राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए जुटी अधिकारियों की मीटिंग में चिन्ता ज़ाहिर की गयी कि लगातार किये जा रहे प्रयत्नों के बाद भी अभी हिन्दी में पर्याप्त काम नहीं हो पा रहा है। हिन्दी को बढ़ावा दिया ही जाये। le
लेट अस सी, हाऊ वी केन डू दिस।
राजभाषा अधिकारी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा। अधिनस्थ कर्मचारियों का हड़कान करते हुए बोले, हिन्दी में काम करना उतना ही सरल है जितना अंग्रेजी में। तो भी क्या कारण कि ऐसा नहीं हो पा रहा है ? 'क' , 'ख' क्षेत्रों में जहां कि शत प्रतिशत कोरसपोंडेंस हिन्दी में होनी चाहिए वहां भी हमारी ज्यादातर कोरसपोंडेंस अंग्रेजी में ही चल रही हैं। अगले हफ्ते पार्लियामेंट कमेटी का इंस्पेशन है, कुछ करो भाई।
चालाक और होशियार युवा क्लर्क ने अधिकारी को गुस्से में जान, छायी हुई चुप्पी को तोड़ा -
"सर आजकल ज्यादातर कोरसपोंडेंस तो फैक्स से ही हो रही है, पोस्ट लेटर तो न के बराबर ही हैं।"
"तो फिर।" अधिकारी ने ध्यान से सुनने के बाद कहा।
"सर ऑफिस में हिन्दी फैक्स मशीन तो है ही नहीं, फिर कैसे करें ?" युवा क्लर्क बोला.
राजभाषा अधिकारी ने जब समस्या को सभा और सभापति के सामने रखा तो सब चिन्तित नज़र आये। अंत में निर्णय लेते हुए पर्चेस डिविजन के अधिकारी को आर्डर दिया गया आज और अभी टेन्डर करो, हिन्दी फैक्स मशीन के लिए।
क्लर्क अपने साथी कर्मचारियों के साथ मुस्कराता रहा।
Monday, April 7, 2008
आवासिय समस्या का हल है हमारे पास
आप यदि ये माने बैठे हैं कि एक ध्रुविय होती जा रही दुनिया के चलते दुनियाभर की पूंजीवादी लोकतांत्रिक सरकारें कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से परहेज़ करने लगी हैं और जनता की अधारभूत जरुरत । रोटी, कपड़ा और मकान को भी बाज़ार के हवाले छोड़ दे रही हैं तो शायद आप गलती पर हैं। आपकी जानकारी के लिए लीजिए प्रस्तुत है ये खबर झोपड़ियों में चांदनी रात का मजा लेंगे सैलानी
Saturday, April 5, 2008
गरम कपड़ो की गठरी खोल लो
सावन के महीने सा अंधियारा और शरद माह की सी ठंड है आज देहरादून में
यदि आप देहरादून में है - स्वेटर, मॉफलर, जेकेट या कोई भी गरम वस्त्र आपके पास होना ही चाहिए।
होली को बीते एक पखवाड़ा हो चुका है। गालों पर लगा गुलाल, यदि वह सचुमच प्रेम का रहा हो तो उसकी चमक बरकरार रहनी ही है, वरना बनावटी रंगों का पक्कापन तो ठटठा ही बन गया होगा।
इस बार होली पर मौसम था ही बहुत शानदार। धूप खिली हुई थी। बाल्टियों भर पानी से भिगों देने के बाद भी मात्र कुछ मिनटों में ही होलीयारों के भीग चुके वस्त्र सूख जा रहे थे।
होलीयारे भी मस्त कि सूखे रंग से नहीं, भई कुछ गीला हो जाये। देखो तो कैसी धूप खिली है इस बार।
रंगों की थकान मिटाने के लिए गरम पानी की जरुरत शायद ही किसी होलीयारे को पड़ी हो इस बार। घूप से तप रहे पाईपों के भीतर दौड़ रहा पानी भी ठंडी चसक को खो चुका था।
देहरादूनिये कहने लगे थे, इस बार तो लगता है गर्मी जम कर पड़ेगी। जब अभी मार्च ही नहीं बीता और पंखे चलने लगे हैं तो अप्रैल, मई, जून में न जाने क्या होगा।
आशंका कहे या अनुमान। धरे रह गये - आज दोपहर में। जब तह लगाकर, लोहे के बड़े बक्सों के भीतर रख दिये गये गरम वस्त्रों को दुबारा निकालना पड़ गया।
जी हां, यह देहरादून का मौसम है।
होली के अगले दिन जयपुर से कथाकार अरुण कुमार असफल का फोन आया था, 24 मार्च को देहरादून पहुच रहा हॅ। मौसम कैसा है ? ठंड तो नहीं ?
