Monday, March 21, 2016

वह तो एक नन्हा कैक्टस है, जड़े जिसकी हैं सबसे लम्बी

क्‍या कभी लौटा लेकर दिशा मैदान जा‍ती स्‍त्री का चित्र बनाया है किसी चित्रकार ने ? हिन्‍दी की दुनिया में ऐसे प्रश्‍न अल्‍पना मिश्र की कहानी में उठे हैं।
ऐसे प्रश्‍नों की गहराईयों में उतरे तो कहा जा सकता है कि ये प्रश्‍न स्‍त्री को मनुष्‍य मानने और तमाम मानवीय कार्यव्‍यापार के बीच उसकी उपस्थिति को दर्ज करने के आग्रह हैं। नील कमल की कविता ‘’कितना बड़ा है स्‍त्री की देह का भूगोल’ ऐसे ही प्रश्‍न को अपने अंदाज में उठाती है। पहाड़, पठार, नदी, रेगिस्‍तान, भौगोलिक विन्‍यास की ऊंचाईयों वाले उभार, या झील सी गहराइयों वाली नमी के ऐसे यथार्थ हैं जिनकी उपस्थितियों का असर भूगोल विशेष के भीतर निवास करने वाले व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन उन प्रभावों को नापने का कोई यंत्र शायद मौजूद नहीं। यदि ऐसा कोई यंत्र हो भी तो क्‍या अनुमान किया जा सकता है कि लैंगिक अनुपात का ऐसा कोई ब्‍यौरा प्राथमिकता में शामिल होगा, जिसमें स्‍त्री मन की आद्रता, तापमान और रोज के हिसाब से टूटती आपादओं के असर में क्षत विक्षत होती उसकी देह के आंकड़े होंगे ? यह सवाल निश्चित ही उन स्थितियों को याद करते हुए जहां स्‍त्री जीवन को इस इस स्‍तर पर न समझने की तथ्‍यता मौजूद है। पृथ्‍वी की ऊंचाईयों वाले उभारों, या झील की गहराइयों वाली नमी पर तैरने वाले भावों से भरी काव्‍य अभिव्‍यक्तियों के बरक्‍स नील की कविता सीधे-सीधे सवाल करती है- बताओ लिखी क्‍यों नहीं गई कोई महान  कविता/ अब तक उसकी एडि़यों की फटी बिवाइयों पर।‘’
विज्ञान के अध्‍येता नील कमल के यहां सीली हुई दीवार को सफेद धूप सा  खिला देने वाला भीगा हुआ चूना नरेश सक्‍सेना की कविता के क‍लीदार चूने से थोड़ा अलग रंग दे देता है। उसकी खास वजह है कि शुद्ध तकनीकी गतिविधियों को कहन के अंदाज में शामिल करके शुरू होती नील की कविता बस शुरूआती इशारों के साथ ही तुरन्‍त आत्‍मीय दुनिया में प्रवेश कर जाना चाहती है। सामाजिक विसंगतियों की घिचर-पिचर में अट कर रास्‍तों को तलाशने की मंशा संजोये रहती है। लेकिन कई बार प्रार्थना के ये स्‍वर भाषा के उस सीमान्‍त पर होते हैं जहां इच्‍छायें बहुत वाचाल हो जाना चाहती हैं। वे जरूरी सवाल जिन्‍हें हर भाषा की कविता ने अपने अपने तरह से उठाने  की अनेकों कोशिशें की हैं, लेकिन तब भी जिन्‍हें अंतिम मुकाम तक पहुंची हुई दुनिया का हिस्‍सा होने के लिए बार बार दर्ज किया जाना जरूरी है, अच्‍छी बात है कि नील की कविताओं के भी विषय है लेकिन उनका स्‍वर कहीं कहीं थोड़ा वाचाल है। यह आरोप नहीं बल्कि एक इशारा है, इसलिये कि नील कमल के यहां कविता के बीज अपनी धरती पर उगने की संभावना रखते हैं। सलाह के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें जो काव्‍य-स्‍पेश तो कम क्रियेट कर रही हो और बयान ज्‍यादा हो जाना चाहती हों, उनसे बचा जाना चाहिए। यहां कविता में आ रही दुनिया और उन जरूरी मुद्दों से नाइतिफाकी न देखी जाये, क्‍योंकि जरूरी मुद्दों की तरह उन्‍हें पहले ही चिह्नित किया जा चुका है। स्‍पष्‍ट है कि उन जरूरी सवालों से टकराते हुए ही नया बिमब विधान रचते हुए किसी भी तरह की पुरनावृत्ति से बचा ही जाना चाहिये। फिर वह चाहे खुद की हो या अन्‍य प्रभावों की हो।  
