Sunday, May 22, 2011

बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.

सूरज प्रकाश हमारे मित्र हैं और देहरादूनिये भी। फेसबुक में लगा उनका नोट्स जो एक बेहतरीन संस्मरण है, फेस बुक पर उनके मित्रों से इतर इस ब्लाग के लेखक भी पढ़ सके- उनकी इजाजत के बिना ही साभार यहां लगाने की गुस्ताखी कर दे रहा हूं। 
वि.गौ. 


विजय
नेट पर आयी मेरी रचना पर तुम्‍हारा, तुम्‍हारे ब्‍लाग का और मेरे शहर का पूरा हक है। इजाज़त की बात ही नहीं है। ये मेरा अतिरिक्‍त सम्‍मान हुआ ना।
कल शरदजी का जनमदिन था। इसीलिए ये रचना डाली थी।
कल से ही शरदजी की बेटी नेहा ने indradhanushpatrika.com शुरू की है। उसका लिंक दोगे तो हमें अतिरिक्‍त सुख मिलेगा।
कथाकार
 बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.
आदमी के पास अगर दो विकल्प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाये और खूब मज़े करे या फिर छोटा मोटा लेखक बन कर अपने मन की बात कहने की आज़ादी अपने पास रखे तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है. हो सकता है आपकी अफसरी आपको बहुत सारे फायदे देने की स्थिति में हो तो भी एक बात याद रखनी चाहिये कि एक न एक दिन अफसर को रिटायर होना होता है. इसका मतलब यही हुआ न कि अफसरी से मिलने वाले सारे फायदे एक झटके में बंद हो जायेंगे, जबकि लेखक कभी रिटायर नहीं होता. एक बार आप लेखक हो गये तो आप हमेशा लेखक ही होते हैं. अपने मन के राजा. आपको लिखने से कोई रिटायर नहीं कर सकता.
लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता. हम कभी नहीं कहते कि हम स्वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्वर्गीय प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक थे. लेखक सदा जीवित रहता है, भावी पीढियों की स्मृति में, मौखिक और लिखित विरासत में और वो लेखक ही होता है जो आने वाली पीढियों को अपने वक्त की सच्चाइयों के बारे में बताता है.
तो भाई मेरे, जब लेखक के हक के लिए, लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए और लेखक के सम्मान के लिए आपको पक्ष लेना हो तो आपको ऐसी अफसरी पर लात मार देनी चाहिये जो आपको ऐसा करने से रोके. आखिरकार लेखक ही तो है जो अपने वक्त को सबसे ज्यादा ईमानदारी के साथ महसूस करके कलमबद्ध करता है और कम से कम अपनी अपनी अभिव्यक्ति के मामले में झूठ नहीं बोलता.
ये और ऐसी कई बातें थीं तो शरद जोशी ने मुझसे उस वक्‍त कही थीं जब सचमुच मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ गया था कि मुझे तय करना था कि मुझे एक ईमानदार लेखक की अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के पक्ष में खड़ा होना है या अपनी अफसरी बचाने के लिए अपने आकाओं के सामने घुटने टेकने हैं.
एक बहुत बड़ा हादसा हो गया था. शरद जी का भरी सभा में अपमान हो गया था. बेशक सारे एपिसोड में सीधे सीधे मुझे दोषी करार दिया जा सकता था और दोष दिया भी गया था लेकिन एक के बाद एक सारी घटनाएं इस तरह होती चली गयीं मानों सब घटनाओं का सूत्र संचालक कोई और हो और सब कुछ सुनियोजित तरीके से कर रहा हो. मैं हतप्रभ था और समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा कैसे हो गया और क्यों हो गया. बेशक शरद जी का अपमान हुआ था लेकिन मेरी भी नौकरी पर बन आयी थी.