जब छ: सात वर्ष देहरादून में बिताने वाले योगन्द्र आहूजा देहारादूनिये हो गये तो फिर, पिछले लगभग 12 वर्ष देहरादून के साहित्यिक, समाजाजिक माहौल में पूरी तरह से रमा अरुण कैसे देहरादूनिया न होता। अरुण ने अपना नाम असफल न रख होता तो इस वक्त मैं उसे अरुण कुमार देहरादूनिया कहता। देहरादून के मौसम के अचानक से बदलते मिज़ाज़ को उसने नज़दीक से देखा है। उसके ज़ेहन में सवाल यूंही नहीं आया होगा। वरना सूचना तंत्र के विस्तार के बाद किसी भी भूभाग के वर्तमान तापमान को तो कोई भी जान सकता है।
उसके सवाल पर क्या कहता !
चले आओ यार, मस्त है मौसम। दिन तो बहुत ही गरम होने लगे हैं।
ये तो बात दस-एक दिन पहले की है। आज ही सुबह जब फुरसतिया, अनूप शुक्ला जी से बात हो रही थी, लगभग 7.45 पर, तब भी कहां था ऐसा अनुमान कि दिन में गरम कपड़ों की दरकार ही नहीं होगी बल्कि स्कूल जा चुकी बच्ची को ठंड न लग जाये, इस बात की चिन्ता से ग्रसित मां जब स्वेटर निकाल बच्ची के पिता को दौड़ा रही होगी कि जाओ स्वेटर भी ले जाओ और बरसाती भी, नहीं तो बच्ची भीग ही जायेगी और ठंड भी बढ़ रही है। उस वक्त तो आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फैक्ट्री, देहरादून में पिछली ही रात सम्पन्न हुए, निर्माणी के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित उस कवि सम्मेलन की चर्चा होती रही जिसमें देश भर की निर्माणियों से आये कवियों ने ही हिस्सेदारी की। कुछ इधर-उधर की भी बातें हुई। मौसम का तो जिक्र आया ही नहीं। आता भी क्यों ! जब सब कुछ अपनी सामान्य गति से ही हो, तो।
कल शाम यानि 4 अप्रैल को कुछ ठंडक तो थी वातारण में। हल्की बूंदा-बांदी जो हुई थी। पर सुबह मौसम वैसा ठंडा नहीं था और बादल भी वैसे नहीं, जैसे कि दिन खुलने के बाद होते चले गये। लगभग 11 बजे के बाद मौसम ने करवट बदलनी शुरु कर दी थी।
तेज बारिस होने लगी और ठंड लगातार बढ़ती गयी। दोपहर आते आते तो आधी बांहों की कमीज़ पहनना शुरु कर चुके देहरादूनिये भी स्वेटर, जेकेट पहने नज़र आने लगे।
बादलों की गड़गड़ाहट और दमकती बिजली के साथ घिरता जा रहा अंधेरा ठंड को और ज्यादा बढ़ाने लगा। सावन के महीने का सा अंधियारा और शरद रितु की सी ठंड, अप्रैल की धूप पर हावी होने लगा। ऊपर पहाड़ों में कहीं बर्फ भी गिर ही होगी शायद।
तो ऎसा है आज देहरादून का मौसमा