रोमन लिपि के पच्‍चीसवें वर्ण का एक बिम्‍ब गुलेल से बन जाता है। तनी हुई विजयी प्रत्‍यंचा की धारों पर पांव बढ़ते जाते हैं। इस छवी के साथ एक उत्‍सुकता जागने लगती है। लेकिन निशाने पर  गोपियों की मटकी है। पके हुए आम के फल हैं। जबकि प्रत्‍यंचा के तनाव पर सारा आकाश आ सकता था। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद तब इस खबर का कोई मायने नहीं रह जाता कि अपने निर्दोषपन की छवी में भी गुलेल बेहद खतरनाक हथियार है। रचना की प्रक्रिया को जानने की कोई मुक्‍कमल एवं वस्‍तुनिष्‍ठ  पद्धति होती तो जिस वक्‍त गुलेल एक बिम्‍ब के रूप में कवि के भीतर अटक गयी होगी, उसे जाना जा सकता था, कि उसके निशाने कहां सधे थे। कविता की अंतिम पंक्तियों में उसको खतरनाक बताने वाली खबर अनायास तो नहीं ही होगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि उभरे हुए बिम्‍ब और कविता के उसके दर्ज होने में जरूर कहीं ऐसा अंतराल है जो कवि की पकड़ से शायद छूट रहा है। इस बात को तो कवि स्‍वंय जांच सकता है। यदि यह सत्‍य है तो कहा जा  सकता है कि कविता को लिखे जाने से पहले उस वक्‍त का इंतजार किया जाना था जहां फिर से वही स्थितियां और मन:स्थिति कवि की अभिव्‍यक्ति का सहारा बनना चाह रही होती। सामाजिक, सांस्‍कृतिक ओर मानसिक स्थितियों की ऐसी छवियां जो एक समय में कोंध कर कहीं लुक गयी हों, एक कवि को उन्‍हें पकड़ने के लिए फिर से इंतजार करना चाहिये। नील कमल की बहुत सी कविताओं में वह इंतजार न करना खल रहा है। जबकि नील की कविताओं का बिम्‍ब विधान अनूठे होने की हद तक मौलिक है। ‘पेड़ पर आधा अमरूद’, ‘पेड़ो के कपड़े बदलने का समय’, ‘‍स्‍त्री देह का भूगोल’, ‘ईश्‍वर के बारे में’ आदि ऐसी कवितायें है जिनमें नील जिन अवधारणाओं के साथ हैं, वे आशान्वित करती हैं। उनके सहारे कहा जा सकता है – हे ईश्‍वर ! तुम रहो अपने स्‍वर्ग में, तुम्‍हारा यहां कोई काम नहीं। मुसीबतों में फंसे होने पर सिर्फ ‘आह’ भर का नाम नहीं होना चाहिये ईश्‍वर। यहां-  पिता नाम है, इस पृथ्‍वी पर/दो पैरों पर चलते ईश्‍वर का। ईश्‍वर के बारे में रची गयी अवधारणाओं का यह ऐसा पाठ हे जो मुसिबत की हर कुंजी को अपने पास रखने वाली ताकत को ईश्‍वर के रूप में पहचान रही है।
भावुक मासूमियत से इतर नील कमल की कविताओं का मिजाज उसी तरह से तार्किक है जैसे कवि नरेश सक्‍सेना के यहां दिखायी देता है। वहां बहुत सी ऐसी धारणायें ध्‍वस्‍त होती हैं जो अतार्किक तरह से स्‍थापित होना चाहती है। सबसे गहरी जड़ो वाला पौधा  न तो बूढ़ा बरगद है न पीपल, बल्कि वह तो एक नन्‍हा कैक्‍टस है जिसकी जड़ें धरती में उस गहराई तक उतरती हैं, पानी की बूंद होने की संभावाना जहां मौजूद हो। धरती की अपनी सतह पर के सूखे के विरूद्ध हार कर पस्‍त नहीं हो जाना चाहती। कई कवितायें इतनी सहज होकर सामने आती हैं कि हैरान कर देती। जीवन के जाहिल गणित को सुलझाने में नील की कवितायें न भूलने  वाली कवितायें हैं। अपनी पंक्तियों को वे सह्रदय पाठक के भीतर जिन्‍दा किये रहती है। दो को पहाड़ा दोहराने के लिए उन्‍हें ताउम्र भी याद रखा जा सकता है।    
- विजय गौड़

