Friday, July 15, 2022

आत्म सम्मान की चेतना

हिन्दी आलोचना का परिदृश्य इस कदर उदार है कि बहुत सामान्य रचना को भी असाधारण साबित कर देने में हर वक्त उपलब्ध रहता है। पाठकों को उसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ता । जैसे ही किसी परिचित या दोस्त-रचनाकार की रचना के प्रकाशन की सूचना आती है, रचना के प्रकाशन के अगले दिन ही उसके असाधारण होने के प्रमाणपत्र जारी होने शुरु हो जाते हैं। लेकिन आलोचना की उदारता के ऐसे उपक्रम से जारी प्रमाणपत्र को पाना हर किसी रचनाकार के लिए आसान नहीं। वरना पाठक चंद रचनाकारों और उनकी ही रचनाओं से परिचित होते रहने को अभिशप्तन न होते।          खैर,अभी हम हिंदी के एक लगभग अज्ञात से लेखक की कहानियों से थोड़ा रुबरू होने की कोशिश कर लेते हैं। 85 वर्ष की उम्र से ऊपर के इस लेखक के उस पहले कहानी संग्रह से परिचित हो लेते हैं, जीवन भर लेखक द्वारा 400 से अधिक लिखी गयी कहानियों के बावजूद वह मात्र 22 कहानियों की एक जिल्दा के रूप में ‘’अन्तू से पूर्व’’ होकर देखने में आ रहा है। अलबत्ता इस संग्रह से पूर्व लेखक के आठ उपन्यास,एक लघुकथा संग्रह और आत्मकथा प्रकाशित है। तब भी इस साधारण से लेखक की साधारण-सी कहानियों में से एक असाधारण कहानी को ढूंढना और उस पर बात करना क्यों जरूरी है ? क्या यह कोशिश भी हिंदी आलोचना के उस परिदृश्य की ही तरह की कोशिश है, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, या, इसके मायने इस धारणा पर निर्भर कर रहे कि आलोचना का कर्म एक जिम्मेदारी का कर्म बन सके ? इन सवालों के हल ढूंढने से पहले ''अन्त से पूर्व'' कथा संग्रह के लेखक मदन शर्मा के नाम से परिचित हो जाना जरूरी है। उम्‍मीद की जा सकती है कि उनके द्वारा लिखे गये बेहद आत्मीय संस्मरणों से इस ब्लाग के पाठक अच्‍छे से परिचित होंगे।                                                    ‘सुबह होने तक’, ‘भीतर की चीज’, ‘बाबर’, ‘चोर’, ‘रफ ड्राफ्ट’, ‘देश’ एवं ‘मिस्टार और मिसेस सिन्हा्’, इस संग्रह में ये सात कहानियां ऐसी हैं जिनके कथ्य ही नहीं, बल्कि उसके ट्रीटमेंट का तरीका और उस ट्रीटमेंट से प्रकट होते कथा के आशय मदन शर्मा को अन्य किसी भी हिंदी लेखक से जुदा कर देते हैं। अपने आशयों के कारण इन कहानियों की मौलिकता अनूठी है। ‘भीतर की चीज’ इस ब्लाभग के पाठकों के लिए यहां बानगी के तौर पर पुन: प्रकाशित की जा रही है।            ‘भीतर की चीज’ का कथ्य इस बात की ताकीद कर रहा है कि आत्म सम्‍मान की रक्षा का पाठ कामगार की चेतना ही नहीं, बल्कि मालिक-दुकानदार की चेतना का भी वारिस हो सकता है। शोषण के प्रतिरोध में शोषित के प्रति सदइच्छााओं वाली रचनाओं के संसार के बीच उल्लेखित कहानी का यह कथ्य उस मौलिकता का स्प्ष्ट साक्ष्य है जिसके जरिये यह देखना संभव हो जा रहा है कि कहानी के मालिक-दुकानदार की शक्ल् ओ सूरत डिजीटल भाषा में संदेशों को दोहराने वाले उस मालिक-दुकानदार से भिन्न है, विकसित होती गयी तकनीक को जिसकी सेवादारी में तत्पर रूप से प्रयोग किया जा रहा है। कहानी का यह पात्र देशी बाजार का वह मालिक-दुकानदार है, बड़ी पूंजी ने जिस पर हमला इतना तीखा किया है कि आज उसको ढूंढना ही मुश्किल है। कहीं कस्बों, देहात में उसके रंग रूप की छटा दिख जाये, बेशक। प्रताड़ना को झेलने के अभ्यास ने कामगार को इस कदर सक्षम बनाया है कि वह तो बद से बदतर स्थितियों के बीच भी जीवन संघर्षों की राह में आज भी नजर आ जाता है, लेकिन बाजार के षडयंत्रों से पस्त हो चुका देशी दुकानदार आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। अपने चरित्र में मुनाफाखौर होते हुए भी कुछ छद्म नैतिकता और आदर्शों से वह खुद को बांधे रहता था। वह झलक कथाकार मदन शर्मा की एक अन्य कहानी, ‘’बाबर’’ में भी अपने तरह से आकार लेती है, जिसमें वह देशी बुर्जुवा, सरकारी कर्मचारी के रूप में मौजूद है। एक ऐसा पिता जो अपने पुत्र की बेरोजगारी के कारण चिंतित है और अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल सके यह सोचते हुए ही उस गल्प की स्मृति में है जो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता रहा है कि असाधय रोग की गिरफ्त में पड़े बेटे  हुमायूं के स्वस्थ होने की कामना में ही बाबर यह दुआ मांगते हुए होता है कि बेटे का रोग उसे मिल जाये और रोगी बेटा पूरी तरह स्वस्थ हो जाये। आइये प्रस्‍तुत कहानी के पाठ से कथाकार मदन शर्मा की उस मौलिकता से साक्षात्‍कार करते हैं जो बेहद सामान्‍य होते हुए भी असाधारण हो जाने की ओर सरकती है।                     विगौ 


