Wednesday, April 11, 2018

जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम

ऐसा क्यों होता है कि एक स्त्री को हर वक्त अपने स्त्री होने को साबित करना पड़े ? क्या दुनिया भर के समाजों में स्त्री की स्थिति उतनी ही एक जैसी है, जितनी भारतीय समाज में ?

गीता दूबे की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है। भारतीय समाज में स्त्री की स्थितियों को लेकर लिखी गई उनकी कविताओं का सच इस बात की ताकीद करता है कि धरती पर उनके होने को कम कर देने की साजिश तरह-तरह से रची जाती रही है। हर क्षण भय और आतंक के माहौल में वे न जाने कितनी अमानवीयताओं को झेलते हुए जीने को मजबूर हैं। परम्‍पराओं के बंधनों में ही एक स्‍त्री को अपनी मानवीयता का गिरवी रख देना हो जाता है। पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह जीना होता है। लेकिन उनका यह स्वर निराशा की उपज नहीं बल्कि जतन से हौंसला बांधने की हिमायत करता हुआ है।

वर्तमान में गीता दूबे आलोचना की दुनिया में सक्रिय हैं। सतत रचनारत हैं। उनकी कविताओं से यह ब्लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है। 

 विगौ

गीता दूबे
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स्त्री होना


डर- डर कर जीना होता है
सीना होता है गहरे जख्मों को
परम्‍पराओं के बंधन में बंधे हुए 
हर पल अपनी कैफियत देना ह़ोता है।

खुद के दर्द दिल में छुपाकर
होठों पर मुस्‍कान बिछाकर
औरों को सुनना होता है।
 
तकलीफों की आग में
लहराकर परचम आधुनिकता का
रुढ़ियों की चक्की में पिसना होता है ,
आंखों के गीले  कोरों–सा
हौले-हौले  सीझना होता है।

वय हो जरूरी नहीं,
चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर
सजी-संवरी देह होना होता है

स्त्री होना
विषैले सांपों की संगत को
तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।


चिड़ियां


क्‍या चिड़ियां होती हैं लड़कियां ?
फुदकती फिरती हैं जो
घर-आंगन, टोले -मोहल्ले में
जिनके कलरव से चहकता है घर

लड़कियों का हंसना-बोलना तो
सुहाता नहीं ज्‍यादा देर 
वे तो मुस्‍कराते हुए भी
होती हैं पिंजरे की कैद में जीवन भर।

चिड़ियों की तरह ही बेघरबार हो जाती हैं
जो लड़कियां
शिकारियों के जाल से बच नहीं पाती हैं।
बड़े जतन से बांधती हैं घोंसला,
तिनके -तिनके जोड़ती हैं हौंसला।
 चाहती हैं बनाना
 एक  खूबसूरत  आशियाना
पर  उजाड़  दी  जाती हैं।
आंधियों के वार से
हो जाती हैं तार- तार।
तब गेंद बन जाती हैं लड़कियां
सुख और सुकून की तलाश में
दर -दर टप्पे खाती हैं।

हां लड़कियां सचमुच चिडि़यां होती हैं
हिम्मत नहीं हारती
उम्मीदों और अरमानों की डोर थामे
झूलती रहती हैं
परंपरा और आधुनिकता के बीच।
ढेरों सपने देखती हैं,
खूब  पेंगे भरती हैं।
कभी- कभी तो छू  ही लेती हैं आकाश की ऊंचाइयां।

उसे त्रासदी ही कहना ठीक
जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम
या जब वे ही थक जाती हैं झूलते -झूलते
हांफने लगती हैं पींगे भरते -भरते
उसी क्षण तो डोरी को फंदा बना
झूल जाती हैं
उड़ जाती हैं अनंत आकाश में
छोड़ जाती हैं प्रश्न,
आखिर क्यों
चिडि़यां ही हो सकती ड़कियां, इंसान नहीं ?



रंग

  
तुम्हारे पास हैं बहुत से रंग हैं
दोस्ती, प्यार, इकरार
उम्मीदों और खुशियों के।
सपनों का तो रंग -बिरंगा
चंदोवा ही तान दिया है तुमने।
निश्छल मुस्कान का भी तो ,
एक और रंग है तुम्हारे पास ।
ओ मेरे अनोखे रंगरेज,

रंग दिया है तुमने
मेरी बेनूर दुनिया को
अपने तिलस्मी रंगों के जादू से।

मेरे पास बस एक ही रंग है
समर्पण का।
आओ, रंग दूं तुम्हें।
मौसम भी है और दस्तूर भी।
इस रंग बदलती दुनिया में
आओ, सुरक्षित रख दें हम,
अपने- अपने रंगों को
एक दूसरे के पास।
ताकि बचे रहें ये रंग
और बची रहे यह कायनात भी,
बदरंग होने से।


 प्यार

दोनों ओर खड़े हैं पहाड़
पसारे अपनी बांहें
बुलाते हैं पास
भरने को अंकवार।
दौड़ती हूं भर दम
पर थक-सी जाती हूं
लड़खड़ा जाते हैं पांव ,
उखड़ -उखड़ जाती है सांस।
ओ मेरे प्यारे पहाड़
एक विनती है, सुनोगे,
थोड़ा सा उतर आओ नीचे
बढ़ा दो मेरी हिम्मत,
लगा लो मुझको गले
थोड़ा सा बढ़ आई मैं
आओ
जरा सा उतर आओ तुम भी
यही तो है दोस्ती,
यही तो है प्यार।
मानते हो ना,
ओ मेरे मीत विशाल।
आओ, मिलकर लिखें हम
प्रकृति और मानव के प्रेम का
अनोखा इतिहास।

