Sunday, August 2, 2020

अपने शब्दों में सेरेना विलियम्स

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि वर्ष 2008 के आस-पास इंटरनेट की दुनिया में अपने लिखे हुए के प्रकाशन के लिए यादवेन्द्र जी ने सर्वप्रथम इस ब्लाग को ही चुना। दूसरी भाषओं के अनुवाद ही नहीं, यादवेन्द्र जी की रचनाएं भी इस ब्लाग को तब से ही समृद्ध करती रही हैं।

इस दौरान अनुवादों पर आधारित उनकी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं।

हिंदी की दुनिया यादवेन्द्र जी को उनके अनुवादों की वजह से ही नहीं, उनके विषय चयन से भी पहचानती है। टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स के जीवन संघर्ष का ब्योरा प्रस्तुत करने की कोशिश उनकी अगली पुस्तक का विषय है।

प्रस्तुत है संभावना प्रकाशन,हापुड़ से इस साल के अंत तक प्रकाशित होने वाली उनकी किताब का एक अंश।

यादवेन्द्र

 

हालाँकि सेरेना अपने बारे में व्यक्तिगत विवरणों का ज्यादा खुलासा करने की अभ्यस्त नहीं हैं फिर भी मीडिया में उपलब्ध उनके कुछ इंटरव्यू से लिए गए उद्धरणों के आधार पर उनकी शख्सियत को समझना कुछ कुछ संभव है : 

 

वैसे मैं बहुत साफ तौर पर तो नहीं जानती लेकिन मुझे लगता है कि मैंने जब से होश संभाला तब से मुझे मालूम है कि मैं काली हूं। जिस दिन से मैं टेनिस की दुनिया  में आई हूँ  उस दिन से मुझे ऐसा ही लगता है। जब हम छोटे थे उस समय के बारे में बताती हूँ : हम घर से बाहर निकल कर पास के पार्क में जाते थे जहाँ  हम खेलने की प्रैक्टिस करते थे। उन पार्कों में हमें हमेशा गोरे लोग दिखाई देते थे , शायद ही कोई काला इंसान दिखाई देता था...वे वहाँ  टेनिस खेला करते थे। जहाँ  तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे लगता है कि शुरू से मुझे मालूम था : मैं काली हूँ । मुझे यह भी मालूम था कि मैं औरों से थोड़ी अलग हूँ , जो मैं कर रही हूँ वह औरों से कुछ अलग है। हमारे साथ हमारा परिवार होता था, वीनस होती थी हमारी अन्य बहनें भी होती थीं।एक बार की बात याद आती है जब मैं और वीनस प्रैक्टिस कर रहे थे, आसपास के तमाम गोरे लड़के हमारे पास आये और हमें घेर कर खड़े हो गए -वे ब्लैकी ब्लैकी कह कर हमें चिढ़ाने लगे।तब मेरी उम्र सात साल के करीब रही होगी... मुझे अच्छी तरह याद है,उनका चिढाना सुन कर मेरे मन में निश्चय आया : मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,तुम्हें जो कहना हो कहते रहो। अब सोचती हूँ तो लगता है कि उस उम्र में ऐसी बातें सोचना बहुत सामान्य नहीं था, उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए.... वह हिम्मत मुझ में शुरू से ही थी।

 

मेरे माता पिता शुरू से यह चाहते थे और हमें सिखाते थे कि हम जो हैं जैसे हैं,उसके लिए हमारे मनों में किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व का भाव होना चाहिए।      अफ़सोस यह कि अपने आसपास हम देखते हैं बहुत सारे काले लोगों -खास तौर पर युवाओं  को -हर पल यह कह कर निरुत्साहित किया जाता रहता है कि तुम बदसूरत हो...तुम्हारे केश भद्दे लगते हैं...तुम्हारी त्वचा कितनी काली है। हमें शुरू से खुद को प्यार करना, खुद को सम्मान देना सिखाया गया। मेरे डैड हमेशा कहते कि तुम्हें अपना इतिहास अपनी विरासत जाननी चाहिए - जो अपनी विरासत  अपना इतिहास जानता है वही अपने भविष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जा सकता है। हम लोगों को शुरू से टीवी पर अपने इतिहास, अपने संघर्षों, अपने विरासत के प्रोग्राम देखने को कहा जाता था .......एलेक्स हेली के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित रूट्स जैसे प्रोग्राम - इस तरह के कार्यक्रम हम जरूर देखते थे और ढूंढ ढूंढ कर देखते थे जिससे हम अपने इतिहास से रू ब रू हो सकें। जब आप अपने पुरखों को इस तरह के संघर्षों से जूझते हुए विजयी होकर निकलते हुए देखते हैं तब आपका मन गर्व से भर जाता है और भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं। माया एंजेलू ने भी तो अपनी कविता में कहा है: हम गुलामों की उम्मीदें हैं, हम गुलामों के सपने हैं। यह पता चलने के बाद कि अपने पुरखों के ऐसे कठिन संघर्षों की बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं और ढ़ंग की जिंदगी जी रहे हैं , मैं काले रंग के अलावा किसी और रंग में जन्म नहीं लेना चाहती। किसी और कुल वंश (रेस) का  सैकड़ों सैकड़ों सालों का ऐसा कठिन संघर्ष का इतिहास नहीं रहा है और यह तो जगजाहिर है कि मजबूत इंसान ही काल के थपेड़ों को झेल कर जिंदा बच पाते हैं,पनप पाते हैं - कोई शक नहीं कि हम काले लोग शरीर और मन दोनों से सबसे मजबूत लोग हैं।अपने जीवन के पल पल मैं अपना काला रंग धारण कर के गौरवान्वित महसूस करती हूं।

 

वीनस ने और  मैंने टेनिस की दुनिया में जब से कदम रखा है सफलता हमारे पक्ष में रही है और हम दोनों एक के बाद एक अगली  सीढ़ी पर चढ़ते गए हैं। हम दोनों में एक और बात समान थी कि हम अपने किए को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं महसूस करते थे।हम अपने केशों में जिस तरह की लड़ियाँ  बनाते थे उसको लेकर हमें कभी यह नहीं लगा कि घर से बाहर निकलेंगे तो कैसा लगेगा। गोरों की दुनिया का खेल है टेनिस और हम काले थे लेकिन हमें कभी उनके बीच रहकर खेलते हुए डर नहीं लगता...यह कोई सहज सामान्य बात नहीं थी पर हममें थी।

 

हमारी माँ ने हमें बचपन से भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया जिससे जब दर्शक हमारे काले होने या स्त्री होने को लेकर फब्तियाँ  कसें या हमें निशाना बनाएँ तो मालूम हो हमें उससे कैसे निबटना है। उन्होंने हमें यह पाठ पढ़ाया कि हम जैसे हैं  उस पर किसी तरह की शर्मिंदगी न महसूस करें - खास तौर पर अपने केश और शारीरिक बनावट को लेकर , अपनी विरासत, अपने पुरखों के संघर्ष को लेकर मन में निरंतर गर्व का भाव महसूस करें। मुझे उनकी परवरिश का यह पक्ष सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। मैं अपनी बेटी को इन्हीं मूल्यों के साथ बड़ा कर रही हूँ ।

 

 जब मैं किसी काम को हाथ लगाती हूँ  तो उतना फोकस अपने काम में लाती हूँ  जिससे मैं दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ - और ऐसा नहीं कि मैं इतने से संतुष्ट हो जाती हूँ   बल्कि निरंतर और बेहतर काम करने की कोशिश करती हूँ । काफी कम उम्र में - जहाँ  तक मुझे याद आता है 17 साल की उम्र में - मैंने अपने बारे में अखबारों में छपा कोई समाचार पढ़ना छोड़ दिया था।मुझे लगता है कि इस आत्मसंयम के कारण मुझे बहुत लाभ हुआ, मैं अपने खेल पर ज्यादा फोकस कर पाई। मैं उन दिनों को याद करती हूँ तो मुझे लगता है  मेरे खेल की ज्यादा नुक्ताचीनी इस लिए की जाती थी क्योंकि मैं मुझमें आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ था - लोगों को ताज्जुब होता था मैं गोरी नहीं बल्कि काली हूँ , गोरों का खेल टेनिस खेलती हूँ  और आत्मविश्वास से इतनी लबरेज हूँ , ऐसा कैसे हो सकता है?

