आज से लगभग दस वर्ष पहले कथाकार योगेन्द्रत आहूजा की कहानी 'मर्सिया' पहल में प्रकाशित हुई। गुजरात की नृशंसता के बाद हिंसा का ताडण्व रचती सांप्रदायिकता को कहानी में प्रश्नााकिंत किया गया है। मेरे निगाह में सांप्रदायिकता के प्रतिरोध में रची गई वह हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानी है। शास्स्त्रीय संगीत की रवायत का ख्या ल करते हुए पीपे परात और तसलों के संगीत भरा कोरस एक बिम्ब कहानी में उभरता है। योगेन्द्र आहूजा की वह कहानी हर उस वक्तत याद की जाने वाली कहानी है जब जब नृशंस्ताअों की ऐसी घटनायें या उनसे जुड़ी बातें सामने हों। हाल ही में एक वेब पेज (बीबीसी हिंदी डॉट कॉम) पर नजर आया, हमारे दौर के महत्वीपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का आलेख भी प्रतिरोध की उसी संगति में किराना घराने को याद कर रहा है। आलेख लेखक की अनुमति के साथ साभार प्रस्तु त है।
वि.गौ. |
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का पिछड़ा हुआ, ऊंघता हुआ सा एक कस्बा कैराना अचानक सुर्ख़ियों में है.
केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के एक संसद सदस्य हुकुम सिंह ने मुस्लिम बहुसंख्या वाले इस इलाके से हिंदुओं के पलायन की सूची जारी करते हुए उसे 'एक और कश्मीर' करार दिया. इसके बाद एक सियासी घमासान शुरू हो गया. अंततः यह पाया गया कि यह हरकत आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र वोटों के ध्रुवीकरण के लिए की गई थी.
लेकिन इन सुर्ख़ियों के बीच शायद एकाध जगहों को छोड़कर कहीं इस तथ्य का उल्लेख भी नहीं हुआ कि कैराना शास्त्रीय संगीत की एक बड़ी विरासत का कस्बा है. हमारे सांप्रदायिक और विकृत दिमागों के नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि उनकी राजनीति हमारी बहुलतावादी सांस्कृतिक विरासत के विस्मरण पर ही टिकी हुई है, लेकिन यह एक गहरी उत्तर भारतीय विडंबना है कि सूचना समाचार के माध्यमों की निगाह भी इस तरफ नहीं गई
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मंगलेश डबराल वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार |
शायद वास्तविक कैराना वह जगह है, जहां उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महान और सर्वाधिक रागमय परंपरा का जन्म हुआ था. किराना कहे जाने वाले इस घराने के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खां और उनके मामूजाद भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खां थे. अब्दुल करीम खां की आवाज़ असाधारण रूप से सुरीली और मिठास-भरी थी और उसमें इतना विस्तार था कि वह तीनों सप्तकों –मंद्र, मध्य और तार-से भी परे चली जाती थी। संगीत में तीन ही सप्तक मान्य हैं. लेकिन अगर कोई चौथा सप्तक होता तो वे आराम से वहाँ भी टहल आते. अब्दुल करीम खां कैराना में ऐसे खानदान में जन्मे थे जहां सारंगी का प्रचलन ज़्यादा था. संगीत की तालीम उन्हें अपने पिता काले खां और दादा गुलाम अली से मिली थी. दरअसल, मुग़ल सल्तनत के दौर में कैराना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के कई दूसरे गाँव भी बीन, सितार, सारंगी और तबला बजाने वालों के गढ़ थे.
मुग़ल सल्तनत की हार और ईस्ट इंडिया कंपनी की फतह के बाद शाही संरक्षण ख़त्म होने पर ये खानदान भी उजड़ गए, उनके कई लोग दूर-दराज़ के दरबारों में आश्रय लेने चले गए. अब्दुल करीम खां महाराजा बडौदा के यहाँ पहुंचने वालों में थे. कहते हैं कि एक बार किसी ने उन्हें तिरस्कार के साथ 'सारंगिये' कहा तो उन्होंने सारंगी बजाना छोड़ दिया और फिर गायन में जो कीर्तिमान स्थापित किए, वे अब तक संगीत-प्रेमियों को चमत्कृत किए हुए हैं.