Wednesday, April 4, 2018

शब्दों के पार

कैमरे से ली गई तस्वी‍रों का उजलापन इस्तेमाल होने वाली उच्चत तकनीक का मामला भर ही नहीं होता है। रोशनी के समुचित उपयोग और दृश्य के अर्थवान फलक की पहचान, जिसमें दृश्य का चुनाव स्वत: निहित माना जाए, ही वे प्रभावी घटक होते हैं जो तस्वीर के रूप में एक फोटोग्राफर की रचना हो जाते हैं। 

नैनीताल में रहने वाली विनीता ने पिछले दिनों मेघालय की यात्रा की। 
विनीता यशस्वी के कैमरे से उतरकर आने वाला मेघालय, जनजीवन के विस्ताार के साथ ही प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा दिखता हुआ है। उस यात्रा के दौरान विनीता द्वारा उतारी गई कुछ तस्वीरें यहां विनीता की ही एक छोटी सी टिप्पणी के साथ प्रस्तुत हैं। 

विगौ

विनीता यशस्वी 

भारत के उत्तर पूर्व में स्थित बेहद खूबसूरत राज्य है मेघालय जिसका अर्थ है ‘मेघों का घर’। मेघालय की स्थापना 21 जनवरी 1972 में हुई थी। मेघालय की राजधानी शिलांग है जो कि एक बड़़ा शहर है। मेघालय में बहुत सी जगह दर्शनीय है जिनमें प्रमुख है चेरापूंजी, दाउकी, मेविलांग हैं। जहाँ एक ओर चेरापूंजी की मावासामी गुफा कुदरत का अनूठा नजारा पेश करती हैं तो वहीं नोखलाई झरना इस खूबसूरती को और ज्यादा बढ़ाता है। लिविंग रूट ब्रिज जिसे यहाँ के स्थानीय निवासियों ने बारिश के दिनों में अपने इस्तेमाल के लिये बनाया पर आज ये पर्यटन का मुख्य आधार बन गया है। दाउकी पश्चिम जयंतिया हिल्स में स्थित जिला है जो उमगट नदी के लिये प्रसिद्ध है। इस नदी का पानी बिल्कुल पारदर्शी है। इसमें नाव से सैर करना एक यादगार अनुभव है। इस नदी के किनारे यहाँ की जनजीवन भी दिखाई देता है। मेघालय में मूल रूप से खासी, जयंतिया और गारो जनजाति के लोग रहते हैं। मेघालय सुपारी और बांस के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ज्यादातर घर बांस के बने होते हैं जिन्हें जमीन से थोड़ा ऊपर उठा कर बनाया जाता है। मेघालय में ईसाई धर्म का प्रभाव बहुत ज्यादा है इसलिये कई चर्च यहाँ दिखाई देते हैं। मेघालय महिला सशक्तीकरण की मिसाल है।






Sunday, March 25, 2018

पानी के खेल

पहाड़ों में यह बात जहां तहां सुनी जा सकती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी उसके काम नहीं आती है। यहां तक कि रोजी रोटी के लिए मजबूर कर देने वाले हालातों का निर्धारण करने वाली राजनीति और उनके नेता भी अपने भाषणों में बहुत चबा-चबा कर ऐसी बातें कहने से नहीं हिचकते हैं। जवानी के सामने तो समस्या हमेशा से रोजगार की रही और पानी की नियति तो ढलान पर बढ़ते ही जाना है लेकिन व्यवस्थित तरह से उपयोग कर लेने के बाद भी वह अपनी नियति को पा ही सकता है।

कवि राजेश सकलानी की कविताओं में पानी की यह नियति ही ऐसा रूपक बनकर प्रकट होती है जिसमें न सिर्फ जवानी बल्कि हर वय, हर लिंग और सामाजिक निर्माण में प्रभावी हर गतिविधि संबोधित होने लगती है। दिलचस्प बात यह है कि हाथ छुड़ाकर ढलान पर दौड़ पड़ने वाले पानी की स्वाभविकता को उस तरह से कोसना उनके यहां सुनाई नहीं पड़ता जिसका जिक्र ऊपर हुआ है। बल्कि उनकी कविताएं- खिलदंड, उछलते, हंसते पानी की तस्वी्र में पानी की उस ताकत से परिचित कराती है, जो जल स्रोतों के रूप में फूट कर और अन्य तरह से भी, जीवन का आधार बन जाने पर यकीन करता हुआ है। कई बार तो दुश्मन से नजर आते मंत्री, संतरी और मुख्य मंत्रियों को भी  वांछित तवज्जों नहीं देता, बल्कि उनका मखौल उड़ाने पर अमादा रहता है। उसकी निगाह हर सामान्यजन की अनूठी सुंदरता के साथ है, जबकि खबरों में तो मुंह में लार भरे रहने वाला मुख्यमंत्री ही छाया है।
 राजेश सकलानी की कविताओं का यह मिजाज एक ओर तो अपने लोगों से उनके जैसा हो रूप तक धर लेने वाले गांधी के प्रभाव में है, वहीं दूसरी ओर संघर्ष की वर्गीय अवधारणा पर यकीन करते हुए है। 

