Saturday, March 18, 2023

पर्यावरण संघर्ष का सबाल्टर्न इतिहास :"पहाड़चोर"

 यादवेंद्र 



कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में अरावली के संदर्भ में एक मामला चर्चा में आया था जिसमें राजस्थान सरकार की ओर से यह हलफनामा दिया गया कि पिछले कुछ दशकों में तीस से ज्यादा पहाड़ धरती से गायब हो गए। गायब होना तो एक दिखने वाला परिणाम था लेकिन हुआ यह कि खनन माफिया ने इन पहाड़ों को गैर कानूनी ढंग से बारूद से उड़ा कर वहाँ से निकले पत्थरों को बेच दिया।इसपर दो जजों की पीठ ने कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि उस इलाके में क्या हनुमान जी आए थे जो सुमेरु पर्वत की तरह अपने कंधों पर सारे पहाड़ों को लेकर चले गए?वैसे जिधर आँख उठा कर देखें उधर यह दुर्दशा दिखाई देती है परन्तु यह भारतीय समाज में पर्यावरण कानूनों की अनदेखी करने का एक ज्वलंत व दर्दनाक उदाहरण है।

आज से लगभग बीस साल पहले वरिष्ठ और प्रतिबद्ध लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष पंत का इसी विभीषिका पर केन्द्रित बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास "पहाड़चोर" आया था और हिंदी जगत में उसका खासा स्वागत हुआ था। सुभाष जी ने मुझे बताया कि उपन्यास का ताना बाना चूने के खनन के चलते नक्शे से विलुप्त हो गये इस (भूतपूर्व) गाँव के बारे में देहरादून के एक युवा पत्रकार की "नवभारत टाइम्स"में संक्षिप्त रिपोर्ट के इर्दगिर्द बुना गया है और उन्होंने खनन का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों से बातचीत भी की थी। उपन्यास की भूमिका में स्व कमलेश्वर इसे "यथार्थ से भी नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा" कहते हैं.... यह उपन्यास गढ़वाल की तलहटी में सहस्रधारा के पास बसे एक छोटे से गाँव का  ऐसा अविस्मरणीय आख्यान है जिसके किरदारों के भीतर संघर्ष चेतना राजनीतिक सिद्धांतों से नहीं बल्कि अपने दुखों और संकटों से उपजती है। यह समाज में निम्न समझे जाने वाले(सबाल्टर्न)  उन महान लोगों की गौरव गाथा है जो इतिहास को थाम कर बैठते नहीं बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ संघर्ष करते हुए न सिर्फ़ आगे बढ़ते हैं बल्कि अपना अगला इतिहास निर्मित भी करते हैं। यही कारण है कि कमलेश्वर "पहाड़चोर" की आंचलिकता को सीधे वैश्वीकरण के साथ जोड़ते हैं। 


विकास की वर्तमान अवधारणा पर बहुत गहरे सवाल उठाता है यह उपन्यास जिसमें सड़क बिजली पानी और पक्के मकान विकास के प्रतीक मान लिए गए हैं।उपन्यास के केन्द्र में देहरादून के सहस्रधारा इलाके के आसपास मोचियों का एक छोटा सा गांव झंडूखाल है और इसके विलोपन की कहानी भी एक सड़क के साथ शुरू हुई थी - अवसर और सम्पन्नता की नगरी  तक पहुँचाने वाली सड़क का स्वप्न लेकर चूना कंपनी के मालिक आते हैं जो देखते देखते गाँव को दो हिस्सों में बाँटने,पहाड़ चुराने के उद्योग और अंततः गाँव को हजम कर जाने का कारगर रूपक बुन देते है। 


यह सड़क सिर्फ मामूली सी सड़क नहीं है बल्कि गांव के लोगों के दिलों को चीरती हुई निकल जाती है...गांव के कुछ लोगों को खदान पर नौकरी देकर उन्हें अपनि जमीन और जमीर पर कायम रहने वालों से तोड़ देती है। 'सभ्यता से निष्कासित और इतिहास की अंधेरी खाई में खोये हुए गाँव के सीधे सरल वासियों को प्रलोभन दिया जाता है  कि सड़क बनते ही वे समय और सभ्यता की धारा से जुड़ जायेंगे। 


विकास का यह कुरूप और क्रूर रूपक ही इस उपन्यास की आत्मा है जो अंततः उसके विलोपन का रोड मैप सीधे सादे विपन्न गाँववासियों से ही तैयार करवाता है। तब उन्हें इल्म भी नहीं हुआ कि वे धूल और धुएँ से लिख रहे हैं झंडूखाल के आगामी समय की कहानी। 


अपनी ही धरती पर बीड़ी पीने का अधिकार छिन जाना और जगह जगह अपने इलाके में ही 'आगे खतरा है' या 'इससे आगे ना जाएं' लिखे तख्ते गड़े हुए देखना इस उपन्यास की परतों को खोलने वाले सुचिंतित प्रसंग हैं - कंपनी ने गाँव से लकड़ी, घास और जलस्रोत बहुत दूर कर दिए...अपना पहाड़ उन्हीं लोगों के वास्ते देखते देखते वर्जित और अजनबी हो जाता है जिनकी पीढ़ियाँ उसके आँचल में फली फूली हैं। 

लेखक की सूक्ष्म दृष्टि समस्या को बड़े सधे हुए तरीके से परिभाषित करती है : "सड़क बनने के बाद झंडूखाल में बाहर से आने वाली सामान की पहली सौगात - औजार ...डायनामाइट ....और जगह-जगह के लोग" 


विस्फोट और खनन धीरे धीरे झंडूखाल के लोगों के जीवन का ऐसा अटूट हिस्सा हो जाता है कि जब धमाका नहीं होता तो लोग निराश हो जाते हैं - इस निराशा को प्रकट करने के लिए लेखक ने बड़ा अच्छा रूपक चुना है :'जैसे बच्चे के हाथ से दूध का कटोरा छिन गया हो।


चूना कंपनी के आने के बाद से समाज का यह विभाजन बड़े क्रूर तरीके से सामने आता है - उदाहरण के लिए पिरिया विस्फोट और खनन के कारण पानी की कमी के चलते प्यास से तड़प तड़प कर मर जाती है....यह समय दिहाड़ी का समय था इसलिए उसकी लाश उठाने के लिए नाते रिश्तेदार और पड़ोसी भी नहीं मिलते।तभी तो लेखक झंडूखाल को 'बिराना और अजनबी' कहने लगता है। 


पिरिया के साथ प्रकृति के सहज स्वरूप के मर जाने का बड़ा मर्मस्पर्शी प्रसंग स्मृति से निकलता नहीं: "पिरिया छाज में अनाज  पिछोड़ती तो उसके हाथ की चूड़ियाँ खनकते हुए संगीत सिरजतीं और चिड़ियों की एक लंगार घर के छाजन पर आकर बैठ जाती। चिड़ियाँ चहक कर दाना माँगतीं। वह पिछोड़न फेंकती तो वे छाजन से उतरकर दाना चुगने लगतीं। फुदक कर उछलते छाज पर बैठ जातीं। वह डाँटती तो उसके सम्मान की रक्षा के लिए छाज से दो कदम आगे कूद जातीं। उनकी शरारत से तंग आकर वह हाथ लहरा कर उन्हें उड़ाती तो वे हल्की सी उड़ान लेकर आँगन के किनारे बैठ जातीं और फिर धीमे-धीमे पंजों के बल चलती हुई उसके गिर्द जमा हो जातीं।पूछतीं: नाराज क्यों हो गयीं मालकिन? क्या ख़ता हुई?पिरिया  नाराज हो कर डाँटती: बड़ी ढीठ हो गई हो तुम... तंग कर दिया।....चिड़िया जिद्दभरी मनुहार करने लगतीं - तेरा कोठा भरा रहे, चूड़ियाँ संगीत सिरजतीं रहें,बच्चों से भी कोई तंग हुआ है कभी मालकिन?अपनी धूप सी हंसी बिखेर... देख आँगन कैसा निखर निखर उठता है..." 


