के बीच संभाल कर रख लेता, जिन्हें भावी पीढ़ियों के लिए रखा जाना जरूरी होता। इसके अलावा वह जुलूस में सबसे आगे रहने वाला यूनियन का सदस्य था। और इसे भी ज्यादा वह अभिनय-कला का उस्‍ताद था, और नौकरी करने के गुर जानने के साथ पक्का कानूनची था। डांटे-फटकारे जाने पर वह अधिकारी के चेंबर में बेहोश होकर गिर पड़ता और सरकार की जान सांसत में डाल देता।

 

आखिरकार अधिकारी उसे हार गए और उन्होंने समझौते का एक सम्मानजनक तरीका निकाल लिया। उसे प्रोन्‍नत करके जमादार खलासी बना दिया गया। वह खलासियों की हाजिरी लेकर उन्हें काम पर लगा देता और दिन भर मस्ती मारता। मस्ती और फक्कड़पन उसके जीवन का दर्शन था। लेकिन इस बार उसकी मस्ती झड़ गई। उसे पहली बार जीवन के सूत्र अपने हाथ से फिसलते हुए महसूस हुए। वैसे, उसका जीवन संकट मुक्त कभी नहीं रहा। जीवन में संकट आते रहे। उसे कठघरे में खड़ा करके सवाल पूछे जाते। वह मुस्कुराकर उनके जवाब देता, जो उसके हिसाब से भोले, संस्कारवान और शालीन किस्म के होते लेकिन सरकार उन्हें हास्यास्पद, चालाक और मक्कारी भरा मानती, जिनसे अधिकारियों के किसी संवेदनशील अंग में आग लग जाती। उसने हर संकट का बहादुरी से सामना किया और हर बार विजयी रहा। लेकिन यह संकट एकदम दूसरी तरह था, जहां अपराधी की जगह उसका बेटा शंकर कटघरे में खड़ा था। यह सचमुच बहुत संकट की बात थी।  

 

शाम को दफ्तर से घर लौटते हुए उसका सीना तेजी से धड़क रहा था। पहली बार उसे अहसास हुआ था कि उसके भीतर सीना है, जो धड़कता है और कुछ ज्यादा तेजी से धड़कता है। आसमान भूरे काले बादलों से ढका हुआ था। लेकिन वे बरस नहीं रहे थे और उमस थी। वह पसीने से लथपथ था और थका हुआ था। एक दिन में ही जैसे वह बूढ़ा हो गया था घर की दीवारों पर काई की परत जमी थी, जो जाहिर है सिर्फ एक दिन में नहीं जमी होंगी, लेकिन लालता को लगा, जैसे यह सब बस लम्हों में ही हो गया।

 

वह आते ही निराश-हताश चारपाई पर गिर गया। सुगनी पंखा लेकर दौड़ी। सिरहाने पर बैठी और झलने लगी। जीवन में पहली बार ही ऐसा हुआ था कि वह उसे पंखा झल रही थी। लेकिन यह भी तो पहला ही अवसर था जब वह इतना टूट गया था।

''शंकर लोट।?'' पंखे की मद और मीठी हवा के बीच उसने पूछा।

''अभी तो नहीं।'' पता नहीं कहां उचट गया?'' उसकी आवाज रूंध गई।

''और औरत...''

सुगनी ने कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन वह पूर्ववत पंखा झलती रही।

लालता खदबदा गया। पंखा झलकर उसे आत्मदाह का मोहताज बनाया जा रहा है, जो जीवन भर दुसाध्‍य-विजय योद्धा रहा है। विध्वंसक उत्तेजना में उसकी आंखें से अंगारे बरसने लगे। वह चारपाई पर उछल कर बैठा और चिल्लाया, ''जवाब क्यों नहीं देती हरामजादी?''

