Saturday, August 16, 2008

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे बर्फ की चादरें ओढ़कर

समकालीन कविता के मह्त्वपूर्ण कवि अनूप सेठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन उनके भीतर डोलता पहाड उन्हें हर वक्त बेचैन किए रहता है। जगत में मेला उनकी कविताओं का संग्रह इस बात का गवाह है। यहां प्रस्तुत कविताऎं कवि से प्राप्त हुई है। इन कविताओं के साथ कवि अनूप सेठी का स्वागत और आभार।
अनूप सेठी 098206 96684

अशांत भी नहीं है कस्बा

एक

आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी

ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी

सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से

दो

जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे

कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी

कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी

बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा

बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें

कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे

कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे

अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला  (1988)

भूमंडलीकरण

अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज

कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले

कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है

इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर

मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं

फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार

एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा

एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे

अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)

Wednesday, August 13, 2008

कविता क्रिकेट की गेंद नहीं

विजय गौड

एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।

क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।

वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।

Monday, August 11, 2008

सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला

एक रचनाकार के मानस को जानने समझने के लिए रचनाकर से की गई बातचीत के अलावा कोई दूसरा प्रमाणिक और बहुत सटीक तरीका नहीं हो सकता।
ऐसे में समय में जब कला, खास तौर पर पेन्टिंग और गायन जो आज अपने सरोकारों से दूर होते हुए सिर्फ एक बिकाउ माल होती जा रही है, मानवीय मूल्यों और ऐसे ही सरोकारों से, कूंची और रंग के बल पर, अपनी कल्पनाओं को जीवन के यथार्थ के साथ जोड़ने वाले कलाकार/पेन्टर हकु शाह के साथ की गई यह बातचीत न सिर्फ हकु शाह को जानने में मद्दगार है बल्कि किसी भी कलाकार के रंग संयोजन को जानने की समझ भी देती है।
युवा रचनाकार पीयूष दईया के हम आभारी है जिन्होंने हकु शाह की इस बातचीत का हमें मुहैया कराया। हकु शाह के साथ की गई एक लम्बी बातचीत, जो एक किताब के रूप में "मानुष" शीर्षक से प्रकाशानाधीन है, का यह एक छोटा सा अंश है। पीयूष दईया महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका बहुचन के संस्थापक सम्पादक रहे हैं। दो वुहद ग्रंथों/पुस्तकों" "लोक" एवं "लोक का आलोक" के सम्पादन के साथ लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका "रंगायन" का भी लम्बे समय तक सम्पादन किया। हकु शाह द्वारा लिखि चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। अनेक शोध-परियोजनाओं पर काम करने के अलावा पीयूष कुछ संस्थानों में सलाहकार के रूप में भी अपनी सेवाएं देते रहे हैं और काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ""तनाव"" के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में भाषान्तर किया है।
वर्तमान में विश्व-काव्य से कुछ संचयन तैयार करने के साथ-साथ पीयूष कई अन्य योजनाओं को कार्यान्वित करने और अपने उपन्यास ""मार्ग मादरजात"" को पूरा करने में जुटे हैं।



वरिष्ठ चित्रकार , शिक्षाविद् व शीर्षस्थानीय लोकविद्याविद् हकु शाह जड़ों के स्वधर्म में जीने-सांस लेने वाले एक आत्मशैकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरूष है : एक अलग मिट्टी से बनी ऐसी मनुष्यात्मा जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है गो कि हमारे समय में अब कोई उस पर चलता हुआ दिखता नहीं--विधाता ने अपने कारखाने में ऐसे प्राणी बनाना बंद कर दिये हैं , मानो। उनके सादगीभरे व्यक्तित्व में निश्छल स्वच्छता है और स्वयंमेतर के साथ मानवीय साझे की वत्सल गर्माहट। उनकी हंसमुख जिजीविषा में निरहंकारी नम्रता व लाक्षणिक सज्जनता का रूपायन है और उनका कलात्मक अन्त:करण ऋजुछन्दों में सांस लेता है। गहरा आत्मानुशासन उनका बीजकोष है।
दरअसल , हकु शाह स्वदेशी पहचान के जौहरी व मर्मवेत्ता है और वे अकादमिक धारणाओं के रूढ़ चौखटों व तथाकथित कोष्ठकों से बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य पाते हैं। बोलचाल की वाचिक लय में विन्यस्त उनकी आवाज़ में आदमियत की ज़मीनी आस्था के जो विविधवर्णी स्वर सुनायी पड़ते हैं उनके पीछे एक ऐसा असाधारण विवेक व मजबूती है जो संसारी घमासान के ऐन बीचोंबीच अवस्थित रहते हुए भी अपने उर्वर आत्म--अपनाआपा--को सलामत रख पाने का आदर्शात्मक साक्ष्य हमारे सामने इतने सहज व चुपचाप तरह से रखता है मानो पांख-सा हल्का हो। यह एक अलग तरह की रोशनी व चेतना है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर अडिग आग्रह--अहिंसा , प्रेम व आनन्द--का संदेश यूं उजागर है गोया उनके वजूद का शिलालेख हो जिसे बांचने का मतलब स्वावलम्बी समाज-रचना व जीवन के सहज चरितार्थन के सुंदर काव्य में खिलना व सांस लेना है।
जनवरी से जून , दो हज़ार सात के दरमियान हकु शाह के साथ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर एकाग्र लगभग सत्तर घण्टों का वार्तालाप सम्पन्न हुआ था और उनके दृष्टि-परास के बहुलायामों से विन्यस्त यहां प्रस्तुत प्रगल्भ पाठ इन्हीं वार्ता-रूपों से बना है जो शीध्रप्रकाश्य पुस्तक ""मानुष"" का एक किंचित् सम्पादित हिस्सा है।
यह पाठ वत्सल (संदीप) के लिए। --पीयूष दईया ई-मेल : todaiya@gmail.