वास्तविक पहाड़ी जीवन की तरह ही इस उपन्यास की संरचना निरक्षर पर समझदार,दूरदर्शी ,जिद्दी और जुझारू स्त्रियों के कंधों पर टिकी हुई है - सच ही तो है :"पहाड़ की औरत की आँख  का गलता यह लावा ही पहाड़ का भविष्य बदलता है।  


लेखक कितनी पैनी नजर से अपने एक एक किरदार को देखता है इसके अनेक उदाहरण उपन्यास में ध्यान खींचते हैं,जैसे : "आगे आगे साबरा( कंपनी की दलाली कर के रसूख जमाने वाला) चल रहा था बूटों की धप्प धप्प आवाज के साथ, दर्प और अभिमान से भरा ।पीछे गुपाल( कंपनी की कारस्तानियों का विरोध करने वाला) था जो इतनी होशियारी से चल रहा था कि कहीं उसकी चप्पल न टूट जाए ...और इतना तेज भी कि साबरा की बराबरी बनाए रख सके।" पर सबसे सजीव विवरण पहाड़ के पहले विस्फोट का है जब गाँववासी बुरी तरह जमीन हिलने और ऐसी डरावनी आवाजों से परिचित नहीं थे - इसका क्लाइमेक्स है प्रसव कराने में माहिर भिक्खन दाई जब रधिया को बच्चा पैदा कराने में असफल रही तो इस धमाके की भयानक और अप्रत्याशित आवाज से शिशु अपने आप गर्भ से बाहर निकल आता है।   


कंपनी के प्रलोभन से सरदार बन जाने वालों की तुलना में यह उपन्यास अपने संघर्षशील नायिकाओं /नायकों के लिए याद किया जाएगा - इतिहास गवाह है कि किसी समाज को मानव निर्मित विभीषिका से बचा पाता है तो "झंडूखालिया जिद" ही है।  


मेरा मानना है कि सुभाष पंत का यह उपन्यास बदलते हुए भारत की कुरूप तस्वीर दिखाने वाले मैला आंचल, आधा गांव और राग दरबारी सरीखे कालजयी उपन्यासों की श्रृंखला का सुयोग्य उत्तराधिकारी है। पर विडंबना यह कि बगैर किसी जोड़ तोड़ और नेटवर्किंग के देहरादून में बैठ कर चुपचाप अपना काम करने की प्रवृत्ति ने लेखक और इस कृति को किसी बडे़ सम्मान से वंचित ही रखा। 


खुशी की बात है कि लंबी अनुपलब्धता के बाद यह उपन्यास फिर से छप कर आ गया है - दिल्ली के राजेश प्रकाशन से।

 

Thursday, March 16, 2023

बेहतरीन किस्सागो - सुभाष पंत


 सूरज प्रकाश

9930991424


बात 1972 के शुरुआती दिनों की है। तब मैं डीबीएस कॉलेज, देहरादून से सुबह के सेशन में बीए कर रहा था। 6:00 से 6:30 बजे तक अंग्रेजी का पीरियड होता था और 6:30 से 7:30 तक हम खाली होते थे। एक दिन पहले किसी स्थानीय अखबार में मेरी एक कविता छपी थी और मैं वह कविता कॉलेज के सामने चाय की दुकान में अपने एक सहपाठी को सुना रहा था। तभी बीए फाइनल का एक छात्र चाय पीने के लिए आया। मुझे कविता सुनाते देख कर मुझसे बोला - यह कविता तुम्हारी है? जब मैंने हां कहा तो उसने बताया - अच्छी है, मैंने पढ़ी है। तुम एक काम करो। कनाट प्लेस में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी सुखबीर विश्वकर्मा जी से मिलो। वे देश भक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। तुम्हारी कविता भी ले लेंगे।

मैं बहुत हैरान हुआ कि क्या इस तरह के सहयोगी संकलन भी होते हैं। अब तक मैं शहर में या देश में किसी भी रचनाकार को नहीं जानता था। मेरा पढ़ना लिखना खुशीराम लाइब्रेरी में पत्रिकाएं पढ़ने और घर के पास चलने वाली लाइब्रेरियों में ₹3 महीना देकर रोज एक किताब किराए पर लेकर पढ़ने तक सीमित था। इन किताबों में गुलशन नंदा, रानू, दत्त भारती, वेद प्रकाश कंबोज, कर्नल रंजीत, इब्ने सफी हुआ करते थे और पत्रिकाओं में अधिकतर फिल्में पत्रिकाएं। मैं छिटपुट कविताएं लिखा करता था लेकिन वे कितनी कविताएं होती थीं और कितनी नहीं, इसके बारे में मुझे तब तक कोई अंदाजा नहीं था। कोई बताने वाला भी नहीं था।

सुबह के वक्त चाय की दुकान में एक सीनियर छात्र से वह मुलाकात एक तरह से साहित्य की दुनिया में मेरे प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने वाली होने वाली थी। मेरी दुनिया उस दिन के बाद बदल जाने वाली थी। बेशक मेरा विधिवत लेखन शुरू होने के लिए मुझे अभी कम से कम पंद्रह बरस और इंतजार करना था लेकिन शुरुआत तो उसी दिन ही हो गयी थी।

अगले दिन मैंने देशभक्ति की दो तीन कविताएं लिखीं और उन्हें ले कर में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी के पास गया। अपना परिचय दिया कि बीए में पढ़ता हूं और कविताएं लिखता हूं। मुझे पता चला है कि आप देशभक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। मैं भी दो तीन कविताएं लाया हूं। उन्होंने कविताएं देखीं और उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट कर दिया और कहा कि कविता हमेशा 16 मात्राओं की होनी चाहिए और उन्होंने मुझे साधुराम इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक कौशिक जी के पास कविता ठीक कराने के लिए भेज दिया। यह अलग कहानी है कि मेरी कविता किस रूप में छपी।

मेरी कविता देहरादून के सभी रचनाकारों के साथ एक सहयोगी संकलन में छपेगी इससे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं तब तक बीस बरस का भी नहीं हुआ था और मेरी शुरुआती कविता ही शहर के सहयोगी संकलन में छपने जा रही थी। अब मैं अक्सर कवि जी के पास के पास जाने लगा। वहीं जाकर पता चला कि इस संकलन में शहर के कौन-कौन से कवि शामिल हो रहे हैं। जब भी मैं वहां जाता तो हमेशा दो-चार कवि वहां मिल ही जाते। इनमें सुभाष पंत, अवधेश, सुरेश उनियाल, मनमोहन चड्ढा, जितेन ठाकुर, देशबंधु, अतुल शर्मा आदि थे। वे सब पहले से छपते रहे थे और एक दूसरे से परिचित थे। मैं एकदम नया था और लिखने पढ़ने के नाम पर मेरी डायरी में मुश्किल से दस पंद्रह कविताएं थीं। स्थानीय अखबारों में छपी हुई दो तीन। जब मैं इतने बड़े कवियों से मिलता तो संकोच से भर जाता। लेकिन सब वरिष्ठ लोग बहुत प्यार से मिलते।

आपस में परिचय कराते तभी मुझे पता चला कि इस संकलन के एक कवि सुभाष पंत की कहानी गाय का दूध सारिका में छपी है और उसकी खूब चर्चा है। उनसे अब तक मेरा संवाद नहीं हुआ था। यह पहली बार हो रहा था कि मैं किसी लेखक को आमने सामने देख रहा था। मुझे बहुत संकोच होता उनसे बात करने में। यह किसी भी लेखक से बात करने का पहला मौका होता। मैं पढ़ने लिखने के नाम पर एकदम शून्य था। मैं देहरादून में जिस मुहल्ले में मच्छी बाजार में रहता था, वह गुंडों, मवालियों और शराबियों का इलाका था। देर रात तक गालियां सुनायी देतीं और अक्सर चाकू चलते। ऐसे इलाके में रहते हुए भला लिखने पढ़ने के संस्कार कहां से आते। पंत जी से मुलाकात और संवाद आने वाले पचास बरस के लिए एक बहुत ही आत्मीय, स्नेह से भरपूर और लेखक के रूप में मुझे दिशा देने वाले और मुझे समृद्ध करने वाले रिश्ते की शुरुआत थी।