सुगनी काठ हो गई। उससे कुछ बोला ही नहीं गया।

लेकिन इस बार चूड़ियां खनखनाई। दर्पहीन। निर्दोष और आत्मविश्वास खनखनाहट। औरत दरवाजे के पीछे खड़ी थी और उसके सवाल का जवाब दे रही थी। जवाब में उसने किसी रियायत की मांग नहीं की थी। लेकिन वह अपना अधिकार छोड़ने को भी तैयार नहीं थी।

चूडि़यां जितनी देर बजी थीं, उससे बहुत देर तक लालता के दिमाग में बजती रहीं कि उसका दिमाग पके फोड़े की तरह धपधपाने लगा। इस खनक से सुगनी के भीतर भी कोई कोना झनझना गया। स्निग्‍ध करूणा-सा कुछ उसका अमूमन झुका रहने वाला सिर तन गया। ''मैं ऐसा कैसे करूं? इतनी जवान-जहान लड़की को सोचो वह हमारी लड़की होती तो?''

''मेरी लड़की ऐसा करती तो मैं उसकी टांगे चीर कर उसे ऐसी जगह गाड़ता जहां पानी भी नसीब न होता।''

''दोष केवल उसका ही नहीं, शंकर का भी तो है।''

''दोष केवल औरत का होता है। उसने मुनियों और देवताओं के ईमान बिगाड़ दिए। शंकर किस खेत की मूली है। आज इसने शंकर को डसा है। कल तुझे भी डसेगी। दो घरों पर छाया पड़ी है इसकी। मैं अपना घर बर्बाद होते नहीं देख सकता। आदमी का मामला होता तो मैं खुद सुलट लेता।'' लालता ने सख्त और ऊंची आवाज में कहा, ताकि औरत उसे सुन सके और जान जाए कि उसके बारे में उनकी क्या राय है।

इसके बाद उनके बीच काफी देर तक फुसफुसाहट में मंत्रणा होने लगी। इसमें औरत के कारण आने वाले संकटों और औरत से निजात पाने के बारे में गंभीर विमर्श होता रहा। सुगनी छुटकारा तो चाहती थी, लेकिन कोई ऐसा कदम उठाने में हिचकी जा रही थी, जो नारी गरिमा के प्रतिकूल हो। आखिर वह भी घर गृहस्‍थी वाली है और समाज में उसकी इज्जत है। लेकिन अंत में वह औरत के रोटी-पानी बंद करने की अपने आदमी की बात मान गई। हालांकि यह काम मुश्किल था। घर में आए को, चाहे वह दुश्मन ही हो, भूखा कैसे रखा जा सकता है ? लेकिन इसके अलावा कोई चारा नहीं था। औरत से किसी तरह छुटकारा पाना ही था।

वह कठोर निर्णय के साथ भीतर आई और उसने देखा। औरत चौके में खाना बना रही है। चूल्‍हे के ताप से कांसे की कटोरे-सा दिपदिपाता चेहरा। पसीने से मोहक और कोमल गाल। बंधन से छूट से बाल, आंखों से बहने को आकुल काजल। अस्त-व्यस्त जैसे पूरे मौसम में बिखरी हो। बगल में गौरी बैठी है। वह कुछ बतिया रही है और गौरी हंसी से लोटपोट हो रही है। सुगनी हतप्रभ रह गई। औरत ने चुपचाप रसोई पर कब्जा करके घर के भीतरी राज पर अधिकार जमा लिया है। उसे महसूस हुआ कि वह एकाएक  बहुत असहाय, असुरक्षित और शक्तिहीन हो गई। पल-भर के लिए वह ठगी-सी खड़ी रहे गई। फिर उसे होश आया और गुस्से में दनदनाई, ''यह क्या हो रहा है? और तू करमजली गौरी मूं फाड़के कैसे खितखिता रही है।''

''हाय कितनी अच्छी और हंसोड़ है भाभी।'' मां की डांट की परवाह न करते हुए उसने कहा। वह  अब भी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।

 

भाभी कहे जाने से सूखने के दिमाग में धांय से गोली दग गई। ''अभी बताती हूं तुझे। इस पतुरिया के साथ रिश्ता जोड़ती है कमबख्त। मेरी आंखों से ओझल हो जा। काट के फेंक दूंगी तुझे। ये तो डायन है। इसमें शंकर पर घात मारी अब तुझपे भी मार दी। घर का पटरा करके रहेगी।