अपनी ही एक छोटी सी कविता, जो वैसे तो किसी और संदर्भ में लिखी गयी पर इस वक्त गुन-गुनाने का मन है:-
बारिस
सब कह रहे हैं
बारिस बंद हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा पानी
पर घर के भीतर तो पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है
आगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
सड़क पर भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिस बंद हो चुकी है।
यदि आप देहरादून में है - स्वेटर, मॉफलर, जेकेट या कोई भी गरम वस्त्र आपके पास होना ही चाहिए।
होली को बीते एक पखवाड़ा हो चुका है। गालों पर लगा गुलाल, यदि वह सचुमच प्रेम का रहा हो तो उसकी चमक बरकरार रहनी ही है, वरना बनावटी रंगों का पक्कापन तो ठटठा ही बन गया होगा।
इस बार होली पर मौसम था ही बहुत शानदार। धूप खिली हुई थी। बाल्टियों भर पानी से भिगों देने के बाद भी मात्र कुछ मिनटों में ही होलीयारों के भीग चुके वस्त्र सूख जा रहे थे।
होलीयारे भी मस्त कि सूखे रंग से नहीं, भई कुछ गीला हो जाये। देखो तो कैसी धूप खिली है इस बार।
रंगों की थकान मिटाने के लिए गरम पानी की जरुरत शायद ही किसी होलीयारे को पड़ी हो इस बार। घूप से तप रहे पाईपों के भीतर दौड़ रहा पानी भी ठंडी चसक को खो चुका था।
देहरादूनिये कहने लगे थे, इस बार तो लगता है गर्मी जम कर पड़ेगी। जब अभी मार्च ही नहीं बीता और पंखे चलने लगे हैं तो अप्रैल, मई, जून में न जाने क्या होगा।
आशंका कहे या अनुमान। धरे रह गये - आज दोपहर में। जब तह लगाकर, लोहे के बड़े बक्सों के भीतर रख दिये गये गरम वस्त्रों को दुबारा निकालना पड़ गया।
जी हां, यह देहरादून का मौसम है।
होली के अगले दिन जयपुर से कथाकार अरुण कुमार असफल का फोन आया था, 24 मार्च को देहरादून पहुच रहा हॅ। मौसम कैसा है ? ठंड तो नहीं ?
जब छ: सात वर्ष देहरादून में बिताने वाले योगन्द्र आहूजा देहारादूनिये हो गये तो फिर, पिछले लगभग 12 वर्ष देहरादून के साहित्यिक, समाजाजिक माहौल में पूरी तरह से रमा अरुण कैसे देहरादूनिया न होता। अरुण ने अपना नाम असफल न रख होता तो इस वक्त मैं उसे अरुण कुमार देहरादूनिया कहता। देहरादून के मौसम के अचानक से बदलते मिज़ाज़ को उसने नज़दीक से देखा है। उसके ज़ेहन में सवाल यूंही नहीं आया होगा। वरना सूचना तंत्र के विस्तार के बाद किसी भी भूभाग के वर्तमान तापमान को तो कोई भी जान सकता है।
उसके सवाल पर क्या कहता !