हकु शाह

एक कलाकार के सन्दर्भ में हम स्टूडियो वगैरह की बात करते हैं। मुझे यह बहुत कृत्रिम जान पड़ती है। कोई भी जगह कलाकार के लिए उचित है बशर्ते कि वह उसे पसंद हो।
चित्ररत होते समय कैनवास के बाहर के वातावरण को मैं संतोष दे देता हूं हालांकि उसमें मेरी पत्नी है , घर है , मेरा खाना व अन्य चीजें हैं। कैनवास संग शुरू करने से पहले भी मेरी यह कोशिश रहती है कि आसपास का वातावरण शान्त बना रहे हालांकि जब चित्र बना रहा होता हूं तब आजू-बाजू क्या हो रहा है उसका ज़्यादा पता नहीं रहता। असल में चित्र बनाते समय तबीअत पर आधार होने के अलावा जिस चित्र पर काम कर रहा हूं उसके अपने उभर रहे रूप पर भी बहुत कुछ तय करता है--मूड़ और रूप-स्वरूप दोनों ही। तबीअत के उतार चढाव चित्र पर किस तरह से असर करते हैं यह पता नहीं लेकिन मैं उस समय चित्र बनाता हूं जब सुबह में पांच बजे जल्दी उठ जाने से तबीअत में ताज़गी बनी रहती है हालांकि काम करते हुए वहीं चीज़ शाम को थोड़ा तकलीफ़ देने लगती है। लोग आते जाते हैं यह एक बात है, दूसरी तब जब कोई नहीं हैं और मैं काम करता हूं। तीसरी बात में यह स्वयं चित्र ही है जो मुझसे बात करता है--अकेला।
और मैं ताज़ा हूं--हालांकि तीनों बातों के सिलसिले में आधार वही बना रहता है कि चित्र कौन-सी अवस्था पर है। दरअसल किसी के आने जाने या किसी की उपस्थिति तब खलल पैदा नहीं करती जब चित्र की गति मेरे मन में तय हो ( काव्यात्मक लहज़े में कहूं तो नी ) लेकिन हां , जब चित्र बांधना हो , रूप रचने में उलझा होऊं, उस समय मैं चित्र के साथ अकेला ही खेलना पसन्द करता हूं। शायद इसलिए भी कि इन खास घड़ियों में संशय और उम्मीद दोनों ही चीज़ें अपना काम कर रही होती हैं ; पहली में यह कि चित्र में कुछ होगा कि नहीं और दूसरी यह कि कुछ होता है। दोनों ही स्थितियों में--होता है या नहीं होता है या दोनों संग--मैं मेहनत करता हूं और इसमें जिस रचनात्मक ऊर्जा व शक्ति का उपयोग होता है, उससे चित्र बनता चला जाता है।
जाहिर है ताज़गी और सुबह वाले प्रकार की भूमिका बहुत अहम है क्योंकि शाम में चित्र पर काम करते समय यह आत्म-संशय फिर दबोच लेता है--सम्भवत: थकान के चलते--कि अभी अगर चित्र को हाथ लगाया तो यह बिगड़ भी सकता है , उस समय ऐसा लगता है मानो अभी कुछ नहीं होगा ; तब इसे छोड़ देता हूं और मैं नहीं करता। सुबह होते ही चित्र अपने आप मुझे कहने लगता है--सुझाने लगता है कुछ इस तरह मानो मैं उसके वजूद को प्रकट करने का माध्यम हूं--कि ऐसे करो कि ये रंग लगाओ कि इस तरह से रेखा डालो कि इस भांति से करो--- अब इसमें अकादमिकता या पढाई-लिखाई या इस तरह की कोई चीज़ बीच में नहीं आती। दरअसल यह स्वयं चित्र है जो मुझे रंग या रेखा या अन्य चीज़ों के बारे में बराबर बताता रहता है कि फलां फलां तरह से करोगे तो ठीक रहेगा। अपने चित्र बनाने में मैं फिर उसी हिसाब से करने लगता हूं जिसमें मुझे बहुत आनन्द आता है। यही वे घड़ियां है जब चित्र अपने से बनता जाता है। जैसे कि बीते कल चित्र बनाते समय यह नहीं सोचा था कि आज ये ओढनीवाला जैसा कुछ स्वरूप औरत के पीछे आएगा ; कल लगता रहा था कि खाली रेखा डालूंगा। लेकिन आज यह स्वयं चित्र है जिसने सब बोल दिया कि मुझे न केवल पूरी रेखा डालनी है बल्कि उसमें उधर थोड़ा सफ़ेद रंग भी लगाना है जिससे बाजू वाला सफ़ेद इसका पूरक हो जाए ; यह करना अब अच्छा लग रहा है। हो सकता है मैं उतना सफल न हो पाऊं, तिस पर भी इस कैफियत में यह करने में आनन्द आ रहा है। एक बात यह है कि मेरा लोहि , मेरा रक्त चित्र में जाता है , दूसरा यह है कि मुझे शान्ति मिलती है। किसी को यह परस्पर उलटे भी लग सकते हैं मगर ऐसा होता है। मैं थकता हूं , नि:शेष होता हूं लेकिन मज़ा आता है इसमें--थकान में मज़ा , शक्ति खर्चने में मज़ा , चित्र संग होने का मज़ा। इससे मुझे उतनी ही शान्ति मिलती है जितनी किसी को अच्छी हवा में मिलती होगी बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा।