पंत जी की वह कहानी मैंने पढ़ी थी और हैरान हो गया था कि कहानी इस तरह से भी और ऐसी स्थितियों पर भी लिखी जा सकती है। अब तक मैं गुलशन नंदा और रानू की नकली दुनिया में ही भटक रहा था। जीवन से आयी कहानी से यह पहला परिचय था। पंत जी से बात होती थी लेकिन उन्होंने कभी भी नहीं दर्शाया कि मैं नौसिखिया हूं और साहित्य में जगत में प्रवेश कर रहा हूं

खैर, जब तक दहकते स्वर छपता, सभी साथी रचनाकारों से अच्छा परिचय हो गया था और सबने मुझे भी एक सहयोगी कवि के रूप में स्वीकार कर लिया था। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं देहरादून की लेखक बिरादरी में शामिल कर लिया गया था। देखा देखी मैंने कुछ और कविताएं लिखीं और वे वैनगार्ड अखबार में और कवि जी की मदद से कुछ और अखबारों में छपीं।

अब मैं देहरादून की लेखक मंडली में विधिवत शामिल कर लिया गया था और सबकी गप्प गोष्ठियों में शामिल होता था। बेशक मैं बोलता नहीं था और सिर्फ सुनता रहता था लेकिन यह बहुत बड़ी बात थी कि मैं इस मंडली में शामिल था। धीरे-धीरे मैं पंत जी के और अवधेश के संपर्क में आने लगा था और उनसे बहुत कुछ सीखने लगा था।

मुझे वे दिन बहुत याद आते हैं। पंत जी, कवि जी और देश बंधु के पास पुरानी साइकिलें होती थीं। तब एक बहुत अच्छी परंपरा देहरादून में थी कि सब साहित्यकार जब शाम को मिलते या घंटाघर के पास बने बैठने के इकलौते ठीये डिलाइट रेस्तरां में बैठते तो देर तक खूब बातें होतीं और फिर सिलसिला शुरू होता सबको घर तक छोड़ कर आने का। यह अद्भुत और हैरान कर देने वाली बात होती थी कि सब साइकिल थामे धीरे-धीरे चल रहे हैं और बारी-बारी से सबको एक-एक के घर छोड़ रहे हैं। कभी पंत जी के घर उन्हें छोड़ा जा रहा है, कभी अवधेश को उसके घर छोड़ा जा रहा है और इस तरह घर छोड़ कर आने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता। आखिर में जब दो ही लोग रह जाते तो अक्सर ऐसा होता कि वे दोनों एक ही घर में सो जाते। यह दुनिया में अकेली और निराली प्रथा रही होगी। मुझे भी कई बार इस तरह से सभी मित्र घर पर छोड़ने आए या मैं बारी-बारी से सब को घर छोड़ने के लिए जाता रहा।

उन दिनों एक और बात अच्छी बात थी। चाहे सीमित साधनों में सही, सब साथियों के जन्मदिन मनाए जाते हो। सब लोग मिलते और देर तक खाने पीने के दौर चलते। मुझे पंत जी के घर पर उनके जन्मदिन पर जाना याद है। देर रात तक हेम भाभी जी सबके लिए पकौड़े बनाती रही थीं।

 जब सब मिलते तो देर तक साहित्य की बातें होतीं। लिखने के तौर तरीके और बेहतर तरीके से लिखने की बातें होतीं। नयी लिखी रचनाएं सुनायी जातीं और पढ़े गये साहित्य पर बात होती। किताबों और पत्रिकाओं का आदान प्रदान होता। चलते चलते एक चक्कर पलटन बाजार में नेशनल न्यूज एजेंसी का लगाया जाता कि कोई नयी पत्रिका आयी हो तो खरीद ली जाए। मुझे अभी भी सबकी बातों में शामिल होने में बहुत संकोच होता। एक नयी दुनिया थी जो मेरे सामने खुल रही थी। जिस तरह का जीवन मैं जीने के लिए अभिशप्त था, उससे बिलकुल अलग। मेरे सामने पंत जी थे अवधेश था। उम्र में भी बड़े और कद में भी बहुत बड़े थे। पंत जी सारिका के चर्चित लेखक थे।

पंत जी बेहद शानदार किस्सागो हैं और अपने खास अंदाज में खूब किस्से सुनाया करते। वे किसी भी बात को, किसी भी मामूली घटना को, मामूली से मामूली लतीफे को किस्सागोई के अंदाज में सुनाने में माहिर हैं। उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगता था। वे जिस भी मंडली में बैठे होते, केन्द्र में वे ही होते। महफिल उनके आसपास ही जमती। वे हमारे स्टार लेखक थे और उन्हें सब बहुत आदर से मिलते।

 

उनका सुनाया एक बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है।

किस्सा कुछ यूं है – एक जनाब अपनी कोठी के लॉन में शाम के वक्त टहल रहे थे। शाम का वक्त था। तभी उन्होंने देखा कि कोई मिलने वाले गेट पर खड़े हैं। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं लॉन में मिट्टी में धंसायी और लपक कर गेट खोलने चले गये। मित्र रात को देर से लौटे।

सुबह के वक्त उन्हें छड़ी के बारे में याद आया। सोचने लगे, कहां रखी है। तभी याद आया कि दोस्त के आने पर उन्होंने अपनी छड़ी लॉन में ही मिट्टी में धंसा दी थी। लपक कर लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी में अंकुए फूट आए हैं। वे सोचने लगे कि जिस शहर में लॉन की मिट्टी ही इतनी उर्वरा है तो शहर के बाशिंदे कितनी सर्जनात्मकता से लैस होंगे। हर आदमी कवि और लेखक होगा। इस किस्से को पंत जी ने देहरादून की क्रिएटिविटी से जोड़ा था। ऐसा बहुत कम होता था कि पंत जी किसी महफिल में हों और कोई किस्सा न सुनाएं।

मैं उन्हें अपने वक्त का श्रेष्ठ किस्सागो मानता हूं। घटना चाहे मामूली हो लेकिन किस्सागोई के अंदाज में वे उसमें नया रंग नया स्वाद और नई अनुभूति भर देते हैं। किस्सा चाहे कमलेश्वर जी से जुड़ा हो, शराबखोरी से जुड़ा हो या नए नए लोगों से मिलने के किस्से हों, वे हमेशा अपने अंदाज में हमें किस्से सुनाते नजर आते हैं।

जून 1974 में मैं नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद चला गया और वहां से पत्रों के माध्यम से पंत जी, अवधेश और धीरेंद्र अस्थाना और बाकी रचनाकारों से संपर्क बना रहा। मैं सबके साहित्य से जुड़ा रहा। सबकी कहानियां पढ़ता रहा। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं कर पाया था। वही टूटी फूटी कविताएं मेरे खाते में थीं। 1977 में जब मैं देहरादून वापिस आया तब भी लिखने के बारे में मैं शून्य था। डेढ़ बरस देहरादून में रहने के बाद फिर से एक बार शहर छूट गया और मैं दिल्ली चला गया लेकिन देहरादून के सभी मित्रों से मेरा निकट के नाता बना रहा। 1981 में मुंबई आने के बाद भी मेरे लेखन शुरू नहीं हो पाया था और मेरी छटपटाहट बरकरार थी। मेरे सभी मित्रों की कई कई किताबें आ चुकी थीं और मैं अभी तक लिखने की बोहनी भी नहीं कर पाया था। मैं कहीं भी रहा, चाहे मुंबई या अहमदाबाद या पुणे, मुझे पंत जी के खूबसूरत पत्र मुझे मिलते रहे। अभी भी मेरे खजाने में उनके पचासों पत्र हैं जो हमेशा मुझे प्रेरित करते हैं। पंत जी मुझे बताते रहते कि बेशक लिखने में देर हो जाती है कई बार लेकिन लिखने की तैयारी में लगने वाला समय कभी भी जाया नहीं जाता। मेरा लेखन 1987 में शुरू हुआ और जब 1988 में मेरी तीसरी ही कहानी धर्मयुग में आयी तो देहरादून के मित्रों ने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है खासकर पंत जी और अवधेश के पत्र मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं थे। वे पत्र मैंने आज भी संभाल कर रखे हैं।