हादसे के अगले दिन सुबह सुबह शरद जी के गोरेगांव स्थित घर जा कर जब मैं इस पूरे प्रकरण के लिए उनसे माफी मांगने आया था तो मैंने उनके सामने अपनी स्थिति स्पष्ट की थी और सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया था तो बेहद व्यथित होने के बावजूद शरद जी ने मेरी पूरी बात सुनी थी, मेरे कंधे पर हाथ रखा था और पूरे हादसे को रफा दफा करते हुए नेहा से चाय लाने के लिए कहा था..
तब उन्होंने वे सारी बातें मुझसे कहीं थीं जो मैंने इस आलेख के शुरू में कही हैं.
ये शरद जी की प्यांर भरी हौसला अफजाई का ही नतीजा था कि मैंने भी तय कर लिया था कि जो होता है होने दो, मैं अपने दफ्तर में वही बयान दूंगा जो शरद जी के पक्ष में हो, बेशक मेरी नौकरी पर आंच आती है तो आये..
जिस वक्त की ये घटना है उस वक्त तक मैंने लिखना शुरू भी नहीं किया था और लगभग 34 बरस का होने के बावजूद मेरी दो चार लघुकथाओं के अलावा मेरी कोई भी रचना कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई थी. छटपटाहट थी लेकिन लिखना शुरू नहीं हो पाया था.. शरद जी से मैं इससे पहले भी एक दो बार मिल चुका था जब वे एक्सप्रेस समूह की हिन्दी पत्रिका के संपादक के रूप में काम कर रहे थे. तब भी उन्होंने मुझे कुछ न कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित किया था लेकिन मैं नहीं लिख पाया तो नहीं ही लिख पाया.
जिस घटना का मैं जिक्र कर रहा हूं, उस वक्त की है जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और वे देश भर में घूम घूम कर आम जनता की समस्या्ओं का परिचय पा रहे थे. इसी बात को ले कर शरद जी ने अपनी अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना पानी की समस्या को ले कर लिखी थी कि किस तरह से राजीव गांधी आम जनता से पानी को ले कर संवाद करते हैं.. मैंने मुंबई में चकल्लस के कार्यक्रम में ये रचना सुनी थी और बहुत प्रभावित हुआ था. उस दिन के चकल्लस में जितनी भी रचनाएं सुनायी गयी थीं, सबसे ज्या्दा वाहवाही शरद जी ने अपनी इस रचना के कारण लूटी थी.
चकल्लस के शायद दस दिन बाद की बात होगी. हमारे संस्थान में एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम होना था जिसके आयोजन की सारी जिम्मेवारी मेरी थी. कार्यक्रम बहुत बड़ा था और इससे जुड़े बीसियों काम थे जो मुझे ही करने थे. तभी मुझसे कहा गया कि इसी आयोजन में एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया जाये और कुछ कवियों का रचना पाठ कराया जाये. मैंने अपनी समझ और अपने सम्पर्कों का सहारा लेते हुए शरद जी, शैल चतुर्वेदी, सुभाष काबरा, आस करण अटल और एक और कवि को रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया था. शरद जी और शैल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने मैं खुद उनके घर गया था. सब कुछ तय हो गया था.