इसीलिए चित्र बनाते समय मैं किसी भी तरह के बाहरी दबावों का शिकार नहीं बनता। जो चलता है उसमें कई चीज़ें एक साथ में चलती रहती है--अन्त:सलिल। चित्र अपने से हो रहा होता है उसमें बाहर से कुछ भी लाने का प्रयास उसे नद्गट करने जैसा है।
एक तरह से चित्र अपने से स्वयं को मेरे सम्मुख उजागर करने लगता है और मुझ संग चित्र की यह संवाद-प्रक्रिया मेरे लिए सबसे अच्छी , सबसे ऊंची चीज़ है। चित्र एकदम अपने को खिलने में ले आता है--अनपेक्षित तरह से बारम्बार--अपने अलग अलग अंग से लेकर प्रवृत्ति सहित--मैं वही करने की कोशिश करता हूं जो बन रहा चित्र बोलता है। यह समाज के संग चुनौती की भूमिका में आ जाने जैसा भी है। एक खास मायने में समाज व अन्य सब से घमासान करने जैसा भी। मान लीजिए कि अपने एक चित्र में मुझे एक मानवाकृति के सिर के बाल बनाने हैं। यह मामूली सी बात एक जटिल गुंफन में तब्दील हो सकती है क्योंकि बाल रखने न रखने या कितना रखने के विभिन्न समाजों के अपने मानक हैं जैसे बालों की चोटी बनानी चाहिए कि नहीं कि कितनी चोटियां बांधनी चाहिए कि अफ्रिकंस् सरीखी ज़्यादा चोटियां गूंथनी-बांधनी चाहिए ---ज़ाहिर है कि सिर्फ़ इस एक चीज़-मात्र से ही सब नयी नयी चीज़ें ऐसे निकलने लगती हैं कि हो सकता है कोई समझे कि बाल कम बनाने हैं और मैं ज़्यादा बना दूं या इसके उलट भी हो सकता है--यह वह खेल है जिसमें अलग अलग रूप उसी तरह प्रकट होते चले जाते हैं ( मेरे चित्रों की मानवाकृतियों को आप देख सकते हैं ) जिस तरह चित्र मुझे बताता रहता है। हर लसरका/स्ट्रोक , हर टुकड़ा/पेच , हर रेखा/लाइन चित्रफलक पर ज़रूरत के हिसाब से पड़ती है और फिर वह/वे ही अपनी जगह , अपनी दिशा तलाश लेती हैं--आप से आप। मुझे पता नहीं होता कि चित्र में क्या घटने वाला है--चित्र बनाते हुए यह विकसित होता है , पनपता है। दूसरे शब्दों में , चित्रानुभूति स्वयं में एक रास्ता है जिस पर चलते चलते आप एक चमत्कार के घटने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं--विभिन्न रंगों , रेखाओं , जगहों/स्पेसेज़ को रचते हुए।
अपने चित्रों के सिलसिले में मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि यह खेल के बहुत नज़दीक है--इसमें ऐसा कोई तत्व अन्तर्व्याप्त हो जाता है जो कलाकार को आनन्दित करता है। चित्र संग खेलने में मुझे गहरा आनन्द मिलता है। यह मेरे लिए एक चुनौती व प्रयोग है। यहां कभी भी कुछ भी घट सकता है लेकिन एक कसौटी कहीं नेपथ्य में बनी रहती है और वह है संवेदना संग इन्द्रियों में एक ग्राह्य खुलापन।
कई दफा ऐसा भी होता है कि संस्कारवश या फ़ैशन या चलन के चलते जो चीज़ समाज में स्वीकार्य नहीं है वही चीज़ आप चित्र में पसंद करने लगते हैं। यह मेरे लिए एक बड़ी बात है। इसे ऐसे समझे कि अपने एक चित्र की मानवाकृति के कान में मानो मैंने एक केसरिया टपका इसलिए लगा दिया है क्योंकि चित्र ने मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। हो सकता है कि अभी के किसी प्रेक्षक को वह ठीक न जान पड़े मगर बहुत सम्भव है कि उसके या किसी और के पूरे जीवन में कभी उसे वह केसरिया टपका बहुत अच्छा लग भी जाय !