यह खुशी की बात है कि कवि राजेश सकलानी आजकल अपने नये कविता संग्रह ‘’पानी के खेल’’ की पांडुलिपि तैयार करने में जुटे हैं। ‘’सुनता हूं पानी गिरने की आवाज’’ और ‘’पुश्तोंं का ब्यान’’ उनके दो महत्वपूर्ण संग्रह पूर्व में प्रकाशित हैं। 

 विगौ



पानी है तो मचलेगा


हाथ छुड़ा कर भागेगा
हंसते हंसते थक जायेगा
रो जायेगा
सो जायेगा
जागेगा तो उछलेगा

पानी है तो फूटेगा।



मुख्यमंत्री


ये मुख्यमंत्री हंसता हुआ सा है
खबरों में यह छाया हुआ सा है
लार मुँह में भरा हुआ सा है
कौन मानेगा यह नया सा है।

इत्ता सा मंत्री


पुलिसजनों तुम खिलौनों की तरह लगते हो
इत्ते से मंत्री की चौकसी में
जैसे वह लोकहित में जोखिम उठाता है
जैसे वह पुरानी सदी का बादशाह है
जैसे वह महान अभियान का पुरोधा है
जैसे वह दूसरे ग्रह से आया है
जैसे उसका घर कोई किला है
जैसे हम दूसरी रियासत के जासूस है
जैसे वह क्रान्तिदर्शी है
जैसे वह हमें नहीं जानता
जैसे हम उसे नहीं जानते।

ये छटाएँ सुन्दर है


हर जना अनिवार्य रूप से सुन्दर है
और अपने रूप से बहक गया है
कुछ कम पलों के लिए सुन्दर है
कि निगाहों में आने से रह जाते हैं
अकेले में उन्हें खुद भी पता नहीं चलता

उधाड़ते चलो रास्ते में उन चीजों को
जो उन्हें दबा देती है
उनकी आवाज की ऊपरी झिल्ली को
हल्के नाखून से पलट दो
देखते रह जाओ पनीर जैसी बनावट को
जो गुलाब के रस से भीगा हुआ है
और खरगोश की तरह धड़कता है

उनकी पहचान की छटाएँ सुन्दर है
और वे सारे इन पर्दों को हटाकर भी सुन्दर है।

हिन्दू या मुसलमान के चेहरे को बांई ओर से देखो
नाक की परछाई दांई ओर हिलती हुई सुन्दर है।

Thursday, January 25, 2018

सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में ‌

पिछले दिनों कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ को विवाद में घसीटकर पाठ्यक्रम से उसे बाहर निकलवाने का जो षड़यंत्र सामने आया। उसकी तीखी प्रतिक्रिया हिंदी समाज में हुई। बहस में ‘जूठन’ ही नहीं अन्य दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं के भी इस पहलू को उजागर किया गया कि आत्मकथाओं में एक व्यक्ति के जीवन के ब्योरे भर ही जगह नहीं पाते, बल्कि समाज व्यवस्था की पर्तें भी ज्यादा प्रमाणिक रूप से खुलती हैं। वाल्मीकि जी की आत्मकथा पर लिखी गयी टिप्पणी को आगे भी इस ब्लाग में पढ़ा जाना संभव होगा। अभी तो वाल्मीकि जी के सबसे घनिष्ट पारिवारिक मित्र कथाकार मदन शर्मा जी आत्मकथा में आए प्रसंगों पर कुछ बात करना ही उचित लग रहा है। कवि एंव आलोचक गीता दूबे ने हाल ही प्रकाशित इस आत्मकथा ‘’उन दिनों’’ के उन पक्षों को रेखाकिंत किया है जिसका वास्ता देश विभाजन की दास्तान से है। इस रचनात्‍मक सहयोग के लिए गीता दूबे जी का आभार। उनका यह आलेख न सिर्फ इस ब्लाग को समृद्ध कर रहा है, अपितु आत्मकथाओं के लिखे जाने औचित्य को भी महत्व‍पूर्ण मान रहा है।
वि. गौ.