Friday, March 18, 2016

मेरी, तेरी, सबकी मां की जय हो भारत

विजय गौड़

 
भारत माता की जय, तू-तू, मैं-मैं की हदों को पार कर रही है। यहां तू-तू, मैं-मैं को मुहावरे की तरह ही देखें। वैसे भी मैं राष्‍ट्रद्रोही नहीं हूं। राष्‍ट्रदोह का सार्टिफिकेट बांटने वालों से अपील है कि वे अपनी सील-मुहर को अभी थैले से बाहर न निकाले और घ्‍यान से पढ़ें।

अब देखिये न एक तरफ वे महाशय जिद ठाने बैठे हैं कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, दूसरी ओर माता के सच्‍चे पुत्र हैं, जो यूं तो अक्‍सर ही मां का नाम भूल जाते हैं, और वक्‍त बेवक्‍त के हिसाब से कुछ भी पुकार लेते हैं, जिद्द ठाने हैं कि भारत माता की जय तो बुलवा कर ही रहेगें। देखिये मैं राष्‍्ट्रदोही पुकार दिये जाने का खौफ खाये बगैर बता देना चाहता हूं कि कभी किसी क्रिकेटकर, किसी विराटरू या मोनी-जॉनियों के कलात्‍मक अंदाजों पर, खासतौर पर उस वक्‍त जब वे भारतीय जनता के करोड़ो रूपयों के कजर्दार किसी शराब के व्‍यापारी की खरीद पर बनायी गयी एक टीम हों या अन्‍यथा भी, जब वे विरोधी टीम के धुर्रे उड़ा रहे हों और उनका मालिक व्‍यपारी चीयर्स गर्ल्‍स की कमर में हाथ डालकर यम यम करता हो, तो औपनिवेशिक पहचान कराती भाषा में गूंजने वाले नाम के साथ माता को याद करते हुए लगाया जाने वाला जयकारा भी उनकी दमित इच्‍छाओं का यम यम हो जाता है। एक बात ओर है कि संसद, कानून और जब चाहे तब बेखौफ सरहदों के आर-पार निकल जाने वाले और सब तरफ से विजय पाये व्‍यापारी के राष्‍ट्रद्रोह को भी यदाकदा पहचान लेने वाले चैनलों के एंकर भी तू-तू, मैं-मैं को हवा देने में कम नहीं।