ज़रा-सा कुछ डाल कर , एक रेखा डाल कर या एक रंग लगा कर जब मैं एक रूप खड़ा करता हूं तब बहुत सम्भव है कि एक टुकड़ा , एक पैच ऐसा लग जाय कि वही मेरे लिए शाबास हो--शाबासी बन जाय कि भई अच्छा हो गया। हो सकता है कि वह टुकड़ा कान हो या शरीर के अंदर का मांस हो या पांव का एक भाग हो। वह जब बन जाता है तब औरों के लिए वह सिर्फ़ एक टुकड़ा--एक अमूर्त पैच--ही है मगर मेरे लिए पचास साल है। है तो रंग का एक टुकड़ा ही मगर यह देखना चाहिए कि उसमें जोर कितना है--- उससे पता लग जाता है---
अपने चित्रों की आकृतियों या चित्र के अन्य भागों में लगे इन पैचेस् को मैं इरादतन नहीं करता या बनाता ; वह अपने आप बन जाते हैं जिनकी नकल सम्भव नहीं ; जिनके लिए देखने वाला या समझने वाला फ़ौरन पहचान लेगा कि चित्र का यह भाग या पैच पचास साल बाद वाला है , दो साल वाला नहीं जो कि बीमार जैसा होगा-- जो शक्ति पचास साल वाले में हैं वैसा जोश ही उसमें नहीं आ पाएगा, इसीलिए नकल करने वाला भी डरेगा , उससे होगा ही नहीं ; जबकि समझने वाले के लिए यह पहचान लेना कठिन नहीं होगा कि यह काम हकुभाई का है।
हां , यह सचमुच एक रहस्यमय बात है कि अगर स्वयं मैं भी कभी वैसा ही या वही चित्र दोबारा बनाने की कोशिश करूंगा, वह वैसा नहीं बन पाएगा--सिर्फ एक बार दोबारा कुछ नहीं। रंग के टुकड़ों में , लसरको में उसका स्वभाव , उसकी मजबूती , समझ के साथ में बहती है। यह हो सकता है कि दूसरे चित्र में दूसरी चीज़ होगी , तीसरी में तीसरी--फूल जैसे होते हैं। हर नया चित्र एक नयी बात , एक नयी क्रिया होती है। नया अनुभव। नया फूल जैसे है वैसे हो जाता है यह। चित्र बनाते समय अपने हाथ को खेलने के लिए मैं खेलने दे देता हूं। अभिव्यक्ति या सौन्दर्य या जो कोई भी नाम आप उसे देना चाहे उसे विचार में लिये बिना मैं बनाता हूं हालांकि मैं नहीं जानता यह क्या है।
सम्भवत: यह अपने अभी तक के एक अनन्वेषित इलाके में दाखिल होना है--एक तरह से यह एक अपरीक्षित व अज्ञात प्रान्तर है जिसके लिए मैंने कहा कि मुझे यह पता नहीं होता कि बन रहे चित्र में आगे क्या घटेगा। सबकुछ अचानक से घटने लगता है। यह शायद उसी चीज़ का एक अन्दरूनी भाग है जिसमें एक चित्र मुझसे संवादरत होता है। अपनी पूरी इन्द्रियों सहित सक्रिय मेरे चित्रात्मक चित्त के आभ्यन्तरिक व्योम , /भीतरी स्पेस की ये घड़ियां अज्ञात से जिस तरह सम्बोधित रहती है उसमें लगता है कि मेरे काम में यह अज्ञात का तत्व चित्र के अनेकानेक रूपों में आता रहा है। हो सकता है कि यह अकादमिकता या शास्त्र या जो मैंने लिखा-बांचा है उससे नहीं आता हो बल्कि प्रकृति में , वनस्पतियों में , मानव में या कहां भी , किसी वस्तु में या मेरी पसंदीदा टेराकॉटा कृति या कसीदाकारी (कसीदा , फुलकारी या धातु का काम) में भी या हो सकता है कोई और चीज़ हो , उसमें मैं देखता होऊं/हूं। दूसरे शब्दों में , यह एक नयी धारा है , नयी शक्ति है , एक ऐसा नया व सहज प्रेरणा-स्त्रोत है जिसे मैं अपने काम में लगाने पर पाता हूं कि यह मेरे पायो के धागे हैं। सम्भवत: यह आध्यात्मिक मार्ग पर चलने जैसा है--अब यह स्त्रोत क्या है , पता नहीं ; इसकी व्याख्या नहीं कर सकता--लेकिन यह इन्द्रियां वगैरह सब के इकठ्ठेपन सहित एक तत्व है जो चीज़ों के पास जाता है और उसमें मैं देखता व इन सब संग खेलता हूं। इस दरमियान सिद्धान्त या अन्य कोई विजातीय तत्व मेरे आड़े नहीं आते।
