Friday, February 19, 2016

खाकी निक्कर

सुनील कैंथोला
 
खुर्शीद, मास्टर का दूसरे नंबर का बेटा है. बड़ा वहीद और छोटा मुस्तकीम. मुस्तकीम से पहले एक लड़की है, जिसका नाम मुझे याद नहीं. ये सारे बच्चे चोराहे के उसी खोके में पैदा हुए जिसके एक हिस्से में मास्टर अपनी नाई की दुकान चलाता था. मास्टर अब नहीं है, उसकी मौत उस ज़माने में हुई जब दारू के नाम पर टिंचरी दवाई की दुकानों में खुलेआम बिका करी थी. मास्टर के अनेक किस्से हैं जैसे कि वो आँखों की कोई दवा मुफ्त बांटा करता था. या कि उसका खोका बेरोजगारों को छुपकर बीडी पीने की निशुल्क आड़ प्रदान किया करता था. पर छोड़ो, ये किस्सा मास्टर के बारे में नहीं बल्कि खुर्शीद और उसकी खाकी निक्कर के बारे में है.

मास्टर जैसा भी रहा हो, पर उसने अपने बच्चों को स्कूल जाने और पढने से रोका नहीं. ये अलग बात है कि वो जायदा पढ़े नहीं, पर थोडा बहुत विद्यार्थी जीवन सभी बच्चों के  हिस्से आया.  स्कूली दिनों में हिन्दू-सिख बच्चों की संगत में रहते हुए खुर्शीद को अपना नाम अटपटा लगने लगा. फिर किशोरावस्था में कदम रखते हुए जब उसने कैंची और उस्तरा संभाला  तब उसने खुर्शीद के खुरदुरेपन को दूर करने की ठान ली. उन्ही दिनों वो मेरे संपर्क में आया था. तब मास्टर सेमी रिटायरमेंट मोड में था और दुकान अब वहीद और खुर्शीद चलाने लगे थे. छोटा  मुस्तकीम अभी भी स्कूल जा रहा था और उनकी बहिन छोटी उम्र में ब्याही जा चुकी थी. जब से खुर्शीद दुकान में बैठने लगा तब से वहां उसके हम उम्र हमेशा ही भिनभिनाते रहते थे.  जाहिर है कि उसके दोस्त शत -प्रतिशत हिन्दू और सिख परिवारों से थे. दिलचस्प बात ये है कि उसका कोई भी दोस्त उसे खुर्शीद के नाम से नहीं बुलाता था. सब उसे अज्जु कहते थे. पूछने पर उसने बताया कि अज्जु नाम उसी ने रखा है क्योंकि खुर्शीद बड़ा अटपटा और खुरदरा सा है. अज्जु हंसमुख और हाजिर जवाब था. दुकान पर अब वेटिंग लिस्ट भी लगने लगी थी. लोग नंबर लगा कर बगल की चाय की दुकानों में बैठ जाते और उनकी बारी  आने पर अज्जु उन्हें बुला लेता. कभी कोई शेव के लिए जल्दी मचाता तो अज्जु बोल देता ‘अभी तो टाइम लगेगा भाई जी, जल्दी है तो बनी बनाई ले लो’.

धीरे धीरे अज्जु और उसकी मित्र मण्डली की गतिविधियाँ  मुहल्ले की गलियों से बाहर बड़े मैदानों तक होने लगी. वे क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने मातावाला बाग़ जाने लगे. अपने दोस्तों की ही तरह अज्जु सब कुछ करना चाहता था. दुकान पर अब ब्रूसली का पोस्टर लग चूका था. अज्जु को कराटे भी सीखनी थी और बॉडी बिल्डिंग में भी हाथ अजमाना था. चूंकि दूकान देर रात तक चलती थी इसलिये अज्जु अब सुबह मातावाला बाग जाने लगा. निरंतर पसरते देहरादून में अब मातावाला बाग ही ऐसी जगह बची थी जहाँ अलग अलग मुहल्लों की कई टीमे एक साथ क्रिकेट खेल सकती थी. लोग जोगिंग कर सकते थे, शादियों के सीजन से पहले ब्रास बैंड वाले प्रैक्टिस कर सकते थे. अखाडा चलता था, शाखा लगती थी. मातावाला बाग का यह  मजमा पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता था. अज्जु और उसकी टोली को यह सब भाने लगा और मातावाला बाग उनके रूटीन का हिस्सा बनने लगा.
मातावाला बाग में पिछले कोई दो एक बरस से शाखा लगने लगी थी जिसमें अधिकांशतः जनसंघ के ज़माने के बुजुर्ग और युवावस्था खर्च कर चुके वरिष्ठ कार्यकर्ता ही शिरकत करते थे. रंगरूटों का अच्छा अभाव था. उस समय तक हालाँकि इंटों की एक किश्त अयोध्या भेजी जा चुकी थी पर रामभक्तों की जमात से संघी उत्पादन की प्रक्रिया कमोबेश धीमी ही थी. अज्जु और उसके साथियों की टोली के लिये शाखा की प्रक्रिया कोतुहल का विषय होती और वे दूर से खड़े होकर उनके कर्मकांड को देखते. इसी फेर में शाखा संचालक की नज़र इस टोली पर पड़ गयी और मेल-मिलाप बढ़ने लगा. अज्जु, अब अज्जु जी बनने की दिशा में बढ़ने लगे. इसी दौर में अज्जु ने अपनी टेंशन मुझ से साझा की.  हुआ यूँ कि अपनी पूरी मण्डली के साथ अज्जु मियां ने भी शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया. सुबह की नींद सब से प्यारी होती है. जिसने अल सुबह बिस्तर का मोह छोड़ दिया उसने समझो पहली लड़ाई तो जीत ही ली. पर हर कोई कहाँ उठ पता है. इसलिये शाखा के सयाने नये रंगरूटों के घर घर जा कर उन्हें उठाते है ‘पांडे जी उठ जाईये, शाखा का समय हो चूका है’. अज्जु को शाखा का ऐसा नशा लगा कि उसकी नींद ही गायब हो गयी. अपनी टोली के अन्य साथियों को उठाने की साथ साथ वह शाखा संचालक के दरवाज़े पर भी पहुँच जाता. पहले एक-दो दिन तो झंडा-डंडा भी उसी ने ढोया. पर  इसी बीच बात खुल गयी कि अज्जु उस बिरादरी का नहीं है जिसके लिये ये आयोजन होता है. अज्जु को किनारे कर के उसकी टोली से बात की गयी की भईया इसे मत लाओ. पर टोली कहाँ मानती और किसी की भी समझ में ये नहीं आया की अज्जु को लाने से मना क्यों किया जा रहा है. एक तरफ नए रंगरूटों को खोने का डर तो दूसरी तरफ अज्जु को भीतर लाने की समस्या,  कुछ दिन इसी तरह बीत गए और अज्जु शाखा में हिस्सा लेता रहा.