मजेदार है कि कितने ही चैनेलों के एंकर भी गले की नसें फुलाफुलाकर उस टोपीबाज को बिल्‍कुल सामने-सामने देशद्रोही और जाने क्‍या क्‍या बोल रहे हैं, मुकदद्दमें का डर दिखा रहे है, लेकिन वह तब भी भरत माता की जय न बोलने की जिद्द पर अड़ा बैठा है और अपने ही धर्म के एक सांसद के भावनात्‍मक इजहार तक को धत्‍ता बताकर कभी जय हिन्‍द तो कभी इंक्‍लाब जिंदाबाद ही कहे जा रहा है। भारत माता की जय का तर्जुमा करके मंद मंद मुस्‍कराते हुए वह और भी चिढ़ाऊ कार्रवाई करने में माहिर है। उसके अंदाज पर तो नसें फुलाकर बोलने वाले एंकरों से प्रभावित और देश प्रेम के क्रोध से उबल रहे भले मानुस भी कभी-कभी सारे मामले को खुद ही नूरा कुश्‍ती के रूप में देख सकते हैं।

खैर हमें इस चिन्‍ता में नहीं घुलना है और न ही तू-तू, मैं-मैं करने वालों के झांसे में आकर कभी राष्‍ट्रवाद का सार्टिफिकेट बांटने वालों के साथ होना है और न ही हर सेकैण्‍ड के हिसाब से बांटे जा रहे उन सार्टिफिकेटों को फाड़ने में जुटे नूरा कुश्‍ती लड़ते हुए मुस्‍कराने वालों के साथ होना है। खतरा तो दोनों ही ओर है। निश्चित ही है। वैश्विक पूंजी से दोनों का ही प्रेम इतना अनूठा है कि अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से दोनों ही जनता की एक मुश्‍त गाढ़ी कमाई के पैसे को वैश्विक पूंजी द्वारा बाजार में उतारी हुई मशीनों पर लुटा देना चाहते हैं। उनकी जरूरत को पूरा करने के लिए सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड की दर से सार्टिफिकेट बांटेगी और फाड़ने वाली प्रति सैकेण्‍ड की दर से उन्‍हें फाड़ती जायेगी1 खबरों की तलाश में जुटे चैनलों को विकास के आंकड़े पर सुबह से शाम तक मजमा-ए-बहस जुटाना आसान होगा। वे बता पायेगें कि आज सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड चार सार्टिफिकेट की दर से कुल तीस हजार सार्टिफिकेट ही बांट पायी जबकि सार्टिफिकेट फाड़ने वाली मशीन ने प्रति सैकेण्‍ड पांच सार्टिफिकेट की दर से सारे के सारे सार्टिफिकेट कुल समय से दो घंटे पहले ही फाड़ दिये। तय मानिये मजमा-ए-बहस के निर्णय आंकड़ो को इस तरह से परिभाषित करने में साहयक रहेंगे कि गठित समीक्षा कमेटी सिफारिशें दे पाये कि मशीन की कार्यक्षमताओं को परिमार्जित करना आवश्‍यक है। अत: एफ डी आई का प्रतिशत 51 कर दिया जा रहा है।

मित्रों बहुत हुई तू-तू, मैं-मैं।

यह बताइये कि आपकी भाषा में मां को क्‍या कहते हैं ?
मैं तो गढ़वाल का रहने वाला हूं, मेरी मातृभाषा में तो ‘ब्‍वै‘ बोला जाता है।
कल एक मित्र बोले कि उनकी भाषा में ‘दइया’, ‘महतारी’, ‘माई’, तीनों ही शब्‍द प्रचलित हैं।
वैसे मेरा दोस्‍त पाटिल तो ‘आई’ ही बोलता है।
आपको सच बताऊ गढ़वाल के पड़ोस में ही कुमाऊ है वहां ‘ईजा’ बोला जाता है।
आपकी मातृभाषा में क्‍या बोलते हैं ? जो भी बोलते हों बोलिये उस मां की भी जय।

 