सहजतापूर्ण आत्मीय अभिव्यक्ति से सराबोर आत्मकथा :  उन दिनों (मदन शर्मा

गीता दूबे

आत्मकथाएं लिखी क्यों जाती हैं, इस पर सोचने बैठें तो कई बातें दिमाग़ में चक्कर लगाने लगती हैं। किसी की आत्मकथा पढ़कर भला हमें मिलने क्या वाला है ? लेकिन इसके बावजूद आत्मकथाएं लिखीं और पढ़ी जाती हैं । इसके पीछे जहां एक ओर अपनी कहानी लोगों को सुनाने की ख्वाहिश काम करती है तो दूसरी ओर किसी और के बारे में जानने का कौतूहल भी अहम भूमिका निभाता है। 'बिग बास' जैसे धारावाहिकों का निर्माण भी इस मानवसुलभ जिज्ञासा या कौतूहल को भुनाने के लिए ही हुआ है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी सिर उठाता दिखाई देता है कि जब भी कोई रचनाकार अपनी आत्मकथा लिखता है तो उसके पीछे उसका उद्देश्य क्या होता है। खुद को उधेड़ना या छिपाना। अगर उधेड़ना तो कितनी निर्ममता से और छिपाना तो भला क्यों, क्योंकि जब आपबीती सुनाने की ठान‌ ही ली है‌ तो‌ फिर लुकाछिपी का खेल भी क्यों खेलना? लेकिन यह खेल खेल जाता है और पूरे कौशल के साथ। जिस तरह अदालत में गीता पर हाथ रखकर झूठी कसमें बेशर्मी से खाईं जाती हैं ठीक उसी तरह आत्मकथा लेखक भी बड़े मजे से‌ मनगढ़ंत गप्पे कुछ इस अंदाज में हांकता है कि सजग पाठक ही नहीं रचनाकार के‌ समकालीन लेखक भी हतप्रभ-से रह जाते हैं। इसी कारण बहुत सी आत्मकथाएं झूठ का पुलिंदा साबित नहीं तो घोषित जरूर हो जाती हैं और‌ उनके प्रकाशन के साथ ही बहस का तूफान उठ खड़ा होता है। लेकिन इसके साथ यह भी कहना चाहूंगी कि कई बार ये बहसें प्रायोजित भी होती हैं जिनका उद्देश्य रचना विशेष को समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में हिट या फिट करना होता है। बहुधा आत्मककथा लेखक अपनी उपलब्धियों का डंका तो जोर- शोर से पीटते हैं और अपने संघर्षों की कथा भी बहुत दर्दभरे अंदाज में बयां करते हैं लेकिन अपनी जिंदगी के बहुत से पन्नों को अंधेरे में रखने का खेल भी बेहद कुशलता से खेलते हैं। वहीं कुछ तथाकथित बोल्ड लेखक जानबूझकर कुछ सनसनीखेज खुलासों को परोसने के लिए ही आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाते हैं। जाहिर है कि इन खुलासों में बहुत से जाने-पहचाने चेहरे भी शामिल होते हैं और लेखक खुद भी कटघरे में खड़ा होने की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन बदनाम गर हुए तो नाम भी तो होगा की तर्ज पर कुछ साहसी (?) रचनाकार यह जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। तो क्या जिस लेखकीय तटस्थता की बात बार- बार कही जाती है वह 'आत्मकथा' में संभव है ? कविता, नाटक, कथा साहित्य या फिर अन्य साहित्यिक विधाओं में लिखते हुए तो लेखक फिर भी तटस्थ हो सकता है लेकिन आत्मकथा में तो उसका स्व इस कदर घुला मिला होता है कि तटस्थ होना बेहद मुश्किल होता है और इसी कारण बहुत से रचनाकार आत्ममुग्धता के शिकार होकर आत्मप्रशंसा और परनिंदा पर उतर आते हैं। कहीं -कहीं तो भावुकता की चाशनी इतनी गाढ़ी हो जाती है कि तथ्य उसमें डूब जाते हैं। खैर आत्मालोचन के साथ- साथ जग की पड़ताल और अपने समय का दस्तावेजीकरण करती हुई आत्मकथाएं भी लिखी गयी हैं जो सिर्फ साहित्य न ह़ोकर इतिहास का हिस्सा भी बन जाती हैं । भारतीय संदर्भ में गांधी और नेहरू की आत्मकथाएं तो उल्लेखनीय हैं ही। कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'एक जिंदगी काफी नहीं' भी एक महत्वपूर्ण और पठनीय आत्मकथा है। 

फिलहाल मैं बात करना चाहूंगी हाल ही में प्रकाशित साहित्यकार मदन शर्मा की आत्मकथा 'उन दिनों' का जिसकी सहजता ने बरबस मुझे आकर्षित किया और एक बैठक में पढ़वा भी लिया। हालांकि मदन शर्मा मेरे लिए चर्चित और परिचित नाम नहीं था लेकिन आत्मकथा के दो एक पन्ने पलटते -पलटते कब मैं इसे पूरा पढ़ गयी पता ही नहीं चला । सवाल है कि ऐसा कैसे होता है। बहुधा आप बहुत से महान रचनाकारों की बेहद बेहद चर्चित, पुरस्कृत रचानाओं की प्रसिद्धि की अनुगूंज से प्रभावित होकर उन्हें पढ़ना शुरू तो करते हैं लेकिन पूरा पढ़ नहीं पाते। और खुद को कोसते भी हैं कि कमी शायद कहीं न कहीं अपनी समझ में होगी जो इस दुर्लभ रस का आस्वादन कर पाने में असमर्थ है। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जिनके नाम का चर्चा या डंका भले न गूंज रहा हो पर‌ वे साहित्य के परिदृश्य पर इतने हौले से अपनी जगह बना लेती हैं जैसे शक्कर दूध में और नमक सब्जी में घुल जाता है। जिसकी उपस्थिति के बिना सब कुछ बेस्वाद हो जाए यह बात और है कि उस उपस्थिति का कोई नोटिस ले‌ या न ले पर उसकी कमी से सब कुछ अधूरा-अधूरा सा जरूर लगने‌ लगे। 