फिर शाखा संचालक की तरफ से निर्णय सुनाया गया कि जो भी शाखा में नियमित होना चाहता है उसे शाखा की ड्रेस पहन  कर आना पड़ेगा. विशेष रूप से खाकी निक्कर तो सिलवानी ही पड़ेगी. अज्जु की टोली के सभी सदस्यों ने सहमती दे दी और उनके परिवार ने भी हाँ बोल दिया. इस बीच अज्जु ने होमवर्क किया तो पता चला की कम से कम सत्तर रूपये का खर्चा है. कुछ पैसे उसने जोड़ लिये थे और बाकि का जुगाड़ कर रहा था. इसी सिलसिले में अज्जु ने मुझ से ये बात साझा की थी. चूंकि मैं शेव और कटिंग अज्जु से ही करवाता था तो वह मुझे टटोलना चाह रहा था कि क्या में कुछ पैसे एडवांस में दे पाऊंगा जो की बाद में एडजस्ट हो जायेंगे. क्या गज़ब का उत्साह था अज्जु में, इतने दिनों में उसे  नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ पूरी कंठस्थ हो गयी थी. टोली अब भी साथ जाती थी पर अज्जु  शाखा में भाग न लेकर आस-पास उछल –कूद करता और सभी साथ-साथ वापस आ जाते. मैंने उसे कितने पैसे दिए ये याद नहीं, पर दिए जरूर थे. अज्जु का मिशन  ‘खाकी निक्कर’ कायम था. निक्कर सिलवाने को दी जा चुकी थी. जब कोतुहलवश पुछा तो उस ने मुझे यही बताया था.

अब हुआ यूं कि निक्कर की डिलीवरी होने से पहले बाबरी मस्जिद दहा दी गयी और आर. एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. इस घटना के दो-चार दिन बाद मैं शेव करवाने अज्जु की दुकान पर गया तो पाया की वह बहुत उत्तेजित है. कारण पूछने पर उस ने बताया कि उसकी निक्कर कल मिल गयी थी. इसलिए वो आज सुबह उसे पहन कर महेंद्र जी के घर गया था जगाने के लिये. उसने आवाज लगाई तो महेंद्र जी ने डांट कर भगा दिया की कोई शाखा वाखा नहीं लगेगी. जाओ यहाँ से, हल्ला मत करो. फिर मैं मातावाला बाग चला गया. वहां शाखा के सभी लोग आये थे पर मेरे सिवाय निक्कर किसी ने भी नहीं पहनी थी. वहां उन लोगों ने मुझे फिर पकड़ लिया ओर धमकाया कि ये निक्कर मत पहन वर्ना पुलिस पकड़ लेगी. अज्जु का मेरे से एक ही सवाल था कि 'भाई जी इतने मुश्किल से पैसे जमा कर के निक्कर सिलवाई है, मेरी निक्कर है, बताओ मैं इसे क्यों नहीं पहन सकता'.

बरस, 1992 से 2016 के बीच कितना समय बीत गया है पर अज्जु का सवाल मेरे जेहन में कभी कभार उठता ही   रहता है.  वहीद और छोटा मुस्तकीम अभी भी भंडारी बाग के चोराहे पर उसी खोके से अपनी दुकान चला रहे हैं जहाँ वे पैदा हुए थे. अज्जु उनसे अलग हो चूका है.  उसे आखरी बार अनुराग नर्सरी के तिराहे पर एक तिरपाल  के नीचे हजामत बनाते देखा था. वो मुझे खुर्शीद लगा, उसमें अज्जु जैसा कुछ भी नहीं था.

Monday, January 11, 2016

यह कैसी सांस्‍कृतिक होड़ है

तकनीक पर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त डाल कर मुनाफे की हवस से गाल फुलाने वाले बाजार ने विकास के मानदण्‍ड के लिए जो पैमाने खड़े किये हैं, उसने वैयक्तिक स्‍वतंत्रता तक को अपना ग्रास बना लिया है। मनुष्‍यता के हक के किसी भी विचार को शिकस्‍त देने के लिए उसने ऐसे सांस्‍कृतिक अभियान की रचना की है, हमारे मध्‍यवर्ग मूल्‍य भी उसके आगोश में खुद ब खुद समाते जा रहे हैं। विभ्रम फैलाते उसके मंसूबों को पहचानना इसलिए मुश्किल हुआ है। सौन्‍दर्य प्रतियोगिताओं का फैलता संसार उसकी ऐसे ही षडयंत्रों की सांस्‍कृतिक गतिवि‍धि है। देख सकते हैं पिछले कई सालों से दुनिया भर के तमाम पिछड़े इलाकों में उसकी घुसपैठ ने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का आक्रमण सा किया है। ऐसे ही एक अाक्रमण के प्रति पत्रकार जगमोहन रौतेला की चिन्‍ताएं देहरादून से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका युगवाणी के जनवरी 2016 के पृष्‍ठों पर दिखायी दी है जिसे यहां इस उम्‍मीद के साथ पुन: प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि बाजारू संस्‍कृति के आक्रमणकारी व्‍यवहार पर एक राय बनाने में मद्द मिले।
- वि.गौ.          