मैं देहरादून बहुत कम रहा हूं और पिछले कई वर्षों से यानी लगभग 50 बरस से देहरादून से बाहर हूं लेकिन पंत जी से हमेशा पत्राचार के जरिए, टेलीफोन के जरिए नाता बना रहा और वह मेरे लेखन पर अपनी उंगली रखते रहे और बताते रहे कि मैं कहां ठीक काम कर रहा हूं और कहां सुधार की गुंजाइश है। उनके घर में मेरा हमेशा स्वागत होता रहा। मेरा सौभाग्य है कि इतने बड़े लेखक, जमीन से और पहाड़ से जुड़े लेखक का मुझे स्नेह और प्यार मिलता रहा है और मुझे कभी भी नहीं जताया गया कि मैं उनसे बहुत छोटा हूं और मेरा लेखन उनके लेखन के सामने कहीं नहीं ठहरता। उन्होंने हमेशा मुझे बराबरी का दर्जा दिया है और अपने परिवार में हमेशा मेरा स्वागत किया है।

पंत जी बता रहे थे कि बहुत पहले जब वे हिंदी में एमए कर रहे थे तो पेपर देखने पर पता चला कि उनकी कोई तैयारी नहीं थी। वे कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकते थे। अब तीन घंटे बैठ कर क्या करें। कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने क्वेश्चन पेपर की जगह तीन घंटे में एक पूरी कहानी का ड्राफ्ट लिख लिया था। वे साफ-सुथरे छोटे छोटे अक्षरों में लिखते हैं और कहीं कोई काट छांट नहीं होती।

जब मैं स्टोरीमिरर से जुड़ा तो सबसे पहले मैंने ये काम किया कि वहां से पंत जी, जितेन ठाकुर और धीरेन्द्र अस्थाना के कहानी संग्रह छपवाये। सीरीज और लंबी चलती लेकिन मनमुटाव के कारण मैंने संस्था ही छोड़ दी। पंत जी के कहानी संग्रह का जब लोकार्पण जब मुंबई में होना था तो पंत जी ने इच्छा जाहिर की कि किताब का लोकार्पण अगर प्रसिद्ध लेखक और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती करें तो बेहतर। आबिद सुरती आये थे और पंत जी की किताब का लोकार्पण किया था।

और आखिर में चूंकि यह किस्सा पंत जी का ही सुनाया हुआ है तो यहां पर दर्ज करने में कोई हर्ज नहीं है।

बात बहुत पुरानी है।  पंत जी अवधेश से मिलने उसके घर गए। दरवाजा बंद था। आवाज दी। अवधेश के साथ वाले कमरे में उसके पिताजी रहा करते थे। उन्होंने पूछा – कौन है। पंत जी ने जब अपना नाम बताया तो अवधेश के पिता जी ने उन्हें भीतर बुला लिया और अपने पास बिठाकर समझाने लगे कि तुम अवधेश से बड़े हो और वो तुम्हारी बात मानता है। उसे समझाओ। वह बहुत पीने लगा है। घर की तरफ, बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देता और पता नहीं कहाँ कहाँ घूमता रहता है। वे बहुत देर तक पंत जी को समझाते रहे। पंत जी के पास और कोई उपाय नहीं था सिवाय सुनते रहने के। बाद में उन्हें भी लगा कि पिताजी ठीक कह रहे हैं। अवधेश को पीना बंद कर देना चाहिए। उठते हुए पंत जी ने तय किया कि वे आज ही अवधेश से मिलकर उसे समझाएंगे कि वह पीना बंद कर दे और परिवार की तरफ ज्यादा ध्यान दे। वे यह सोच कर चले कि अगर अवधेश कहीं मिल जाए तो आज ही ये नेक काम करते चलें।

संयोग ऐसा हुआ की न्यू एंपायर थिएटर के पास सामने से अवधेश आता दिखायी दिया। पंत जी खुश कि इतनी जल्दी ये मौका मिल गया। बातचीत शुरू हुई। पंत जी बोले – अवधेश, तुमसे ज़रूरी बात करनी है। अवधेश ने कहा – जरूर, लेकिन ऐसे यहाँ खड़े खड़े कैसे बात करेंगे। चलिए, सामने बार है। बार में बैठ के बात करते हैं। पंत जी को लगा, लंबी बात होगी, बैठ कर बात करना ठीक रहेगा। दोनों बार में बैठे। पंत जी बात शुरू कर पाते, इससे पहले अवधेश ने पूछा - एक एक पैग मंगवा लें। खाली बैठे अच्छा नहीं लगेगा। पैग आ गये। पंत जी ने उसे समझाना शुरू कर दिया कि शराब पीने से उसे क्या क्या नुक्सान हो रहे हैं। उसे तुरंत पीनी छोड़ देनी चाहिये। ये और वो। पंत जी देर तक समझाते रहे और अवधेश पूरी बात ध्यान से सुनता रहा और सहमति में सिर हिलाता रहा। पैग आते रहे, बात होती रही।

किस्सा यहां खत्म होता है कि जब दोनों दो ढाई घंटे बाद बार से निकले तो दोनों पूरी तरह से टुन्न थे।


संघर्ष ही सर्जना है

 राजेश सकलानी


साहित्य लेखन एक पूर्णकालिक व्यवसाय है। एक राजनैतिक कर्म है। हम सभी लोग बचपन में अपने आस पास की जिंदगी में समाजिक पीड़ाएं देख चुके होते हैं और गैरबराबरी से उपजे नतीजों से परिचित हो जाते हैं। साहित्य लेखन के पीछे इसलिए एक व्यवस्था की तलाश अनिवार्यत होती है जहाँ कोई शोषक तकलीफें न पैदा कर सके। इस आयोजन को  प्रकृति और सामाजिक सांस्कृतिक वैविध्य से निसंदेह ताकत  मिलती है। भविष्य के समाज के लिए इसे सुरक्षित करना हमारी बुनियादी प्रतिज्ञाओं में शामिल होता है। इस संदर्भ में हम अपने समय के महत्वपूर्ण कथा लेखक सुभाष पंत के रचनाकर्म को  गर्व और संतोष से देखते है। उनके कथा पात्र हमारे समाज के सामान्य नागरिक है, वे प्रायः निम्र वर्ग से आते है । जीवनयापन करने की मुश्किलों में पंत जी उनके संघर्षों में हमेशा शामिल रहते है। पिछले पांच दशको में प्रकाशित उनके दस कथा संग्रहों और दो  उपन्यासो ( तीसरा उपन्यास शीघ्र प्रकाशय है) के दौरान  जनता के प्रति उनकी निष्ठा में कभी विचलन नही आया है। 

सामान्यतः कथाएं उन चरित्रों के माध्यम से अपनी धारणाएं व्यक्त करती है, जिससे कोई विलक्षणता होती है या उनमें कौतुक पैदा करने वाली घटनाएं होती हैं। लेकिन पंत जी की कहानियों मे पात्र और घटनाएं सामान्य स्तर पर बनी रहती है और लेखक इनमें निहित सुख दुख , यंत्रणा, शोषण और दारिद्र्य के पीछे आधारित व्यवस्था को सूक्ष्मता में पहचान लेते हैं।


सामाजिक व्यवस्था के प्रोटोटाइप की सर्जना करना पंत जी के कथाशिल्प की विशेषता है। उनकी कला किसीभी स्तर पर सामाजिक यथार्थ में विलग नहीं होती। और सामान्य भारतीय नागरिक की व्यथा से अलग वे 'अपने वर्ग हित की कला में नहीं उलझते। अनेको अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए वे सामाजिक व्यवहारिक विचलनों को सूक्ष्मता से लक्षित करते हुए वे रचनात्मक तरीके से लोकतान्त्रीक मूल्यों को प्रतिष्ठित करते हैं। 