मदनजी की आत्मकथा की सबसे बड़ी खासियत है इसकी सहजता और वही तटस्थता जोकिसी भी रचनाकार के लिए एक चुनौती की तरह होती है।मदन शर्मा ने इस कला को बड़ी सहजता से इसे साध लिया है।जब वह अपनी तकलीफों, संघर्षों या अभावों की बात करते हैं तो कहीं भी अश्रुविगलित भावुकता की तैलीय परत तैरती नजर नहीं आती। वह इतने सहजता से अपने संघर्षों को उकेरते हैं जैसे अपनी नहीं किसी और की बात कर रहे हैं।और  रही बात उधेड़ने की तो अपने पूरे परिवेश के साथ- साथ वह अपने परिवार, रिश्तेदारों आदि को भी बेबाकी से तो उधेड़ते ही हैं खुद अपने आपकोभी नहीं बख्शते।अपने पिता का चित्र खींचते करते हुए उनके जेलर जैसे व्यवहार का जिक्र करते हैं तो उनकेकोमल पक्षों की ओर भी इंगित करते हैं।  कोई भी रचनाकार जब अपनी आत्मकथा लिखता है तो दो तरह की मनोवृत्तियां दिखाई देती हैं , एक तो वह अपने परिवार, कुल या खानदान की गौरवशाली परंपरा के माहात्म्य का वर्णन करते नहीं अघाता दूसरी ओर वह अपनी दीनता के ऐसे चित्र खींचता है कि पाठक के मन में रचनाकार के प्रति दयामिश्रित सहानुभूति जैसा भाव उत्पन्न होने लगता है। साथ ही कहीं न कहीं इस लेखन के पीछे खुद को महान समझने या समझाने की प्रेरणा भी काम करती है लेकिन मदन शर्मा जी की आत्मकथा इस मायने में जुदा है कि वहां किसी प्रकार की आत्ममुग्धता या आत्मप्रशंसा की कोई भावना दिखाई नहीं देती।वह पहले ही खुद से सवाल करते हैं कि "मैं यह राग क्यों अलापने लगा हूं ?‌ क्या होगा इससे ? किसी को क्या मतलब, मुझे बचपन में किस किस ने दुलारा, पुचकारा या लताड़ा..."(पृ.11) लेकिन इसके बावजूद लेखक अपने बचपन से लेकर अपने विवाह तक  की कथा को इतने सहज और दिलचस्प तरीके से बयां करता है कि साधारण पाठक को भी इस रचना को पढ़ते हुए किसी उपन्यास को पढ़ने जैसा आनंद मिलता है। अपने परिवार की समृद्धि के दिनों का वर्णन करते हुए पारिवारिक झगड़ों और पारिवारिक सदस्यों की आपसी तनातनी का वर्णन भी दिलचस्प  अंदाज में पर बेहद निस्पृह ढंग से करते हैं। कभी -कभी यह निस्पृहता ऐसी लगती है मानो लेखक आपबीती नहीं कोई रोचक किस्सा सुनाने बैठा है। अपने परिवार में पिता- चाचा के झगड़े हों या स्त्रियों की दुर्दशा या फिर विभिन्न पारिवारिक सदस्यों की खामियां और खूबियां, इन सभी का वर्णन मदन जी जीवंतता से करते हैं जिन्हें पढ़कर पाठक उनसे सहज सामंजस्य बैठाता चला जाता है। अपने चचेरे भाई परमानन्द का चित्रण करते हुए वह एक  घटना का जिक्र बड़े रोचक ढंग से करते हैं जब भाई परमानन्द गाजरपाक बना रहे हैं और  एक बुजुर्ग के बार -बार पूछे जाने पर कि हलवा बन गया या नहीं खीजकर उनके मुंह में गर्मागर्म गाजर का हलवा ठूंस कर खिलखिलाते हुए कहा उठते हैं-" बहन के यार ने सुबह से परेशान कर रखा था...बच्चा गाजर पाक का।"(पृ 29)  हालांकि सामान्य दृष्टि से देखने पर परमानंद का यह व्यवाहर उचित नहीं लगता लेकिन इस घटनाक्रम से गुजरते हुए पाठक भी परमानंदकी खिलखिलाहट को आत्मसात कर उसके साथ खुद भी खिलखिला उठता है। किसी भी रचनाकार की बड़ी विशेषता होती है जब वह अपने पाठकों को अपने पात्रों के साथ हंसने- रोने को विवश कर देता है और इस रचना में निसंदेह यह खूबी है। इसी तरह वह अपनी चचेरी बहनों का किस्सा भी बड़ी बेबाकी से कहते हैं। उनकी तथा अपनी भाभियों की जिंदगी के चित्रण के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा कावर्णन सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से करते हुए उनके दुख दर्द और  संघर्षों को उकेरते हुए उनके साहस की सराहना भी करते हैं।

ऐश्वर्यपूर्ण जिंदगी जीते हुए अचानक हालात के बद से बदतर होते जाने के कारणों के साथ अपनेपरिवार के कष्टोंऔर पारिवारिक सदस्यों  के संघर्षों का वर्णन लेखक तटस्थता से करता है। कहीं भी कष्ट या तकलीफ कोजरूरत से ज्यादा बढ़ा -चढ़ा कर नहीं दिखाया गया है। देश- विभाजन के दौरान हुए दो बड़े भाइयों की मृत्यु और उस दुख से कातर पिता और माता की मनःस्थिति का वर्णन बेहद मार्मिक बन पड़ा है। जब तक हम किसी को अपनी आंखों के आगे मरते हुए नहीं देखते वह हमारी स्मृति में हमेशा जीवित बने रहते हैं और हमारे दिल में उनकी अनकही प्रतीक्षा बनी रहती है, मृत घोषित भाइयों‌ के प्रति इस प्रतीक्षा या उम्मीद को रचनाकार में भी देखा जा सकता है- "मैं उस समय सातवीं में पढ़ रहा था। मौजूदा हालात में, पढ़ाई-लिखाई में बिल्कुल मन नहीं लग रहा था। ध्यान हर वक्त घर की बाहर वाली चौखट पर ही लगा रहता...शायद कोई आकर कह दे... किसी ने उन्हें वहां देखा है, या वे तो बस पहुंचने ही वाले हैं...बाहर दिल्ली दरवाजे के पास खड़े, किसी से बात कर रहे हैं....(पृ 64) आप कल्पना कीजिए जिस व्यक्ति का बचपन बेहद लाड़- प्यार और ऐशो- आराम से कट रहा हो कि अचानक उसे दो घूंट दूध के लिए भी तरसना पड़ जाए , बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाने और बुआ के घर पर रहकर अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाते हुए घर को संभालने के लिए खेलने- कूदने की उम्र अर्थात महज चौदह वर्ष में नौकरी से लगना पड़ाहो उसने क्या -क्या नहीं झेला होगा लेकिन हर बार वह मुश्किलों को धता बताते हुए उन्हें पीछे छोड़कर मुस्कराते हुए मानो उन्हें चुनौती देने के अंदाज में कहता हुआ नजर आता है-