*** जगमोहन रौतेला 


महिलाओं को बाजार का हिस्सा बनाने का एक दूसरा षडयंत्र है तरह- तरह की सौंदर्य प्रतियोगितायें . वैसे ये प्रतियोगितायें सालों से होती आ रही हैं , लेकिन पहले इसमें मध्यवर्ग की महिलायें ( लड़कियॉ ) हिस्सा नहीं लेती थी . फैशनपरस्त परिवार की लड़कियॉ ही इसमें हिस्सेदारी किया करती थी . पिछले कुछ दशकों से जब से बाजारवाद ने मध्यवर्ग को भी अपनी चपेट में लेना शुरु किया तब से इस वर्ग की लड़कियों में भी " सुन्दर " दिखने की चाह जाग उठी है . सुन्दर दिखाने की यही चाहत उसे देश और विदेश में सौन्दर्य के नाम पर होने वाली कथित प्रतियोगिताओं की ओर भी आकर्षित कर रही है . यही आकर्षण मध़्यवर्ग की लड़कियों को इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने को " उत्तेजनापूर्ण " तरीके से प्रेरित करता है . बाजारवाद के इस अतिवाद भरे दौर में जब से 1990 के दशक में ऐशवर्या राय को " मिस वर्ड " और सुष्मिता सेन को " मिस यूनिवर्स " बनाया गया तो तब से भारत के मध्यवर्ग में अपनी लड़कियों को सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भेजने की एक अलग तरह की होड़ सी मची है . कुछ इसी तरह की होड़ राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में जबरन दिखायी जा रही है . यहॉ के अधिकतर शहर उच्च जीवन शैली वाले न होकर कस्बाई संस्कृति वाले ही हैं . इसके बाद भी कुछ लोग जबरन देहरादून जैसे कथित आधुनिक शहर में सौन्दर्य प्रतियोगितायें करवाते रहते हैं . इसकी चपेट में अब हल्द्वानी को लिया जाने लगा है . कुछ साल पहले देहरादून की निहारिका सिंह ने भी कोई अनजान सी सौन्दर्य की प्रतियोगिता जीत (?) ली थी . उसके बाद वह जब देहरादून आयी तो उसने एक लम्बा - चौड़ा बयान अखबारों को दिया कि उत्तराखण्ड की हर लड़की निहारिका सिंह बन सकती है . कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली निहारिका सिंह अब कहॉ है और क्या कर रही है ? शायद ही आम लोगों को पता हो ? निहारिका आज जहॉ भी हो लेकिन उत्तराखण्ड में सौन्दर्य का बाजार तलाशने वाले कुछ चंट - चालाक लोगों के मंशूबे अवश्य ही फलीभूत हुये हैं . ऐसे ही लोगों ने कोटद्वार निवासी उर्वशी रौतेला के पिछले दिनों मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया कि वे उत्तराखंड की गरीमा , देश की प्रतीक और भविष्य की उम्मीद हैं . मीडिया और इस तरह की तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ कर अपना व्यवसायिक हित साधने वाला कार्पाेरेट ऐसा वातावरण बना रहे थे कि मानो उर्वशी समाज के हित में कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रही हो और वह वहॉ से कथित तौर पर जीतकर लौटी तो उत्तराखण्ड और देश की शान में चार चॉद लग जायेंगे . प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिये लास वेगास जाने से पहले उर्वशी ने देहरादून और कोटद्वार का दौरा भी किया और जगह-जगह लोगों से अपने पक्ष में वोट देने की अपील भी की . उसने अनेक देवताओं के थानों में मत्था टेककर अपने लिये आशीर्वाद तक मॉगा . बाजारवाद की हिमायती हमारी सरकार के मुखिया हरीश रावत ने भी लोगों से उर्वशी के पक्ष में वोट देने की अपील कर डाली .पर जब 21 दिसम्बर 2015 को लास वेगास में उर्वशी के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसने अपनी भड़ास आयोजकों पर यह कह कर निकाली कि उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे जानबूझकर हराया गया . अतिरेक में वह यह तक कह गयी कि मेरे राज्य उत्तराखण्ड व देश से मुझे ज्यादा समर्थन ( वोट ) नहीं मिला . जिसकी वजह से मैं हार गयी . मतलब ये कि उर्वशी अपनी तथाकथित हार का ठीकरा दूसरों के सिर ऐसे फोड़ रही थी मानो उसे न जीताकर देश और उत्तराखण्ड ने एक भयानक गलती कर दी हो . वास्तव में सौन्दर्य के नाम पर आयोजित की जाने वाली इस तरह की प्रतियोगितायें पुरुषों द्वारा सार्वजनिक रुप से नारी के शरीर को सौन्दर्य के नाम पर कामुकता भरी नजरों से देखने के सिवा और कुछ नहीं हैं . ऐसा नहीं है तो क्यों उसे एक तरह से निरावरण होकर अपने शरीर का कथित सौन्दर्य पुरुषों को दिखाना पड़ता है ? और उसके कथित सौन्दर्य को परखने के पैमाने में शरीर के हर अंग को मापदंड क्यों बनाया जाता है ? सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? यदि यही सच है तो फिर ये प्रतियोगितायें सौन्दर्य के नाम पर पुरुषों की कामुक नजरों का " ठंडा " करने के सिवा और कुछ नहीं हैं . तब ऐसी स्थिति में हमें किसी निहारिका सिंह या किसी उर्वशी के इस तरह की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर कतई नहीं इतराना चाहिये . ये लोग हमारे समाज की महिलाओं के लिये कतई आदर्श नहीं हो सकते हैं , वह इसलिये भी कि ऐसी कथित प्रतियोगितायें महिला को एक " भोग की वस्तु " के अलावा और कुछ समझने के लिये तैयार नहीं हैं . और ऐसी सोच को बढ़ावा देने से महिलाओं का मान नहीं अपमान ही होता है . **

