(डॉ0 विजय दीक्षित गोरखपुर में रहते हैं। लखनउ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ''चाणक्य विचार"" में लगातार लिखते हैं। बहुत सहज, सामान्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता को हम उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। यहॉं प्रस्तुत है उनकी कविता, जो ई-डाक द्वारा हमें प्राप्त हुई थी।)
तपन
बहा जा रहा था नदी में घड़ा
तभी एक कच्चे घड़े ने ईर्ष्यालु भाव से पूछा
क्यों इतना इठला रहे हो ?
तैरेते हुए घड़े ने कहा,
मैंने सही थी आग की तपन
चाक से उतरने के बाद
तप कर लाल हुआ था,
मुझे बेचकर भूख मिटाई कुम्हार ने
ठंडा पानी पीकर प्यास बुझाई पथिक ने
मुझमें ही रखा था मक्खन यशोद्धा ने कृष्ण के लिए
अनाज को रखकर बचाया कीड़े-मकौड़ों से गृहस्थ ने
अनाज से भरकर सुहागिन के घर मै ही तो गया था।
अन्तिम यात्रा में भी मैने ही तो निभाया साथ
पर तुम तो डर गये थे तपन से,
कहते हुए घड़ा चला गया बहती धार के साथ
अनंत यात्रा पर
और कच्चा घड़ा डूब गया नदी में
नीचे और नीचे।
डॉ विजय दीक्षित
मो0 । 9415283021
1 comment:
सीधी सादी भाषा मे कितनी मार्के कि बात !! बहूत सुन्दर !!
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