Sunday, March 13, 2016

सांस्‍कृतिक आयोजनों का ‘राष्‍ट्रवादी’ चेहरा


बंगला दलित धारा के कवि कालीपद मणि की कविता का यह स्‍वर व्‍यापक दलित, शोषित समाज को दायरे में रखकर लिखी जाने वाली किसी भी भाषा की कविताओं के ज्‍यादा करीब है। यही वजह है कि वैश्विक स्‍तर पर इस देश को सिर्फ अध्‍यात्‍मवादी नजरिये से सिरमौर होते देखने की चाह रखने वाले सांस्‍कृतिक आयोजनों के ‘राष्‍ट्रवादी’ विचार से यह सीधे मुठभेड़ कर रही है। शिक्षा व्‍यवस्‍था का वह ढकोसला भी यहां तार तार हो रहा, जिसका यूं तो आमजन के जीवन को संवारने में वैसे भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं, पर जिसकी उपस्थिति से यदा कदा की कोई संभावना जन्‍म ले जाती है। तय जानिये यदा कदा की वे संभावनायें भी उनकी आंखों की किरकिरी है, मुनाफे की सोच के चलते जो, उन सरकारी विद्यालयों को भी पूरी तरह बंद कर देना चाहते हैं। उनकी साजिशों का खेल ही ‘सांस्‍कृतिक’ होता हुआ आर्ट ऑफ लीविंग है।

कालीपद मणि 

अनुवाद – कुसुम बॉंठिया 


प्रश्‍न का तीर-इस्‍पात

   
एक शिशु कंठ सुबह शाम
फुटपाथ पर तैरता रहता है
छ: रुपया किलो, बाबू, ताजा खीरे
खत्‍म हो गये तो पछताओगे।
खींच-खींच कर लगाए रट्टा
ठीक जैसे बचपन की पाठशाला में  
पढ़ाई की रटंत
एक कौड़ी पा गंडा
दो कौड़ी आध गंडा।

कुछ देर खड़ा रहता हूं उसके पास
नंगे बदन, पैबन्‍द लगी बेहद बदरंग पैंट
पास ही उकड़ू बैठी उसकी माँ
पके बालों में जूं तलाशती हुई।
अचानक ही उससे पूछ बैठा
लड़का स्‍कूल क्‍यों नहीं जाता ?
बुढि़या फुफकार उठी निष्‍फल आक्रोश से
प्रश्‍न के तीर से इस्‍पात छिटक रहा था
गिरस्‍ती फिर कइसे चलाऊँगी
बताइए आप ?
क्‍यों, बोलते क्‍यों नई ?
उत्‍तरहीन पृथ्‍वी
मुँह पर ताला जड़े
निर्वाक् चलती जा रही है।
शिशुकंठ की रट्टा बंधी पुकार सुनाई दे रही है
छ: रुपया किलो बाबू ताजा-ताजा खीरे।

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!



Friday, March 11, 2016

अभिव्यक्ति का झूला

“शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।“ एडुआर्डो गैलियानो का यह वक्तव्य डा. अनिल के महत्‍वपूर्ण अनुवाद के साथ पहल-102 में प्रकाशित है।
 
इस ब्लाग को सजाने संवारने और जारी रखने में जिन साथियों की महत्वतपूर्ण भूमिका है, कथाकार दिनेश चंद्र जोशी उनमें से एक है।
 
जोशी जी, भले भले बने रहने वाली उस मध्य वर्गीय मानसिकता के निश्छल और ईमानदार व्य।वहार बरतने वाले प्रतिनिधि हैं, जो हमेशा चालाकी भरा व्यवहार करती है और लेखन में विचार के निषेध की हिमायती होती है। पक्षधरता के सवाल पर जिसके यहां लेखकीय कर्म के दायरे से बाहर रहते हुए रचनाकार को राजनीति से परहेज करना सिखाया जाता है और रचना को अभिव्यक्ति के झूले में बैठा कर झुलाया जाता है, इस बात पर आत्म मुगध होते हुए  कि चलो एक रचना तो लिखी गयी। जोशी जी का ताजा व्यंग्य लेख इसकी स्पष्ट मिसाल है।
 