अब्दुल करीम खां के गायन की द्रुत बंदिशों की तीन मिनट की कई रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं, जिनमें शुद्ध कल्याण, मुल्तानी, बसंत,गूजरी तोडी, झिंझोटी, भैरवी आदि प्रमुख हैं. कहा जाता है कि उन्होंने खयाल गायन में विलंबित की भी शुरुआत की थी, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है. उनका गायन और जीवन दोनों विलक्षण थे.
बडौदा में उन्होंने अपनी शिष्या ताराबाई माने से प्रेम किया और जब धार्मिक लिहाज़ से इसका विरोध हुआ तो दोनों भाग कर बंबई चले गए, जहां से उनकी असल संगीत यात्रा शुरू हुई जो अंत में मिरज जाकर रुकी. उनके दांपत्य में कई विवाद भी हुए. लेकिन उनकी संतानों में से सुरेशबाबू माने, हीराबाई बड़ोदेकर, सरस्वती राणे आदि ने संगीत में खूब प्रतिष्ठा हासिल की. इनके अलावा जितने प्रतिभाशाली शिष्य उन्होंने बनाए उसे देखकर आश्चर्य होता है
सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर, रोशनआरा बेगम, विश्वनाथ जाधव, अरशद अली, मश्कूर अली खां. पुणे में उन्होंने एक संगीत विद्यालय भी शुरू किया जहां वे परिवार के उदार मुखिया की तरह अपने शिष्यों का ख़याल रखते थे.
अब्दुल करीम खां पहले उत्तर भारतीय संगीतकार थे जिन्होंने कर्नाटक संगीत से सरगम की तान आदि कई विशेषताएं अपनी कला में समाहित कीं और उसके संगीतकारों के बीच उत्तर भारतीय गायन को प्रतिष्ठा दिलाई.
उन्होंने अपनी ठुमरियों को पूरब अंग से अलग कर एक नए शिल्प में ढाला और मराठी नाट्य संगीत भी गाया जिसमें 'चंद्रिका ही जणू' काफी प्रसिद्ध है. भारत-प्रेमी प्रसिद्ध थियोसोफिस्ट एनी बेसेंट उनसे बहुत प्रभावित थीं, लेकिन खां साहब की स्वप्निल और खुमार भरी आँखों के कारण उन्हें लगता था कि खां साहब ज़रूर अफीम का नशा करते होंगे.
उन्होंने उनके एक शिष्य से गोपनीय पूछताछ की. शिष्य ने यह बात अब्दुल करीम खां को बताई तो उन्होंने चुटकी लेते हुए यह कहला भेजा, 'मैं नशा तो करता हूँ, लेकिन सिर्फ संगीत का.'
भीमसेन जोशी शायद बीसवीं सदी में किराना के सबसे बड़े संगीतकार हुए हैं हालांकि गंगूबाई हंगल भी उनसे कमतर नहीं कही जाएंगी.ये दोनों विभूतियाँ अब्दुल करीम खां के सबसे योग्य शिष्य रामभाऊ कुंदगोलकर यानी सवाई गंधर्व की शिष्य थीं. भीमसेन जोशी मज़ाक में उनसे कहा करते थे कि 'बई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है, मेरी तो किराने की दुकान है!अब्दुल करीम खां के गायन में कैसा सम्मोहन था, इसकी एक बानगी भीमसेन जोशी के एक इंटरव्यू में मिलती है. वे 11 साल की उम्र में संगीत सीखने घर से भागे थे और ट्रेनों में बिना टिकट सफ़र करते रहे. इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "गदग में हमारे घर के पास एक दुकान थी, जहां अब्दुल करीम खां साहब का एक रिकॉर्ड अक्सर बजता था. एक तरफ शुद्ध कल्याण की बंदिश थी- 'मंदर बाजो' और दूसरी तरफ झिंझोटी में ठुमरी थी, 'पिया बिन नहीं आवत चैन.' मैं आते-जाते वहां खड़ा हो जाता और मंत्रमुग्ध उस आवाज़ को सुनता रहता. बस, मैंने तय किया कि ऐसा ही गाना सीखना है, और घर से निकल गया."