Tuesday, December 8, 2015

नवजागरण…भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण

नाज़िया फातमा

      19वी शताब्दी में भारतीय जन समाज में आई वैचारिक क्रांति का मूल अर्थ उस ‘नई चेतना’ से रहा जो समाज में हर स्तर पर धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रही थी l सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हर पहलू इससे प्रभावित हो रहा था l पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित एक नया बुद्धिजीवी वर्ग तैयार हो रहा था l इस नये बुद्धिजीवी वर्ग की आकांक्षाएं पहले से काफी भिन्न थीं, जो कि हर तरफ कुछ बदलाव चाह रहा था l इस नए वर्ग को स्त्रियों की स्थिति में भी कुछ बदलाव की ज़रूरत महसूस हुई l इस नए वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप स्त्रियों को ढालने के लिए, उनकी स्थिति में परिवर्तन करना आवश्यक था l परिवर्तन की इस लहर में ‘स्त्री’ और उसका जीवन बहस का केन्‍द्रीय मुद्दा होकर सामने आया। डॉ. राधा कुमार के शब्दों में “उन्नीसवीं शताब्दी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनियां में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएं एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थेl”[1] 
समाज में स्त्री शिक्षा का मुद्दा हमेशा से ही विवादस्पद रहा हो ऐसा नहीं है अगर हम थोडा इतिहास में जाये तो पता चलता है कि प्राचीन समय में स्त्रियाँ शास्त्रसम्मत थीं l  प्राय: वह शास्त्रों का अध्ययन करती थीं  ये वो समय था जब इस्लाम का आगमन भारतवर्ष की भूमी पर नहीं हुआ था l मध्यकाल में इस्लाम का प्रवेश हुआ तब तक स्त्री शिक्षा की संख्या में थोड़ी गिरावट आई प्राय: उनका विवाह छोटी उम्र में ही कर दिया जाता था इसका कारण चाहे जो हो लेकिन स्त्री शिक्षा गायब नहीं हुई थी l लेकिन 19वीं शताब्दी तक आते- आते स्त्री शिक्षा का मुद्दा बड़े पैमाने पर विवादित रहा l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है, इस तथ्य से सम्पूर्ण पुरुष समाज परिचित था इसलिए उसे शिक्षित करने का साहसपूर्ण कदम उठाया गया l लेकिन यहाँ स्त्री शिक्षा का अर्थ था ‘भारतीय अबलाओं का नवीनीकरण’ l इस नवीनीकरण का केवल एक ही उद्देश्य था और वह था  कि समाज में उदित हुए इस नये बुद्धिजीवी वर्ग के अनुरूप स्त्रियों को ढालना l यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है की इन स्त्रियों को शिक्षित करने का उद्देश्य इन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना या आत्मनिर्भर बनाना नहीं था l इन स्त्रियों का एक मात्र उद्देश्य केवल अपने पति की अनुगामिनी बनाना था l इस षड्यंत्र का साफ़-साफ़ उल्लेख हमे नवजागरण का अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के इस कथन में मिलता है “ऐसी चाल से उनको(स्त्री) शिक्षा दीजिये कि वह अपना देश और धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें l”[2]
भारतेन्दु के इस वक्तव्य से ही हमें तत्कालीन स्त्री शिक्षा की दशा समझ में आनी चाहिए l  तत्‍कालीन समाज में स्त्री शिक्षा की स्‍वीकार्यता नहीं थी। स्त्री शिक्षा का सवाल एक जटिल विषय की तरह था, जो धार्मिक  मान्‍यताओं से निर्धारित किया जाता था। धर्म के अनुपालन के लिए प्रतिबद्ध पुरुष वर्ग स्त्री की पवित्रता को लेकर भी उतना ही चिंतित था l प्राय: ये धारणा सर्वव्‍यापी थी कि स्त्री को पढ़ाने से वह पथ भ्रष्ट हो जाएगी या उसे विवाह उपरांत वैधव्य का सामना करना पड़ेगा(चोखेरबाली) l ऐसे में तथाकथित समाज सुधारों का रास्ता उसे शिक्षित करने को तो सहमत था लेकिन उस चाल से नहीं जैसे लड़कों को किया जा रहा था। पूरे नवजागरण में स्त्री को लेकर कमोबेश यही दृष्टि तत्‍कालीन समाज सुधारकों में दिखाई देती है l इस समय समाज में जो स्त्री शिक्षा दी जा रही थी वो उसे  केवल एक निपुण गृहिणी बनाने तक ही सीमित थी। प्राय: उनको रसोई में खाना बनाने और खर्च में मितव्‍यतता बरतने की शिक्षा दी जाती थी l

 भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपरोक्त वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए डॉ. वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “भारतेंदु ने लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की जगह चरित्रनिर्माण, धार्मिक और घरेलू प्रबंध के बारे में बतानेवाली किताबें पाठ्यक्रम में लगाने के लिए कहा...भारतेंदु के समकालीन और सर सैय्यद के साथी डिप्टी नज़ीर अहमद ने 1869 में स्त्री शिक्षा के लिए मिरातुल उरुस(स्त्री दर्पण) किताब लिखी जिसमें दो बहनों की कहानी के ज़रिये भद्र्वर्गीय स्त्रियों को माँ, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में अपने परम्परागत कर्त्तव्यों को और भी कुशलता के साथ पूरी करने की शिक्षा दी गयी है l इसी तरह 19वीं सदी के मुस्लिम नवजागरण की सबसे महत्वपूर्ण संस्था देवबंद दारुल उलूम से संबंधित मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने बहिश्ती ज़ेवर किताब लिखी जो एक ऐसा वृहद कोश था जिसमें  भद्र्वर्गीय मुस्लिम स्त्री को धर्म, पारिवारिक, कानूनों घरेलू संबंध, इस्लामी दवा-दारु वगैरह की शिक्षा दी गई थी l उर्दू में लिखी गई ये दोनों किताबें भद्र्वर्गीय मुस्लिम परिवारों में हर लड़की को उसके ब्याह के समय उपहार के रूप में दी जाती थी l”
  