वे मूलतः समकाल के व्याख्याकार हैं। यह उनकी राजनैतिक प्रतिवद्धता है कि वे हर हाल में गरीब और विवश नागरिक से सन्नध रहे हैं।  अपने पचास साल के  रचनाकाल में उन्होंने कभी अवकाश नहीं लिया। शहरी निम्नवर्गीय जीवन की कथा उनका आवास रहा है। पंत जी की भाषा इसका प्रमाण है कि वे जब लिख नही रही होते है तो उस समय  भी  उनकी जन निष्ठा सक्रिय रहती है।जीवन मूल्यों के तहत उनके लगाव में व्यतिक्रम नहीं है। कभी कभी जिम्मेदारी के परिसर में शौकिया यात्रा करना उनके लेखन का स्वभाव नहीं है। सामाजिक जीवन में ना‌गरिको की बुरी जीवन स्थितियों को अनदेखा करना या उनका सामान्यकरण करने की क्रूरता उनको स्वीकार्य नहीं है।


गाय का दूध 'कहानी से अपने लेखन की शुरुआत में ही उन्होंने पाठको  लेखकों और आलोचको का ध्यान आकृष्ट किया और उनकी दर्जनों कहानियां याद में बनी रहती हैं। देश भर में उनको चाहने वाले पाठक है जिनसे उन्होंने रचनात्मक रिश्ता बनाया है। यह मामूली उपलब्धि नही है। कथाकार और  संपादक (पहल) ज्ञानरंजन ने उन्हें अपना प्रिय लेखक बताया है और माना है कि आलोचकों ने उन पर पर्याप्त ध्यान नही दिया है। प्रसंगवश पंत जी का सुलेख बेहतरीन है। कागजों के पुलिन्दो में उनके द्वारा लिखित पृष्ठ चित्रकला की तरह आकर्षक दिखाई देता है। इस संदर्भ में कथाकार योगेन्द्र आहूजा का सुलेख भी दर्शनीय है। कला अभिरुचि,  शांतचित और धैर्य संभवत इस विशेषता की पृष्ठभूमि है।


'इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प  दौड़  ' ,कथा संग्रह अभी हाल में काव्यान्श प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुआ है जिसमें चौदह बेहतरीन कहानियां शामिल है। लेखक की उम्र इस वक्त चौरासी वर्ष है अभी अभी उन्होंने अपना तीसरा उपन्यास पूरा किया है। 


इस संग्रह में "मक्का के पौधे ' कहानी सघन कथ्य,  खूबसूरत भाषा और निम्नवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच  उन्नत संवेदनाओं के प्रकटीकरण के लिए याद रखी जाएगी। कथानक की विश्वसनीयता, पात्रों और परिवेश का यथार्थवादी चित्रण ,सटीक संवादों और उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना के संदर्भ में लेखक का कौशल हमारे समाज के लिए बड़ी उपलब्धी है। लेखक की खूबसूरत भाषा की पीछे गहन माननीय संवेदनाएं, अग्रगामी विचार‌शीलता, संघर्षशील जनता से सम्पृक्ति और मानवीय दृढ़ता मुख्य कारण है।


इस कथानक में लालता और सुगनी का जवान बेटा जो ट्रक ड्राइवर है एक शादी शुदा औरत को घर ले कर आ जाता है। यह दंपति को मंजूर नहीं है। दो औरतो के अन्तर्द्धत बहुत सघनता से व्यक्त हुए हैं।


"चित्रलिखित सी दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर सी , सुगनी को वह फूटी आंख नहीं सुहाई। हुंह, शहराती नखरे हैं । कहते हैं। औरत के माने तो बस एक सीधा-सच्चा गांव है। ये लच्छन उसे नहीं दिया रिझा सकते। धौखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया"


अपनी वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण करना लेखन का  सबसे बडा संघर्ष है, मध्यवर्गीय चेतना बार बार  प्रतिगामिता की ओर ठेलती है। इसलिए समाज की अस्मितावादी शक्तियों ने हमें फासीवाद के दरवाजे पर पहुंचा दिया है। इस दौर में छद्म बुद्धिजीवियों के नकाब हटते गए हैं। बाहरी तौर पर जो प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढे थे, उनके चेहरों पर संतोष और सुख का भाव उनकी राजनीति बयान कर देता है। 

सुभाष पंत हर हालात में अपनी मेहनतकश जनता के हमदर्द है। उनकी कहानियां  समाज के नागरिकों को परख करने का सलीका देती हैं। हर तरह का लेखन वास्तव में राजनीति का ही हिस्सा होता है। पंत जी का साहित्य अस्मितावादी राजानीति, भेदभाव और शोषण का प्रतिकार है। वे सच्ची सामाजिक आजादी को परिभाषित करता है।

Thursday, March 9, 2023

एक दोपहर की बतरस

दिनेश चंद्र जोशी


मेरे व अरुण कुमार असफल के साथ बीच में बैठै कथाकार सुभाष पन्त को कौन नहीं जानता।

वे देहरादून के ही नहीं हिन्दी कहानी जगत के सरताज किस्सागो हैं। लाक डाउन की वजह से पिछले लगभग डेड़ दो साल से उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाई थी। उनके घर डोभाल वाला गये तो मुझे भी काफी लम्बा अर्सा हो गया था, हां, गोष्ठियों में यत्र तत्र जरुर भेंटघाट हो जाती। पिछले दिनों एक फोन आया,मित्र कथाकार अरूण कुमार असफल का, 'पन्त जी के यहां चलेंगे? मैं जा रहा हूं,एक से भले दो ,वे स्वयं इधर उधर अब आ जा नहीं सकते,यूं स्वास्थ्य ठीक हैं, कह रहे थे,भाई,आप लोग ही आ जाओ,मैं तो अब कहीं आ जा नहीं सकता।'

मैंने हामी भर दी, बिल्कुल चलूंगा,यार! अब रिटायरमेंट के बाद भी फुर्सत का बहाना करूंगा तो मुझसे बड़ा एकलकट्टू कौन होगा, फिर आपका जैसा उदार साथी जो,घर से पिक अप करें घर तक छोड़ देता हो आग्रह करे तो अपने घरऊ काम व आलस्य को तिलांजलि देने का हक तो  मेरा भी बनता है। निश्चित ही आपकी सुविधा व समय के अनुसार मैं तैयार रहूंगा,चलने से पहले मिस काल मार देना।

अरूण जी नियत समय पर पहुंच गये थे।आधे घंटे के भीतर हम लोग पंत जी के गेट पर खड़े थे। पन्त जी बरामदे में बैठे हुए इन्तजार ही कर रहे थे। हम दोनों को देख कर वे प्रफुल्लित हो उठे, तपाक से मिले,

हाथ मिलाया और अन्दर बैठक में ले गये।बोले ,'यार ये मास्क वास्क की वजह से चेहरे ही पहचान में नहीं आ रहे। अब भंगिमा व आवाज से लोगों को पहचानना पड़ रहा है।'

पन्त जी के घर मैं पहले कई मौकों पर गया हूं। इस घर से कई यादें जुड़ी हैं, बीस तीस साल पहले जब यह मुहल्ला इतना चमकदार व आलीशान घरों से लकदक नहीं था,कस्बे व गांव की मिली जुली अनगढ़ता व महक थी,आम लीची के पेड़ हर घर में दिख जाते थे।सड़क पतली वह ऊबड़ खाबड़ रहती थी। टिन शेड की छतों वाले ढलुवा घर भी इक्का दुक्का नजर आते थे।डोभालवाला देहरादून का  पुराना मुहल्ला व बसावट का प्रतीक लगता था।अब तो मुहल्ले का हर घर नया रिनोवेटेड,डुप्लेक्स ट्रिपलेक्स नजर आ रहा था,सड़क बेशक पतली लेकिन समतल थी।

पन्त जी का घर भी वो लम्बे बरामदा वाला,अब परिवर्तित रुप में था,उस पुराने घर के बैठक में अपेक्षाकृत युवा कथाकार पन्त और आज के उम्रदराज कथाकार के शारीरिक ढांचे में कोई खास अन्तर नहीं था लेकिन आंखों की चमक,बोलने की इंटेंसिटी,और फुर्तीले पन का फर्क लाजमी तौर पर जाहिर हो रहा था।