 

मैं अपने आप को हमेशा यह कहती थी कि मैं एक दिन दुनिया की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बनूँगी, मुझ में वह काबिलियत है। और हाँ मैं क्यों न सोचूँ  ऐसा - जब मैं दुनिया के शिखर पर होने के बारे में सोचूँगी ही नहीं तो मैं उस श्रेणी का खेल खेल भला कैसे सकती हूँ ?

 

एक समय ऐसा था जब अपने शरीर को लेकर मैं खुद भी असहज रहती थी, मुझे लगता था कि मैं बहुत बलवान और हृष्ट पुष्ट हूँ । फिर एक सेकंड को सोचती: कौन कहता है कि मैं इतनी बलवान और तगड़ी हूँ ? इसी शरीर ने तो मुझे दुनिया का महानतम खिलाड़ी बनाया, मैं उसके बारे में ऐसी ऊल जलूल बातें भला क्यों सोचने लगी।और आज मेरा यही शरीर एक स्टाइल बन गया है, मुझे इसके बारे में सोच सोच कर बहुत अच्छा लगता है। अब वह समय आ गया है जब मेरा यही शरीर दुनिया भर में एक स्टाइल बन कर धूम मचा रहा है। यहाँ  तक पहुँचने में वक्त लगा - जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ  तो अपने अपनी मॉम और डैड का शुक्रिया अदा करना कभी नहीं भूलती जिन्होंने बचपन से मुझ में विश्वास कूट कूट कर भरा।

ऐसा भी तो हो सकता था कि वे  रंग,केश और शरीर को लेकर मुझे औरों की तरह हतोत्साहित करते... तब तो मैं आज जिस सीढ़ी पर हूँ  वहाँ  तक पहुँचने का कोई सवाल ही नहीं होता। तब मैं अलग तरह से अपना जीवन जीती,अलग ढंग की एक्सरसाइज करती, कोई और अलग ही काम कर सकती थी। आज यहाँ खड़े होकर मैं जो कुछ भी हूँ , जैसी भी हूँ  उसको लेकर  बेहद खुश हूँ ,जिन लोगों ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचने में मदद की उनकी  शुक्रगुजार हूँ । मुझे इस रूप में ऐसा होना बहुत रास आ रहा है, यहाँ खड़ी होकर मैं बेहतर और शक्ति संपन्न महसूस कर रही हूँ।"

 

अपनी आत्मकथा "क्वीन ऑफ़ द कोर्ट : ऐन ऑटोबायोग्राफ़ी" में सेरेना विलियम्स बचपन का उदहारण देती हैं कि अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने की धुन मेरे  ऊपर इस कदर सवार थी कि प्रेरक उद्धरणों को कागज़ पर लिख कर मैं  अक्सर अपने रैकेट बैग के ऊपर उन्हें चिपका देती स्व मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह उद्धरण मुझे  बेहद प्रिय था :" अपने भावों को चेहरे पर मत आने दो तुम काले हो और तुममें कुछ भी झेल लेने की कूबत है ....डटे रहो डिगो नहीं ,झेल लो जो भी सामने आये .... बस तन कर खड़े रहो। " और "शक्तिशाली बनो काले हो तो क्या हुआ अब तुम्हारे चमकने निखरने का वक्त आ गया है अपनी श्रेष्ठता पर भरोसा रखो। लोग तुम्हें क्रोधित देखना चाहते हैं .... क्रोध करो,पर ऐसे करो कि लोगों को यह आग दिखायी न दे।" 

जाहिर है उन्हें अपनी ऐतिहासिक भूमिका और जिम्मेदारी का भरपूर एहसास है तभी तो वे कहती हैं :"मैं खुद के लिए खेलती हूँ पर साथ साथ उनके लिए भी खेलती हूँ जिनकी हैसियत मुझसे ज्यादा बड़ी है - मैं उनका प्रतिनिधित्व भी करती हूँ। मैं अपने बाद आने वाली पीढ़ी के लिए भी दरवाज़े खोलती हूँ।"

 

(सेरेना की तस्‍वीरें इंटरनेट से साभार ली जा रही हैं)