गौरी वैसे ही खड़ी रही। औरत की रक्षा के लिए सन्‍नद्ध। शायद मां के विरोध में पहली बार इतनी हिम्मत से खड़ी हुई थी।

उसके व्यवहार से सुगनी आपे से बाहर हो गई। उसने उछलकर चूल्‍हे से जलता हुआ मुराड़ा खींच लिया। लेकिन इससे पहले कि वह गौरी की पीठ पर प्रहार करती, औरत ने उसका हाथ थाम लिया। ''गौरी का क्या कसूर। कसूरवार तो मैं हूं। मारना है तो मुझे मारिए।''

सुगनी हार गई। जलते मुराड़े से ज्यादा आंच थी औरत की भयहीन आंखों में। उसका हाथ शिथिल होकर झुक गया। मुराड़ा फेंककर वह धम्म से से जमीन पर बैठी और कातर दयनियता से प्रार्थना करने लगी, ''हाथ जोड़ती हूं तू घर चली जा।''

''उस घर से नाता तोड़ लिया। कहां जाऊं?''

''जहन्नुम में जा। हमने तो कहा नहीं घर छोड़ने को। ऐसी सिरफिरी नहीं हूं कि दूसरे का ढोल अपने गले बांध लूं।

''अब तो इस घर से नाता जोड़ लिया।'' औरत ने गहरे आत्मविश्वास से कहा और रोटी सेंकने लगी।

सुगनी ने झपट कर उसके हाथ से परात छीन ली और भारी-मन रोटियां थपकने और सेंकने लगी। वह अकसर मीठा-सा सपना देखा करती थी। वह चौधराइन की तरह पाटी पर बैठी है और शंकर की दुल्हन उसे रोटियां बना कर खिला रही है। खाना बनाते हुए थक गई वह। अब तो मन पोते-पोतियों को गोद में बैठाकर दुलराने को हुलसता है। कैसा है सपनों का खेल! इन्‍हें देखे बिना कोई नहीं सकता और यही सबसे ज्यादा रुलाते भी हैं। रोटियां सेंकते हुए उसकी आंखें भभक रही थीं। मन में रह-रहकर ज्वार उठा रहा था। सब कुछ ध्‍वस्‍त कर दिया इस औरत ने...

औरत चुपचाप बैठी टकर-टकर उसे देख रही थी। आंखें भी तो कितनी बड़ी है कमबगत की।  मानो सब कुछ उनमें डूबा है।

पता नहीं एक बार मन में तड़प-सी क्‍यों हुई। उसके मन की व्यथा पूछ ले। भरा-पूरा घर क्यों छोड़ दिया। नहीं पूछा। क्या पूछना। कहानी तो हर जगह एक ही है। कहीं चमकदार कारागार है। कहीं बियाबान जंगल। बस चुपचाप रोटियां सेंकने लगी, जो या तो कच्ची सिंकती या फिर जल जातीं। उसे झुंझलाहट हुई उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर तो वह रोटी बनाना ही भूल गई। चूल्हे में आग भरभरा रही थी और वह बाहर झमाझम पानी बरस रहा था।

 

रोटी खिलाते हुए उसका संकट और गहरा गया। वह उसे खाना ना देने के उद्दाम संकल्प के साथ आई थी। लेकिन जब वह खाना खिलाने लगी तो भीतर कुछ डोलने लगा। क्या है जो भीतर छीजता है। गुस्से में भी छीजता ही रहता है। उसने औरत की और देखा। वह उसे लहरों में हिचकोले खाती पतवारहीन नाव की तरह लगी। मरजानी खूबसूरत भी तो कितनी है। धूप-सी उजली। भगवान बदमाशों को इतनी फुर्सत से क्यों गढ़ता होगा? मन है जो फौलाद की तरह सख्त हो जाता है और अगले ही झण मोम-सा पिलने लगता है। मुंह फुलाना उसने खाना लगाया और थाली उसकी ओर सरका दी।

औरत ने आभारी नजरों से सिर उठाया और थाली वापस कर दी। ''आप नहीं चाहतीं। फिर मुझे नहीं खाना।''