  

कहानी

भीतर की चीज़

                                             मदन शर्मा

      वह मेरे मुंह पर तमाचा-सा मारकर चला गया। चेहरा अभी तक तमतमा रहा है। दिल की धड़कन तेज़ है। शायद भीतर बनियान भी पसीने से तरबतर हो गई है।

 थोड़ा संतुलित होता हूं और याद करने की कोशिश करता हूं, कि बार-बार क्यों ऐसा हो जाता है।

 वह तीन महीने पहले मेरे पास आया था। उससे पहले मेरे बचपन के दोस्त रामदयाल का फोन आया था। कहा था, ‘‘एक मेहनती और जहीन लड़के को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। आस-पास किसी दुकान पर इसे रखवा देना। यह काम करना ज़रूर है।’’

 मैंने उसे देखा। बातचीत से वह अच्छे घर का मालूम पड़ा। बी0 एस0 सी0 सैकेण्ड डिवीजन में किया था। नौकरी कहीं नहीं लगी थी। पिता जी पिछले साल चल बसे, घर की हालत खस्ता है।

 मैंने कहा, ‘‘चाहो तो मेरी दुकान पर ही रह जाओ, जब तक कोई और काम नहीं मिलता, मैं समझता हूं, साढ़े चार सौ रूपये, कुछ बुरा नहीं रहेगा।’’

 मैं तुरन्त मान गया।

तीन में से एक सेल्समैन दो सप्ताह पूर्व बिना नोटिस दिये ही ग़ायब हो गया था। अब तक उसका पता नहीं था। इसलिये मुझे एक आदमी चाहिये ही था।

‘‘मुझे क्या काम करना होगा?’’ उसने भोलेपन से पूछा, मेरी हंसी निकल गई। कहा,‘‘इस की चिंता तुम क्यों करते हो? साढ़े चार सौ दूंगा, तो नौ सौ का काम लूंगा ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं कि...’’

 ‘‘फिर भी..’’

  ‘‘बस, दुकान का हिसाब-किताब बनाना है और शाम को दो-ढाई घंटे काउंटर पर खड़े होकर, ग्राहकों क्राॅकरी दिखानी है और उनकी जेब से पैसे निकलवा कर मेरी जेब में डालने हैं। भई, तुम बी0 एस0 सी0 हो, मेरे कोई लेबार्टरी तो है नहीं, जहां तुम्हें खड़े कर सकूं।’’

  ख़ैर, वह काम सीखने लगा। सभी रजिस्टर और कैशबुक का काम उसे बहुत जल्द समझ में आ गया। मगर मैंने महसूस किया, कि काउंटर पर खड़े उसे कुछ परेशानी हो रही है। सोचा, थोड़ा शर्मिला है दो-चार दिन में ठीक हो जायेगा।