चले आओ यार, मस्त है मौसम। दिन तो बहुत ही गरम होने लगे हैं।
ये तो बात दस-एक दिन पहले की है। आज ही सुबह जब फुरसतिया, अनूप शुक्ला जी से बात हो रही थी, लगभग 7.45 पर, तब भी कहां था ऐसा अनुमान कि दिन में गरम कपड़ों की दरकार ही नहीं होगी बल्कि स्कूल जा चुकी बच्ची को ठंड न लग जाये, इस बात की चिन्ता से ग्रसित मां जब स्वेटर निकाल बच्ची के पिता को दौड़ा रही होगी कि जाओ स्वेटर भी ले जाओ और बरसाती भी, नहीं तो बच्ची भीग ही जायेगी और ठंड भी बढ़ रही है। उस वक्त तो आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फैक्ट्री, देहरादून में पिछली ही रात सम्पन्न हुए, निर्माणी के स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित उस कवि सम्मेलन की चर्चा होती रही जिसमें देश भर की निर्माणियों से आये कवियों ने ही हिस्सेदारी की। कुछ इधर-उधर की भी बातें हुई। मौसम का तो जिक्र आया ही नहीं। आता भी क्यों ! जब सब कुछ अपनी सामान्य गति से ही हो, तो।
कल शाम यानि 4 अप्रैल को कुछ ठंडक तो थी वातारण में। हल्की बूंदा-बांदी जो हुई थी। पर सुबह मौसम वैसा ठंडा नहीं था और बादल भी वैसे नहीं, जैसे कि दिन खुलने के बाद होते चले गये। लगभग 11 बजे के बाद मौसम ने करवट बदलनी शुरु कर दी थी।
तेज बारिस होने लगी और ठंड लगातार बढ़ती गयी। दोपहर आते आते तो आधी बांहों की कमीज़ पहनना शुरु कर चुके देहरादूनिये भी स्वेटर, जेकेट पहने नज़र आने लगे।
बादलों की गड़गड़ाहट और दमकती बिजली के साथ घिरता जा रहा अंधेरा ठंड को और ज्यादा बढ़ाने लगा। सावन के महीने का सा अंधियारा और शरद रितु की सी ठंड, अप्रैल की धूप पर हावी होने लगा। ऊपर पहाड़ों में कहीं बर्फ भी गिर ही होगी शायद।
तो ऎसा है आज देहरादून का मौसमा
अपनी ही एक छोटी सी कविता, जो वैसे तो किसी और संदर्भ में लिखी गयी पर इस वक्त गुन-गुनाने का मन है:-
बारिस
सब कह रहे हैं
बारिस बंद हो चुकी है
मैं भी देख रहा हूं
बाहर नहीं पड़ रहा पानी
पर घर के भीतर तो पानी का तल
अब भी ज्यों का त्यों है
आगन में भी है पानी
घर के पिछवाड़े भी है पानी
सड़क पर भी है पानी
फिर मैं कैसे मान लूं
बारिस बंद हो चुकी है।
Thursday, April 3, 2008
आकांक्षाएं
कहानी
० सोना शर्मा
कई वर्ष पूर्व, रमा जी से मेरी भेंट, डा0 राकेश गोयल के क्लीनिक पर हुई थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा में, बेंच पर समीप बैठे हुए, उन्होंने बिना किसी विशेष भूमिका के, अपना संक्षिप्त परिचय दे डाला। अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष के सम्बंध में भी संकेत देने में, उन्हें झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने सहानुभूति प्रकट की और शीघ्र ही दो-एक ट्यूशन दिला देने का आश्वासन दे दिया।
रमा जी से दूसरी भेंट भी राह चलते ही हुई। तब उनके पति भी साथ थे। उन्होंने विद्याचरण से परिचय कराया। संभवत: इस बीच उनकी स्थिति कुछ संभल गई थी। तीन कमरों का मकान उन्होंने दौड़-धूप करके एलाट करा लिया था। चार पांच ट्यूशनें मिल गई थीं और एक प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूल में विद्याचरण की नौकरी लग जाने की भी बात, लगभग निशित हो चुकी थी। दोनों ने साग्रह किसी दिन घर आने के लिये आमन्त्रित किया।
अनुमानत: उनका प्रेम विवाह हुआ था। अनुमान का आधार था, विद्याचरण का उतरप्रदेशीय ब्राहमण तथा रमा जी का बंगालिन होना। रमा जी हिन्दी जानती थी तथा सही उच्चारण में बातचीत भी कर लेती थीं। दोनों में अच्छी निभ रही थीं। दोनों में जीवन से जूझने की शक्ति थी। और अच्छे दिनों की आमद का विशवास भी उनकी आँखों में झलकता था।
विद्याचरण को अंग्रेजी स्कूल में नौकरी मिल गई। किन्तु प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल वाले जिस कड़ाई के साथ विद्यार्थियों से रूपये वसूल करते हैं, उस अनुपात में अपने अध्यापकों को वेतन देने में विश्वास नहीं करते। कुल मिलाकर एक गैर सरकारी मज़दूर से भी कम वेतन, एक अध्यापक को मिल पाता है।
कुछ दिन तो इसी तरह निकल गये, मगर शीघ्र ही भविष्य की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। कल को बच्चे होंगे तो क्या उनकी परवरिश होगी और क्या उनका अपना जीवन स्तर सुधर पायेगा!