सुगनी का चेहरा फक्‍क हो गया। हे भगवान, दिल की किताब कैसे पढ़ लेती है कमबख्‍त। फिर भभक गई, ''हां क्यों खाएगी? मेरा कलेजा जो खाना है। कहे देती हूं, देहरी पर परान भी छोड़ दे, बहू कबूल नहीं करूंगी। इज्जत से बढ़ा भी कुछ होता है? पर तू क्या जानेगी। इसे तो तू बेच कर खा गई।''

औरत ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उठी और सिर झुकाए रसोई से निकल गई। सुगनी की आंखों से अब तक चिंगारियां फूट रही थीं। लेकिन औरत के जाते ही उसे लगा खाली हो गई है।  चूल्‍हे के अंगारे ठंडे पड़ गए थे। राख भी। बाहर झमाझम पानी बरस रहा था। बाहर ही नहीं,  उसके भीतर भी...

रात उसे नींद नहीं आई। मन में कुछ गलता रहा। जब भी आंख लगती औरत की आंखें मन में तैरने लगतीं।

औरत ने तीन दिन से अन्‍न पानी नहीं छुआ। सुगनी नी भी नहीं पूछा। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें तेज हो गई। पलकों के नीचे महीन काली परछाई तैरने लगी। होंठ खुरदरे पड़ गए और चेहरे पर जगदीशझिझकती-सी दूधिया सफेदी पसरने लगी। वह निढाल दरवाजे की ओटली पर बैठी फीकी हंसी हंस देती और सभा में सेमल की दूरी रूई-सा कुछ भी बिखर जाता। सुगनी की जान सांसत में पड़ गई। दरवाजे पर वह भूखी बैठी रहे, उसके गले में कौर फूल जाता। हे भगवान, कैसी विपत्ति में डाल दिया, इस औरत ने। वह बिना लड़े उसे हरा रही है। उसने अपने आदमी से कहा तो उसने भी उसके संकट को हवा में उड़ा दिया, ''तू औरतों को नहीं जानती। ये बहुत नटनियां होती हैं। पेट अच्छे-अच्छों के छक्के छुड़ा देता है। चार दिन में अकल ठिकाने आ जाएगी और भागती नजर आएगी।''

 

औरत अजगर की तरह उसकी भी छाती पर पसरी है। किसी न किसी तरह निजात तो उसे भी पाना है, पर वह आदमी की तरह निर्दय तो नहीं हो सकती। उसकी देहली पर भूखी मर गई तो क्या होगा...

थाली उसकी ओर सरकाते हुए उसने कहा, भौत मत सता मुझे। चुपचाप ये खाना खा। कमजोर भी मत समझना। आन की मैं भौत पक्की हूं।''

औरत ने कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप खाने लगी। उसका चेहरा एकदम सपाट था। पता नहीं चला वह तय किये थी या उपकार की भावना से भरी थी।

''पैर पड़ती हूं तेरे।''

औरत की स्थिर-शून्‍य आंखें हल्के से कांपीं। ''इनके नाम का सिंदूर डाल लिया।''

सुगनी के भीतर कुछ धधकने लगा। उसने जलती हुई आवाज़ में कहा, ''और जिसके नाम का पहले सिंदूर डाल।''

''वह तो जबरदस्ती थी। मन से तो मैं कभी नहीं जुड़ी।''

इस बार सुगनी के अंदर कुछ टीसने लगा। कोई अनचीहा फोड़ा जैसे सहसा खुला और धपधपाने लगा।

''वह तुझे मारता था? रोटी कपड़ा नहीं देता था?''

''नहीं। कोई कमी नहीं थी।''

''चोर, पियक्कड़, जुवाड़ी, लफंगा था या, नामर्द था?''

''नहीं। अच्छा था। बस वफादार नहीं था।''

''आदमी का क्या वह तो छुट्टा सांड है। दस जगह मुंह मारने को ललचाता है। आदमी तो उसे औरत ही बनाती है। अपने प्यार और वफादारी से।''

औरत ही क्यों प्यार करे और वफादार रहे?''