मैं अपने आयोजन की तैयारियों में बुरी तरह से व्यस्त था. कार्यक्रम में मंच पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर, उप गवर्नर, अन्य वरिष्ठ अधिकारी गण उपस्थित रहने वाले थे और सभागार में कई बैंकों के अध्यक्ष और दूसरे वरिष्ठ अधिकारी मौजूद होते.
कार्यक्रम के‍ दिन सुबह सुबह ही मुझे विभागाध्यक्ष ने बुलाया और पूछा कि कार्यक्रम में कौन कौन से कवि आ रहे हैं. मैं इस बारे में उन्हें पहले ही बता चुका था, एक बार फिर सूची दोहरा दी. तभी उन्होंने जो कुछ कहा, मेरे तो होश ही उड़ गये.
विभागाध्यक्ष महोदय ने बताया कि पिछली शाम ऑफिस बंद होने के बाद कार्यपालक निदेशक महोदय ने उन्हें बुलाया था और बुलाये जाने वाले कवियों के बारे में पूछा था. जब उन्हें बताया गया कि शरद जी भी आ रहे हैं तो कार्यपालक निदेशक ने स्पष्ट शब्दों में ये आदेश दिया कि देखें कहीं शरद जी अपनी पानी वाली रचना न सुना दें. सरकारी मंच का मामला है और कार्यक्रम में रिज़र्व बैंक सहित पूरा बैंकिंग क्षेत्र मौजूद होगा, इसलिए वे किसी भी किस्म का रिस्क ‍ नहीं लेना चाहेंगे.
विभागाध्यक्ष महोदय अब चाहते थे कि मैं शरद जी को फोन करके कहूं कि वे बेशक आयें लेकिन पानी वाली रचना न पढ़ें. मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ था. मैं जानता था कि जो काम मुझसे करने के लिए कहा जा रहा है. वह मैं कर ही नहीं सकता. शरद जी जैसे स्वाभिमानी व्यंग्यकार से ये कहना कि वे हमारे मंच से अलां रचना न पढ़ कर फलां रचना पढ़ें, मेरे लिए संभव ही नहीं था. मैं घंटे भर तक ऊभ चूभ होता रहा कि करूं तो क्या करूं. मुझे फिर केबिन में बुलवाया गया और पूछा गया कि क्या मैंने शरद जी तक संदेश पहुंचा दिया है. मैं टाल गया कि अभी मेरी बात नहीं हो पायी है. उनका नम्बर नहीं मिल रहा है.
उन दिनों हमारे विभाग में डाइरेक्ट टैलिफोन नहीं था और आपरेटर के जरिये नम्बर मांग कर किसी से बात करना बहुत धैर्य की मांग करता था. मैंने उस वक्त तो किसी तरह टाला लेकिन कुछ न कुछ करना ही था मुझे.
मेरी डेस्क पर आयोजन की व्यवस्था से जुड़े कई काम अधूरे पड़े थे जो अगले दो तीन घंटे में पूरे करने थे. अब ऊपर से ये नयी जिम्मेवारी कि शरद जी से कहा जाये कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना न सुनायें. सच तो ये था कि शरद जी से बिना बात किये भी मैं जानता था कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना ही सुनायेंगे.
चूंकि उन्हें आमंत्रित मैंने ही किया था, ये काम भी मुझे ही करना था. उनसे साफ साफ कहना तो मेरे लिए असंभव ही था लेकिन बिना असली बात बताये उन्हें आने से मना तो किया ही जा सकता था. तभी मैंने तय कर लिया कि क्या करना है. मैंने शरद जी के घर का फोन नम्बर मांगा ताकि उनसे कह सकूं कि बेशक कवि सम्मेललन तो हो रहा है‍ लेकिन हम आपको चाह कर भी नहीं सुन पायेंगे.