Friday, July 17, 2020

थके न जो, डिगे न जो


 राधाकृष्ण कुकरेती-स्मृति दिवस 
15 सितंबर 1935 -17 जुलाई 2015

अरविंद शेखर


किसी भी व्यक्ति के निर्माण में उसके जीवन में घटी घटनाओं और अनुभव का योगदान होता है। गौतम बुद्ध ने बूढ़े बीमार और मृत व्यक्तियों को देखने के बाद अनुभव किया था कि जीवन का सुख भौतिक पदार्थों के उपभोग में नहीं है। मानव जीवन को दुखों से मुक्त करने के लिए वे संन्यासी हो गए। राधा कृष्ण कुकरेती ने भी बचपन में और किशोरावस्था में साहूकार के कर्ज तले रिरियाते गरीब किसानों को देखा। लेकिन उनमें वैराग्य नहीं पैदा हुआ बल्कि उन्होंने उस विचार को अपनाया जो केवल यही व्याख्या नहीं करता था कि दुनिया ऐसी क्यों है बल्कि यह राह भी सुझाता था कि दुनिया कैसे बदल सकती है। संभवत: समाजवाद या यूं कहें कि मार्क्सवाद ही ऐसा विचार था जिसने कि पहाड़ के एक सीधे-साधे युवक को उसने अपने साहूकार पिता के देहांत के बाद तमाम कर्ज के पट्टे स्टांप पेपर और बही खाते आग में झोंक कर स्वाहा करने के लिए प्रेरित कियाताकि उनके कर्ज में डूबे किसान कर्ज के बोझ से आजाद हो सकें।
15 सितंबर 1935 को पौड़ी जिले की उदयपुर पट्टी के नौगांव में जन्मे राधा कृष्ण कुकरेती के पिता महानंद कुकरेती इलाके के साहूकार थे । माता गौरा देवी सामान्य पहाड़ी गृहणी। पिता उन्हें उनका पुश्तैनी धंधा सिखाने के लिए लोगों से वसूली को भेजते। मगर कर्ज लेकर गरीबी के कारण उसे न चुका सकने की हालत वाले किसानों के कष्टप्रद हालात उनसे देखे न जाते। सोचते इन लोगों को उनके दुखों से निजात कैसे मिलेगी। गरीबों के प्रति करुणा से भरे राधा कृष्ण बिना वसूली ही घर लौट आते। पिता का यह व्यवसाय उन्हें रास न आया। समय भी देश— दुनिया में समाजवादी विचारधारा के उदय और उत्कर्ष का था। 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति को हुए कुछ ही दशक बीते थे। नई प्रगतिशील सामाजिक चेतना अंगड़ाई ले रही थी। छात्र जीवन में ही राधा कृष्ण कुकरेती को भी दुनियां के हालात बदल देने की उम्मीद जगाने वाला भौतिकवादी दर्शन मार्क्सवाद पसंद आया जिसे उन्होंने जीवन पर्यंत अपनाए रखा। विचार के रूप में भी और व्यवहार के रूप में भी। 
15 अगस्त 1981 को नया जमाना के रजत जयंती विशेषांक के संपादकीय में उन्होंने लिखा भी— “ मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह समझता हूं कि छात्र जीवन से ही साम्यवादी दर्शन से जुड़ा तो फिर जुड़ा ही रह गया। नि: संकोच कहता हूं कि उसी दर्शन ने प्रतिबद्धता के साथ शोषितपीडि़त इंसान के संघर्षों में खड़े रहने की शक्ति दी और नया जमाना के माध्यम से भी जूझने को प्रेरित कियाहताशा की स्थिति में कभी टूटने नहीं दिया।
पत्रकारवामपंथी कार्यकर्ता विचारक और साहित्यकार राधा कृष्ण कुकरेती ने कक्षा दो तक की पढ़ाई अपने गांव के पास के स्कूल में ही की थी। उसके बाद दर्जा चार तक की पढ़ाई उन्होंने अपने ननिहाल अमला में की। पिता साहूकार थे मगर खुद्दार राधा कृष्ण ने ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवें दर्जे तक पढ़ाई की और हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए देहरादून के तब के इस्लामिया हाईस्कूल देहरादून में दाखिला ले लिया। इस्लामिया स्कूल को आज गांधी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। इसके बाद आगे की यानी इंटर की पढ़ाई के लिए उन्होंने काशीपुर का रुख किया। इंटर के दौरान ही उन्होंने जनजागृति नामक अखबार शुरू किया। इंटरमीडिएट पास करने बाद वे देहरादून आ गये।
छात्र जीवन के समय से ही वह कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए थे। देश की आजादी के बाद 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटी तो वह उसके सदस्य बन गए। इसी आंदोलन की प्रेरणा से पहाड़ की पहाड़ सी समस्याओं से उद्वेलित राधा कृष्ण कुकरेती ने पहले साप्ताहिक कर्मभूमि और पर्वतीय में पहाड़ की समस्याओं को उठाना शुरू कर दिया। लेकिनबाद में खुद का अखबार निकालने का निश्चय किया। उन्होंने छात्र जीवन में ही काशीपुर से हरीश ढौंढियाल के साथ मिलकर जन जागृति’ नाम के अखबार प्रकाशित किया। अखबार के प्रकाशक थे नैनीताल भाकपा के जिला सचिव हरदासी लाल मेहरोत्रा। इस अखबार को वह एक साल यानी ( 1954 से 1955) ही चला पाए। मगर लगन के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती 1956 में एक झोला और एक छोटी सी अटैची बगल में दबाए हुए कॉमरेड बृजेंद्र गुप्ता के घर पहुंचे और देहरादून से साप्ताहिक समाचार पत्र निकालने का इरादा जाहिर किया। तब के पार्टी नेता व बाद में विधायक चुने गए गोविंद सिंह नेगी को उनका इरादा हास्यास्पद सा लगा कि आखिर एक व्यक्ति जिसके पास पूंजी के नाम पर महज एक फटीचर अटैची और झोला हो वह अखबार कैसे निकाल पाएगा। मगर युवक का उत्साह वह कम नहीं करना चाहते थे नतीजतन कुछ नहीं कहा और सोचा कि कुछ दिन चक्कर काटेगा तो थक हारकर अखबार निकालने का नशा रफूचक्कर हो जाएगा।  लेकिन जिद के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती ने 15 अगस्त 1956 से नया जमाना साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू कर दिया। नया जमाना नाम शायद उस वक्त भाकपा के मुख्यालय बंबई से निकलने वाले अखबार न्यू एज से प्रेरित था। बहरहालनया जमाना का यह पहला अंक युगवाणी प्रेस में छपा। इसके बाद एक दो अंक भास्कर प्रेस से छपे लेकिन दूसरे प्रेस से प्रकाशन की दिक्कतों को समझ उन्होंने अपनी प्रेस लगाने की ठानी और तीन महीने के बाद नया जमाना अपनी खुद की प्रेस से छपना शुरू हो गया। नया जमाना’ का प्रकाशनसम्पादन करने के साथ ही उन्होंने डीएवी कॉलेज में पढ़ाई भी जारी रखी और समाजशा स्त्र में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 से शुरू हुआ शोषित समाज और उत्तराखंड के सरोकारों को आवाज देने की मिशनरी पत्रकारिता का यह सफर राजनीतिक उथलपुथलोंमुकदमेबाजी के तमाम संकटों के बावजूद निरंतर जारी रहा। अपने सफर में नया जमाना ने कभी विचारधारा की टेक नहीं छोड़ी। यह राधा कृष्ण कुकरेती की ही झंझावातों से टकराने की जिजीविषा थी कि नया जमाना ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई भी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ी। इस लड़ाई में नया जमाना को कई बार सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे पर कभी विज्ञापन बंद कर दिए गएप्रलोभन दिए गए। प्रेस में चोरियां तक हुईं। सारा का सारा टाइप चुरवा दिया गया। कई बार लगा कि नया जमाना डिग जाएगाकुकरेती टूट जाएंगे लेकिन व सच की लड़ाई की मशाल थामे रहे। 1957 में उप्र के वन उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के लाखों के प्लॉट घोटाले को उजागर करने पर उनके अखबार पर छापा तक पड़ा। कुकरेती को संपादक प्रकाशक व मुद्रक की हैसियत से जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक के चक्कर काटने पड़े। करीब एक साल तक नया जमाना के विज्ञापन बंद कर दिए गए। उस वक्त एक ओर नया जमाना चीनी हमले का विरोध कर रहा था उधर उप्र सरकार ने नया जमाना को ब्लैक लिस्ट कर दिया। इस दौर में लगातार संघर्षों के थपेड़ों से उनकी हिम्मत चूकने लगी। 1959-60 के करीब रमेश सिन्हा व राजीव सक्सेना के संपादकत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लखनऊ से मासिक पत्रिका नया पथ का प्रकाशन शुरू किया था। इस वक्त राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना के साथ ही देश के तमाम पत्र-पत्रिकाआ में छप रहे थे। राजीव सक्सेना की निगाह उन पर पड़ी तो उन्होंने साथ काम करने का न्यौता दिया। तब महापंडित राहुल सांकृत्यायन नया पथ के सलाहकार संपादकों में थे। राधा कृष्ण कुकरेती को लगा कि नया पथ में काम किया जा सकता है वह दौड़े-दौड़े राहुल से सलाह लेने मसूरी चले गए। राहुल ने उनकी बात सुनी मगर कहा कि अगर वह पलायन कर लखनऊ चले गए तो नया जमाना के जरिए पर्वतीय क्षेत्र की जनता की आवाज कौन उठाएगा। कुछ अरसे बाद नया पथ बंद हो गया और राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना में मशगूल।
उत्तरकाशी का तिलोथ कांड को या बयाली का वन मजदूरों का आंदोलनटिहरी बांध के विस्थापितों की समस्याएं हों या तराई के भूमिहीनों का आंदोलन इन सभी संघर्षों को राधाकृष्ण कुकरेती नया जमाना के जरिए धार देते रहे। स्वामी रामदंडी का परदाफाश नया जमाना की पत्रकारिता की मिसाल है। इमरजेंसी के जमाने में जब सारे पत्र पत्रिकाएं सत्ता की ताकत के आगे अपने घुटने टेक रहे थे तो भी नया जमाना ने अपना आत्मसम्मान कायम रखा और लगातार जनता के पक्ष में लिखता रहा। 1966 में देहरादून के बीबीवाला और गुमानीवाला के सात किसानों के शोषण के खिलाफ नया जमाना ने आवाज उठाई तो ऋषिकेश के जयराम अन्न क्षेत्र के संचालक मानद मजिस्ट्रेट व एक बड़े फार्म के मालिक महंत देवेंद्र स्वरूप ब्रह्मचारी ने दफा 500 के तहत मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तबके अतिरिक्त जिलाधीश ज्युडिशियल एसएस फैंथम ने नया जमाना की मुहिम को सराहा और साफ किया कि अभियोगी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट है। .. निसंदेह यह जनहित में है कि एसे व्यक्ति का असली चरित्र और कारनामे जनता के सामने लाए जाएं। फैसला नया जमाना के हक में हुआ। मुकदमे के बाद सभी किसान नया जमाना के जरिए कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए। 1968 में उत्तरकाशी के कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने लाइसेंस परमिट चोरी का भंडाफोड़ किया तो प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया। उनके साथ अन्यायपूर्ण सलूक को नया जमाना ने खुलकर छापा। अब यह लड़ाई सीधे जनता और भ्रष्ट प्रशासन के बीच का लड़ाई बन गई। नतीजा यह हुआ कि नया जमाना के संपादक राधा कृष्ण कुकरेती व दूसरे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर एसडीएम कोर्ट की मानहानि का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया गया। लेकिन प्रशासन की हार हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट जस्टिस ब्रह्मानंद काटजू ने जो फैसला दिया वह प्रशासन के लिए कड़ा सबक था। रिश्ते नातों और पहचान को उन्होंने कभी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया। उस जमाने में महंत इेंश चरण दास कुकरेती देहरादून के बड़े कांग्रेस नेता और बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करते थे। जब देश के तत्कालीन गृह मंत्री व उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत का निधन हुआ तो पूरे देश में राजकीय शोक घोषित हुआ था। उसी दिन श्री गुरु राम राय दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। इस पर राधा कृष्णकुकरेती ने नया जमाना में तल्ख शीर्षक के साथ टिप्पणी की। जहां सारे देश में राष्ट्रीय झंडा  झुकाया जा रहा था वहीं दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। यह उन्होंने तब लिखा जब महंत इेंश चरण दास से उनके बहुत अच्छे निजी संबंध थे।
राधा कृष्ण कुकरेती ने जब नया जमाना शुरू किया तब उसमें बंशीलाल पुंडीर और राधा कृष्ण कुकरेती के अध्यापक और मार्गदर्शक आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल की बड़ी अहम भूमिका रही। ये दोनो बरसों तक नया जमाना के संपादक मंडल में रहे। आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल लोकायन नाम से तो बंशीलाल पुंडीर अपने ही नाम के साथ। हालांकि नया जमाना को बहुत से लोग अपने लेखखबरें और रचनाएंभेजते थे मगर राधा कृष्ण कुकरेती यानी एकोहम बहुष्यामि। वह ऐसे संपादक थे जो खुद ही अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग भी करतेविज्ञापन भी जुटातेसंपादन भी करतेकंपोजिंग भी करते और अखबार डिस्पैच भी खुद करते थे। इतना ही नहीं अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिए पाठक भी जुटातेखुद ही चंदे की रसीद काटते। जब तक राधा कृष्ण कुकरेती जीवित और वह खुद अपने अखबार का काम देखते रहे देहरादून की कचहरी रोड स्थित उनके अखबार का दफ्तर यानी नया जमाना प्रेस’ में उत्तराखंड के प्रगतिशील बुद्धिजीवी रचनाकार एक बार उनसे मिलने जरूर जाते थे।
राधा कृष्ण  कुकरेती जब 14 क्रॉस रोड में एक फौजी अफसर के घर रहते थे तब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का डेरा उन्हीं के घर में लगता था। जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी लिखी तो गढ़वाली उन दिनों राधा कृष्ण कुकरेती के साथ ही रहा करते थे। 1953—54 से ही वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव कामरेड पीसी जोशी के संपर्क में थे। कामरेड पीसी जोशी ने ही सबसे पहले अलग पर्वतीय राज्य का नारा दिया। तब कुकरेती के घर हिंदी के जाने माने कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी और एनडी सुंदरियाल आदि न जाने कितने लोग डेरा जमाते। यहां और नया जमाना के दफ्तर में लगातार सिगरेट के कश लेते हुए राधा कृष्ण कुकरेतीमिलने आने वालों से घंटों बतियाते।