काफी सोचने के बाद, उन्होंने एक नर्सरी स्कूल शुरू करने का निणर्य ले लिया। नई जगह की व्यवस्था आसान न थी। इसलिये तीन कमरों के इस मकान का ही, स्कूल के तौर पर उपयोग करना निश्चित हुआ। कमरे ठीक ठाक ही थे। पूरे मकान की पुताई हो गई। दरवाजे खिड़कियों पर नया पेंट। आंगन के झाड़ झंकार को साफ़ कर दिया गया। बरामदे के एक भाग को एनक्लोज़र-सा बनाकर,कार्यालय का रूप दे दिया गया। साइन बोर्ड तैयार होकर आ गया। कुछ बेंच डेस्क टाट अलमारी ब्लैक बोर्ड आदि बहुत कम दाम में एक कबाड़ी से मिल गये।
पढ़ाने के लिये रमा जी थी हीं। विद्याचरण के लिये भी अपने स्कूल से आकर एक दो पीरियड़ ले लेना संभव था। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब तीस बतीस बच्चे आने लगे, तो एक अतिरिक्त अध्यापिका की कमी, बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। इसी संदर्भ में रमा जी ने मुझ से किसी शरीफ और परिश्रमी लड़की का पता बताने के लिये कहा, मैंने हँसकर कहा, "शराफत या शरीफ होने का प्रमाणपत्र तो कोई राजपत्रित अधिकारी ही दे सकता है, एक अच्छी पढ़ी लिखी और मेहनती लड़की मेरी नज़र में है, उसे आप के पास भेज दूंगी।''
चेष्टा मेरे छोटे भाई के मित्र की बहन है। बी0ए0 करने के बाद उसके लिये लड़का खोजते खोजते वह एम0ए0 हो गई। तब तक भी कहीं बात पी न हुई तो उसके घर वालों ने उसे बी0एड में दाखिला करा दिया। बी0एड भी हो गया, किन्तु दुर्भाग्य! इतनी पढ़ी लिखी और नेक स्वभाव लड़की को अब तक न तो वर मिला था और न नौकरी ही! बेचारी दिन भर अपने कमरे में बन्द, न जाने क्या क्या सोचा करतीं। मैंने चेष्टा को रमा जी के पास भेज दिया। उसे नौकरी मिल गई और रमा जी की समस्या का समाधान भी हो गया।
इसी बीच, कुछ विशेष घट गया। चेष्टा मुझ से अकसर बचने का प्रयास करती है। विद्याचरण और रमा जी से दुआसलाम तक बन्द है। जबकि मैंने इन तीनों में से किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
घटना या दुर्घटना के बाद सर्वप्रथम मैंने विद्याचरण से ही बात की। बड़ी बेचारगी के साथ उसने बताया, ""देखिये बहन जी, मैने तो पहले ही कुमारी चेष्टा से कह दिया था कि हमारा यह छोटा सा स्कूल व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु जनसेवा के उद्धेश्य से खोला गया है। मुहल्ले के गरीब बच्चे पढ़ लिख कर चार पैसे कमाने योग्य हो जायें, यही हमारी कामना है। हमारी सभी बातें या स्कूल के सब नियम कुमारी चेष्टा ने सहर्ष स्वीकार कर लिये थे। मैं मानता हूं कि वह अच्छा पढ़ाती थी और बच्चे भी उससे काफी प्रसन्न थे किन्तु ---
"किन्तु क्या?''