''तुझे रोटी, कपड़ा, घर और इज्जत दिया। इससे ज्यादा और क्या चाहिए?''

''मैं तो इससे कम में गुजारा कर लेती। लेकिन जो चाहिए था...''

''मैं भी जानू क्या चाहिए था?''

औरत असमंजस में पड़ गई। समझ में नहीं आया क्या बताए।

''उससे छूट हो गई?''

''नहीं। छूट तो मन की है। मन ही नहीं मिला तो...''

''वह तेरी बोटी-बोटी नोच लेंगे। उनके हत्थे नहीं चढ़ी तो यहां भी तेरा वही हाल होना है। अब भी वक्त है। लौट जा। मेरा दिल कहता है मैं तुझे माफ कर देगा।''

''कदम एक बार बाहर निकल आए गया तो...''

''भौत मोटे कलेजे की औरत है। खाता पीता घर और इज्जत करने वाले मरद से ज्यादा क्या चाहिए। अपनी दुनिया पे अपने हाथ से आग लगाई तूने। कसूर किसी का नहीं, तेरा है। अब जीवन-भर इस आग में जल। अपने जीते-जी तो मैं तुझे घुसने नहीं दूंगी। गांठ बांध ले।'' सुगनी ने हवा में हाथ लहराते हुए निर्णायक स्वर में कहा। उसके लहराते हुए हाथ की चूड़ियां हवा में खंजर की तरह झनझनाने लगीं।

औरत ने खाना खत्म किया और बिना एक भी शब्द बोले बर्तन मांजने लगी। बहुत सलीके से मांज रही थी। कमर से ढुलककर चुटिया नीचे गिरती तो वह कुहनी से उसे संभाल कर हल्‍का-सा झटका दे देती। खुद कमची-सी लचक जाती और कांसे-सी झनकने लगती, लेकिन ना हवा सनसनाती और न आवाज होती। चित्र-लिखित-सी, दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर-सी, लेकिन सुगनी को यह फूटी आंख न सुहाया। खूब शहराती नखरे हैं, औरत के माने तो बस एक सीधा सच्चा गांव है। ये लच्‍छन उसे नहीं रिझा सकते। धोखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया।

इस  छोटी-सी वार्ता के बाद अगली वार्ता की संभावना खत्म हो गई। कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। उधर औरत की संदिग्ध उपस्थिति कपूर की गंद की तरह गांव-बिरादरी में फैलने लगी।

तरह-तरह की अफवाहें। थू-थू, संदेह और धिक्‍कार जो इस घटना की स्वाभाविक, जायज और रचनात्मक परिणति थी और इसका विरोध करने का नैतिक अधिकार इस घर के पास नहीं था। जमादार खलासी का वह गर्वोन्‍मत सिर जो दस बीघा जमीन की हैसियत और छोटी सरकारी नौकरी, जिसे उसने अपनी कार्यशैली की वजह से शानदार और सम्मानजनक बना दिया था और जिसमें वह तीस खलासियों का सर्वेसर्वा था, ऐसे झुक गया जैसे उस पर कूड़े का टोकरा लदा हुआ हो। उसकी कड़क मूछों के बल ढीले पड़ गए। अपमान-बोध ने उसकी सारी मस्ती और शौर्य को करुण कातरता में बदल दिया। अभी पुलिस, कोर्ट-कचहरी वगैरह, पता नहीं कितने संकट पैदा होने हैं। उसकी नींद-भूख गायब हो गई। पहली बार उसने जाना की तारे रात में ही नहीं दिन में भी निकलते हैं। पहली बार ही एक ऐसे संकट में फंसा था, जो उसने पैदा नहीं किया था और जिसकी कोई काट उसके पास नहीं थी।