  एक दिन, वह किसी ग्राहक को लेमनसेट दिखा रहा था। अचानक फ़र्श पर, कांच के टूटकर बिखरने की आवाज़ सुनकर मैं चैंका। दुकान पर, उस तरह का एक ही सेट था। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। उससे भी बढ़कर अफ़सोस इस बात का था, कि उसका कहना था, गिलास ग्राहक के हाथ से छूटा है और ग्राहक इसका उल्ट बता रहा था। जो भी था, नुकसान मेरा हुआ था। और मुझे बुरी तरह ताव आ रहा था। ग्राहक के जाते ही, मैंने आदतन, उसकी तबीयत हरी कर दी।

 लताड़ खाकर वह काफी सुस्त हो गया था। कुछ देर बाद मेरा पारा उतरा, तो मैंने उसे पास बुलाया और सस्नेह दुकानदारी की दो-एक बातें समझाने के बाद कहा, मेरी बात का बुरा मत माना करो, मेरे दिल में कुछ नहीं है।’’

  वह संतुष्ट हो गया। मैंने भी सोच लिया, लड़का भावुक है, ज़रा-सी बात का भी बुरा मान जाता है। मगर मेरी तरह शायद वह भी दिल का बुरा नहीं।

  किन्तु कुछ ही दिन बाद, एक अठारह-उन्नीस साल की गोरी-सी लड़की दुकान पर आई और उससे हंस-हंस कर बातें करने लगी। उसे क्रॉकरी खरीदनी थी इसलिये मुझे, उनकी जान-पहचान या हंसी पर कोई आपत्ति न थी। किन्तु जैसे ही वह क्रॉकरी का बंधा पैकेट संभाल दुकान से बाहर हुई, मैंने श्रीमान जी को दबोच लिया।

 ‘‘यह घाटे का सौदा किस खुशी में तय किया?’’

 ‘‘मेरे चाचा की लड़की थी।’’

 चचा की थी या मामा की, थूक तो मुझे लगा गई?

‘‘आप मेरे वेतन से काट लीजियेगा।’’

 ‘‘क्या कहा?’’

  मेरे लिये इतना पर्याप्त था। मेरा अपना लड़का होता, तो ऐसी बात कहने पर मैं मुक्के मार-मारकर उसकी पीठ तोड़ डालता। इसकी यह मजाल, कि मेरे सामने ऐसी बात कह जाये। उठा कर अभी दुकान से बाहर दे मारूंगा। समझता क्या है आपने को।

  तब मैं पिल ही पड़ा उस पर। बच्चू को दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसकी आंखों में लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे पछतावा हो रहा था, मैं क्यों इस तरह बेकाबू हो जाता हूं। डाक्टरों ने कितना समझाया है! खाने-पीने के कितने परहेज़ बताये हैं। जिनको मैं कभी नहीं भूलता। मगर यह दूसरा परहेज़, इस पर तो मैं बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाता। डाक्टर कहता है, ऐसी हालत में कभी कुछ भी हो सकता है। मगर अपने इस स्वभाव का क्या करूं? पता ही नहीं चलता, अचानक क्या हो जाता है।

  उसकी आंखें अब खुश्क थीं। किन्तु अभी तक उनमें गहरी उदासी मौजूद थी। मैंने उसे पास बुलाया और समझाया, ‘‘तुम मेरे बेटे जैसे हो। मैंने तुम्हें पहले भी बताया था, मेरी बात का बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम मुझे समझने की कोशिश करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो। सब कुछ समझ सकते हो। मैं ज़बान का थोड़ा सख्त हूं। मगर इतना बता दूं, कि जो लोग जबान के मीठे होते हैं, वे भीतर से तेज़ छुरी होते हैं। समझ गये न?’’