महज पत्रकार नहीं प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी
राधा कृष्ण कुकरेती महज पत्रकार नहीं थे वह प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी थे। उनमें संगठन की क्षमता भी गजब की थी। साम्यवादी विचारधारा ने उन्हें छात्रोंखेतिहर मजदूरोंपत्रकारों तक को संगठित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिल स्टूडेंट यूनियन के गठन में भी अहम भूमिका निभाई थी। 14 अक्टूबर 1969 की बात है। मसूरी के सेवाय होटल में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त की अध्यक्षता में पर्वतीय परिषद की बैठक चल रही थी। वहां पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली दूधातोली में उत्तराखंड विश्वविद्यालय की मांग उठाने के लिए पहुंचे थे। अकेले गढ़वाली को मानव दीवार बना कर पुलिस व प्रशासन ने मुख्यमंत्री से मिलने न दिया। चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपना भोंपू निकाला और उसके जरिए अपनी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगे। तभी देहरादून से राधा कृष्ण कुकरेती के नेतृत्व में करीब डेढ़ दर्जन छात्र व युवा वहां पहुंच गए। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुख्यमंत्री का शाम का कार्यक्रम शरदोत्सव के उद्घाटन का था। इस बीच राधा कृष्ण कुकरेती ने स्थानीय ट्रेड यूनियनों से संपर्क किया और नयी रणनीति बनाई। शाम को जब चंद्र भानु गुप्त पैदल शरदोत्सव के उद्घाटन को निकले तो कुलड़ी की ओर से वीर चंद्र सिंह गढ़वाली घोड़े में सवार आ रहे थे साथ ही उनके साथी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जो भीड़ सीएम के साथ दिख रही थी, वह चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ हो ली। उसके बाद एक कामयाब सभा भी हुई। सामाजिक राजनैतिक मूल्यों के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती का समर्पण किस कदर था उसकी मिसाल है कोटद्वार में पृथक उत्तराखंड को लेकर हुआ सम्मेलन। इस सम्मेलन में टिहरी रियासत के भूतपूर्व नरेश मानवेंद्र शाह भी आमंत्रित थे। जब गढ़वाल के वरिष्ठ पत्रकार ने मानवेंद्र शाह को राजा कह कर संबोधित किया तो राधा कृष्ण कुकरेती ने तत्काल सख्त ऐतराज जताया और कहा कि अब मानवेंद्र शाह राजा नहीं रहे उन्हें राजा की उपाधि के साथ संबोधित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह उन्होंने बिना किसी हिचक लिहाज के सामंतवाद विरोधी विचार को व्यक्त किया। राधाकृष्ण कुकरेती ने सन 1952 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में जब भाकपा में टूट के बाद और एक नई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) बनी तो वह मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही बने रहे। इस दौरान उन्होंने भारतसोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा भी की। बाद में भाकपा से कुछ मतभेदों के कारण वे श्रीपाद अमृतपाद डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्यु के बाद भाकपा नेता समर भंडारी उन्हें फिर से उनकी मूल पार्टी भाकपा में लौटा लाए। 80 के दशक में राधा कृष्ण कुकरेती ने भाकपा के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून शहर सीट से चुनाव भी लड़ा ।
सांगठनिक क्षमता के धनी राधा कृष्ण कुकरेती उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। तब या तो परिपूर्णानंद पैन्यूली या आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष होते। यूनियन के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहींकुकरेती विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। उन्होंने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्मॉल न्यूजपेपर एसोसिएशन का गठन भी किया। बिना इस्तरी किए खादी का कुर्ता व पायजामा पहने रहने वाले राधा कृष्ण को शायद उनकी विचार धारा ने ही उन्हें सहजमिलनसारमददगार मानवीय और दूसरों के लिए लडऩे वाला बनाया था। माकपा के एक अविवाहित कॉमरेड थे मेला राम। पहले वह भी भाकपा में थे लेकिन 1964 में माकपा में चले गए। वह हमेशा माकपा के काम में जुटे रहते। मगर उनके रहने का कोई ठिकाना न था। उस जमाने में भाकपा व माकपा में काफी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता था। वह बहुत बीमार रहने लगे ऐसे में राजनीतिक वैचारिक मतभेद की परवाह किए बगैर राधा कृष्ण कुकरेती ने उनके लिए भाकपा के पल्टन बाजार स्थित दफ्तर में जगह बनाई। मेलाराम अधिक बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी  देखभाल करने वाला कोई परिजन न था। उनकी तीमारदारी में राधा कृष्ण कुकरेती ने कोई कोर कसर न छोड़ी। रोज दून अस्पताल जाते और घंटों समय बिताते। मेलाराम बाद में फिर भाकपा में शामिल हो गए थे। कॉमरेड मेलाराम के देहांत पर उन्होंने एक आम आदमी की मौत शीर्षक से लंबा अविस्मरणीय संस्मरण लिखा। साम्यवादी सिद्धांत के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि अपने जीवन में ही उन्होंने सोवियत संघ को विश्वशक्ति बनते देखाचीनकोरियाक्यूबावियतनाम में क्रांतियां प्रतिक्रांतियां होती देखीं सोवियत संघ को बिखरते देखावाम आंदोलन का प्रभाव कम होते देखा और दक्षिणपंथ का उभार भीमगर उनका विचारधारा से विश्वास नहीं डिगा।