दरअसल संस्कृति या संस्कार के जो खास मानक या रीतियां हैं उन्हें मैं बाजू में रख कर ही चित्र बनाते समय खेलता हूं--भित्ति या आधार उसी में है। मुझे लगता है कि वनस्पतियों से लेकर मानुषाकारों तक सब चित्र में के कुछ ऐसे में बदल या रूपान्तरित हो जाते हैं जिसे आप पसंद करते हैं या जो आनन्द देता है। आप उसे वहां चित्र में रखते हैं और लगता है कि यह सत्य के बहुत करीब है। एक प्रकार का सत्य जो आपको आनन्द देता है। जब चित्र में यह अवस्थित/विन्यस्त हो जाता है तब बहुत बार मैं इस संस्कृति , संस्कार के बारे में सोचता हूं लेकिन फिर इसे बाजू में रख देता हूं ताकि सिर्फ़ देख सकूं। किसी भी रचना-कृति को लेकर हमारी समझ बाह्य यथार्थ से इतनी प्रभावित व संस्कारित रहती है कि हम अक्सर बस यह सवाल करते हैं कि एक कलाकार की अभिव्यक्ति से क्या संदेश मिल रहा है , कि उस कृति में क्या सिखाया या नैरेट किया गया है , कि वह क्या बताता है , कि वह क्या उपदेश या शिक्षा देती है जबकि इसके बरक्स मुझे लगता है कि एक कलाकार जब चित्र बनाता है तब न जाने कितनी वास्तविकताओं से गुज़रते हुए अपनी रूपाविष‌॒कृति तक आ पाता है। यूं मैं कलालोचना का विरोधी नहीं हूं लेकिन किसी चित्रकृति को सामान्यीकृत सांचों में इस तरह जड़ करना कि उसमें फलां फलां जनजातीय कला से आया है या फलां तत्व लोक का है, यह मुझे गलत लगता है। हो सकता है कि उस कलाकार ने शहरी वातावरण में कुछ देखा हो जिसका उस पर असर पड़ा हो--किसी मकान की जाली या कूड़े-कचरे का , बजाय लोक तत्व के। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि जीवन व कला के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन से सम्बन्ध नहीं है तब समाज से भी कैसे होगा। मेरे लिए जीवन और कला एक दूसरे की पूरक है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें। दुनिया में कला का इतिहास जिस तरह बनता गया है, जीवन का एक बहुत बड़ा भाग उसमें दिखता व उसमें से निकलता है। इसमें प्राधान्य का आग्रह किस पर--जीवन पर या कला पर--यह एक बड़ा प्रश्न है। अन्तत: यह जीवन ही है जो कला में उतरता-घटता है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं, कुछ नितान्त सामयिक मुद्दों की और कुछ लोग कुछ बिन्दुओं को साधारणीकृत करके उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं : हर कलाकार का अपना अलग संवेदनात्मक मिजाज होता है जिसके मुताबिक वह काम करता है। जब भी आप सतह की अखरोट फोड़ कर उसमें झांकेंगे, आपको कलाकार का जीवन उसके अपने काम में नज़र आएगा। हर कलाकार व व्यक्ति और इसीलिए समाज व संसार भी अपने लिए एक ऐसा अवकाश , एक ऐसी स्पेस चाहता है जहां वह स्वयं के प्रति सच्चा हो सके : इसका एक आयाम उस स्वातन्त्रय-बोध का भी है जिसकी अनुपस्थिति में अपने होने के स्वधर्म की पहचान व उसका चरितार्थन सम्भव नहीं।
मेरा खयाल है कि एक खास तरह की शक्ति है , कह सकते हैं कि आत्मा--जीव है रूप में--जो मुझे वनस्पतियों से , या किसी वस्तु से या मनुद्गय से या अ-ज्ञेय से संलग्न करता , जोड़ता है और अपने को मिलने वाले जिस आनन्द की बात मैं कर रहा था वह इस संलग्नता का चरितार्थ होना है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी वस्तु को जैसे ही देखता हूं उसे समझने की कोशिश में लग जाता हूं बल्कि इसे देखने मात्र से ही मैं इसके रंग में रंग जाता हूं। स्वयं को बेहतर और बेहतर होता हुआ महसूस करता हूं। हो सकता है कि आज मैं एक पन्ना लिखूं और शायद कल कुछ और। यह मुझे एक ऐसा आनन्द देता है जो सारे समय , पल-छिन बह रहा है और लभ्य है। चित्र बनाते समय यही सब चीज़ें नये नये रूप ले लेती हैं। मैं शायद यह कह सकता हूं कि चित्र बनाने का आनन्द स्वयं उस चित्र में प्रवाहित होने लगता है--यह पूरी प्रक्रिया की रग रग में फैलता है। यही वह चीज़ है जो उस चित्र में जोच्च पैदा करती है।