   वह कुछ नहीं बोला, जैसे मुझे एक अवसर और देना चाहता हो। मैंने भी सोच लिया, आगे के लिये अपना क्रोध अन्य दो सैल्समैंनों पर निकाल लिया करूंगा। वे दोनों समझदार हैं। मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। इसीलिये मज़े भी उड़ा रहे हैं। इसे कुछ भी नहीं कहा करूंगा। भले ही यह काउंटर पर कुछ ख़ास योग्य सिद्व नहीं हुआ। मगर हिसाब-किताब में काफी माहिर है। इसके यहां होते, सैल्सटैक्स और इन्कमटैक्स का कोई लफड़ा नहीं हो सकता।

   मगर थोड़े ही दिन बाद की बात है। दुकान पर एक अन्य लड़की आई। काफी गम्भीर लग रही थी। एक मिनट, दोनों के बीच धीरे-धीरे कुछ बात हुई। फिर पांच मिनट की छुट्टी लेकर, वह उस लड़की के साथ चला गया और लौटा पूरे चालीस मिनट बाद।

 ‘‘चली गई वह लड़की?’’ मैंने पूछा।

 ‘‘जी’’, उसने बिना मेरी ओर देखे सपाट-सा उत्तर दिया।

मैंने सोचा, छोड़ो, क्यों बात बढ़ाई जाये। किन्तु दो दिन बाद वही लड़की फिर चली आई। उसी तरह धीरे-धीरे बात हुई और अभी आ रहा हूं कहकर वह उसके साथ चला गया और काफी देर बाद लौटा।

आज भी वह पच्चीस मिनट बाद लौटा था, मैं देखते ही भड़क उठा।

‘‘यह अब हर रोज यहां आया करेगी?’’

‘‘जी?’’ वह तनिक गुर्राया।

‘‘जी क्या! यह दुकानदारी का टाइम है, या लड़कियों को बाज़ार घुमाने का?’’

उसके बाद कुछ याद नहीं, मैं क्या-क्या बोल गया। वह सुनता रहा। किन्तु इस बार वह रोया नहीं, बल्कि ग़ौर से मेरी ओर देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं नार्मल हुआ। एक गिलास पानी पिया। चार चाय मंगवाई। एक स्वयं ली अन्य तीनों सैल्समैनों के पास पहुंच गई।

देखा, चाय उसके सामने पड़ी है और वह कुछ सोच रहा है। पूछा, ‘चाय क्यों नहीं पीते?’

उत्तर में वह मुस्करा दिया।

दुकान बढ़ाते हुए देखा, वह बेहद गम्भीर है

मैंने कहा, ‘‘सुनो’’।

‘‘जी’’

‘‘आज मैं तुम्हें बहुत कुछ कह गया। मुझे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये थी। बहुत चाहता हूं, ऐसा न किया करूं। मगर पता नहीं, इच्छा के विरूद्व ज़रा-सी बात हो जाने पर मुझे क्या हो जाता है। मेरी इसी आदत की वजह से, मेरे दोनों लड़के और बहुएं, अपने बच्चों सहित अलग मकानों में रहने लगे हैं। पत्नी कभी मेरे पास आती है, तो कभी लड़-झगड़ कर बच्चों के पास चली जाती है। मगर तुम तो बहुत अच्छे लड़के हो। कोई बात दिल पर मत लाया करो। मैं स्पष्टवादी हूं, मगर भीतर से....’’

वह कहक़हा लगा कर हंसा और फिर पहले की तरह गम्भीर हो गया।

   अकस्मात ही वह निर्मम होकर बोला, ‘‘ठीक से सुन लीजिये मुझे स्पष्टवादी लोगों से सख्त नफरत है। आदमी, जो दूसरों के प्रति अपना व्यवहार ठीक न रख सके, वह आदमी नहीं पशु है। आप बार-बार दिल का रोना क्यों रोते रहते हैं? आपके दिल का किसी को क्या करना है?’’

‘‘यह तुम क्या कहे जा रहे हो!’’ मुझे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीें हो पा रहा था।

‘‘वही, जो बहुत पहले कह देना चाहिये था। मैं जा रहा हूं। मेरे जितने पैसे आपकी और निकलते हों, उनसे आंवले का मुरब्बा खरीद, उसे चांदी के वर्क लगाकर खाइयेगा, ताकि आपकी यह दिल नाम की चीज़, और भी मज़बूत और मुकम्मल बन जाये!’’