किराना घराने के दूसरे दिग्गज उस्ताद अब्दुल वहीद खां कैराना में नहीं, बल्कि उसके पास के गाँव लुहारी में पैदा हुए थे. वो संगीत सीखने कोल्हापुर चले गए थे. वे करीम खां के मामूजाद भाई थे और उनकी बहन गफूरन बीबी से करीम खां का पहला विवाह हुआ था, जो टूट गया और इस वजह से दोनों उस्तादों के बीच मतभेद पैदा हुए. वहीद खां अपने गायन की रिकॉर्डिंग नहीं करने देते थे. उनकी सिर्फ तीन रिकॉर्डिंग मिलती हैं और वे भी गुपचुप ढंग से की गई थीं. लेकिन उनसे किराना के गायकों की विलंबित लयकारी का पता चलता है
इंदौर घराने के महान गायक उस्ताद अमीर खां इस गायकी को अति-विलंबित तक ले गए. अब्दुल वहीद खां (जो ऊंचा सुनने के कारण बहरे वहीद खां भी कहे जाते थे) की दरबारी कान्हड़ा की एक विलंबित रिकॉर्डिंग है: 'गुमानी जग तज गयो'.
अमीर खां पर इसका इतना गहरा असर पड़ा कि वे अंत तक यह बंदिश लगभग उसी अंदाज़ में गाते रहे. अमीर खां को इस वजह से भी कई लोग इंदौर नहीं, किराना घराने का मानते हैं.
आज कैराना कस्बे में कहीं किराना घराना नहीं है. उसे महज़ एक सियासी मोहरा बना दिया गया है. राहत की बात सिर्फ यह है कि तमाम जांच के बाद भाजपा सांसद की सांप्रदायिक पलायन वाली रिपोर्ट सही नहीं निकली. इतना ही साबित हो पाया कि कैराना में एक माफिया ज़रूर है हालांकि उसके ज़्यादातर लोग जेल में हैं, लेकिन वह कोई सांप्रदायिक नहीं, बल्कि 'सर्वधर्म समभाव' वाला माफिया है जिसका शिकंजा हिन्दू-मुसलमान दोनों पर है
लेकिन हमारे लोकतंत्र में अब कौन सी जगह बची है जहां माफिया नहीं है? धमकी, रंगदारी, फिरौती, हत्या का माफिया और वह खनन माफिया, जिसका जाल उत्तराखंड से लेकर मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गोवा तक बिछा हुआ है और जिसके काम करने के तरीके बहुत बारीक़ और राजनीतिक स्तर पर सम्मानित हैं.
किराना घराना कैराना से बाहर बहुत फैला हुआ है. इस घराने की विलक्षण आवाजों में जीवित है. उसे हम उस्ताद मश्कूर अली खां (जिनका जन्म कैराना में ही हुआ), डॉ. प्रभा अत्रे, पंडित वेंकटेश कुमार, जयतीर्थ मेवुंडी और भीमसेन जोशी के शिष्यों माधव गुडी, आनंद भाटे, श्रीकांत देशपांडे आदि की आवाज़ में पलता-पनपता हुआ सुन सकते हैं. वह उन विभूतियों की आवाजों में भी सुरक्षित है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन किराना के सुरीले, राग-रंजित और विकल करनेवाले संगीत की विरासत छोड़ गई हैं