"क्षमा कीजिये, मैं कुछ भी बताने में असमर्थ हूं।''
बहुत पूछने पर भी जब विद्याचरण ने कोई स्पषट कारण न बताया तो मैं रमा जी से मिली। वे भी टाल मटोल सा करती हुई चाय पानी की व्यवस्था में लगीं रही। किन्तु मैं जब देर तक बैठ ही रहा तो बोली, "बात यह है कि जब लोगों को नौकरी की जरूरत होती है, तब तो दूसरों के पांव तक पकड़ने को तैयार हो जाते हैं, मगर नौकरी मिलते ही इनका नखरा आकाश छूने लगता है। सच मानिये, हमने तो यह स्कूल चलाकर मुसीबत ही मोल ले ली। इसमें बचत तो क्या होनी थीं, उल्टे जेब से ही खर्च हो रहा है। यह ठीक है, हम शैक्षणिक योग्यता अनुसार उस लड़की को अधिक वेतन नहीं दे सके। देते भी कहां से? अपने ही बीसियों झंझट है। तब भी किसी तरह खींच ही रहे थे, मगर उसने तो सब किये कराये पर पानी फेर दिया।''""मगर, किया क्या उसने?''
""उसी से पूछिये न।''
""उसी से पूछिये न।''
मैं खीज गई थी। 'मारो गोली" कह कर भी मैं मामले को गोली न मार सकी और चेषठा को भुला भेजा। वह भी बड़ी कठिनाई से कुछ बताने के लिये सहमत हुई। जो कुछ उससे मालूम हुआ, वह लगभग इस प्रकार था।
अपने एम0ए0बी0एड तक के प्रमाणपत्र लेकर, चेषठा नौकरी के लिये साक्षात्कार मण्डल (पति पत्नी) के समक्ष उपस्थित हुई, तो चकित ही रह गई। दोनों सदस्यों ने एक घंटे तक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रशनों की झड़ी लगाये रखी। गाना, नाचना तबला हारमोनियम, चित्रकारी मे, वह कितनी दक्ष है, इसकी जानकारी भी ली गई। बच्चों को योग्य बनाने हेतु, इन सभी चीज़ों की ज़रूरत थी। चेष्टा प्रशनों के उतर देती जा रही थी और पसीने में भीगती जा रही थी। इतने प्रशन तो अब तक जो लड़के वाले उसे देखने आये, उन्होंने ने भी नहीं पूछे थे। पांच सौ रूपये वेतन सुनकर तो उसका चेहरा ही उतर गया, किन्तु विद्याचरण का आदर्शवादी भाषण सुनकर तथा 'चलो कुछ वक्त कटी ही होगी", सोचकर उसने नौकरी स्वीकार कर ली। वैसे रमा जी ने यह भी कह दिया कि कुछ बच्चे और बढ़ते ही वे वेतन बढ़ा देंगे।
स्कूल में पढ़ाना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होता था। हर रोज़, समय से पूर्व, स्कूल पहुंच कर, घर को स्कूल में परवर्तित करने के लिये चपरासी का कार्य उसे स्वयं ही करना होता। विद्याचरण तो प्रात: सात बजे ही अपनी नौकरी पर चला जाता। रमा जी का स्वास्थ्य, वही आम औरतों की तरह, कभी कमर में दर्द तो कभी सिर में चर। छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाना कम और संभालना अधिक होता। किसी की नाक बह रही है तो किसी को पाखाने की हाजत है। एक दो बार चेद्गठा ने एक और अध्यापिका रख लेने का सुझाव भी दिया किन्तु 'देखेंगे" कह कर रमा जी ने कोई और ही प्रसंग छेड़ दिया।