"हमने बना लिया है नया फिर से आशियां जाओ ये बात फिर किसी तूफान से कह दो।"

अपनी छोटी- छोटी कमजोरियों और हल्के फुल्के आकर्षणों का वर्णन भी वह बड़े तटस्थ ढंग से करता है औरसगाई तथा शादी की घटनाएं तो बेहद नाटकीय ढंग से घटती दिखाई देती हैं।उसके बाद की घटनाओं को लेखक ने जिक्र भर में समेटते हुए अपने लिखने की शुरुआत की ओर भी संकेत सा ही किया है मानो वह कोई बहुत उल्लेखनीय बात ही न हो। जिस व्यक्ति ने अपने शुरुआती जीवन में हिंदी की शिक्षा ही न पाई हो उसका हिंदी में लिखना निश्चित तौर पर एक श्रमसाध्यकाम रहा होगा लेकिन लेखक उस श्रम को महिमा मंडित करना तो दूर उसके उल्लेख तक से कतराता है। आज सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में जब हम कुछ भी लिखकर लेखकीय पहचान कमाने के लिए व्याकुल रहते हैं वहीं बहुत कुछ लिखकर भी मदन शर्मा खुद को लेखन मानने से इन्कार करते हैं-" जितना छपा, उससे दुगना डस्टबिन के हवाले कर चुका था। इसके बावजूद, अपने छपे हुए को देख कितना दुख हुआ।वास्तविकता यही थी कि मुझे लिखना आता ही नहीं था।" (पृ 173) इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कहानी 'मैं फिलसाफर नहीं हूं' की याद आ जाती है जिसमें ज्ञानी प्रोफेसर अपने आपको 'टैब्यूला रासा" अर्थात  बिलकुल कोरा बताने का साहस करता है। आत्ममुग्धता के दौर में जहां जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना वह चाहे सुखद हो या दुखद प्रर्दशन की चीज समझी जाती है वहां आत्मस्वीकार का यह विनय या साहस कितनों में है यह प्रश्न भी इस रचना से गुजरते हुए सहज ही दिमाग में कौंध मारने लगता है। विनम्रता का यह भोला अंदाज और आत्मस्वीकृति का सहज साहस इस रचना की बड़ी खासियत है।

आत्मकथा को कथेतर गद्य की परिभाषा में बांधते हुए हम भले ही उसे किस्से कहानी से इतर विधामाने पर कथा रस कई मर्तबा वहां कहानियों से जरा भी कम नहीं होता यह बेझिझक कहा जा सकता है क्योंकि जिंदगी से दिलचस्प और हैरतअंगेज किस्सा कोई हो ही नहीं सकता। किस्सों कहानियों जहां में कोरी गप्प होती है वहीं आत्मकथा में सच्ची गप्प और आपबीती के साथ जगबीती भी। हालांकि इस आत्मकथा में आपबीती ही ज्यादा है पर अपनी कथा के साथ -साथ अपने रिश्तेदारों, दोस्तों की जिंदगी की झलकियां पेश करते हुए मदन शर्मा जी ने तत्कालीन शासक की सनकों के साथ शासन व्यवस्था की जो चंद तस्वीरें उकेरी हैं, उन्हें पढ़ते हुए किसी कथा को पढ़ने के  आनंद  के साथ ही इतिहास में झांकने  का अवसर भी मिलता है। मदनशर्मा जी की एक खासियत और है कि  इन्होंने लेखकीय सहजता को सपाटबयानी में ढलने नहीं दिया है। आलोच्य आत्मकथा  से गुजरते हुए सहज सरल और ईमानदार लेखन की प्रेरणा जरूर मिलती है। आज  के दौर में जब बतौर लेखक स्थापित या प्रचारित होने के लिए सिर्फ लिखना ही काफी नहीं होता बल्कि बहुत से कौशल भी करने पड़ते हैं, मदन शर्मा बहुत प्रसिद्ध या बड़े रचनाकार हैं या नहीं यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इसमें कोई दो राय  नहीं कि बेहद सुलझे हुए भले और ईमानदार इंसान जरूर हैं।और अच्छा इंसान होना मशहूर लेखक होने से कहीं ज्यादा अच्छा है यह कहनेऔर स्वीकारने में मुझे जरा भी हिचक नहीं।