असहमति के बावजूद लेख को टिप्‍पणी के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्पष्‍ट है कि ब्लाग की विश्ववसनीयता कायम रहे। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत हो सके, एवं ऐसे गैर वैचारिक दृष्टिकोण बहस के दायरे में आयें, जो अनर्गल प्रचारों से निर्मित होते हुए गैर राजनैतिक बने रहने का ढकोसला फैलाये रखना चाहते हैं लेकिन जाने, या अनजाने तरह से उस राजनीति को ही पोषित करने में सहायक होते हैं, जिसके लिए ‘लोकतंत्र’ एक शब्द मात्र होता है- जिसका लगातार जाप भर किया जाना है, ताकि अलोकतांत्रिकता को कायम रखा जा सके।

वि.गौ.

व्यंग्य लेख

                                 वाह कन्हैया, आह कन्हैया

         दिनेश चन्‍द्र जोशी
          9411382560
 
एक कन्हैया द्वापर युग में पैदा हुए थे, दूसरे आज के साइबर युग में प्रकट हुए है। द्वापर वाले कन्हैया गोपियों के साथ रास नचाते थे, ये नये वाले जे.एन.यू की गोपियों के साथ विचारधारा रूपी प्रेमवर्षा में स्नान करते हैं। ये बौद्धिकता की वंशी बजा कर जे.एन.यू के ग्वाल बालों को सम्मोहित करते हैं, देश उनके लिये कागज में बना नक्सा भर है, जिसको रबर से मिटा कर बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य है, ''देश से नहीं, देश में आजादी,''  उनका नारा है, ''आजादी, आजादी'', मुह खोलने की आजादी, मन जो कहे उसे उड़ेलने की आजादी। क्योंकि उनका मन अभिव्‍यक्ति के लिये छटपटाता रहता है, इसी छटपटाहट के तहत उनकी संगत कुछ देश द्रोही किस्म के ग्वाल बालों से हो गई थी। वे आजादी के मामले में इससे दो हाथ और आगे थे, वे नारे लगा रहे थे, देश के टुकड़े टुकड़े कर देंगे, मुटिठयां उछाल रहे थे, हुंकारा भर रहे थे, आग उगल रहे थे, कन्हैया भी उनके झांसे में फंस गये, उस भीड़ में प्रकट नजर आये, नैतिक समर्थन देने को उत्सुक से। टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वाले भूमिगत हो गये।   छात्रसंघ के अघ्यक्ष होने के नाते  कन्हैया धर लिये गये। हवालात में, सुनते हैं, कन्हैया की ठुकाई भी हुई। उनका मोरमुकुट बंशी वंशी सब तोड़ दी गई होगी, जाहिर सी बात है। उन पर राजद्राोह का आरोप लगाया गया। कन्हैया की गिरफ्तारी पर बवाल मच गया। सारे जे.एन.यू के ब्रजमंडल सहित वामदल,पुष्पकमल दहलवादी विफर पड़े। देशभक्ति  की भाावुकता को संघियो का षडयन्त्र बताया, तर्क,विचार, ज्ञान,शोध आजादी के अडडे की श्रेष्ठता को बदनाम करने की साजिश बताया। सेक्युलरवादियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोये। राहुल बाबा की बैठे बिठाये मौज हो गई। नितीश बोले, ये मथुरा वाला नहीं ,हमारे  बेगूसराय वाला कन्हैया है, इसको हिन्दूवादी तंग कर रहे हैं, अलबत्‍ता लालू जी के गोल मटोल ढोल से कुछ मौलिक किस्म का प्रहसन नहीं झरा। दक्षिणपंथियों ने देशभक्ति की विशाल रैली निकाली, तिरंगे फहराये, केशरिया लहराये, कहा, बन्द कर देने चाहिये देशद्रोह के जे..एन.