एक दिन, बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी। विद्याचरण अभी नहीं लौटा था। रमा जी कुछ देर पहले बच्चों से प्राप्त फीस, बैंक में जमा कराने चली गई थीं। तब मौसम साफ था। इसलिये वे छाता भी नहीं ले गईं। मगर मौसम बदलते देर ही कितनी लगती है। विद्याचरण तो लगभग पूरा ही भीग कर घर पहुंचा था। जाती हुई रमा जी यह घर -स्कूल, चेषठा के हवाले विद्याचरण के लौट आने तक के लिये कर गई थीं। उसको कंपकपाते देख चेष्टा ने स्टोव जलाकर चाय के लिये पानी रख दिया। जितनी देर में विद्याचरण ने कपड़े बदले, चाय तैयार थी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।
"आपको देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ी लिखी हैं, हर तरह से ठीक हैं। तब भी।।।खैर मैं कोशिश करूंगा आप के लिये।''
चेष्टा जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी।
"आपके लिये लड़कों की क्या कमी! ऐसा वर खोजकर दूंगा, जो लाखों में एक हो। बिल्कुल आप के योग्य--- आप तो कुछ बोल ही नहीं रही!''
चेष्टा ने तनिक सी दृष्टि उठाकर, विद्याचरण की ओर देखा।
"इस समय भी मेरी नज़र में एक बहुत अच्छा लड़का है। काफी बड़ा अफसर है। मुझे न नहीं करेगा। सुन्दर है, अच्छे घराने से भी है --- बोलिये?''
वह कुछ समीप आ गया था।
चेष्टा थर थर कांप रही थी।
"आपको शायद ठंड लग रही है। एक कप अपने लिये भी बना लेना चाहिये था। कहिये तो मैं बना दूं?''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''
"देखिये, आप को ये बातें मेरे पिता जी से करनी चाहिये।''
"उनसे तो हो ही जायेंगी, पहले आप तो हां करें।''
इस बीच विद्याचरण कितना आगे बढ़ आया था, चेषठा ने इस पर ध्यान ही न दिया था। किन्तु जब विद्याचरण ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "बस आपके हां कहने की देर है।'' तो चेष्टा उछल सी पड़ी।
अब वह डर या सर्दी से नही, बल्कि क्रोध से कांप रही थी।
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''
मालूम नहीं, रमा जी ने 'बात" को कहां तक समझा, या विद्याचरण ने किस प्रकार उन्हें 'असली बात" समझाने का प्रयास किया।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210
ब्लाग पर
(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210
ब्लाग पर
(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।
वहीं दूसरी ओर बदलते श्रम संबंधों और अपने पांव पसार रही भ्रष्ट राजनैतिक, सामाजिक ढांचे की बुनावट में फैलती जा रही अप-संसकृति ने जल्द से जल्द पूरे वातावरण में छा जाने की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया है। मात्र दो एक रचनाओं की शुरुआती पूंजी को ही उनके रचना संसार का स्वर देख लेने वाली आलोचना भी ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रही है।
यहॉं प्रस्तुत सोना शर्मा की कहानी उनकी प्राकाशित प्रथम रचना है। उस पर टिप्पणी करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि वे लगातार लिखती रहे और खूब-खूब पढ़े. ताकि जटिल होते जा रहे यथार्थ को समझने में अपने विकास की गति पकड़ सकें।)
कथाकार सुभाष पंत के नये उपन्यास का मुख्य पात्र
''आओ तुम्हे एक कहानी सुनाता हूं।"
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।
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