यहां मेरे लिए हादसे की पहली किस्त‍ इंतज़ार कर रही थी. बताया गया कि शरद जी दिल्ली गये हुए हैं और कि उनकी फ्लाइट लगभग डेढ़ बजे आयेगी और कि वे एयरपोर्ट से सीधे ही रिज़र्व बैंक के कार्यक्रम में जायेंगे. हो गयी मुसीबत. इसका मतलब मेरे पास शरद जी को कार्यक्रम में आने से रोकने का कोई रास्ता नहीं. वे सीधे कार्यक्रम के समय पर आयेंगे और सीधे आयोजन स्थल पर पहुंचेंगे तो उनसे क्या कहा जायेगा और कैसे कहा जायेगा, ये मेरी समझ से परे था.
मैंने अपने विभागाध्यक्ष को पूरी स्थिति से अवगत करा दिया और ये भी बता दिया कि मैं जो करना चाहता था, अब नहीं कर पाऊंगा. कर ही नहीं पाऊंगा.
मैं अभी कार्यक्रम की तैयारियों में फंसा ही हुआ था कि कई बार पूछा गया कि शरद जी का क्या हुआ. मैं क्या जवाब देता. मुख्य कार्यक्रम साढ़े तीन बजे शुरू होना था और मुझे दो बजे बताया गया कि कैसे भी करके किसी बाहरी एजेंसी के माध्यम से कवि सम्मेालन की आडियो रिकार्डिंग करायी जाये.
हमारे संस्थान की एक बहुत अच्छी परम्प‍रा थी कि आपका पोर्टफो‍लियो है तो सारे काम आपको खुद ही करने होंगे. कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आयेगा और न ही किसी को आपकी मदद के लिए कहा ही जायेगा. मरता क्या न करता, मैं एक दुकान से दूसरी दुकान में रिकार्डिंग की व्य वस्था कराने के लिए भागा भागा फिरा. अब तो इतने बरस बाद याद भी नहीं‍ कि इंतज़ाम हो भी पाया था या नहीं.
मुख्य कार्यक्रम शुरू हुआ. आधा निपट भी गया और बुलाये गये पांचों कवियों में से एक भी कवि का पता नहीं. कहीं सब के सब तो दिल्ली से नहीं आ रहे.. मैं परेशान हाल कभी लिफ्ट के पास तो कभी सभागृह के दरवाजे पर. कुल 5 लिफ्टें और कम्बख्त कोई भी ऊपर नहीं आ रही. मेरी हालत खराब. कार्यक्रम किसी भी पल खत्म हो सकता था और कवि सम्मेलन शुरू करना ही होता. एक भी कवि नहीं हमारे पास.
तभी एक लिफ्ट का दरवाजा खुला और एक कवि नज़र आये. मैं उन्हें फटाफट भीतर ले गया और उनसे फुसफुसाकर कहा कि अभी कोई भी नहीं आया है. बाकियों के आने तक आप मंच संभालिये. संचालन हमारे विभागाध्यक्ष महोदय कर रहे थे. उन्हों ने ज्यों ही इकलौते कवि को देखा, उनके नाम की घोषणा की दी और कवि सम्मेलन शुरू. अब मैं फिर लिफ्टों के दरवाजों के पास खड़ा बेचैनी से हाथ मलते सोच रहा था कि अब मैं किसी भी अनहोनी को नहीं रोक सकता. किसी भी तरह से नहीं.
एक लिफ्ट का दरवाजा खुला. चार मूर्तियां नज़र आयीं. शैल जी, शरद जी, सुभाष काबरा जी और एक अन्‍य कवि. मेरी सांस में सांस तो आयी लेकिन अब मैं शरद जी से क्या कहूं और कैसे कहूं. किसी तरह उन्हें भीतर तक लिवा ले गया. अब जो होना है, हो कर रहेगा. शरद जी ने कुर्सी पर बैठते ही कहा, सूरज भाई एक गिलास पानी तो पिलवाओ. मैं लपका एक गिलास पानी के लिए. आसपास कोई चपरासी या टी बाय नज़र नहीं आया. मैं लाउंज तक भागा ताकि खुद ही पानी ला सकूं. जब तक मैं एक गिलास पानी ले कर आया, शरद जी के नाम की घोषणा हो चुकी थी. पानी पीया उन्हों ने और मंच की तरफ चले.
तय था वे पानी वाली रचना सुनायेंगे. मेरी हालत खराब. इतनी सरस रचना सुनायी जा रही है और सभागृह में एकदम सन्नाटा. सिर्फ शरद जी की ओजपूर्ण आवाज़ सुनायी दे रही है.