समाज में व्याप्त कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए जो उपाय किये जा रहे थे उनमें स्त्री की दशा सुधारना एक महत्वपूर्ण काम था। साथ ही यह भी उल्‍लेखनीय है कि पितृसत्तात्मक अनुकूलन के कारण समाज सुधारकों – चाहें वह हिन्दू हों या मुसलमान उनकी दृष्टि एकांगी ही थी। वे यह तो जानते थे कि उन्हें कैसी स्त्री चाहिए लेकिन स्त्री को क्या चाहिए, इस पर उनका ध्यान नहीं था l इस बात पर आम सहमती थी कि स्त्रियों को शिक्षा देनी चाहिए लेकिन उस शिक्षा का स्वरुप कैसा हों, स्त्रियों को कैसी, कितनी शिक्षा दी जाए इस पर न वह एकमत थे और न ही इसकी कोई स्पष्ट योजना ही उनके पास थी l स्त्रियाँ पढ़ना तो सीखें लेकिन वह आत्मनिर्भर  न बने l इसीलिए इस दौर में स्त्री को शिक्षित करने का ये रास्ता निकाला गया जिसमें उनको उनके घरेलू दायरे में भी रखा जा सके और वे थोड़ा घर-गृहस्थी का ज्ञान भी प्राप्‍त कर सकें। शिक्षा की ये दोहरी नीति थी।
इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु इस समय पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता महसूस हुई जिसके फलस्वरूप  पहले उर्दू और फिर हिंदी में बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें तैयार करवाई गयीं l जिसमें लड़कियों के पाठ्यक्रम के लिए अलग और लड़कों के लिए अलग थीं l सर्वप्रथम मुसलमान लड़कियों की शिक्षा के लिए उर्दू का पहला उपन्यास ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना डिप्टी नज़ीर अहमद ने सन् 1869 में की यह अपने समय की प्रसिद्ध पुस्तक है l इसका महत्व इस बात से साबित होता है कि तत्कालीन समय में इसे अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात ने एक हज़ार रूपए के पारिश्रमिक से नवाज़ा था l और इसी उपन्यास से प्रेरणा लेकर ही “मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने 224 पृष्ठों का 'वामा शिक्षक' (1872 ई.) उपन्यास लिखा। भूमिका में ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने लिखा कि 'इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों को पढ़ने के लिए तो एक दो पुस्तकें जैसे मिरातुल ऊरूस आदि बन गई  हैं, परंतु हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई जिससे उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुँचे और पश्चिम देशाधिकारी श्रीमन्महाराजाधिराज लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की यह इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाए जिससे हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों को भी लाभ पहुँचे और उनकी शासना भी  भली-भाँति हो l” आगे मिरातुल-उरुस की प्रेरणा लेकर ही “हिंदी में उस वक़्त हिंदी के कुछ लेखकों ने भी इसी ढंग की कुछ किताबें बनाई, जैसे देवरानी-जेठानी की कहानी और भाग्यवती l”[3]  
            उन्नीसवीं समय का भारतीय समाज स्त्री के प्रति विभेदपूर्ण नीति से ग्रसित था l पुरुषों को जहाँ पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, दर्शन,गणित,अंग्रेज़ी आदि की शिक्षा पाने का पूरा अधिकार था l वहीं स्त्रियों को मात्र घर-गृहस्थी और आदर्श बेटी, पत्नी, बहू और माँ बनने की शिक्षा तक ही सीमित रखा जाता था l इस बात की पुष्टि लेखक द्वारा इस कथन से होती है “और किसी काम के लिए औरतों को इल्म की ज़रूरत शायद ना भी हो मगर औलाद की तरबियत(पालन-पोषण) तो जैसे चाहिए बेइल्म के होनी मुमकिन नहीं l लड़कियाँ तो ब्याह तक और लड़के अक्सर दस बरस की उम्र तक घरों में तरबियत पाते हैं और माओं की ख़ूबी उनमें असर कर जाती है l पस अय औरतों ! औलाद की अगली जिंदगी तुम्हारे अख्तियार में है l चाहो तो शुरू से उनके दिलों में ऐसे ऊँचे इरादे और पाकीज़ा ख़याल भर दो कि बड़े होकर नाम ओ नमूद पैदा करें और तमाम उम्र आसाइश में बसर कर के तुम्हारे शुक्रगुज़ार रहें और चाहो तो उनकी उफ्ताद को ऐसा बिगाड़ दो कि जूं-जूं बड़े हों, खराबी के लच॒छन सीखतें जाएँ और अंजाम तक इस इब्तदा का तस्सुफकिया करें l”[4] भारतेंदु  कि उक्ति की ‘लकड़ो को सहज में शिक्षा दी जाये’ इसी विभेदपूर्ण नीति को स्त्पष्ट करती है l
       मिरातुल उरुस का कथानक इस प्रकार है कि अकबरी और असगरी दो बहने हैं जिसमे अकबरी बड़ी और असगरी छोटी बहिन है अकबरी बचपन से ही अपनी नानी के घर  बड़े लाड़-दुलार से पली है जिसके कारण वह जिद्दी और मुहजोर हो गई है लेकिन असगरी इसका बिलकुल उलट है वो माँ-बाप की हुक्म की तामील करती है, घर में सबका ख्याल रखती है, घर के सब काम जानती है, घर की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती है l दोनों बहनों का ब्याह एक ही घर में तय  किया जाता है जिसमे अकबरी घर कि बड़ी बहु और असगरी छोटी बहु बनती है l अकबरी अपने बदमिजाज और गुस्से के कारण उपेक्षित पात्र घोषित होती है जबकि असगरी अपनी खूबियों के कारण घर-परिवार में सराहनीय पात्र बनकर उभरती है l पूरे उपन्यास का मूल्य बिंदु है कि अशिक्षित स्त्री घर को सँभालने में कुशल नहीं होती जबकि शिक्षित स्त्री ही सर्वश्रेष्ठ होती है l  उपन्यास की भूमिका में सैय्यद आबिद हुसैन लिखते हैं कि “मिरातुल-उरूस, जो इस वक़्त आप के सामने है, नज़ीर अहमद का एक छोटा सा नावेल है जो उन्होंने छपवाने के लिए नहीं बल्कि अपनी लड़की के पढ़ने के लिए लिखा था  इत्तिफ़ाक से इसका मसौदा अंग्रेज़ डायरेक्टर तालीमात की नज़र से गुज़रा l वह इसे पढ़ कर फड़क उठा l उसी की तवज्जो से यह किताब छपी और इस पर मुसन्निफ़ को हुकूमत की तरफ से एक हज़ार रुपया इनाम मिला l”[5]
 आगे  नज़ीर अहमद अपना मंतव्य स्त्पष्ट करते हुए  लिखते हैं कि “मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इखलाक ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की जिंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोह्मात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाए-रंज ओ मुसीबत रहा करती है, इनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करें और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनके दिल न उकताय, तबीयत न घबराय l मगर तमाम किताब खाना छान मारा ऐसी किताब का पता ना मिला l तब मैनें इस किस्से का मनसूबा बाँधा l” [6]
 ‘मिरातुल उरुस’ की नायिका ‘असगरी’ एक शिक्षित  स्त्री के रूप में चित्रित की गई है जो बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रखती है इसीलिए लेखक कहता है “उसने छोटी सी उम्र में ही कुरान-मजीद का तर्जुमा और मसायल की उर्दू किताबें पढ़ ली थी l लिखने में भी आजिज़ न थी .... हर एक तरह का कपड़ा सी सकती थी और अनवाआ और अकसाम के मजेदार खाने पकाना जानती थी l”[7] अपने हुनर के कारण ही वह विवाहोपरांत अपनी ससुराल में सबकी  आँख  का तारा  बनती है l अपनी समझदारी के कारण वह, हिसाब में हुई गड़बड़ी का पता लगाती है l पूरे उपन्यास में स्त्री शिक्षा के लाभ  बताए गए हैं l पूरा उपन्यास इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार एक स्त्री गृहस्थ धर्म की शिक्षा लेकर उसका अपने जीवन में उपयोग कर सकती हैं या किस प्रकार एक शिक्षित स्त्री ही निपुणता से अपने गृहस्थ जीवन को सुखमय बना सकती है l
वस्तुतः उर्दू का यह पहला उपन्यास नवजागरण के दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है l स्त्रियों की शिक्षा पूरे परिवार और समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकती है इसे डिप्टी नज़ीर अहमद अच्छी तरह जानते थे l अत: मुस्लिम स्त्री शिक्षा की आदर्श स्थिति हेतु ‘मिरातुल-उरुस’ की रचना की गई l
       



[1]स्त्री संघर्ष का इतिहास १८००-१९९० – राधा कुमार  अनुवादएवं संपादन – रमा शंकर सिंह ‘दिव्यदृष्टि’ पृ सं.23
[2][2]रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ. सं. 39
[3]  रस्साकशी – वीरभारत तलवार पृ.सं.39
[4] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 22
[5] मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ सं. 6
[6]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद,टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं10
[7]मिरातुल-उरूस(गृहिणी- दर्पण)लेखक नज़ीर अहमद टिप्पणियाँ तथा हिंदी लिप्यंतर-मदनलाल जैन पृ.सं36

नाज़िया फातमा जामिया, नई दिल्‍ली में शोधार्थी है। अपने विषय से बाहर जाकर भी हिन्‍दी लेखन की समाकालीन दुनिया में हस्‍तक्षेप करना चाहती है। प्रस्‍तुत आलेख उसकी बानगी है। 
उर्दू के पहले उपन्यास मिरातुल-उरुस’ के बहाने भारतीय नवजागरण दौर में मुस्लिम समुदाय में स्त्री-शिक्षा की स्थिति की पहचान करती नाज़िया फातमा की यह कोशिश उललेखनीय है। 
- वि.गौ.  