एक कथाकार जिसका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है
राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थेजिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता नहीं की बल्कि कहानियों के जरिए भी अपनी बात रखी। उनकी कहानियां एक दौर में सारिका जैसी नया पथ जैसी जानी मानी साहित्यिक पत्रिकाआें में प्रकाशित होती थीं। यह बात और है कि  उनके कथाकार को हिंदी साहित्य में वैसी पहचान नहीं मिल पाई जैसी कि मिलनी चाहिए थी। उनके पत्रकार और वामपंथी राजनैतिक सामाजिक  कार्यकर्ता और विचारक के व्यक्तित्व की छाया में उनके साहित्य का अब तक सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनके साहित्यिक अवदान का मू्ल्यांकन होना अभी शेष हैजबकि वह पचास के दशक से ही लगातार कहानियां लिख रहे थे। हालांकि बाद के दौर में उनके कथा लेखन की रफ्तार कम हो गई। आंचलिकता से भरपूर उनकी कहानियों में उपेक्षित व वंचित पहाड़ की जिंदगी आकार लेती है । उनकी कहानियों में कहीं जाड हैं तो कहीं वनगूजर या जौनसारबावर की जिंदगी। संभवत: हिमालयी सरोकारों के पत्रकार होने के कारण ही ये सब उनके विषय बने। इंसाफ के मालिक राधा कृष्ण कुकरेती का पहला कथा संग्रह था। उसके बाद उनका घाटी की आवाजक्वांरी तोंगी व सरग दद्दा पाणिपाणि कथा संग्रह आए। उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण भी लिखे थे जो अब तक अप्रकाशित हैं। उनका जौनसार-बावर की पृष्ठभूमि पर लिखा एक एक पूरा उपन्यास किन्नर कन्या आज भी अप्रकाशित है। घाटी की आवाजें कथा संग्रह में राधा कृष्ण कुकरेती की 11 कहानियां शामिल हैं। इनमें किच्छ न जाणीमांस का पिंड-पाप का बोझगूजर की बेटी और पांच दिनराख का ढेरमसूरी की शामघाटी की आवाजेंएल्बमग्रेट इंडिया होटलशरारती स्मृतियांमोह की नाग फांस और पड़ोसवाली लडक़ी शामिल हैं। 1966 में प्रकाशित क्वांरी तोंगी संग्रह में 12 कहानियांखुबानी का पेड़मालापतिभूखा पेट-प्यासी चाहवह मेरी मंगेतर थीहब्शी का रोमांसक्वांरी तोंगीसवा रुपये का दस्तूर, ...और फिर मैं लौट आया, , मेरी बेटी जवान हैएक तंगसी कोठड़ी: एक बड़ा सा काटेजगृह उद्योग और ताला हैं। सरग दद्दा पाणि पाणि संग्रह में आठ कहानियां डडवार और गीत का टेरबदला हुआ चेहरासरग दद्दा पाणिपाणिलकड़ी का धर्मभोर का ताराअहा रणसूरा बाजा बजि गैनधरती का प्यार-भरती का मोहपांच बिस्वा जमीन कहानियां शामिल हैं। 
उनकी कहानियों और कथा शिल्प का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा—“ राधाकृष्ण कुकरेती जी की कहानियों में दिलचस्पी के साथ एक ताजगी मिलती है। इसका एक कारण तो यह भी है कि उनमें स्थानीय रंग बड़ी सुंदरता के साथ इस्तेमाल किया होता है। हिमालय ने हमें यशस्वी कवि और कथाकार दिए हैं। लेकिन वह स्थानीय रंग को भरने में संकोच करते हैं। तरुण कहानीकार कुकरेती इस बारे में उनसे भिन्नता रखते हैं।
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने भी राधा कृष्ण कुकरेती की भाषा शैली की खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने लिखा कि राधाकृष्ण कुकरेती बात लिखने का ढंग खूब जानते हैं। सरल होते हुए भी उनकी शैली बहुत रोचक और मन को आकर्षित करने वाली है। किसी भी लेखक के लिए यह फख्र की बात है। ग्रेट इंडिया होटल कहानी के बारे में उन्होंने टिप्पणी की कि उसे पढक़र उन्हें जोला व मोपासां की याद आ गई।
जाने माने साहित्यकार इला चंद्र जोशी ने लिखा—“ निसंदेह लेखक में अच्छे कहानीकार बन सकने के बीज वर्तमान में है और उनकी व्यंग्यात्मक शैली चुभती हुई है। वह अधिक परिपक्व होगी तो उसमें और निखार आएगा। उनकी कहानियों में रोमांटिक पुट काफी रहने पर भी सहृदयतारोचकता और ताजगी की कोई कमी नहीं दिखाई देती।
प्रसिद्ध कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी ने भी लिखा –स्वतंत्रता के बाद सभी भाषाओं के मौलिक लेखकों में उत्साह आयाशासकों के शोषण के कारण बोलियों का साहित्य दबा हुआ थाउसने भी करवट ली। सभी देश प्रेमी साहित्यकारों के आगे राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण का प्रश्न भी उठा। गढ़वाली जाति की अपनी संस्कृतिपरंपरा और इतिहास है। वहां के लेखक क्षेत्रीय साहित्य की उपज से हिंदी का भंडार भरने को उत्सुक हैं। श्री कुकरेती ने भी यह व्रत लिया है। घाटी की आवाजें हमारे जातीय साहित्य की परंपरा की सबल लड़ी है।

अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा
बाद के दिनों में राधा कृष्ण कुकरेती ने देहरादून में अजबपुर (मोथरोवाला रोड)में एक मकान खरीद लिया था। पुत्र पंकज के विवाह न करने से भी शायद वह अंदर ही अंदर घुलते थे। हालांकि अब पंकज ही नया जमाना संभाल रहे हैं। ढलती उम्र के साथ देह ने राधा कृष्ण कुकरेती का साथ देना बंद कर दियापारकिंसन की बीमारी हो गई । आंखों से दिखना कम हो गया तो सामाजिक गतिविधियां भी कम हो गईं। अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा रह रहकर उनकी जुबान पर आ जाती। पर्वतीय क्षेत्रों तक सुविधाएं कैसे पहुंचेगीपलायन से खाली होते पहाड़पहाड़ के विकास को लेकर अफसरशाही और राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण व्यवहारविकराल होता जाता भ्रष्टाचारसांप्रदायिकता जैसे मुद्दे उन्हें सालते रहते। आखिरकार लंबी बीमारी के बाद 17 जुलाई 2015 को उन्होंने अंतिम सांस ली। राधा कृष्ण कुकरेती के हर सुखदुख में साथ देने वाली वृद्ध पत्नी इंदिरा कुकरेती आज अपने बेटी दामाद के साथ देहरादून में बंजारावाला में रहती हैं। वह उनका संबल भी थीं। राधा कृष्ण कुकरेती की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार लाल झंडे में लपेटकर बिना किसी कर्मकांड के हो मगर मृत्यु के बाद देह पर किसका बस होता है। नाते रिश्तेदारों की इच्छा के मुताबिक हरिद्वार में धार्मिक रीति रिवाजों से ही उनका दाह संस्कार हुआ।

पहाड़(20-21) स्मृति अंकः एक से साभार

Wednesday, June 17, 2020

देह की मिटटी ठिठोली करती है




मंजूषा नेगी पांडे
जनम : 24 अगस्त
स्थान : कुल्लू , हिमाचल प्रदेश 
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला से राजनितिक शास्त्र में M .A 


मंजूषा नेगी पांडे की कविताओं में जीवन उस आंतरिक लय की तरह आता है जिसकी गूंज शब्दों से परे रहती है। फेसबुक की इस दुनिया में किसी दिन अचानक ही मंजूषा की ऐसी ही एक कविता से साक्षात्कार होता है। मात्र वही परिचय है मेरे लिए मंजूषा का। हालांकि जानने पर यह भी पता चलता है वे सतत कविताएं लिखती हैं। पत्र पत्रिकाओं में जिनके प्रकाशन का सिलसिला है। उनकी कविताएं संयुक्त काव्य संग्रह भी प्रकाशित है। यहां प्रस्तुत हैं मंजूषा नेगी पांडे की कुछ कविताएं।


विगौ 


नीली तहजीब

खुला आकाश
नीला परचम

जैसे उन्मुक्त स्वतंत्र
हो रहा सब निरंतर
यही अंतर

देह की मिटटी ठिठोली करती
बोली हरती
रचती नया अध्याय
जीवन के विपरीत

ये मन है उसका
शैशव की जड़ों में
यौवन का बीज

इस क्षणभंगुर काल  में
हर हाल में
है अभी समय बाकी
पन्ने बाकी

रहे बाकी एक रीत
लिखने की बस नीली तहजीब


दाना चुगने के लिए दिन ठीक है


रात आने से भरता है
सिर्फ अंधेरा
हर वस्तु ढक जाती है अंधेरे से

अंधेरे की वस्तु उजाले की वस्तु का दूसरा हिस्सा है
हर खोखली सतह के भीतर अंधेरे की परत जमा है