गवर्नर महोदय ने उप गवर्नर महोदय की तरफ कनखियों से देखा. उप गवर्नर महोदय ने इसी निगाह से कार्यपालक निदेशक महोदय को देखा और कार्यपालक निदेशक महोदय ने अपनी तरफ से इस निगाह में योगदान देते हुए हमारे विभागाध्यक्ष को घूरा और आंखों ही आंखों में इशारा किया कि ये रचना पाठ बंद कराया जाये. हमारे विभागाध्यक्ष महोदय की निगाह निश्चित ही मुझ पर टिकनी थी और मेरे आगे कोई नहीं था. मैंने कंधे उचकाये – मैं कुछ नहीं कर सकता. मंच पर तो आप ही खड़े हैं..
एक बार फिर तेज़ निगाहों का आदान प्रदान हुआ और एक तरह से विभागाध्‍यक्ष को डांटा गया कि वे ये रचना पाठ बंद करायें. नहीं तो.. नहीं तो.. मैं आगे कल्पना नहीं कर पाया कि इस नहीं तो के कितने आयाम हैं. विभागाध्यक्ष डरते डरते शरद जी के पास जा कर खड़े हो गये लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाये. यहां ये बताना प्रासंगिक होगा कि विभागाध्यक्ष खुद व्यंग्य कवि थे और दिल्ली में बरसों से कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करते रहे थे. एक और कड़ी निगाह विभागाध्यक्ष की तरफ और उन्होंने धीरे से शरद जी से कहा कि आप कोई और रचना पढ़ लें, इसे न पढ़ें.
यही होना था. शरद जी हक्के बक्के. समझ नहीं पाये, क्या कहा जा रहा है उनसे.. फिर उन्होंने काग़ज़ समेटे और माइक पर ही कहा - ये तो आपको पहले बताना चाहिये था कि मुझे कौन सी रचना पढ़नी है और कौन सी नहीं, मैं पहले तय करता कि मुझे आना है या नहीं. मैं यही रचना पढूंगा या फिर कुछ नहीं पढूंगा.. बोलिये क्या कहते हैं...
एक लम्बा सन्नाटा. . . किसी के पास कोई शब्द नहीं.. कोई उपाय नहीं.. बिना शब्दों के ही सारा कारोबार हो रहा था.. अब शरद जी मंच से नीचे उतरे और सीधे सभागृह के बाहर..
अनहोनी हो चुकी थी.. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.. हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी जो कभी टाइम्स में पत्रकार रह चुके थे और कभी बंबई में शरद जी के साथ धोबी तलाव इलाके में एक लॉज में रह चुके थे, शरद जी को मनाने उनके पीछे लपके.
शरद जी बुरी तरह से आहत हो गये थे.. ये बताने का वक्त नहीं था कि ये सब क्यूं कर हुआ और इस स्थिति को कैसे भी करके टाला ही नहीं जा सका.
अगले दिन अखबारों में ये खबर थी. ऑफिस में मुझसे स्प्ष्टी करण मांगा गया और मेरे लिए आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे रहे.. लेकिन शरद जी से‍ मिलने के बाद मेरी हिम्मत बढ़ी थी और मैं किसी भी अनचाही स्थिति के लिए अपने आपको तैयार कर चुका था.. शरद जी से उस मुलाकात के बाद ही मुझमें लिखने की हिम्मत आयी थी. अब मुझे लिखते हुए बीस बरस होने को आये.. शरद जी के वे शब्दे आज भी हर बार कलम थामते हुए मेरे सामने सबसे पहले होते हैं‍ कि बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है.
मैं बेशक अपने संस्थान में मझोले कद का अफसर हूं लेकिन अपना परिचय छोटे मोटे लेखक के रूप में देना ही पसंद करता हूं. मुझे पता है,. जब तक चाहूं सक्रिय रह सकता हूं.. लेखन से रिटायरमेंट नहीं होता ना....
सूरज प्रकाश