  वह चला गया। कोई अन्य सैल्समैन मुझे मिल ही जायेगा। किन्तु सोचता हूं, यह व्यक्ति, जो किसी की मामूली-सी बात भी सहन करने में असमर्थ है, जीवन में मेरी ही तरह धक्के खायेगा।                           

Tuesday, July 5, 2022

चैत की ऋतु गाने वाली हुड़क्या

मोहन मुक्त की कविताओं को पढ़ना, एक जिरह से गुजरना है। जिरह करती हुई, ये ऐसी कविताएं हैं जो मजबूर करती हैं कि इन कविताओं को पढ़ते हुए हमें कविता के उस पाठ से मुक्‍त होकर इन्‍हें पढ़ना चाहिए जिसका फलक बताता है कि स्‍पेश क्रियेट करती अभिव्‍यक्ति ही कविता के दायरा बनाती है। स्‍पेश को सीमित कर देने के लिए नहीं बल्कि एक बड़ी आबादी के लिए सीमित कर दिये गये स्‍पेश की जिरह को सामने लाती इन कविताओं से गुजरना एक युवा रचनाकार के भीतर की बेचैनियों का खुलासा है। ऐसा खुलासा जिसमें वर्तमान की विसंगतियों के विश्‍लेषण के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है।

खुद भी अफसोस ही जाहिर कर सकता हूं कि अपने आस-पास की इस आवाज को अचानक से सुनना हुआ। अफसोस इस बात का भी हमारा आस-पास ऐसी आवाज को सुनाने के लिए अवसर मुमकिन करा पाने से बचता रहा है। वरना क्‍यों जी ऐसा होता कि जिस कवि ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को बाद में हिंदी में दलित साहित्‍य का प्रणेता माना गया, उनकी पहली कविता पुस्तक ''सदियों का संताप'' की कविताओं के चयन करते हुए और पुस्तिका का रूप देते हुए मैं ही नहीं, भाई ओमप्रकाश वाल्‍मीकि भी दलित रचनाओं की संज्ञा से विभूषित नहीं कर पाये।

आभारी हूं कथाकार बटरोही जी का जिनकी एक टिप्‍पणी से कवि का नाम जाना और खोज कर फिर जिसकी कविताओं को पढ़ने का अवसर जुटाया।

मोहन मुक्‍त की कविताओं में पहाड़ का वह चेहरा आकार ले रहा है जिसे हर वक्‍त के 'ऐ गुया, ऐ कुता' वाले प्रेम के झूठ से सने काका, बोडा वाली संज्ञाये जन समाज में व्‍याप्‍त विसंगतियों को छुपा लेना चाहती रही हैं। यह खुशी की बात है कि जल्‍द ही इस कवि की कविताओं को एक जिल्‍द में देखना संभव होने जा रहा है। भविष्‍य के इस कवि की कुछ कविताओं को यहां देते हुए यह ब्‍लॉग अपनी विषय सामाग्री को समृद्ध कर रहा है।

 वि.गौ.  

 

कवि मोहन मुक्‍त का परिचय:

मध्य हिमालय के पिथौरागढ़ ज़िले में गंगोलीहाट के निवासी और रहवासी यह कवि पिछले 13 साल से पत्र पत्रिकाओं में वैचारिक लेखन करता आ रहा है।

 'हिमालय दलित है ' पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.


 

फूल


बगीचे नहीं मेरे पास

होने भी नहीं चाहिए

जंगल पर मेरा हक़ नहीं

होना भी नहीं चाहिए

मैं फूल खरीद सकता हूँ

लेकिन वो तो बुके होगा फूल नहीं

मेरी प्यारी....

सच बात तो ये है

कि मुझे फूल तोड़ना पसंद नहीं

मैं तुम्हें किताब नहीं दूंगा

जिसके बीच सूखते फूल रखे हों

वो किताब है इस दुनिया की सबसे दुःखी जगह 

उस बंद किताब के भीतर

कागज़ और फूल दोनों गले मिलकर

अपने अपने पेड़ को याद करते हैं

रोते हैं...

और सारी लिपियाँ हो जाती हैं अस्पष्ट

दुःख की नदी में बहकर नहीं

सुख के घोड़े पर सवार नहीं 

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे पास

बिना किसी माध्यम के 

आदिम .... बेनक़ाब... ज़ाहिर और स्पष्ट

सुनो मेरी प्यारी...

मैं फूल नहीं भेजूंगा 

मैं ख़ुद आऊंगा

ख़ुशबू की तरह... 


मेरा पहाड़ ?????