वह और सुगनी औरत को जितना डांट फटकार सकते थे और उसे भगाने के जितने हथकंडे अपना सकते थे, सब अजमा चुके। औरत पर कोई असर ही नहीं हुआ। वह जोंक की तरह चिपक कर उनका खून पी रही थी। वे रातों में जाकर उससे मुक्ति पाने की योजनाएं बनाते। ये काफी खतरनाक किस्‍म की होतीं, लेकिन औरत की एक भंगिमा उन्‍हें साबुन के झााग में बदल देती। हर विरोध के बाद वह संस्कारित होकर ज्यादा घरेलू होती जाती और उनके सारे हथियारों को भोंथरा कर देती। इस लड़ाई में वह अकेली थी, सिवा गौरी के। उसकी निगाह में वह नायिका थी, जिसने अपने प्यार की खातिर सब कुछ दांव पर लगा दिया था और इतने अन्याय से रही थी। उसका पहनावा, सलीका और विशेष रूप से उसके भीतर से आती भीनी-सी शहरी गंध से वह सम्‍मोहित-सी रहती। लेकिन आठवें दर्जे में पढ़ने वाली कमजोर लड़की, जिसके अंग्रेजी के हिज्जे एकदम गड़बड़ थे और गणित के सवाल देख कर ही जिसे चक्कर आते थे, उस पे होने वाले जुर्मों के खिलाफ सिर्फ हमदर्दी ही जता सकती थी। ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक जर्नल सिंह को इस घटना की जानकारी थी। शंकर को उसने औरत के घरवालों की गिरफ्त में आने के बचाव के लिए माल का ट्रक लेकर असम भेज दिया था।

एक रात औरत को तूफान, कड़कती बिजली और बारिश में भार धकेल दिया गया। उसने कुछ रात भीगकर और बाकी रात गोठ में गोबर की बदबू और मच्‍छरों को झेलते हुए काटी और सुबह दरवाजा खुलने पर ऐसे अंदर आ गई मानो कुछ हुआ ही नहीं और काम में जुट गई। ऐसे ही जो कुछ भी गुजरता वह उसे बिना किसी शिकवे के चुपचाप सह लेती। लालता कई मर्तबा खून का घूंट पी लेता और कई बार उसके सिर पर औरत की हत्या तक करने का जुनून सवार हो जाता। हत्या के ऐसे ही जुनून में वह एक  दिन गंड़ासा निकाल कर उसकी तरफ दौड़ा। सुगनी भय से कांपने लगी और गौरी रोने लगी। लेकिन औरत के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आई। वह निर्भय खड़ी रही। लालता के हाथ का गंडासा झुक गया। उसे अपनी मर्दानगी पर अफसोस हुआ और उसकी इच्छा हुई इस गंड़ासे से अपनी ही हत्या कर ले।

औरत न विरोध करती और न डरती। गौरी को तो वह बेहद प्यार करने लगी। वह बीमार पड़ी तो औरत रातों में जाकर उसकी तीमारदारी में जुटी रही। लेकिन सुगनी को लगा कि वह गौरी के जरिए घर में सूराख बना रही है। लालता उसके सेवाभाव से और भी ज्‍यादा बिदक गया। वह कौनी होती उसके घर में दखल देने वाली। उसकी घृणा निरंतर बढ़ती जा रही थी। आखिर उसने फैसला ले ही लिया कि शंकर लौट आए तो उसे घर से बाहर निकाल देगा। दिल पर पत्थर रखकर लिया गया फैसला, लेकिन यह अंतिम था। यह जमादार खलासी का फैसला था, जिसने बड़े बड़े अफसरों को पानी पिलाया था।

दफ्तर की छुट्टी थी। हफ्ते की दौड़-भाग के बाद एक समूचा और  भरा-पूरा अपना दिन। लेकिन जब से औरत आई थी छुट्टी का दिलकश दिन लालता को गहरी मानसिक यंत्रणा देने लगा था। लगता छुट्टी का दिन कैद का दिन है। औरत का चेहरा बार-बार उसकी निगाहों से गुजरता। उसके सिर की नसें तिड़कने लगती और दिल में भट्टी-सी दहकने लगती। औरत ने सिर्फ उनका बेटा ही उससे नहीं छीना था, उसका सुखचैन मान सम्मान इज्जत आबरू गांव जवार नाते रिश्ते सब कुछ उससे छीन लिया था। वह पंगु हो गया था और किसी के भी सामने आंखें उठाने का उसका नैतिक साहस डिग गया था।