10 comments:

कथाकार said...

विजय
नेट पर आयी मेरी रचना पर तुम्‍हारा, तुम्‍हारे ब्‍लाग का और मेरे शहर का पूरा हक है। इजाज़त की बात ही नहीं है। ये मेरा अतिरिक्‍त सम्‍मान हुआ ना।
कल शरदजी का जनमदिन था। इसीलिए ये रचना डाली थी।
कल से ही शरदजी की बेटी नेहा ने indradhanushpatrika.com शुरू की है। उसका लिंक दोगे तो हमें अतिरिक्‍त सुख मिलेगा।
प्रचार भी करना।
मेरे शहर में सब मजे में हो्ंगे।
जुलाई में आना हो सकता है।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर. शारद जी ने कितना सही कहा था कि लेखन से कभी रिटायरमेन्ट नहीं होता.

अनूप शुक्ल said...

रोचक संस्मरण!

निवेदिता श्रीवास्तव said...

सच है लेखक न तो कभी रिटायर होता है और न ही स्वर्गयीय .......अभिनंदन!

बलराम अग्रवाल said...

यह एक यथार्थपरक बयान है, आपको साधुवाद; और नमन 'पानी' सरीखी तीखी रचना लिखनेवाले श्रद्धेय जोशी जी को जिसने कितने ही नौकरशाहों के पाजामे गीले किए रखे। लेकिन बन्धुवर, देखने में तो यही आ रहा है कि बड़े प्रकाशकों और कुछेक पत्रिका-संपादकों की बदौलत वे अफसर जो पुस्तक बिकवाने और विज्ञापन दिलवाने में सहायक सिद्ध होते हैं, लेखक बने रहते हैं। न सही उम्रभर, अपने रिटायरमेंट की अन्तिम तारीख तक ही सही, वे बहुत-सी उल्लेखनीय कृतियों और कृतिकारों को छपने तक से पीछे धकेले रहते हैं।

रूपसिंह चन्देल said...

सूरज भाई,

बहुत ही महत्वपूर्ण संस्मरण. बात सही है. अफ्सर अपनी कुर्सी से नीचे कुछ नहीं होता और मैंने ऎसे भी अफसर देखें हैं जो इसलिए लेखक बनने की जुगत में रहते हैं क्योंकि वे अफसरी की औकात जानते हैं. आपकी स्थिति को मैं समझ सकता हूं. मैंने भी यह जिन्दगी जी है और जब मौका लगा उससे मुक्त हो गया. तब मेरी नौकरी के साढ़े छः साल शेष थे.

सही है कि बड़े अफसर के बजाय छोटा लेखक होना लाख गुना बेहतर है.

बधाई.

रूप चन्देल

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

सच्चाई कुछ ऐसी ही है। अफसर का दायरा निश्चित ही बहुत सीमित है।

शरद जोशी जी का वह व्यंग्य बैंक के अधिकारियों को इतना भारी क्यों पड़ रहा था? क्या वे मान चुके थे कि वे सचमुच भ्रष्ट और नाकारे थे?

‘पानी की समस्या’ यदि नेट पर उपलब्ध हो तो लिंक दें।

कथाकार said...

सिद्धार्थजी बता ही चुका हूं कि रिज़र्व बैंक के गवर्नर सहित कई बैंकों के अध्‍यक्ष वहां मौजूद थे1ये सारे पद राजनैतिक होते हैं।ऐसे में विशुद्घ सरकारी मंच से प्रधान मंत्री का मजाक उड़ाने वाली रचना कौन सुनना और सुनवाना पसंद करेगा। आज भी ये हिम्‍मत शायद ही कोई कर पाये। रचना आप तक पहुंचेगी।

pallavi trivedi said...

बहुत बढ़िया लगा ये संस्मरण... सचमुच एक लेखक होना अफसर होने से ज्यादा बेहतर है! लेकिन अफसरी के साथ लेखन की अपनी समस्याएँ हैं...कई विषयों पर खुल कर लिख नहीं सकते! इसलिए ये सारे विषय मैंने रिटायर मेंट के बाद के लिए बचाकर रखे हैं! तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज्यादा होगी...

कथाकार said...

पलल्‍वी जी आपकी बात से मेरा हौसला बढ़ा। गोविंद मिश्र जी ने भी यही किया। उनका उपन्‍यास इमारतें बंदर और..(कुछ ऐसा ही नाम है) अपने तंत्र की धज्जियां उधेड़ने वाला उपन्‍यास रिटायरमेंट के बाद ही लिखा था। उन्‍होंने उसमें प्रधानमंत्री तक को नहीं नहीं बख्‍शा। मैं भी कुछ चीजें तब के लिए सहेजे हुए हूं।