 

मुंडा कोल

गोंड नाग

बौद्ध द्रविड़

या हडप्पन बाद के

जो कोई भी थे मेरे पुरखे

उन्होंने कभी नहीं कहा ....'मेरा पहाड़'

कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं

अगर कहा भी हो

तो कैसे जानें 

उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई

जो कुछ बच गया 

उनकी भाषा का 

वो गाली बन गया

भाषाविद कहते हैं

कि 'डूम' शब्द आर्य भाषा का नहीं है 

खशो ने बनाया 'खशदेश'

उन्होंने जरूर कहा ....'मेरा पहाड़'

गुप्तों के अधीन कत्यूरियों ने  कहा....'मेरा पहाड़'

आर्यों ने कहा गंगा मेरी तो..... 'मेरा पहाड़

नीलगिरी पर  कब्ज़ा छोड़े बिना 

विंध्य को लांघकर 

सारी बुद्ध प्रतिमाओं को

शिव बनाकर

शंकराचार्य ने कहा .....'मेरा पहाड़'

मैदानी चन्दो ने कत्यूरियों को कहा खदेड़कर अब ...

.....'मेरा पहाड़'

नेपाली गोरखाओं ने चंदों से छीनकर कर कहा गरजते हुए

.......'मेरा पहाड़'

काली के इस तरफ़ ना आना 

सुगौली में अंग्रेज ने धमकाकर कहा गोरखों से.... 'मेरा पहाड़'

मल्ल पंवार कहते रहे ......'मेरा पहाड़'

गंगोली मड़कोटी राजा ने भी कहा... 'मेरा पहाड़ 

राजा का राजपुरोहित 

उप्रेती भी कहता रहा... 'मेरा पहाड़'

कहा जाता है कि उसने मार दिया था राजा 

उसकी जगह बैठाए

गुमानी के मराठी पुरखे भी बोले ...'मेरा पहाड़'

नेपाल के ज्योतिष 

जिन्हें राजा ने दी 

पोखरी की जागीर 

वो कहने लगे.... 'मेरा पहाड़

महाराष्ट्र से आये डबराल ने तो 

अपना नाम ही रखा हिमाल के डाबर गांव पर 

और कहा .......'मेरा पहाड़'

थानेश्वर कुरुक्षेत्र से आये 

जनार्दन शर्मा के वंशज 

मंदिर में पाठ करने के चलते कहलाये पाठक

वो सगर्व और साधिकार कहते हैं ...'मेरा पहाड़'

जो भी कहता है 'मेरा पहाड़'

वो प्यार नहीं करता 

वो जताता है दावा 

जीती गई 

लूटी गई 

छीनी गयी

कब्जाई गयी 

और बांटी गयी 

ज़मीनों पर 

जागीरों पर

बर्फ जंगल पानी और बुग्याल 

किसी के हो कैसे सकते हैं भला 

सारे कवि जो मुग्ध हैं पहाड़ों के सौंदर्य पर 

जो पहाड़ों को ऊंचाई और मजबूती का रूपक बताते हैं 

वो बेईमान हैं 

वो शिकार में मारे गए बाघ की लाश पर 

उसकी ताक़त का बखान कर

दरअसल गा रहे हैं हत्यारे की प्रशस्ति

सारे राजा

सारे विजेता

सारे हत्यारे 

सारे लुटेरे

सारे ज्योतिष

सारे पुरोहित 

सारे गुमानी

सारे धर्माधिकारी 

और सब के सब कवि एक साथ भी कहें अगर ...

.....'मेरा पहाड़'

तो भी मैं नहीं कहूंगा

मैं नहीं कहूंगा ....'मेरा पहाड़

मैं कह ही नहीं सकता कभी....'मेरा पहाड़'

दो वजहों के चलते

एक तो ...'मेरा पहाड़' ...ये भाषा नही मेरी

और ज़्यादा मज़बूत वज़ह 

मैं ही पहाड़ हूँ...................