फिर भी दिन के फूलों को रात के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता
उनकी खुशबू नहीं बदलती
बल्कि अमलतास की डालियां इत्र से नहा जाती हैं

अंधेरे के उस पार देखने पर तीन चिड़िया नजर आती हैं
जो मुट्ठी भर उजाले की आस में है
क्यों कि रात उनका पेट नहीं भरती
दाना चुगने के लिए दिन ठीक है

दिहाड़ीदार मजदूर ऊंघ रहा है कम्बल के अंदर
बाहर फावड़ा चलता रहता है उस पर बार बार
इकठ्ठा हुई मिटटी को वो फेंक नहीं पाता
बल्कि वो अंदर ही पर्वतनुमा ढेर का आकार ले रही है

हथेलियों की रेखाओं से एक छोटी सी रेखा गायब है
अँधेरे भरी रात ने उसे निगल लिया है
पहाड़ी के ऊँचे टीले पर बने घर से स्याही हटेगी
ढोएगा एक दिन को वो सबसे पहले
खिड़कियां खुलेगी

सिमटे हुए पर्दों के बीच कालिख बाकि बची रहेगी
रात छनेगी धीरे धीरे


हो सकता है


जाड़े के कड़कड़ाते हुए पत्ते
बसंत को भेद कर हरे हो सकते हैं

आसमानी बारिश में किसी के जलते हुए
आंसुओं की आग भी हो सकती है
एक अमीबा का आकार
समय के आकार से ज्यादा भिन्न नहीं है
किसी का बंधा हुआ संयम
एक हल्की ख़ामोशी से भी टूट सकता है

दरवाजे के बाहर साँसें न लेता हुआ
जीवन भी हो सकता है
ऊँचें पर्वतों की एक श्रृंखला
हवा से भी ढह सकती है
रेगिस्तान की रेत समंदर किनारे जाकर
अपनी पिपासा शांत कर सकती है

निराश प्रेमी अजंता की गुफाओं में
जाकर दम तोड़ सकते हैं
जिन घरों में लोग सुरक्षित हैं
वे गिरती दीवारें भी हो सकती हैं
एक भीख मांगता बच्चा
स्वयं ईश्वर भी हो सकता है

लहरों से निकल कर आते नीले घुड़सवार
तुम्हारे हिस्से का युद्ध लड़ सकते हैं

हो सकता है
सुबह के सूरज ने जिद्द पकड़ी हो
ना निकलने की ठानी हो



अरसा हो गया

एक अरसा हो गया
नंगे पावं चले
चारागाहों की मखमली घास को स्पर्श किये
समंदर की भीगती लहरों में रेत के निशां बनाते

अरसा हो गया
बरसाती सड़क पर मीलों दौड़ लगाये
हाथों से पहाड़ों से घिरी झील का ठंडा पानी छुए
देवदार के वृक्षों से छन कर आती धूप को हाथों से रोके

अरसा हो गया
गेहूं की बालियों भरे खेतों में कुचाले भरे
सौंधी महक के ढेर में धसते मिटटी के घर बनाये

अरसा हो गया
गढ़ों में रुकी बारिश में कागज की नाव चलाये
ढलती सांझ तक मित्रों के घर सुख दुःख सुनाये

एक अरसा हो गया जीवन जिये



तुम ही मेरे सूर्य होगे


रहने दो इन उजालों को आस पास
जाने कब नैनों के द्वार पर गहन अँधेरा छाये
शताब्दियों में सूर्य की चमक भी कुछ फीकी हो जाएगी

तब चांदनी भी कहां छिटकी होगी
बस एक मौन अमावस
मन और देह को नियंत्रित करेगी
समय दैत्याकार रूप लेकर कुचाले भरता हुआ आगे बढ़ेगा

भयावह दृश्य मुखरित हो उठेगा
तभी इन उजालों से स्नेहिल मुद्रा में एक हाथ मुझ तक पहुंचेगा
सिमटती किरणों के मध्य से
कितनी आकाश गंगाओं को लांघते हुए

तुम्हारे समीप लाएगा मुझे
दृश्य बदल जायेगा क्षण भर में
बादलों के बीच बना इंद्र धनुष अपनी छटा बिखेरता होगा

उस समय तुम ही
बस तुम ही मेरे सूर्य होगे



जीवन की


संभावनाएं
चुनी हुई यात्राएं

सीढ़ियां चाँद
मुट्ठी भर आसमां
रखे हुए सपनों के पंख

असंतोष के बादल
सुबह कितनी
कितनी शामें
व्यथाएं
पीड़ाएं

ऐसी कितनी कथाएं

Tuesday, May 26, 2020

अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये


 इरफान खान को गए तकरीबन 1 महीने बीत चुके हैं। इरफान खान की 53 वर्ष की उम्र में कोलोन संक्रमण से 29 अप्रैल 2020 को मृत्यु हो गई ।
गार्जियन के पीटर ब्रेड ने इरफान खान के बारे में लिखा है
'a distinguished characteristic star in Hindi and English language movies whose hardworking career was an enormously valuable bridge between South Asia and Hollywood cinema'.
इरफान खान ने 30 से ज्यादा फिल्मों में काम किया उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत टीवी सीरियल चंद्रकांता , भारत एक खोज , बनेगी अपनी बात जैसे सीरियल से की ।उन्होंने ने हासिल, सलाम बॉम्बे (1988), मकबूल (2004), वारियर, रोग् जैसी फिल्मों में काम किया। हासिल फिल्म के लिए उन्हें फिल्म फेयर में सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार भी मिला। 30 वर्ष के अरसे में उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड ,एशियन फिल्म अवार्ड, 4 फिल्म फेयर अवार्ड तथा एशियन फिल्म अवार्ड मिले। 2011 मे उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
सलाम बॉम्बे उन्होंने 1988 में की इसके बाद उन्हें कई वर्षों का कड़ा संघर्ष करना पड़ा। वास्तव में यह समय उनके करियर का सबसे कठिन समय था उनके जवानी के फॉर्मेटिव ईयर्स इस संघर्ष के दौरान जाया हो गए ,वरना शायद उनका योगदान फिल्मों में कहीं ज्यादा होता।
2003 में हासिल और 2004 में मकबूल से उन्हें ब्रेक मिला ।नेम सेक (2006), लाइफ इन ए मेट्रो (2007 )और पान सिंह तोमर (2011) उनकी बेहतरीन फिल्मों में थी। लंच बॉक्स (2013 ),पीकू (2011), तलवार (2015 )की सफलता ने उन्हें फिल्म जगत की ऊंचाइयों पर पहुंचाया। कुछ हॉलीवुड की फिल्मों में उन्होंने सपोर्टिंग एक्टर का रोल भी सफलतापूर्वक किया ।इनमें अमेजिंग स्पाइडर मैन (2012), लाइफ ऑफ पाई (2012), स्लमडॉग मिलेनियर (2008 )आदि शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्म हिंदी मीडियम 2017 में रिलीज़ हुई, जिसमें उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उनकी अंतिम फिल्म अंग्रेजी मीडियम थी जो कि हिंदी मीडियम का सीक्वल थे।