Wednesday, November 4, 2015

गैरसैण विधानसभा सत्र का औचित्य

दिनेश चन्‍द्र जोशी 
लेखक; कवि साहित्यकार, देहरादून

फिलवक्त तक उत्‍तराखंड की काल्पनिक राजधानी गैरसैण में विधानसभा के सत्र को आयोजित करने का हो हल्ला बड़े जोर ,शोर से चल रहा है। बिजली, पानी, आवास,सड़क, चमक दमक ,हाल ,माईक ,सजावट ,सोफे, कालीन ,बुके फूलमाला, गाडि़यों ,मिनरल वाटर , भोज, डिनर की व्यवस्था बाकायदा कार्यदल बना कर हो रही है। इस कार्य हेतु करोड़ों से कम बजट क्या लगेगा। जनभावना के सम्मान हेतु इतना गंवा भी दिया तो कोई हर्ज नहीं। खबरों में यह दृश्य बड़ा ही उत्साहजनक व पर्व की तरह पेश किया जा रहा है और राज्य की भोली भावुक जनता को दिगभ्रमित किया जा रहा है। 
गैरसैण भौगोलिक रूप से कुमाऊ व गढ़वाल के मèय व संगम स्थल पर, चौरस घाटी होने की वजह से निर्माण व विकास की संभावना से युक्त है। जल संसाधन व पर्यावरण की दृष्टि से भी निरापद है। भूकम्प व आपदारोधी होने की मान्यता हेतु गठित वैज्ञानिकों की कमेटी ने भी तीन चार सुझाये नामों में गैरसैण को अमान्य करार नहीं दिया है। इस कारण गैरसैण उत्‍तराखंड की स्थाई राजधानी हेतु एक फेवरेट ब्रांडनेम है। जनभावनाओं की अभिव्‍यक्ति, सामाजिक सरोकारों से जुड़े बुद्धिजीवी, जनप्रतिनिधि, आन्दोलनकारी ,पत्रकार व कलाकारों का पक्ष भी गैरसैण को साियी राजधानी बनाने के पक्ष में है। 
संयोग है कि यह स्थल वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली के जन्म स्थान के निकट स्थित है। इन दिलचस्प तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए राजधानी के सवाल पर स्वंय डांवाडोल सरकारें भी जब तक विधानसभा सत्र आयोजित करके एक तीर से कई निशाने साधना चाहती रही हैं। सारा मसला वोट बटोरू राजनीति का है और अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही जिसका समय 2017 निकट आता जा रहा, वर्तमान सरकार अपने झूठ को गैरसैण ब्रांड की मारकेटिंग के साथ फोकट में ही लाभ अर्जित करने की मंषाएं पाले विधानसभा सत्र और मेले ठेले आयोजित करना चाहती है। 
अब जरा गौर से इस गैरसैण सत्र प्रकरण का विश्लेषण करें तो यह सारा माजरा पुराने जमाने के गोचर मेले, जौलजेबी, नन्दा देबी मेले या स्याल्दे, मोस्टमानू मेले जैसे सांस्‍कृतिक पर्व का आभास कराता प्रतीत होता है, जिनमें लोक संस्‍कृति व स्थानीय उत्पादों की बिक्री व ब्रांडिग होती थी। फर्क सिर्फ इतना है कि इस सत्र द्वारा गैरसैण मेले में वर्तमान सरकार,नेताओं, मंत्रियों, नोकरशाहों, अधिरकारियों, छुटभय्यों, ठेकेदारों व उत्साही कार्यकर्ताओं की ब्रांडिग व बिक्री होगी।
एक दो दिवसीय सत्र हेतु पूरी सरकार देहरादून से गैरसैण शिफ्ट होगी।कारों के काफिले दौड़ेंगे, प्राइवेट टैक्सी,इनोवा, स्र्कापियो गाड़ी वैन्डरों को काम मिलेगा, उनकी  चांदी कटेगी। हैलीकाप्टरों का उपयोग किफायत दर्शाने हेतु वÆजत किया जायेगा। मंत्रियों, नौकरशाहों को मार्ग की टूटफूट, दुर्गमता व कठिन भूगोल में नौकरी करने का अभ्यास कराया जायेगा। लेकिन कुल मिला कर यह एक सुगम व पिकनिकनुमा अवसर ही होगा,
केदारनाथ त्रासदी के वक्त जैसा कष्टपूर्ण व चुनौती भरा मौका तो यह कतई नहीं होगा, जब सरकार को अग्नि परीक्षा के बेहद कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। उस वक्त बड़े बड़े आला अधिकारियों, चीफसेक्रेटरी,कलक्टर से लेकर छोटे कर्मचारियों तक को रुद्रप्रयाग  गुप्तकाशी, फाटा तक में कैम्प आफिस लगा कर आपदा राहत कायों की देखरेख कर असली नौकरी करने का कष्ट झेलना पड़ा था  साथ ही  मुख्यमंत्री सहित विधायकों तक की नींद हराम हो गई थी, हालांकि ठोस जमीनी कार्य सेना, अर्धसैनिक बलों व स्वैचिछक संगठनों ने किया था,पर संयोजन प्रबन्धन हेतु सरकार की भी एक भूमिका थी। 