वह बिना कलेवा किए मुंहअंधेरे ही दूर-पार के खेतों में चला गया। कोई काम नहीं था। बस ऐसे ही दिनभर। वह आवारा बादल के टुकड़े की तरह भटकता रहा। कभी भी चैन नहीं। वह जिस समय भूखा, लस्‍त-पस्‍त और थका हारा लौट रहा था, अजीब-सी विवशता और पराजय के साथ था। उस समय दिन ढल रहा था। सावन की वह धूप जो किसी वरदान की तरह होती, सिमट रही थी। लेकिन आसमान के ऊपर एक ऐसा खूबसूरत इंद्रधनुष खींच रखा था, जैसा मौसम में कभी-कभार ही निर्मित होता है। आंगन के पार खेतों में मक्का के पौधे अनोखी गरिमा और वैभव के साथ इठला रहे थे। वहा के हल्‍के परस वे हिलते और मौसम कच्चे भूटटों की महक से भर जाता।

अचानक कहीं से दौड़ता हुआ बछड़ा आया और खेत में घुस गया और बहुत से पौधों को कुचलता हुआ बाहर निकल गया। लालता के भीतर हर्र से कुछ गूंजने लगा। जैसे आंतों में ठंडा चाकू उतर गया है। लेकिन वह पस्त था और शायद जीवन से हारा हुआ भी। उसके पैरों ने दौड़ने से इंकार कर दिया।

औरत आंगन में सहन की देहरी पर बैठी गोरी से बतिया रही थी। लालता की अनुपस्थिति से वह सहज थी। कुचले पौधे देखते ही उसके भीतर से चीख निकल गई, जैसे मुट्ठी में भरकर ह्रदय भींच दिया गया हो। वह तड़प कर उठी, खुर्पी लेकर दौड़ी और कुचले हुए पौधों को मिट्टी का सहारा देकर फिर से खड़ा करने लगी। तब तक लालता आंगन में पहुंच गया था। वह सम्‍मोहित-सा औरत को देखने लगा, जो मिटटी पौधों को खड़ा करके दुलार रही थी। मां जैसे अपने बच्चे को दुलारती है। उसकी मिटटी चढ़ाती उंगलियां मौन संगीत सिरज रहीं थी और पति का सारा वैभव, ममता और सौंदर्य उसके चेहरे पर उतर आया था।

वह पौधे खड़े करके लौटी तो स्तब्ध रह गई। उसके मिट्टी-भरे, पहली बारिश में सूखी धरती से उठती सोंधी पास से महकती हाथ थिरक कर रह गए। अस्त-व्यस्त आंचल वैसा ही रह गया। बिखरे बाल, बिखरे ही रह गए और आंखों के क्षण भर पहले के सुख पर सहसा भय की काली परछाई पर फैल गई। सामने लालता खड़ा था और आंगन के पार देहली पर पता नहीं क्या घट जाने की आशंका से जड़ गौरी। आसमान में अपने घरों की ओर लौटते हुए पंछी थे और पंछियों के ऊपर दौड़ते ओर घिरते बादल थे।

लालता ने आंख उठाकर औरत की और देखा। वह मेमने की तरह सहमी हुई थी। लेकिन यह विस्मयकारी था कि इस सहमी हुई कमेरी औरत के सामने लालता के भीतर का शेर ममता के झरने से फूट रहा था और अनिर्वचनीय सुख से उसकी आत्मा को भिगो रहा था।

''बहू चाय बना। बहुत भूख लगी है।'' उसने कहा।

उसके सूखे कठोर चेहरे पर सर्दियों की मीठी धूप से उतर रही थी।

Saturday, December 19, 2020

लहू बहाए बिना कत्‍ल करने की अदा

 

किंतु परन्‍तु वाले मध्‍यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्‍तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु उपजते हैं तो उपजे, उन्‍हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।