संसारभर में अपनी पसंदीदा कलाकृतियों को देखते हुए लगता है उनमें एक जोश है जिसे मेरे गुरू के। जी। सुब्रह्मण्यन "शक्ति" कहते हैं। मेरी कला-चिन्तक मित्र स्टेला क्रमरिश ब्रीद/सांस कहती थी ---। कोई चीज़ है जो मुझे बहुत छूती है जैसे वनस्पतियों या एक पौधे को देखता हूं जिसमें से पत्ता निकला है---। ओह ! कितनी बड़ी बात है यह--अद्भुत। मानो कोई चांद पर जाता है, उतनी ही बड़ी बात है यह , मेरे लिए। कितना विस्मयकारक है कि रचना स्वयं ही बोल देती है कि उसमें कितना जोश है। ---सान फ्रांस्सिको संग्रहालय में एक मोहरा/मास्क है जिसे देख कर मेरी आंखों से पानी निकलता रहता था--खाली मेरी आंख में से पानी निकलता रहता था। मैं वह मोहरा देखता रहता था। इतना सुंदर था वह ; जिसे मैं जीव कहता हूं।
रचना में जीव या जिसे रस कहा जाता है उसके आने की सम्भावना बराबर रहती है लेकिन यह बनाने से नहीं आता , अपने से बनता है , होता है---। जनजातीय कला-रूपों में मैं यह रस पाता हूं क्योंकि उनमें करप्शन नहीं है। मैंने यह पाया है कि जहां दूषण नहीं है वहां रूप अच्छे रहे हैं। अब दूषित-पन क्या है , यह एक सवाल है। उदाहरण के लिए छोटा उदेपुर के एक कुम्हार द्वारा बनाया हुआ टेराकॉटा का एक प्लेन--हवाई जहाज--जिसे उसने अपने देवता को अर्पित किया था , मुझे अच्छा लगा था।
लोगों द्वारा की जाने वाली वे सारी चीजें जो बिना कलुष के हैं , अच्छी है। (दूसरे तत्व दाखिल होने के बाद कलुष आ जाय यह दूसरी बात है। इसीलिए मैं लोगों से कहता हूं इन जनजातीय कला-रूपों को सुधारने मत जाइए और इनकी कभी भी कॉपी नहीं करनी चाहिए। जैसे ही कॉपी करते हैं , हम उन्हें खराब कर देते हैं। हां , अध्ययन या समझने के लिए कुछ करना बिलकुल भिन्न बात है। लेकिन इसे बदलना या इन्हें निर्देशित-संचालित करना समूची चीज़ को नद्गट कर देता है। )
जन द्वारा सृजित सहज व ऋजु रूप मुझे एक प्रकार की प्रेरणा देते हैं। जैसे घड़ा या कोठी या मिट्टी से बनाये गये अन्य रूप। दैनंदिन की ज़मीनी जिंदगी में रचे-बसे इन कला-रूपों को जब देखता हूं, मुझे लगता है कि यह फूल से हल्का प्रकाश है जिसे मैं अपने चित्रों में लाने का यत्न करता हूं। मुझे प्यार है सूर्यकिरणों में स्पन्दित कणों को देखना जब धूप सीधी पड़ती है वहां। वह आंख मुझे आनन्द देती है जिसमें सुख व दर्द के आंसू है।
दरअसल , काम करते समय आपको पानी जैसा हो जाना चाहिए।
और ज़मीन जैसा भी। ज़मीन बोलती नहीं है मगर देखे कि क्या क्या देती है , कितना कुछ। लेकिन यह एक मौन चीज़ है जो इर्द गिर्द स्पन्दित है।
ऐसा ही करने का मेरा मन करता है। कुछ भी नहीं बोले , चित्र में कुछ भी नहीं देखे फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रंग में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रूप में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं---। यही है वह जिधर मैं जाने का प्रयास कर रहा हूं ---। जिसे मैं पाने की , रूपायित करने की कोशिश करता हूं। मैंने अब तक सैंकड़ों चित्र बनाये होंगे लेकिन हर बार बराबर यही महसूस होता रहा है मानो जो मैं कर रहा हूं वह सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला , ककहरे की चीज़ है---।