जड़ों की ओर

 

लौटो जड़ों की ओर 

जब वे कहते हैं

तो आप लौट पड़ते हैं 

घर की ओर

रहवास की ओर

जमीन की ओर

भाषा की ओर 

संस्कृति धर्म सभ्यता की ओर

गांवो की ओर

कबीलों की ओर

और आखिरकार 

आप सिमट कर हो जाते हैं 

इंसानद्रोही 

जीवद्रोही 

चैतन्यद्रोही 

पदार्थद्रोही

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं आपको समेटता नहीं

मैं कहता हूँ लौटो इतिहास की ओर

लेकिन पीछे नहीं

नीचे नहीं

आगे और ऊपर

आपका और मेरा साझा अतीत आकाश में है

आपकी और मेरी जड़ें एक हैं

और वो जमीन में नहीं

अंतरिक्ष में हैं

हम दोनों की जड़ें चेतन में नहीं जड़ में हैं

हम दोनों की जड़ें बिग बैंग में हैं 

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो उसका मतलब है लौटो 'जड़'की ओर

जो एक है...केवल एक

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं उस जगह की बात करता हूँ

जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं

क्योंकि उनकी भी एक ही जड़ है

जैसे आपकी और मेरी

जैसे जड़ की और चेतन की

सबकी एक ही जड़ होती है

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं इसी जड़ की बात करता हूँ

मैं पदार्थ की बात करता हूँ 


भू कानून 

 

किसने मांगा भू क़ानून 

 

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए भू कानून  

 

नौले पोखर ताल या सब्ज़ा

किसका पानी किसका कब्ज़ा 

 

डाने काने गाड़ गधेरे

किसके सेरे किसने घेरे 

 

कौन बाहरी कौन प्रवासी 

कौन यहाँ का मूल निवासी

 

किसके जंगल किसकी नदियां

कैद में बीती किसकी सदियां

 

चंद पंवार मल्ल कत्यूरी

कहो कहानी पूरी पूरी

 

कौन था पहला कब्ज़ाधारी

किसकी मारी हिस्सेदारी

 

किसकी लाठी कौन था गुंडा

खश आर्यन कोल या मुंडा

 

क्या आपने पीछे झांका

यहाँ पड़ा था भीषण डाका

 

लोग कटे थे लूट हुई थी

दान बंटा था छूट हुई थी

 

बुद्ध हुआ था कंकर कंकर

दक्षिण से आया था शंकर

 

धर्माधिकारी बना चौथानी

 घुसपैठी बन गया गुमानी 

 

चौथानी की सबने मानी

खसिया बामण राजा रानी

 

तभी बना था भू कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

 

जल जंगल जमीन या सब्ज़ा

तब से अब तक किसका कब्ज़ा

 

छ्यौड छ्यौड़ियाँ ओड़ लुहार

लुटते  पिटते करें  गुहार

 

कब तक ऐसा जुलम चलेगा

कभी तो ये भी गुमां ढलेगा

 

खेत रास्ते नदियां सेरे

जंगल छोटे बड़े घनेरे

तेरे मेरे सबके डेरे

जिस जिस ने रखे हैं घेरे

 

पहले उनको करो बेदख़ल

ऊंच नीच को कर दो समतल

 

बिसरा देंगे पिछला किस्सा

सबको दे दो सबका हिस्सा

 

यही है असली भू  कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए ये कानून

टिहरी सोर या देहरादून

 

हम चाहते ये क़ानून 

असली वाला भू क़ानून 

टिहरी सोर या देहरादून 

हमें चाहिए ये क़ानून

 

जिसका पहाड़

उसी का  नून

जो भेड़ चराये

उसी का ऊन

मुंडा कोलो का जो ख़ून

उसके लिये हो भू  क़ानून

उसके लिये जो भू क़ानून

सबके लिये वो भू क़ानून 

 

कब तक टालोगे क़ानून

फूट पड़ेगा कभी जूनून

दिल्ली तक जब बात उठेगी

कहाँ छुपेगा देहरादून

 

जल्द बनाओ वो कानून

असली वाला भू कानून

मुंडा कोलों का जो ख़ून

उसे चाहिए भू कानून

 

टिहरी सोर या देहरादून

असली वाला भू क़ानून....