Monday, January 8, 2018

तिथि का बदला जाना चूक नहीं, षड्यंत्र है


कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



आपको स्‍मरण करते हुए यूं तो देहरादून की उस गोष्‍ठी के प्रकरण को ही दर्ज करना चाहता था, जिसने हिंदी में दलित साहित्‍य की पूर्व पीठिका तैयार की। लेकिन इधर यह खबरें सुनने में आ रही है कि वर्णवादी संस्‍कारों में हिंसा का ताण्‍डव रचने वाले अपने तीखे नाखूनों से प्रहार करने लगे हैं। उनके प्रहारों की  ‘सांस्‍कृतिक’ बानी का रूप भी दिखने लगा है। वे आपकी आत्‍मकथा ‘जूठन’ को पाठ्यक्रम से हटा देना चाहते हैं। उनके कुतर्कों का पर्दाफाश करते हुए ही आलोचक वीरेन्‍द्र यादव को लिखना पढ़ा है कि ‘जूठन’ को न पढ़ाए जाने की मांग करने वालों का मानना है, ‘’इसको पढ़ाते हुए आध्‍यापकों की भावनाएं आहत होती हैं।‘’ समझना मुश्किल नहीं कि आहत भावनाओं वाले वे अध्‍यापक कौन हो सकते हैं, जैसे यह समझना मुश्किल नहीं कि इस रिपोर्ट को लिखने वाले पत्रकार के सरोकार क्‍या होंगे जो इस बात का ‘खुलासा’ करता है, ‘रूसा पाठ्यक्रम में अंग्रजी विषय के छठे सेमेस्‍टर में आजादी से पूर्व ओमप्रकाश वाल्‍मीकि के लिखे जूठन उपन्‍यास के अनुवादित अंश शामिल किए गए हैं।‘  यह 'खुलासा' इस बात का गवाह है कि वर्तमान को ही ठीक से न जानने वाली यह समझ इतिहास को किस तरह से तोड़ती मरोड़ती होगी। दिलचस्‍प तथ्‍य है कि मुख्‍यधारा की राजनीति करने वाले दो भिन्‍न धाराओं के छात्र संगठनों के बीच यहां कोई मतभेद नहीं। दोनों ही इस तरह की गफलत फैलाना चाहते हैं। तिस पर राजनेताओं का आलम यह कि वे तथ्‍यों के बारे में अनभिज्ञ होते हुए मामले की जांच करने की बात कहें तो।
  
क्‍या वे जानते हैं कि दलित आत्‍मकथाओं का इतिहास चेतना का सबक है ? ‘जूठन’ लिखकर तो आपने वह महती काम किया, बल्कि आपने ही क्‍यों, अन्‍य दलित रचनाकरों ने भी आत्‍मकथाओं का लिखकर इस बात को सुनिश्चित किया कि षड्यंत्रकारियों के लिए भविष्‍य में दलित रचनाकारों को उनकी पृष्‍ठभूमि से विलगाना संभव ही नहीं हो सकेगा। आप अक्‍सर कहा करते थे, ‘’ब्राह्मणवादियों ने बड़ी चालाकी से यह काम किया कि दलित-कामगार तबके का जो भी बौद्धिक दिखाई दिया उसे पुराणों में दर्ज करते हुए उन्‍होंने उसे ब्राह्मण मूल का ही बताया। इस तरह से सारे ज्ञान ध्‍यान का ठेका सिर्फ ब्राह्मणों के खाते में ही डाले रखा।‘’ अपनी बातों के पक्ष में आपके पास अकाट्य तर्क रहते थे। आत्‍मकथा लिखने के पीछे रचना का सुख प्राप्‍त करना जैसा तो उददेश्‍य था भी नहीं फिर आपका। आप तो दलित जीवन को दुनिया के सामने रख देने की जिम्‍मेदारी से भरे थे। अपने वर्तमान से प्रश्‍न करना चाहते थे। ‘’इस पीड़ा का अहसास उन्‍हें कैसे होगा जिन्‍होंने घृणा और द्वेष की बारीक सुइयों का दर्द अपनी त्‍वचा पर कभी महसूस नहीं किया ? अपमान जिन्‍हें भोगना नहीं पड़ा?  वे अपमान-बोध को कैसे जान पाएंगे ?  रेतीले ढूह की तरह सपनों के बिखर जाने की आवाज नहीं होती। भीतर तक हिला देने वाली सर्द लकीर खींच जाती है जिस्‍म के आर-पार।‘’[i] जैसे दूसरे लोगों की जिज्ञासाएं होती होंगी कि दलित लेखक शुरू में ही अपनी आत्‍मकथएं क्‍यों लिख देते हैं, मेरी भी रहती थी। पर आपकी बातें मुझे सोचने को मजबूर करती थी। मुझे यह समझने में दिक्‍कत नहीं आ रही थी कि दलित आत्‍मकथाओं को रचनाकारों का चूक जाना न मानू जैसा कि मुख्‍यधारा में मान लिया जाता है कि जब रचनाकार एक हद तक अपने रचनात्‍मक लेखन में कुछ जोड़ने के साथ नहीं रहता तो ही उसे आत्‍मकथा लिखनी चाहिए। दलित आत्‍मकथाओं को समझने के लिए यह तर्क कतई लागू नहीं किया जा सकता। बल्कि उन्‍हें तो इतिहास को बिगाड़ने वाली ताकतों के खिलाफ युद्ध के रूप में देखते हुए ही परिभाषित किया जा सकता है। इतिहास को बिगाड़कर प्रस्‍तुत करने वाले लाख चाहकर भी अपने षड्यंत्रों में सफल नहीं हो पाएंगे। दलित आत्‍मकथाओं का सच उनके हर झूठ का पर्दाफाश कर देगा और दुनिया भर के दलितों, शोषितों की उम्‍मीदों का चीराग बना रहेगा। एक रचनाकार के जीवन-संघर्ष, शोषित वर्ग के हर व्‍यक्ति को प्रेरित करते रहेंगे। उनकी रोशनी में वे दुनिया के षड्यंत्रकारियों को चुनौती देना सीखते रहेंगे।