Sunday, August 10, 2008

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

चिट्ठाजगत की इस दुनिया में प्रवेश करने के बाद से ही मेरा परिचय महेन से हुआ। विभिन्न अंतरालों की बातचीत में जो थोड़ा बहुत मैं महेन के बारे में जान पाया हूं कि वे जर्मन भाषा-साहित्य के छात्र रह चुके हैं। बाकी उनके ब्लाग की पोस्टों के आधर पर कह सकता हूं कि संवेदनशील हैं। और उनके बातचीत के ढंग के अधार पर कहूं तो इसमें मेरे भीतर कहीं द्वविधा नहीं कि दोस्तबाज हैं, खिलंदड हैं और अपनी जानकारी को बांटने वाले भी। कम्प्यूटर संबंधी अपनी समस्याओं के हल के रूप में मैं उन्हें याद करता हूं। अपने बारे में कुछ भी कहने से महेन हमेशा बचे है। बस, बेहद सादगी से ही जो कुछ फूटा आज तक वह यही -


अपने बारे में तो मैं कुछ कह नहीं पाऊंगा।


जर्मन भाषा पर उनकी पकड़ कैसी है, मैं इससे भी परिचित कहां हो पाया हूं। वह तो आज ऑन- लाइन था, मैंने पकड़ लिया और छेड़-खानी की तो मालूम हुआ कि ब्रेख्त को पढ़ रहे हैं महेन। जर्मन में। पढ़ ही नहीं रहे कुछ कविताओं के अनुवाद भी कर डाले हैं। मैं मचल उठा उन अनुवादों को पढ़ने के लिए।
जर्मन मूल से ब्रेखत के अनुवाद वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने भी किये हैं। मोहन थपलियाल द्वारा किए गये ब्रेख्त के अनुवादों की पुस्तक परिकल्पना प्रकाशन ने छापी है। उत्तरकाशी के रहने वाले एक सज्जन, नाम याद नहीं, ब्रेख्त की रचनाओं का मूल जर्मन से हिन्दी अनुवाद करते हुए एक पत्रिका भी निकालते रहे हैं। हिन्दी का पाठक जगत जिस तरह से ब्रेख्त से परिचित है, मैं भी उतने में से सीमित ही परिचित हूं। महेन के अनुवादों से मैं उन्हें और जान रहा था। महेन के अनुवाद को पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं शायद अनुवाद तो पढ़ ही नहीं रहा हूं। यह तो मूल है। जी हां, ऐसा ही है महेन का अनुवाद।
फरवरी 1898 में जर्मनी के बावेरिया प्रान्त के ऑगसबुर्ग कस्बे में ब्रेख्त का जन्म हुआ और अगस्त 1956 में ब्रेख्त इस दुनिया को विदा कह गए। अगस्त माह में ही महेन जैसे युवा रचनाकार ब्रेख्त को बेशक अनायास याद आ रहे हों पर इसे अनायास नहीं कहा जा सकता। दौर के हिसाब से ब्रेख्त की प्रासंगिकता को वे बखूबी जानते हैं। उनके इन अनुवादों से हिन्दी का पाठक जगत ब्रेख्त की उन बहुत सी ऐसी रचनाओं से परिचित हो पाए जो अभी तक हिन्दी में नहीं आ पाई है, इस उम्मीद और शुभकामाना के साथ यहां प्रस्तुत हैं महेन के अनुवाद जो मूल जर्मन से किए गए हैं। जर्मन मूल को भी यह ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है कि जर्मन जानने वाले पाठक महेन की क्षमताओं पर यकीन भी कर पाए ओर उम्मीद भी।