जो कुछ जैसा दिख रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्‍या हैं, उनके देखने के मंतव्‍य क्‍या हैं और उस देखने का दुनिया से क्‍या लेना देना है ? ये तीन प्रश्‍न हैं जिन पर एक-एक कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्‍ता तलाशा जा सकता है। उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।

नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्‍यादा साफ तरह से समझा जा सकता है। 

‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक से जो कुछ ध्‍वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्‍तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही महत्‍वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्‍य की कविताओं से परिचित होने का अवसर सुलभ कराती है।  यह पुस्‍तक एक रचनाकार के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्‍मेदार आलोचक के दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।

नीलकमल से आप सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का अनुपात ज्‍यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित नहीं होगा, क्‍योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्‍य ही अलक्षित रह जाने वाला है। फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्‍दु भी तो खुद असहमति की उपज है। य‍ह सीख देता हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।

बेशक, पुस्‍तक में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन उनके विश्‍लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्‍यापक लेखन और उसके लेखन पर विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्‍लेषण के तरीके में वस्‍तुनिष्‍ठता एक अहम बिन्‍दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में उतना ही सत्‍य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्‍यंजना में। यह भी उतना ही सच है कि व्‍यंजना को भी अभिधा के सत्‍य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के साथ भी करते हैं।

यही बिन्‍दु उन्‍हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्‍पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रश्‍न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्‍तु को निर्धारित कर रहे हैं।

नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्‍कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्‍हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’ पर टिप्‍पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्‍लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्‍तार देने की बजाय उसे साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्‍तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्‍थे के जत्‍थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्‍हें उनके लक्ष्‍यों से भटका भी देती है। साहित्‍य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्‍वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्‍प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्‍मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्‍पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।

नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्‍मसात करना और उसे इस्‍तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्‍न एवं असंगत व्‍यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्‍कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्‍कड़ अंदाजों को आत्‍मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्‍मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार, वस्‍तुनिष्‍ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्‍य है कि वस्‍तुनिष्‍ठता पर नील कमल का अतिरिक्‍त जोर है। कमलादासी के दुख को देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवास का प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्‍तुनिष्‍ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्‍चर्य होना स्‍वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्‍यों से मिलाते हुए कविता का विश्‍लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्‍यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्‍परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्‍यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं। 

ध्‍यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्‍न प्रकार के उत्‍पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्‍पाद फरमेंटशन की पारम्‍परिक प्रक्रिया का उत्‍पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्‍पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्‍पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्‍यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।

कविताओं में लोक के पक्ष को प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्‍य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्‍ता के अन्‍तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्‍य और प्रकृति के सह-अवस्‍थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्‍त स्‍तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्‍वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्‍कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्‍पना करता है तो उस कल्‍पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।

एक सच्‍चे साधक की कल्‍पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्‍वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्‍दु है। असाध्‍य वीणा का वह लोकेल क्‍या उस प्रतियोगिता से भिन्‍न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्‍टताबोध को जन्‍म दे रहा है। वह विशिष्‍टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्‍टय की अर्हता से छिन्‍न-भिन्न कर दे रहा है ?

राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्‍वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्‍न है असाध्‍य वीणा को स्‍वर दे सकने की अर्हता।

लोक को विशिष्‍टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्‍थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्‍ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्‍दा से उम्‍दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्‍पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्‍टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्‍थापना के आधार हो गए होते। उन्‍हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्‍वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्‍छाओं के स्‍वप्‍नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।

आलोकधनवा की कविता पर टिप्‍पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्‍लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवाद को चस्‍पा कर दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्‍लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्‍त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्‍लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्‍यवाहारिक सफलता को संदिग्‍ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्‍यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।     

आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्‍त हो। खास तौर पर नील जिस सकारात्‍मक तरह से आलोचना विधा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्‍वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्‍थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’

इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्‍कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।

सिर्फ इस जिम्‍मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद  भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्‍त नहीं, क्‍योंकि चमकीले स्‍वप्‍नों की बजाय वे स्‍वप्‍न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्‍थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्‍मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।     



नील कमल के ही शब्‍दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्‍ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्‍मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्‍मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।

नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।