गैरसैण सत्र के मौके पर यह अवांतर प्रसंग इसलिये जेहन में आना लाजमी है कि जब हम उस त्रासद कष्टपूर्ण समय में उतने दुर्गम स्थलों पर गये, ठहरे व सराकारी गैरसरकारी संगठनों के माèयम से एक बदतर सुविधा विहीन पहाड़ में सेवाभाव अथवा मजबूरीवश ही सही समस्या का समाधान कर पाये तो गैरसैण में स्थाई राजधानी बना कर क्यों नहीं रह सकते।
यह आयोजन इस कारण एक मजबूरीनुमा कर्तब्य जैसा ही है। मजबूरी इसलिये कि जनभावना को पटाये रखना है, कर्तब्य इसलिये कि मुद्दा जीवन्त बना रहे तो आज नहीं तो कल उसका लाभ उठाने की दहाड़ लगाई जा सके। हो सकता है गैरसैण स्थाई राजधानी बन ही जाय। लोकतंत्र की गति व आंखमिचौली इसी तरह चलती रहती है, जिसमें कभी रंगमंच भी वास्तविक यथार्थ के रूप में तब्दील हो जाता है।
हम उमीद करते हैं कि आने वाले बच्चों के समान्य ज्ञान में गैरसैण उत्‍तराखंड की राजधानी के रूप में अंकित हो, और वे, वीर चन्‍द्रसिंह गढ़वाली सहित दूसरे तमाम आन्दोलन कारियों को उस इतिहास में पढ़ें.बांचें और जान पाएं कि एक नामालूम से गांव गैरसैण के राजधानी बनने में कैसे कैसे संघर्ष और छद्म मौजूद रहे। दुनिया को खुशहाल बनाने की उम्‍मीद संजाेयी संघर्षशील जनता काे कभी हताश न होने का संदेश भी दे सके और संघर्ष की जीत के लिए छद्मों से निपटने के पाठ भी पढ़ा सके।  


Friday, October 23, 2015

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर

डॉ नूतन डिमरी गैरोला को 90 के दौर से पढ़ रहा हूं ।
इधर उनको थोड़ा करीब से जानना और पढ़ना हुआ। पेशे से डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला अपने भीतर की उस स्त्री के साथ हैं जो सामाजिक नैतिकताओं के ताने बाने में जीने को मजबूर हैं लेकिन तब भी अपने ऊपर होने वाले प्रहारों से मुक्त नहीं। उनकी कविताओं में एक ऐसी अकुलाहट है जो रह रह कर उन स्थितियों को सवालों के घेरे में लाती है जिनका वास्ता जीत और हार की निर्मिति को रचने में संलग्न रहता है। जहां प्रेम उम्मीदों का वसंत होकर नहीं आता बल्कि हांफ हांफ कर पछाड़ खाता है और हत्यारी जंग से निपटने के लिए मामूली सा सहारा भी नहीं बन पाता। बेशक उनके इस स्वर से आप पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते लेकिन इस सवाल पर थोड़ी देर ठहरना तो चाहिए कि ऐसे निर्मम और जड़ समय में एक स्त्री की कातर पुकार क्या इससे भिन्न कोई दूसरा स्वर गुनगुना सकती है- 
कितना मैं अपनी ज़िद पर अड़ी/जिंदगी को हर दिन गुलदान में/सजा देती हूँ /ताकि महकता रहे घर भर...। 
वि गौ

प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर 


प्रेम जैसे
पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर
एक अजीब खिंचाव
पहाड़ को फ़तेह करने को आतुर 
एक प्रेमी मन विभोर हो जाता है|
खड़ी अडचने,
उनकोपस्त हो हांफ हांफ कर करता पार
पहुँचता है शिखर
पर |
जहां
कठिन होता है ठहराव
अविश्वासअहंकारअसहमतियों की बारिश,
शिखर पर जब बरसती है जोर से
तब पहाड़ पर होता है भूस्खलन
ऐसे में वह मन चोटी से फिसल कर
लुढक जाता है
 बहुत तीखी ढलानों पर
और चकनाचूर हो जाता है|

नीचे बहती है एक उदास, तन्हा, नदी|

अपनी ह्त्या के खिलाफ


मुझे इस्तेमाल करना है जिंदगी को 
अपने ही हाथों
 
अपनी ह्त्या के खिलाफ

रोज़
 उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
ह्त्या की साजिश करते हैं 
और नीम अँधेरी रातों में  
सुर्ख़ उगते सूरज के विचार
विचलित होते मन की पीठ पर
 
हाथ धरते हैं|

मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर
 ……

 उसके साथ मुस्कुराता है बसंत

उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने
भीतर की स्त्री को 
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेटों से.................

वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती
है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा
रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में.....................  

वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती
है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते

ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है  
असंभव
ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
वह मन के विषम जंगल से बाहर
निकल पड़ती है ......
................................................

और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है

स्त्री में  तितली 

स्त्री करती है प्यार
कोमलता से
रंगों से
खुश्बू से
इस तरह वह बनाए रखना चाहती है
प्रेममयी पुष्प को
अपने ह्रदय में
अपने आँगन में
.......
स्त्री हो जाना चाहती है तितली
---------------------------
वर्जानाओं की जद में
तिलमिलाती वह
दीपक की लौ में
अंतिम लपलपाहट देखती है
तो मुस्कुराती है..

स्त्रियाँ

गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं
.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है 
.
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा 
.......
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
कि
सावधान
यहाँ आदमियों से खतरा है.............

चेताती है स्त्री  

मेरी हदों को पार कर
मत आना तुम यहाँ
मुझमे छिपे हैं शूल और
विषदंश भी जहाँ |
फूल है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने के ख्वाब न रखना|
सीमा का गर उलंघन होगा
कांटो की चुभन मिलेगी
सुनिश्चित है मेरी हद
मैं नहीं
मकरंद मीठा शहद ..
हलाहल हूँ मेरा पान न करना |
याद रखना
मर्यादाओं का उलंघन न करना ||