चंद्रनाथ मिश्रा

चंद्रनाथ मिश्रा


यूं तो इरफान खान की हर फिल्म की अपनी विशेषता है लेकिन "मकबूल" और "पान सिंह तोमर", जिनमें इरफान ऊर्जा से भरे दिखते हैं उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
पान सिंह तोमर फिल्म के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने एक इंटरव्यू के दौरान इरफान को याद करते हुए कहा है कि आज की तारीख तक, इरफान खान से बड़ा एक्टर हिंदुस्तान में कोई नहीं हुआ ।
तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित इस फिल्म में ,तिग्मांशु का बैंडिट क्वीन में कास्टिंग डायरेक्टर होने का अनुभव ,चंबल के बीहड़ों की परिस्थितियों को समझने में बहुत सहायक रहा होगा। यह सूबेदार पान सिंह तोमर की बॉयोपिक है। वे एक फौजी एथलीट है। जिन्होंने 7 बार स्टेपल चेस बाधा दौड़ में राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीती थी ।1952 के एशियाई खेलों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। नौकरी खत्म कर जब वह घर आए तो परिवार के लोगों द्वारा जमीन के विवाद को लेकर उन्हें और उनके परिवार को सताया और दबाया गया । परिणाम स्वरूप एक दिन वह बागी बनने पर मजबूर हो गए । वे बाद मे पुलिस मुठभेड़ में मारे गए।
इस बायोपिक में इरफान खान ने पान सिंह का किरदार निभाया है।एक फौजी से बागी बनने के संक्रमण की पीड़ा का निरूपण जिस खूबी से इरफान ने किया है वह उनके अंदर के महान अभिनेता की झलक दिखाती है ।हथियार उठाने से पहले उनका अपने आप से संघर्ष और एक बार निर्णय लेने के बाद उनके दृढ़ता का प्रदर्शन अद्भुत है। फौज के अनुशासन का इस्तेमाल करते हुए अपने साथियों को फौजी तौर तरीके से पुलिस के साथ संघर्ष करने के लिए तैयार करना उन्होंने अत्यंत स्वाभाविक ढंग से अभिनीत किया है । यह संक्रमण कहीं आकस्मिक नहीं लगता। बीहड़ के खुरदुरी जिंदगी के बीच अपनी पत्नी से उनका संबंध और उनके प्रेम की कोमलता उनके अंदर छिपे हुए संवेदनशील मनुष्य का परिचय देती है ।पूरी फिल्म में उनका understated अभिनय कमाल का प्रभाव छोड़ता है। कम से कम डायलॉग से अधिक से अधिक संप्रेषण की उनकी क्षमता को उजागर करता है ।डाकू की भूमिका में भी उनका फौजी व्यक्तित्व अपनी धार नहीं छोड़ता। उनके फौजी व्यक्तित्व के मूल लक्षणों की निरंतरता पूरी फिल्म में बरकरार है।अपने किरदार में वह इस तरह घुले मिले हैं कि कई जगह उनके डायलॉग स्वगत भाषण जैसे लगते हैं ।जैसे अपने अंदर पैवस्त पानसिंह तोमर के उदगारों को शब्द दे रहें हों। सूबेदार पान सिंह तोमर जैसे भी रहे हो लेकिन हम जब भी उनके बारे में सोचेंगे या बात करेंगे तो इरफान खान का चेहरा ही हमारे सामने होगा शायद एक अभिनेता की यही सबसे बड़ी सफलता है।

मकबूल विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित वार्ड की मैकबेथ से प्रभावित फिल्म है । लेकिन इसमें घटित घटनाएं तथा उनके सीक्वेंस मौलिक नाटक से भिन्न तथा भारतीय परिपेक्ष में गढ़े गए हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तुलनात्मक रूप से मैकबेथ को डाउनसाइज करके इस फिल्म को बनाया गया है।यद्यपि नाटक की मूल आत्मा वही है जो मैकबेथ की है। अच्छाई और बुराई का संघर्ष, अंतरात्मा का द्वंद और मानवीय संबंधों का ताना-बाना, वफादारी और बेवफाई का अंतर्द्वंद और अंत मे पोएटिक जस्टिस याने बुरे का अंत। सभी कुछ मैकबेथ की स्प्रिट के अनुकूल ही है। मकबूल का किरदार इरफान खान ने बड़े subdude तरीके से निभाया है। वह कहीं भी लाउड नहीं लगते, जबकि वे एक अंडरवर्ल्ड डॉन, अब्बा जी (पंकज कपूर) के सबसे वफादार लेफ्टिनेंट है। तब्बू ने अब्बा जी की बेगम का रोल किया है ।तब्बू अब्बा जी से उम्र में बहुत छोटी है ।उनकी जवानी अब्बा जी के बुढ़ापे की हदों को पार करने के लिए बेताब हैं ।मकबूल मियां बेगम की नजरों में हीरो है। मकबूल भी दिल ही दिल में बेगम जान की ओर आकर्षित है। फिर शुरू होता है राजा के ख़िलाफ़ रानी का षड्यंत्र जो मैकबेथ से लिया गया है। फिल्म में राजा अब्बा मियां है रानी बेगम तब्बू हैं और मकबूल (इरफान खान )एक मुहरे हैं और बेगम के दिल अजीज भी । एक तरफ मकबूल की वफादारी है दूसरी तरफ उनकी महत्वाकांक्षा और बेगम के लिए मोहब्बत, जिसका इज़हार करना भी शुरू में उनके लिए बहुत मुश्किल है। इस इमोशनल ट्रॉमा और इसके फलस्वरूप किरदार के 'बिहेवियर पैटर्न ' को इरफान खान ने जिस तरह बखूबी से निभाया है देखते ही बनता है । उनके जिगर में जैसे हमेशा एक आग जलती रहती है जो उनकी आत्मा को खोखला करती रहती है।इस पूरे सिनेरियो को इतने understated और restrained तरीके से उन्होंने अभिनय के माध्यम से अंजाम दिया है कि वह किसी प्रशंसा से परे है। इसमें असली घटनाओं के बजाय nuances पर जोर दिया गया है। इसलिए मक़बूल का किरदार और मुश्किल बन जाता है ।उन्हें सब कुछ घटनाओं के नही बल्कि नुआन्सेस के माध्यम से ही संप्रेषित करना है ।असली घटनाएं तो दर्शकों को एक भ्रष्ट ज्योतिष पुलिस वाले (ओम पुरी )के माध्यम से पता लग ही है। इरफान खान का अभिनय एक तरफ एक पैशनेट लवर और दूसरी तरफ एक अंडरवर्ल्ड डॉन का है । इन दोनों ही किरदारों में चलती रहती है conscience की लड़ाई और मकबूल का विघटित होता हुआ स्व:। अंत में जब दुनिया को छोड़ने का वक्त आता है, तब न तो बेगम है ,न राजा है , न असला है ना बारूद। इस अंत समय मे जो निःस्पृह उदासीनता उनके चेहरे पर बिना कोई डायलॉग बोले दिखाई देती है वह अतुलनीय है। ये केवल नियति के आगे आत्मसमपर्ण नही है बल्कि दुनियाबी तिलस्म और जीवन रूपी भीषण त्रासदी से आजाद होने का एहसासे सुकून भी है।

उनके अभिनय प्रतिभा से इन फिल्मो को क्लासिकल की ऊंचाइयों में तब्दील करने की क्षमता स्पष्ट दिखती है। सिनेमा के भाषा की समझ उनके अभिनय में अंतर्निहित है ।अभिनय करते समय उनका संयम उनका सधा हुआ अंदाज ,संवादों की अदायगी में अनुशासन उनकी अभिनय के मूल भाव है। संवाद बोलने की उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं होती संवाद पहले उनकी बॉडी लैंग्वेज और फिर उनकी आंखों के माध्यम से आते हैं । संवाद बोलने के लिए उनका ध्वनि और प्रवाह कमाल का है । बात लाउड होकर कहनी है तो कितनी ऊंची पिच में बोलना है अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये। अगर मुस्कान से काम चल जाए तो ठहाका मार कर हंसने की क्या जरूरत । ये सब वे खुद तय करते हैं। वह कभी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नजर नहीं आते बल्कि अपनी तैयारी खुद करते हुए प्रतीत होते हैं।
इरफान खान वास्तव में अपने समय से आगे थे लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें अपने समय से भी पहले जाना पड़ा। निश्चित रूप से उनका सर्वोत्तम अभी आना बाकी था।      

Friday, May 22, 2020

तितलियों का प्रारब्ध

हिदी साहित्य की दुनिया में समीक्षातमक टिप्पणी को भी आलोचना मान लेना बहुप्रचलित व्यवहार है। इसकी वजह से आलोचना जो भी व्यवस्थित स्वरूप दिखता है, वह बहुत सीमित है। दूसरी ओर यह भी हुआ है कि समीक्षा के नाम पर वे विज्ञापनी जानकारियां जिन्हें पुस्तक व्यवसाय का अंग होना चाहिए, रचनात्मक लेखन के दायरे में गिना जाती है।
समीक्षा के क्षेत्र में इधर लगातार दिखाई दे रहे चन्द्रनाथ मिश्रा की उपस्थिति और उनकी लिखी समीक्षाएं आलोचनात्मक टिप्पणियों की बानगी बन रही है।
लेखिका श्रीमती नयनतारा सहगल के रचनात्मक साहित्य पर चन्द्रनाथ मिश्रा की लिखी समीक्षात्मक टिप्पणिया यहां चन्द्रनाथ मिश्रा से गुजारिश करते हुए इसी आशय के साथ प्रस्तुत हैं कि जिस शिद्दत के साथ वे फेसबुक पर लिख रहे हैं, उसी ऊर्जा के साथ साहित्य की दुनिया में पत्र पत्रिकाओं के जरिये भी अपनी दखल के लिए मन बनाएं। यह ब्लॉग उनकी ताजा टिप्पणी को यहां प्रस्तुत करते हुए अपने को समृद्ध कर रहा है।