यू जैसे अडडे, जहां पर शराब, ड्रग्स, कंडोम बहुतायत में पाये जाते हैं। ऊपर से देश के टुक्ड़े टुकड़े करने के नारे भी लगाये जाते हैं। आंतकवादी इनके आदर्श हैं, हाफिज सईद इनका सरगना है, इन सबको पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिये। मीडिया की बहार हो गई, देशभक्ति व देश द्रोह की परिभाषायें खंगाली गई,कानूनी टीपें खोजी गई। इन विषयों के वक्ता प्रवक्ताओं की दुकानें चैनलों पर जम कर चलने लगी। भगत सिंह, गोलवलकर, गांधी, गोडसे सब लपेटे में लिये गये। कुछ ने सोनियां को महान देशभक्त बताया। उधर हनुमनथप्पा सियाचीन में बफ्र्र के नीचे दबे कराहते रहे, इधर जे.एन.यू के मुकितकामी, देशभक्ति को छदम अवधारणा ठहराने का तर्क गढ़ते रहे।  कन्हैया को कोर्ट में पेश किया गया, वहां काले कोट वालों ने उन पर लात घूंसे जड़ने की चेष्टा की, कुछ इस अभियान में सफल भी हुए,कुछ निराश जो देशभक्ति का कर्ज नहीं चुका पाये। बड़ा विलोमहर्षक –दृश्य था, जनता भौचक्की रह गई, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर देशभक्ति होती क्या चीज है, तिरंगा फहराना या काले झंडे दिखना। जनता बिचारी को खुद अपनी देशभक्ति पर शक होने लगा। इधर कन्हैया को जमानत भी मिल गई, वे हवालात से हीरो बन कर लौटे, उनका इन्टरव्यू लेने को मीडिया में होड़ मच गई है।  कन्हैया ने जे.एन.यू के ग्वालबालों को भाषण दिया,उनको देशभक्ति की व्याख्या समझाई, वे काले जैकिट के भीतर सफेद टी शर्ट में सलमान खान वाले अंदाज में नमूदार हुए। जे.एन.यू की गोपियां उसकी रोमानिटक बौद्धिकता पर फिदा हुई। कन्हैया ने अपनी मां की गरीबी का हवाला दिया। उसने स्वयं को विधार्थी व बच्चा भी कहा, इस बच्चे ने फिर राजनीतिक भाषण दिया,उसका भाषण सुन कर तीसियों साल वामपंथ में खपा चुके बूढ़े कुंठित हुए। कन्हैया ने कहा, हमें मुक्ति चाहिये, गरीबी से, बेरोजगारी से, साम्प्रदायिकता से, सामन्तवाद से मुक्ति। हमें छदम देशभक्ति से मुक्ति चाहिये, असहिष्णुता से मुक्ति। मुक्ति का पाठ पढ़ाता कन्हैया, बच्चे से एक घाघ नेता में तब्दील नजर आया। उसकी नेतागिरी से प्रभावित हो कर सीताराम येचूरी ने उसको अपना चुनाव प्रचारक घोषित कर दिया,बंगाल के चुनाव हेतु। केजरीवाल उसके मुक्ति पाठ से प्रेरित होकर कहने लगे,हमें भी मुक्ति चाये,राज्यपाल जंग से। उसका मुक्ति पाठ इतना प्रभावशाली था कि उस पाठ ने कइयों को अपनी जद में ले लिया। स्त्रियां पतियों से मुक्ति चाहने लगीं,कर्मचारी बास से, बच्चे अभिभाावकों से, कांग्रेसी सोनियां राहुल से, विपक्षी मोदी सरकार से मुक्ति चाहने लगे,सत्‍ताधारी सहिष्णुता के ठेकेदारों से। गीतकार आधुनिक कविता से मुक्ति चाहने लगे, कहानीकार,लम्बी कहानी लाबी से। कन्हैया का मुक्ति पाठ वायरल हो गया। कन्हैया का देशद्रोह सफल हो गया, हालांकि उसकी मुक्ति व स्वच्छन्दता का राग कइयों के गले नहीं उतर रहा है,वे उसकी ठुकाई तैयार बैठे है, उसके सिर पर इनाम घोषित हो चुका है, ये उसको कंस बना कर छोड़ेंगे।