बर्तोल ब्रेख्त

Der Radwechsel

Ich sitze am Straβenrand
der Fahrer wechselt das Rad
ich bin nicht gern, wo ich herkomme
ich bin nicht gern, wo ich hinfahre
warum sehe ich denn den Radwechsel
mit ungeduld?



पहिये का बदलना

मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
ड्राईवर पहिया बदल रहा है
कोई उत्साह नहीं मुझे कहाँ से आया हूँ मैं
कोई उत्साह नहीं कहाँ जाना है मुझे
क्यों देखता हूँ मैं पहिये का बदलना
इतनी उत्सुकता से?

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Als Lenin ging

Als Lenin ging, war es
als ob der Baum zu den Blätttern sagte:
ich gehe.

जब लेनिन गए

लेनिन का जाना
ऐसा था जैसे
पेड़ ने पत्तों से कहा
मैं जाता हूँ



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Sag ihm, wer den Wagen zieht

Sag ihm, wer den Wagen zieht
er wird bald sterben
sag ihm wer leben wird?
der im Wagen sitzt
der Abend kommt
jetzt eine Hand voll Reis
und ein gutter Tag
ginge zu Ende

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो
वह जल्द ही मर जाएगा
उसे कहो कौन रहेगा जीता
वह जो गाड़ी में बैठा है
शाम हो चुकी है
बस एक मुठ्ठी चावल
और एक अच्छा दिन गुज़र जाएगा

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अनुवाद - मूल जर्मन महेन

Saturday, August 9, 2008

बारिस में भीगती लड़की को देखने के बाद


विजय गौड


एक


झमाझम पड़ती
वर्षा की मोटी धारों के बीच
लड़की चुपचाप
सिर पर छाता ताने चलती है

छाते से चेहरे को
इतना ढक लेती है लड़की
कि आस-पास से गुजरने वाला
चेहरा भी न देख पाये
यह कविता १९९५ के आस पास लिखी थी.

छाते से ढकी लड़की
होती है आत्म केन्द्रित;
सड़क में बहते गंदे पानी को देख
लड़की सोचती है,
कितना फर्क है नदी और नाले में
जबकि, पानी की नियति
सिर्फ बहना ही है

चप-चप करती
चप्पल की आवाज के साथ ही
लड़की गर्दन को पीछे घुमा
देखती है कपड़ों को ;
यह ख्याल आते ही
कि कपड़े तो पूरी तरह से
गंदे हो चुके हैं
लड़की कुढ़ने लगती है

बारिस है कि लगातार
बढ़ती जा रही है
लड़की चाहे जितना कोशिश कर ले
बचने की
पर सामने से आता ट्रक
नहीं छोड़ता
लड़की को भिगोये बगैर

ऊपर से नीचे तक
पूरी तरह से भीग चुकी है लड़की
यही कारण है कि
लड़की ने छाता बंद कर लिया है

बारिस के बीच ठक-ठक करती
चल रही है लड़की

दो

चाय की चुस्कियों के बीच
लड़की का ख्याल आते ही
बाहर वर्षा की मोटी-मोटी धारें
दिखायी देने लगती है
मोटी-मोटी धारों के बीच
लड़की दौड़ रही है
घंटाघर के चारों ओर

तीन

भीगी हुई लड़की को देखने के बाद
ऐसे कितने लोग हैं
जो यह सोच पाते हैं
कि लड़की का भीगना
खतरनाक हो सकता है
उसके लिए भी
और देश के लिए भी ।