आज जो ये आपके लेखन के दुश्‍मन हुए जा रहे हैं, वे थके हुए एवं हारे हुए लोग हैं। हिंसा को फैलाते हुए ही जिन्‍होंने हमेशा मेहनतकश तबके को शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी दबाए रखने के लिए हर हथकंडे का इस्‍तेमाल किया है। याद करो अपने पिता की कही वह बात जिसे आपने खुद ही दर्ज किया था, ‘’बेट्टे, तू एक गरीब चूहड़े का बेट्टा है ... इसे हमेशा याद रखियो...’’ [ii]  पिता ने आपको जिस ‘गरीब चूहड़े’ के जीवन को हमेशा याद रखने की हिदायत दी, यह वैसी ही हिदायत नहीं थी जो उसी जीवन के गलीचपन में डूबोने वाली थी। वरना आप जानते ही हैं आज जो ये आपको पाठ्यक्रम से निकालने की बात करने वाले लोग हैं, उस हेडमास्‍टर कलीराम से भिन्‍न कहां जो उस स्‍कूल से निकाल न पाने की स्थिति में पढ़ने से वंचित रखने और चूहडे़ के लड़के को चूहड़े का ही रहने देने के हालत बना देने में माहिर था।
‘’एक रोज हेडमास्‍टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, ‘क्या नाम है बे तेरा ?’
’आमेप्रकाश’।
’चूहड़े का है ?’ यह वही हेडमास्‍टर था जिसे देखते ही बच्‍चे सहम जाते थे।
‘जी ।‘
’ठीक है... वह जो शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़के णड़ू बना ले। पत्‍तों वाली झाड़ू बनाना। और पूरे स्‍कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यह खानदानी काम है। जा...फटाफट लग जा काम पे।‘’[iii]  

काश कि आपको व्‍यवस्थित पढ़ाई करने का मौका मिला होता। इतिहास, समाज, शिक्षा, धर्म, जाति- कितने ही तो विषय थे जिनसे आप रूबरू होने की इच्‍छा रखते थे। प्रश्‍नों को चुनौती की तरह स्‍वीकारते थे। एक समय तक जिस तरह से आप डॉ अम्‍बेडकर तक से परिचित न हो सके, ‘’मेरे लिए डॉ अम्‍बेडकर उस समय तक एक अपरिचित नाम था। मैं गांधी, नेहरू, पटेल, राजेन्‍द्र प्रसाद, राधाकृष्‍ण, विवेकानंद, टैगोर, शरत, तिलक, भगतसिंह, सुभाष बोस, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर आदि के विषय में तो जानता था। लेकिन डॉ अम्‍बेडकर से अनजान था। ‘त्‍यागी इंटर कॉलेज, बरला’ में कक्षा बारह तक पढ़ाई करके भी किसी भी रूप में यह नाम मेरी जानकारी में नहीं आया था। उस पुस्‍तकालय में भी अम्‍बेडकर पर कोई पुस्‍तक नहीं थी।‘’[iv]  आज आपको पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर तमाम दलित विद्यार्थियों से आपको परिचित न होने देने का उनका षड्यंत्र ही है जो उस पत्रकार की लेखनी से उतरा है जिसमें वह आपके इस दुनिया से विदाई को आपकी पैदाइश के समय से भी वर्षों पहले लिख रहा है। वह अनाजने में की गई गलती नहीं है, एक षड्यंत्र ही है। जबकि आज सूचनाओं का इतना ढेर है। एक क्लिक में आपका नाम लिखकर भी आपके जन्‍म और विदा की तिथियों को कौन नहीं पा सकता था। आप ही ने तो उन्‍हें चेताया हुआ है कि एक पुस्‍तकालय से पुस्‍तकें लाकर और उन्‍हें पढ़-पढ़कर ही तो आप डॉ अम्‍बेडकर से परिचित होते गए। ‘’किताब लेकर मैं घर आ गया था। प्रारम्‍भ के पृष्‍ठों पर कुछ ऐसा नहीं था जिसे विशिष्‍ट कहा जा सके। लेकिन जैसे-जैसे मैं इस पुस्‍तक के पृष्‍ठ पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अश्‍याय मेरे सामने उघड़ गया है। ऐसा अध्‍याय जिससे मैं अनजान था। डॉ अम्‍बेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था।‘’[v]

वे ‘जूठन’ पढकर किसी दलित बच्‍चे को उसी तरह की छटपटाहट में जीने को मजबूर नहीं करना चाहते जैसा आप डॉ अम्‍बेडकर की पुस्‍तकों को पढ़ने के बाद करने लगे थे। कई दिन और कई रातों की उस बेचैनी में उसे डूबने देना नहीं चाहते, जिसमें आप डूबे रहे थे।

...जारी

  स्‍मृति


[i] जूठन, पृष्‍ठ 62
[ii] जूठन, पृष्‍ठ 84
[iii] जूठन, पृष्‍ठ 14/15
[iv] जूठन, पृष्‍ठ 88
[v] जूठन, पृष्‍ठ 88