इस नये वाले परिवर्तित घर की इसी बैठक में अपने पुत्र गोर्की की शादी के मौके पर पन्त जी ने अपने साहित्यिक मित्रों हेतु डिनर पार्टी का आयोजन किया था,पीने पिलाने के दौर के दौरान मदहोशी में वे,बेहद भावुक होकर बोले थे,'यार!जिंदगी में मेरी  कमाई आप लोग ही हैं मेरी,साहित्यिक बिरादरी के दोस्त,वरना व्यवहारिक जिंदगी में निपट अनाड़ी हूं, मुझे यकीन है आप लोग अपनत्व से मुझे ऊष्मा देते रहोगे,तो मेरी रचनात्मकता बची व बरकरार रहेगी। वह बात आज रह रह कर याद आ रही थी, मित्रों ने पन्त जी के सान्निध्य में खूब पीने खाने का लुत्फ उठाया था,

'अरुण तुम्हें याद है, तुम तो थे ना मौजूद उस पार्टी में ? मैंने पूछा।

'हां,हां,मैं बाकायदा था, बड़ी देर तक हम लोगों ने आनन्द लूटा था। लगभग बारह तेरह साल पुरानी बात होगी यह!' 'हां बिल्कुल।'

पन्त जी एकहरे शरीर के दुबले पतले सदाबहार एक जैसी काया में नजर आते हैं। जैसे चालीस साल पहले थे,वेसै ही अब हैं। सिर्फ़ चुश्ती फुर्ती व ऊर्जस्विता में फर्क पड़ा है,स्मृति ठीक है। लाक डाउन,करोना से बातें शुरू हुई तो फिर साहित्य,लेखन,पठन-पाठन की गतिविधियों का तब्सिरा शुरू हो गया। स्थानीय प्रकाशक समय साक्ष्य से नवीनतम कहानी संग्रह आने वाला है,वे कह रहे थे,बाहर के प्रकाशन से विलम्ब के बनिस्पत स्थानीय अच्छे प्रकाशन से त्वरित छपवा लेना उचित है।

हिंदी लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशित करवाना हमेशा टेड़ी खीर रहा है,यह एक विडम्बना उसका पीछा कभी नहीं छोड़ती। हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को भी प्रकाशक ठेंगा दिखा देते हैं। जगूड़ी जी जैसे लेखक भी गपशप में साहित्यकार की परिभाषा व संधि विच्छेद करते हुए कहते हैं, 'साहित्यकार' -यानी 'साहित्य' आपके पास, 'कार' प्रकाशक के पास।

'मुझे, वैसे अपने संग्रह छपवाने में बहुत समस्या नहीं आई, लेकिन विलम्ब व रायल्टी पारदर्शिता की शिकायत तो रहती ही है,यह हिंदी का दुर्भाग्य है।

मेरा पहला संग्रह बड़ी आसानी से छप गया था,

'तपती हुई जमीन' जवाहर चौधरी ने छापा था, सारिका में मेरी कहानी 'गाय का दूध छप कर चर्चित हो गई थी। उसके कवर पेज का डिजाइन मैंने ही जवाहर चौधरी से कह कर अवधेश (अवधेश कुमार) से बनवाया था। उसके बाद तो अवधेश को दिल्ली के प्रकाशक ढूंढ कर बुलवाने लगे थे,वह दिल्ली में छा गया था,बहुत टेलेन्टेड चित्रकार,व कवि था, हमारे देहरादून का लेकिन अपनी आवारगी व बदपरहेजी के कारण इतनी जल्दी चला गया हमारे बीच से। अवधेश को याद करते हुए पन्त जी भावुक हो उठे थे।

'आपकी शादी हो चुकी थी जब आपने लिखना शुरू किया'? अरुण ने पूछा। 

'हां हां,मैने तो बहुत बाद में लिखना शुरू किया,शादी मेरी ६४ में हो गई थी,लिखना छपना ७३-७४ में  शुरू हुआ,३५ साल की उम्र के बाद।उससे पहले सेहत गड़बड़ा गई थी,भवाली सेनेटोरियम में भर्ती रहा।बड़े हादसे झेले। 

देहरादून में लिखने पढ़ने वालों का माहौल बनने लगा था तब। साहित्य संसद की गोष्ठियां होती थी, ब्रह्मदेव जी,शशिप्रभा शास्त्री,सुरेश भटनागर,वीर कुमार अधीर आदि लोग आते थे। हम लोग अपेक्षाकृत युवा थे,हमारी अभिरूचि भिन्न थी

इसलिए मैने,नवीन नौटियाल व अवधेश ने मिल कर संवेदना संस्था का गठन किया, तय हुआ कि कोई इसका अध्यक्ष,सचिव नहीं होगा। तीनों ही इसके संवाहक होंगे। उसकी नियमित गोष्ठियां आयोजित करने लगे थे।

सारिका में छपने के बाद तो मेरी पहचान बनने लगी थी।समान्तर कहानी आयोजन देश भर में आयोजित होने लगे थे। इब्राहीम शरीफ ने मद्रास सम्मेलन  में बुला लिया,पहली बार घर से बाहर निकल कर उतनी दूर जाना हुआ। कमलेश्वर जी से पहली मुलाकात वहीं हुई,श्रवण कुमार, मधुकर सिंह,से.रा यात्री से मुलाकात हुई,सारिका के लेखक एक दूसरे से मिल कर गले लिपट पड़े।

मद्रास से लौटते हुए कालीकट विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में शामिल हुए।वहां कहानी पाठ व चर्चा के बाद रात में डिनर से पूर्व पीने वगैरह का दौर शुरू हो गया, छात्रों ने स्वय एक बूंद नहीं ली, लेकिन लेखकों के सम्मान में पेय का इंतजाम कर दिया। पानी के लिए उन दिनों वहां सुराही रक्खी होती थी मेज पर  छोटी छोटी। से.रा. यात्री धुरंधर खिलाड़ी थे। मदहोशी में बोले यार,ये बोतल में बची ह्विवस्की मैं झोले में डाल लेता हूं,कल काम आयेगी,उन्हें कौन रोक सकता था।

दूसरे रोज शौक फरमाने के लिए झोले में हाथ डाला तो बोतल के बदले सुराही निकली,एक से एक रोचक किस्से हैं उस यात्रा के, जवाहर चौधरी से भी हीं मुलाकात हूई, संग्रह के प्रकाशन का आगाज भी तभी हुआ बातो बातों में।

से.रा यात्री की बात चली तो फिर उनके किस्से चलते चले गये।बोले, 'यात्री बहुत फक्कड़ और घुमक्कड़ लेखक थे। उत्कृष्ट कोई खास नहीं लिखा उन्होंने लेकिन औसत दर्जे का जितना लिखा उतना किसी और ने नहीं लिखा होगा। खादी का सफेद कुर्ता पजामा और कंधे पर झोला उनकी पहचान थी। कहते थे लेखक के पास झोला अवश्य होना चाहिए पता नहीं कब क्या छुपाना पड़ जाय।'



'वो देहरादून में रिक्शे की सवारी वाला क्या किस्सा है, यात्री जी का,पन्त जी!' हमने उन्हें कुरेदा था।

'अरे हां,अद्भुत शख्स थे यात्री जी। उन्होंने अपनी एक कहानी में देहरादून में हाथ रिक्शा चलवा दिया।

इस बात को लेकर बड़ा हल्ला हुआ, देहरादून में रिक्शे चलते नहीं,यात्री नकली कहानियां लिखते हैं।

बात,साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी तक पहुंची, उन्होंने उपसंपादक हिमांशु जोशी से पूछा,'ऐसी गल्ती क्यों हुई, प्रूफ व तथ्यात्मक अशुद्धियों हेतु सम्पादक जिम्मेदार होता है।' साप्ताहिक के कार्यालय में आने पर हिमांशु जोशी ने यात्री से इस त्रुटि हेतु मनोहर श्याम जोशी की हिदायत व नाराजगी का हवाला दिया। यात्री भड़क गये और सीधे मनोहर श्याम जोशी के चैम्बर में घुस कर सफाई दे आये,कि लेखक को कहानी के पांच सौ रुपए पारिश्रमिक मिलते हैं इसमें क्या वो हवाई जहाज चलवा देता,देहरादून में!' एक से एक मजेदार किस्से हैं हमारे जमाने के लेखक मित्रों के।पन्त जी बात बात में कमलेश्वर जी की तारीफ कर रहे थे, कमलेश्वर बड़े ग़ज़ब के आदमी थे। 'सारिका में नये लेखकों को खूब छापते व प्रोत्साहित करते थे।'