वि गौ





अपने जीवन के 92 वे वर्ष में नयन तारा सेहगल उतनी ही सटीक, प्रभावशाली एवं राजनीतिक तौर पर मुखर हैं जितना वे अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में जब उन्होंने Rich like us,(1985), Plans for departure (1985), Mistaken identity (1988) और Lesser Breeds(2003) आदि पुस्तकें लिखी थीं। वे PUCL (people's union  for civil liberties) की  Vice President की हैसियत से वैचारिक स्वतन्त्रता एवं प्रजातांत्रिक अधिकारो पर हो रहे प्रहारों के विरोध में सतत लिखति और बोलती रहीं। उन्हें साहित्य अकादमी, सिंक्लेयर प्राइस तथा कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज से नवाजा गया है।
फेट ऑफ बटरफ्लाईज़ पाँच छह लोगों की जिंदगी कि कहानी है जो ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जो हमारा और हमारे देश का  ही वर्तमान है।ऐसा दौर जिसमे साम्प्रदयिक दंगो, लिँग औऱ  जाती के आधार पर भेद भाव  तथा राजनीति में घोर दक्षिण पन्थ  का बोलबाला है।इन लोंगो की नियति विभिन्न देश काल मे रहते हुए भी कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी है। फेट ऑफ बटरफ्लाई इन चरित्रों के जीवन पर  पड़ने वाले तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक प्रभावो की कहानी है जिसने परिस्थितिजन्य कारणों से उनके जीवन को असीम दुख और विषाद से भर दिया। ये कहानी है सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी कैटरीना की  जिसका क्रूर  सामूहिक बलात्कार हुआ । जिस गांव में वह मदद के लिए गयी थी वहां के लोगों को उनके घरोँ में जिंदा जला दिया गया। ये कहानी है समलैंगिक युगल प्रह्लाद और फ्रैंकोइस की जिन्हे बुरी तरह पीटा गया और जिनका बुटिक होटल   दंगाइयों द्वारा मलवे के ढेर में बदल दिया गया। प्रह्लाद जो एक अच्छा नर्तक था अब कभी नही नाच सकेगा। लेकिन इस सब त्रासदियों के  बावजूद  ये महज़ नाउम्मीदी की दास्ताँन न होकर कही न कही जिंदगी में ख़ुसी औऱ जीने की छोटी से छोटी वजह  ढूंढ लेने की कामयाब कोशिस की भी कहानी है।
चूंकि उपन्यास मूल रूप से संकछिप्त है इसलिए संभवतः कथानक में  बहुत सी परतें मुमकिन नहीं थी। लेकिन विशेष परिस्थितियों की संरचना, समय का  चित्रण,  चरित्र विशेष की अंतर्दृष्टि, या भविष्य की  हृदयहीनता का पूर्वानुमान बखूबी घटनाओं व पत्रों के  माध्यम से दर्षित है।
प्रभाकर जो राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर है एक दिन चौराहे पर एक नग्न शव देखता है, जिसके सिर पर केवल एक शिरस्त्राण है।
इसके कुछ दिनों बाद वह कैटरीना पर हुए सामूहिक बलात्कार की कहानी ,उसि के मुह से ,एक सादे और संवेग हीन बयान के रूप में सुनता है।  कैटरीना पर बीते हुए कल का प्रभाव इतना गहन है कि प्रभाकर के हाथ का हल्का सा स्पर्ष भी कैटरीना को आतंक से भर देता है।  वह एक नर्सरी स्कूल में जाता है जहां उसे बताया जाता कि किस प्रकार  कुछ अन्य स्कूलों में तितलियों को मार कर उन्हें बोर्ड में पिन से लगाकर रखा जाता है । प्रभाकर ऐसी बहुत सी  घटनाओ को देखता, सुनता और उनसे  प्रभावित होता है। वह अपने प्रिय रेस्टोरेंट बोंज़ूर को दंगाइयों द्वारा तवाह होते हुए देखता है, जहां उसकी प्रिय डिश गूलर कबाब पेश की जाती थी, जो रफीक़ मियां बनाया करते थे।
इन सब दृश्यों और घटनाओं से ऊपर मीराजकर जो एक राजीतिक नीति निर्देशक हैं। वह देश को उन सब तत्वों और प्रभाबो से मुक्त करना चाहतें हैं जो उनके अनुसार देश की तथाकथित सभ्यता औऱ संस्कृती से मेल नही खाते।जाहिर है  इस सभ्यता और संस्कृति की  परिभाषा और ब्यख्या  मीराजकर और उनके पार्टी  के लोग अपनी तरह से करते हैं। हिटलर के extermination की अवधारणा संभवतः इसी सोच का तार्किक विस्तार था।
प्रभाकर अपनी पुस्तक के कारण इन दक्षिणपंथी चिन्तको का ध्यान आकर्षित करता है। इस पुस्तक के माध्यम से वह राष्ट्र के लिए एक नई शुरूआत की परिकल्पना रखता है। उदाहरण के लिए वह गांधी की विशाल  छाया से देश को बाहर निकालने की कल्पना करता है। यद्दपि प्रभाकर किसी विचारधारा या सिद्धान्त से  प्रतिबद्ध नही होना चाहता यथापि परिस्थितिबस उसे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ता है जहा राजनीतिक लोगों का जमावड़ा है जो सत्ता के केन्द्रीयकरण के घोर समर्थक हैं। एक भव्य हॉल में महँगी शराब और उत्कृष्ठ देसी विदेशी व्यंजनों का स्वाद चखते हुए  प्रभाकर जो कि एक मजदूर का बेटा तथा पादरियों द्वारा पाला हुआ था , औऱ एक गहन त्रासदी भरा बचपन बहुत पीछे छोड़कर आया था, स्वयम को ऐसे पुरोधाओं में बीच पाता है जो यूरोपियन महाद्वीप में दक्षिणपंथ के उत्थान का ऊत्सव मनाने को एकत्र हुए है। यहाँ प्रभाकर की तुलना वज्ञानिक फ्रेंकएस्टिन से की जाती है ,जिसने ऐसे राक्षस को पैदा किया जिसने विस्व में तवाही मचा दी।
प्रभाकर अपनी पुस्तक में इस थियोरी को प्रतिपादित करता है की अंतिम प्रभाव उनका नही होता जो अच्छाई, सदभाव व करूणा की बात करते हैं बल्कि  'matter of factness of cruelty'  (क्रूरता के वास्तविक प्रभाव)का होता है।
सर्जेई एक हथियार का व्यापारी है। उसका व्यापार भारत मे है। जो उसे पिता से विरासत में मिला है। हथियार के व्यापार को लेकर उसकी दुविधा का चित्रण
उल्लेखनीय है।

ये सारे क़िरदार एक बदलते हुए भारत के परिवेस में अपने अपने तरीके से अवतरित होते हैं।
उनकी जिंदगी कंही 'काऊ कमिशन'जो कि गो-माँस खाने वालों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत है, से भी प्रभावित है। तथाकथित बुद्धिजीवी जो इतिहास का पुनर्लेखन व विश्लेषण  अपने एजेंडा और स्वार्थ के लिए कर रहे है, अपने अपने तरीके से सामने आते है।
पुस्तक की संकछिप्तता के कारण कई प्रसंगों के कल्पना की व्यापकता नियंत्रित लगती है। भाषा पर नयनतारा सहगल का अद्भुत नियंत्रण एवं इतिहास का विषद ज्ञान पुस्तक में  हर जगह परिलक्षित है। देस विदेश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ लेखिका के विस्तृत ज्ञान और उनके लेखन के विस्तार का होराइजन दर्शाते है। उपन्यास  की भावप्रवणता  दुरदमनिय  है जहां जीवन की तमाम त्रासदियों और विसंगतियों के बावजूद अच्छे भविष्य का सपना कहीं ना कहीं झलकता रहता है।  मानवता कितनी भी अधोगामी हो जाए, चांदनी रात में नृत्य की अभिलाषा पूरी तरह कभी दमित नहीं होती।