होली और माँ

 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैं बचपन में

ऐसी ही दोपहरों में होली गाती इन साड़ियों के बीच

 अपनी माँ को ढूँढा करता था 

मैं बच्चा था सचमुच 

मुझे पता नहीं था कि उन औरतों में मेरी माँ हो ही नहीं सकती थी 

वहाँ माहौल बुरा नहीं था 

गुड़ और सौंफ मुझे भी दिया जाता था 

देने वाली कभी झिड़कती नहीं थी 

वो मुस्कुराती थी 

गुलाल वाले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देखते ही बनती थी 

हालांकि  उसके और मेरे हाथों के बीच बना रहे  कुछ  फ़ासला

वो ख़ास ध्यान रखती थी

ऊंचाई से देने पर कुछ सौंफ गिर जाती थी नीचे 

ऊंचाई से दी गई चीजें अक्सर गिर ही जाती हैं 

मुस्कराहट और फासला 

रंग और बदरंग 

गुड़ और सौंफ 

ये कॉम्बिनेशन मुझे आज भी समझ नहीं आये 

खैर मेरी माँ को वहाँ नहीं मिलना था 

वो मुझे वहाँ कभी नहीं मिली 

मेरी माँ ही नहीं वहाँ  मुझे मेरी अपनी कोई नहीं मिली 

ना चाची ना भाभी ना ताई ना बुआ ना बहनें 

मेरी ज़िन्दगी की सब औरतें उन फाग वाली दोपहरों में भी जंगल से घास और लकड़ियां ढो रही होती थीं 

मेरी ज़िन्दगी की औरतों के उत्सव अलग थे 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैंने पूरी ज़िन्दगी अपनी माँ को इस साड़ी में नहीं देखा 

उसके अपने कारण होंगे 

लेकिन मेरी माँ

मेरी एक और माँ को जला देने के उत्सव में 

कभी शामिल नहीं हुई.


काला बामण

एक 

शिल्पकार  जजमान खुश  है  बहुत  

आज  घर  पर  हो  रही  है सत्यनारायण  की  कथा  

काला  बामण कर  रहा  है कथापाठ और अनुवाद  

दोनों  कहानी  का  मर्म  समझने  की  करते  हैं  कोशिश

कहानी  में  अपनी  सही  जगह तय  करने  की  कोशिश

दोनो  होते  हैं  नाकाम  

एक  नजर  देखते  हैं  एक  दूसरे  की  ओर  

काला बामण बजा देता है सफेद  शंख जोर  से  ..

 

दो

कथा  के बाद  मैने  पूछा  काले  बामण से  

ये सत्यनारायण  तो  ब्लैक मेलिंग  है बड़ा 

हाथ  ना  जोडो  तो  डूबी  समझोनाव  

काला  बामण हंसा  जोर  से बोला 

''पूरा  धन्धा  ही  टिका  है  दरअसल ब्लैकमेलिंग  पर  ''

उसने  इतनी  सहजता से  ये कहा  कि  यकीन हुआ मुझे 

काले  बामण का  फिलहाल  तो नही  है वर्चस्व  कोई 

जिसके  टूट जाने  का  उसको डर  सताता  हो .

 

तीन                 

रामनामी ओढ़े रहता है 

करता है शिखा धारण 

साफ़ सुथरा रोज़ नहाता 

मुख पर भी है तेज 

काला बामण दशहरा द्वार पत्र चिपकाता है

ओड़ के घर पर 

ओड़ हाथ तो जोड़ता है पर उसमें लोच नहीं है 

काला बामण सबकी कुशल क्षेम पूछता हुआ

गुजरता है क़स्बे से

कोई उसे गुरुज्यू या पंड़ज्यू नहीं कहता 

लोग उसे हरदा या किड़दा ही कहते हैं 

'गोरे बामण 'को देखते ही वो बदल लेता है रास्ता 

मेहतर के सामने...

वो कुछ गोरा सा हो जाता है


चार

काले  बामण और  चैत  की  ऋतु  गाने  वाली  हुड़क्या 

औरत में  क्या  कोई  अंतर  होता  है  ?

हाँ  अंतर  तो  है  

स्त्री और पुरुष  का  पहला  शाश्वत  अंतर  

और  भी  बातें  हैं  कई  अलग  करने  वाली  

हुड़क्या  औरत  सभी  घरों  में  जाती  है  

काला  बामण जाता  है 

बस  शिल्पकार  के  घर  पर 

हुड़क्या औरत   जमीन  पर  बैठती  है  

दहलीज के  बाहर  

काला बामण घर के भीतर आता  है 

आसन सजाता है  

काले  बामण को  मिलता है 

सम्मान सत्कार और  दक्षिणा  

हुड़क्या औरत  पाती  है 

मडुवा ,भांग  के  बीज  और   बीडी का बंडल  

इतना  अंतर  होते  हुए  भी

इन  दोनो  में  एक  रिश्ता  है  

दोनों  माँ  बेटे  हैं  

एक  ही  घर  में  रहते  हैं .