'कमलेश्वर जी सबके साथ ऐसे ही पेश आते थे,जैसे आपके साथ?' अरुण पूछ बैठा।

शर्मीली सी गौरवान्वित मुस्कान के साथ वे बोले,

'हां,मेरे प्रति थोड़ा ज्यादा ही स्नेहिल थे,यूं सबके प्रति  उनका व्यवहार अच्छा रहता था।' सारिका बन्द होने के बाद 'गंगा' के सम्पादक बने। गंगा के आठ दस अंक निकले,उसमें उन्होंने मेरा उपन्यास 'सुबह का भूला' छापा।

'हां,हां मुझे याद है,गंगा में ही पढ़ा मैंने भी उसे,८८-९० के आसपास, मैने कहा।

'गंगा' के बन्द होने के बाद कमलेश्वर जी फिर पूर्णतया साहित्य से कट कर फिल्म संवाद लेखन की ओर उन्मुख हो गये थे। हालांकि उन्होंने 'कितने पाकिस्तान' जैसा मार्के का उपन्यास भी बाद में लिखा।

इस बीच पन्त जी बोले,' यार तुम इधर लगातार बड़ी अच्छी कविताएं लिख रहो हो,फेसबुक पर,वो स्त्री वाली कविता तो बहुत अच्छी है,क्या नाम है 'स्त्रियां' है,ना! 'हां,हां अभी हाल ही में डाली थी!'

तुम्हारे लेखन में इतनी वैरायटी है, व्यंग्य, कहानी, कविता। संग्रह आने चाहिए इन सबके।

'हां,हां अब कोशिश करता हूं, रिटायरमेंट के बाद फुर्सत मिली है इस वास्ते।'

बातों बातों में कब दो घंटे बीत गये पता ही नहीं चला,'अरे! मैं तो पूछना ही भूल गया चाय लोगे,या ड्रिंक्स चलेगी,तकल्लुफ की बात नहीं, है इंतजाम बोलो।' 

नहीं,नहीं ड्रिंक्स नहीं, दिन का वक्त हैं,चाय ही लेंगे

अरुण ने कहा,मैंने भी उसका समर्थन किया।

पन्त जी भीतर गये। थोड़ी देर बाद उनकी पुत्रवधू चाय का ट्रे व नमकीन बिस्कुट रख गई। इतनी देर की बातचीत व किस्से कहानियों के बाद गर्मा-गर्म चाय बिस्कुट की तलब लगी ही थी। 

मेल जोल व बातचीत से मन कितना बदल जाता है,यह पन्त जी की मुखर,उत्साही व प्रसन्न  भंगिमा से जाहिर हो रहा था,बनिस्पत दो घंटे पूर्व की उदास व शान्त भंगिमा से। मित्रों के सान्निध्य के बीच पुरानी स्मृतियों व किस्सों की अदायगी से उनके शरीर  में जैसे जान व रौनक आ गई थी।बढ़ती उम्र में इंसान की यह सामाजिक भूख और बढ़ जाती है,इसलिए हमें अपने अग्रज मित्रों,परिजनों से मुलाकात भेंट घाट करते रहनी चाहिए ताकि उनको एकाकीपन उपेक्षा,अवहेलना महसूस न हो। यह बात शिद्दत से हमें भी महसूस हो रही थी। हममें से अरुण इस भूमिका को बखूबी निभाता है ,यह गुण उसमें स्वभाव के अलावा जिम्मेदारी के दायित्व बोध का भी है।

वर्तमान साहित्य के परिदृश्य पर बातचीत करने का यह अवसर नहीं था,गपशप के बीच ही सहज अनौपचारिक रुप से पुरानी स्मृतियों के स्फुरण से हम लोग आनन्दित हो रहे थे और पंत जी को भी उल्लसित देख रहे थे।

वे बोले,'राजेन्द्र यादव की हंस पत्रिका में मैंने कहानी भेजी ही नहीं,छपने के वास्ते, क्योंकि उन्होंने सारिका में छपने वाले समांतर के दौर के रचनाकारों को कमलेश्वर के 'चेले चपाटे' कह कर हमारा  मजाक उड़ाया था। हंस में मेरी एक दो कहानियां ही शुरू में प्रकाशित हुई थी उसके बाद नहीं भेजी।

पिछले वर्षों में ज्ञानरंजन की पहल पत्रिका में कहानियां प्रकाशित व चर्चित हुई, ज्ञान जी सम्मान पूर्वक मंगवाते थे,मैंने भी उनका मान रक्खा और रचनायें भेजी।'कथादेश' में बहुत कहानियां छपी।'

कुछ इधर उधर की बातें हुई, एफ.आर.आई की नौकरी आदि की। अब संस्थान के पुनर्गठन के बाद काउन्सिल बन जाने के बाद भी इतने प्रसिद्ध नामी संस्थान की हालत से वे क्षुब्ध थे,कह रहे थे, 'काउन्सिल बनने के बाद संस्थान खुद नवोन्मेषी उद्यमों से अपनी आमदनी बढ़ा रहा है लेकिन ओवरहैड खर्चे इतने ज्यादा हैं कि घाटे में ही जा रहा है।'

इस बीच एक वक्त में काफी चर्चित हुई कहानियां, 'कामरेड का कोट,' 'भगदत्त का हाथी' व 'पिंटी का साबुन' तथा इनके कथाकारों की चुप्पी पर भी चर्चा हुई, इसी सिलसिले में  गंभीर सिंह पालनी की कहानी 'मेंढक' का जिक्र चला तो पंत जी बोले, 'मुझे खास अपील नहीं करती वह कहानी,मेंढक जैसे बचकाना प्रतीक पर है।'

अरुण ने प्रतिवाद किया,'नहीं,नहीं मेंढक तो अच्छी कहानी है,शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है उसमें नयापन है',मैने भी अरुण का समर्थन किया।

'ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर धारदार लेखन ही अन्तत: सराहा जायेगा,आम आदमी की मुश्किलें अभी खत्म नहीं  हुई है।' पन्त जी ने कहा। यही सब बातें करते करते काफी देर हो गई थी, लगभग तीन घंटे तक हम लोग पंत जी से बोलते बतियाते रहे। चलने को उद्यत हुए तो वे,भीतर रैक से एक मोटी सी किताब लाकर मुझे थमाते हुए बोले,तुम रिटायर हो गये हो,वक्त की कमी नहीं है,इस जीवनी को पढ़ना। अब तो अनुवाद की बहुत सुविधा है,विश्व साहित्य की अनुदित अच्छी पुस्तकें हिंदी में आ रहीं हैं।

जरूर जरूर, मैंने पन्त जी द्वारा उपहार स्वरूप प्राप्त वह किताब ले ली।

बाल्जाक की जीवनी थी,चार्ल्स गोरहाम की लिखी तथा जंग बहादुर गोयल द्वारा हिंदी में अनूदित।संवाद प्रकाशन से छपी,काफी मोटे कलेवर की। 

उसके बाद हम तीनों ने साथ बैठ कर फोटोग्राफ खिंचवाया,जो उनकी पोती नताली ने खींचा। वह बड़ी हो गई है,क्लास सिक्स में पंहुच गई है,नताली के प्रथम जन्मदिन पर आयोजित समारोह में हम सब लोग एकत्रित हुए थे, नताली को देख कर उस समारोह की याद आ गई। फोटो खिंच जाने के बाद पंत जी हमें छोड़ने गेट तक आये।

'अच्छा फिर आते रहना आप लोग,मेरा तो आना जाना मुश्किल है।' 'जरूर, आयेंगे, नमस्ते।' हम दोनों समवेत स्वर में बोले और गेट बन्द कर लौट आये।

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Monday, March 6, 2023

जंग खाई हुई आत्मा

सुभाष पंत जी की कहानी 'सिंगिंग बेल' विचार प्रधान साहित्य चिंतन और सहज भाषा- दृष्टि के माध्यम से साहित्य को गढ़ने के प्रक्रिया में उपजी हुई कहानी है । कहानी के कुछ अंशो में गद्य की लयात्मकता कविता का आभास देती है। कहानी की मुख्य पात्र मारिया डिसूजा वर्तमान में रहते हुए भी अतीत से जुड़ी रहती है ,तथा अतीत अदृश्य रूप से उसके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है । उसके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं । उसका निजी अतीत है । और अचानक अपरिचित और होस्टाइल हो गया संसार है । उसका अतीत घने गहरे प्रेम की, अतृप्त की और पूर्णता की लालसा की कहानी है । आकर्षण की स्थितियां बीत चुकी हैं। उसकी जिंदगी में समय एवं समाज ऐतिहासिक रूप से क्रमवार नहीं आता । एक ओर निरा वर्तमान , और दूसरी ओर परिवेश के प्रति आक्रांत एवं भय -दृष्टि , निराशा, भविष्य के प्रति उदासीनता जैसी परिस्थितियों में उसका जीवन बीत रहा है। लेखक ने कुछ सजीव विंबो के माध्यम से मारिया कि मनस्थिति का चित्रण किया है। 'गहरी नम धुंध,, 'कोहरा बेआवाज शीशे पर नमी की तरह फैलता हुआ'। उसके होटल हिल क्वीन की दीवारें 'जंग खाई हुई आत्मा' की तरह हो गई थी। ' सब कुछ बेआब उदासी में डूबा हुआ' ।दीवार घड़ी की 'खामोशी' उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। वक्त का अंदाज तो उसे मस्जिद की अजान,गुरद्वारे की अरदास, मन्दिर के घंटो औऱ गिरजाघर की प्रार्थना से भी लग जाता , लेकिन यह घड़ी डेबिड लाया था। इसकी आवाज की बात ही कुछ और थी। डेविड, मारिया डिसूजा की जिंदगी का 'एंकर 'था। डेविड उसे बहुत साल पहले अकेला छोड़ कर चला गया। लाल फिरन में डेविड की यादें छुपी थी। चर्च ने उससे रियायत मांगी थी कि वह इस फिरन को ना पहना करें । इसे देखकर लोगों का ध्यान प्रार्थना से हट जाता है। उसे लाल फिरन पहने देखकर 'बर्फ में आग' लग जाती है। उसने ये रियायत चर्च को दे दी। डेविड कहता था सबसे खूबसूरत 'तेरी काली आंखें मारिया, जिसके पास जुबान है, वो हर वक़्त बोलती है'। वह ये जानती थी फिर भी बार बार सुनना चाहती थी ।और फिर एक दिन डेविड उसे छोड़ गया। सिंगिंग बेल और हिलक्वीन होटल की विरासतके साथ। हिल क्वीन की शाख पर बट्टा कैसे लगने देती वो। हिलक्वीन उसके और डेविड के 'साझे श्रम का संगीत ' जो था । वह उस संगीत को मरने नहीं देना चाहती। 'शहर अब वैसा नहीं रहा ,जैसा वह उसे जानती थी हवाएं बदल गई। आदमी और उसका व्यवहार बदल गया। अच्छे भले आदमी हाशिए में फिसल गए। हत्या और बलात्कार लोगों को उद्वेलित नहीं करते । ऐसे समाचार शौर्य गाथाओं की तरह पढ़े जाते हैं।' इस माहौल में शराब माफिया नसीब सिंह उससे हिलक्वीन छीनना चाहता है । उसे हर तरह मजबूर करना चाहता है कि वह हिल क्वीन उसके हाथों बेच दे ।तरह तरह के दवाब डालता है। इस षड्यंत्र में सारा शहर नसीब सिंह के साथ हैं क्योंकि सब उससे डरते है । यहां तक कि चर्च का पादरी भी मारिया को होटल बेचने के लिए कहता है ।जब वह पादरी से मदद के मांगती है तो वह कहता है , 'हमारे हाथ में बाइबल है बंदूक नहीं'। धर्म की मजबूरी नंगी होकर सामने आ जाती है। वह मायूस हो जाती है ।उसे जो भी मिलता है , चाहे वह चर्च की कैंडल बेंचने वाला हो, या और कोई, सब उसे होटल बेचने की सलाह देते हैं ।सत्ता और शासन का प्रतीक कॉन्स्टेबल जो नसीब सिंह की असलियत भी जानता है और इतिहास भी , वह भी अपनी मजबूरी बताते हुए मारिया को होटल बेचने की सलाह देता है।यहां तक कि इस साज़िश में खुद उसका बेटा भी शामिल है। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, चाहे वह धर्म का हो या सत्ता ,का या इन दोनों के गठबंधन का, तब मारिया में एक नई शक्ति का जागरण होता है और वह दृढ़ता के साथ हिल्कवीन न बेचने का निश्चय लेती है। यह दृढ़ता उसमें कहां से आती है यह सोचने का विषय है। जब दुश्मन से लड़ते-लड़ते और भागते भागते हमारी पीठ दीवाल से लग जाती है, तो हमारे पास सिवाय लड़ने के और कोई विकल्प नहीं बचता और यही विकल्प शून्यता हमारी ताकत होती है। और इस शक्ति का स्रोत स्वयं हमारे अंदर होता है। बस उसे एक ट्रिगर की जरूरत होती है।

सुभाष पंत जी की इस कहानी की अंतर्धारा में कई पहलू है।इसमें एक नितांत अकेली स्त्री के समाज के साथ संघर्ष की कहानी है, तो दूसरी तरफ उसके एकाकीपन का व्यक्तिगत आयाम, जो उसके विगत के रूमानी जिंदगी की यादों से परिपूर्ण है। उसके पति की यादें उन दोनों की साझा आशाएं और आकांक्षाओं का प्रतीक हिलक्वीन होटल जिसकी हिफाजत उसके वर्तमान का मकसद बन जाता है।ये होटल उसकी अस्मिता का प्रतीक है. उसे हर कीमत पर बचाने की कोशिश में उसे माफ़िया और चर्च से लेकर अपने बेटे तक से टक्कर लेनी है। इसके लिए जो ताकत दरकार है, वो कहीँ और से नही , उसे अपने अंदर से , अपने वजूद से उत्खनित करनी है। अन्य सारे विकल्पों को 'रूल आउट ' करने के बाद उसे एहसास होता है की उस शक्ति का मूल तो उसके स्व: में ही निहित है। सिंगिंग बेल का बजना उसके इस इलहाम का प्रतीक ही नही है, बल्कि आने वाले कठिन संघर्ष और जद्दोजहद का आगाज़ भी है।

इस कहानी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समाज के उन लोगों के सच को उजागर करता है जिनकी रीढ की हड्डी अपना अस्तित्व खो चुकी है। उनके अंदर की अच्छाई और अंतरात्मा की आवाज का उद्बोधन अपना दम तोड़ चुका है। सच्चाई जानते हुए भी , अपने भय और निष्क्रियता के कारण , वे आक्रान्ता के पक्ष में खड़े दिखाई देतें है। कहानी में आम आदमी, समाज के विभिन्न वर्ग, धर्म और सत्ता के प्रतिनिधि सबका एक्सपोज़र अपने अपने ढंग से वर्णित है। ऐसे लोग सामाजिक विघटन और मूल्यों के छरण के उतने ही जिम्मेदार हैं जितने की नसीब सिंह जैसे लोग। ये सारे के सारे घटक मिलकर एक मूल्यविहीन विघटित सामाजिक राजनीतिक परिवेश का परिदृश्य हैं , जो हमारी समकालीन सच्चाई भी है। इस दृष्टि से पंत जी की ये कहानी, बिना sermonise किये, हमे अपने वर्तमान का आइना दिखाती हुई सी लगती है।
"An injustice anywhere is a threat to Justice everywhere."

चन्द्र नाथ मिश्र