Thursday, December 24, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-2

पिछले से जारी


मनाली में सैलानी गायब हैं इस समय। इसलिए ज्यादातर होटल और दुकानदार खाली हैं। कुछ दुकानें तो बेवजह खोले जाने से बचते हुए बन्द ही हैं। बस स्टैंड पर ही ट्रैकिंग टीमों की तलाश करते जांसकरी घोड़े वाले और फ्रीलांसर गाईड घूमते देखे जा सकते हैं। कुल्लू से कोठी तक की लम्बी पट्टी पर सेबों से पेड़ लदे पड़े हैं। हमारे लौटने तक शायद तुड़ान शुरू हो जाये। फिर सेब के व्यापारी ही मनाली वालों के लिए यात्री होगें। उसके बाद 15 अगस्त के आस पास शुरू होगा सैलानियों का आना जाना। जुलाई को छोड़ मई, जून और सितम्बर, अक्टूबर तक ही सैलानी पहुंचते हैं मनाली। जुलाई के महीने में तिब्बती बाजारों में कैरम बोर्ड या फिर ताश के पत्तों में उलझे रहते हैं दुकानदार। 15 जुलाई को शुरू हुई भारत पाकिस्तान वार्ता के प्रति किसी तरह की कोई उत्सुकता यहां मौजूद नहीं। ऐसे किसी भी विषय पर कोई लम्बी बातचीत करने वाला व्यक्ति मुझे नहीं मिला। हां ट्रैक के वि्षय में बात करनी हो तो ढ़ेरों ट्रैव्लिंग एजेन्ट हैं, एजेन्सियां हैं। तेन्जिंग नेगी जो कि एक ट्रैव्लिंग एजेन्ट है, लामायुरु का रहने वाला है, का मानना है कि '' लेह लद्दाख के लोगों को हिमाचल से मिलने में फायदा है। ट्यूरिज्म के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा सकता है। ''तांख'' से ''हमिश'' तक एक बेहतरीन ट्रैक रूट है। जो बरांडी नाला से शुरू किया जा सकता है। मार्का/मार्खा वैली में पड़ने वाले इस ट्रैक में हरापन भी देखने को मिल सकता है। उधर के पहाड़ जांसकर की तरह सूखे पहाड़ नहीं हैं।'' तेन्जिंग का कहना है। रोहतांग के बाद बारिश नहीं है। लाहुल वाले बोयी गयी मटर की फसल के लिए पानी का इंतजार कर रहे हैं। अगले रोज यहां से निकलेगें तो जान पाएंगे रोहतांग पार की असली स्थिति।

  रोहतांग पर नहीं है बर्फ। रोहतांग और मनाली के बीच मड़ी से ही शुरू हो गयी थी जगह-जगह बिखरे कचरे की गली। भारतीय सैलानी ज्यादा से ज्यादा मनाली, शिमला, नैनीताल, मसूरी तक ही पहुंचते हैं। कुछ हैं जो लेह तक भी हो आते हैं। यानि कुल मिलाकर ज्यादातर उन स्थानों पर देखे जा सकते हैं जहां बस से लेकर होटल तक की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो। बाकी दूर- दराज के जन-जीवन तक पहुंचने वाले कम ही हैं जो थोड़ा जोखिम उठाकर पहुंचते हैं। रोहतांग: लेह रोड़ पर पड़ने वाला पहला पास। पहला दर्रा। मनाली तक आने वालों की ऐशगाह भी है। जून के पहले सप्ताह के आस पास ही अक्सर रोहतांग खुल जाता है और लेह तक की यात्रायें शुरू हो पाती हैं। मनाली में आने वाले यात्री अक्सर रोहतांग तक पहुंचते ही हैं। कुछ देर बर्फ में लोटने के बाद लौट जाते मनाली। पेप्सी और कोकाकोला की बोतलों से लेकर टीन, रैफल के पैकट, नमकीन आदि के रेपर ही चमक रहे हैं इस वक्त। बर्फ नहीं है। व्यास गुफा भी साफ दिखायी दे रही है। सुनते हैं पांडवों के स्वर्गारोहण के समय द्रोपदी ने यही देह त्यागी थी। रोहतांग को मुर्दों का किला भी कहा जाता है। जब राहुल गुजरे थे यहां से, सड़क नहीं थी। कैसा कठिन रहा होगा यह मार्ग राहुल से ही जाना जा सकता है। रोहतांग के पार नहीं है बारिश। कोकसर से ही शुरू हो गये थे मटर के खेत जो पिघलते बर्फिले नालों के दम पर लह-लहा रहे हैं। रोहतांग से नीचे ग्राम्फू है जहां से बातल होकर चन्द्रताल को रास्ता जाता है। सुनते हैं चन्द्रताल तक जीप जाने लगी है। ग्राम्फू से बातल तक का बस मार्ग बन्द है। कोई नाला था जिसने तोड़ दिया है रास्ता। बातल जाने वाले यात्री कोकसर आकर रूक रहे हैं। चन्द्रताल खूबसूरत झील है, बताता है मेरा मित्र विमल। चन्द्रताल के दो विपरीत दिशाओं से निकलती है दो नदियां। एक ओर से चन्द्रा और दूसरी ओर से भागा। भागा दारचा से होती हुई केलांग से इधर तांबी में चन्द्रा से मिल रही है। यहां से चन्द्रभागा बढ़ती है पटन घाटी में --- यही चिनाब है।
    यहां लाहुल में नकदी फसल ही उगाते हैं लोग--- मटर और आलू से होने वाली आय से ही खरीदा जाता है अनाज। रोहतांग के बन्द होने पर कटे रहते हैं लाहुल वाले मनाली से। रोहतांग के नीचे यहां कोकसर से जिस्पा तक देखी जा सकती है हरियाली पहाड़ों की तलहटी पर। ऊपर के पहाड़ पत्थरीली भूरी मिट्टी के हैं और ऊपर है बर्फ। जिस्पा से लगभग सात किमी आगे दारचा है। जिस्पा और दारचा के बीच सूखे पहाड़ों का बहुत नजदीक खिसक आने का क्रम जैसे शुरू हो चुका है। यूं दारचा के आसपास हरियाली देखी जा सकती है। जांसकर घाटी में जाने वाले विदेशी यात्रियों की एक न एक टीम दारचा में हर दिन देखने को मिल सकती है, इन तीन महीनों में। छोटे-छोटे ढ़ाबे, शराब का ठेका, पुलिस चैक पोस्ट और घोड़े वालों को मिलाकर एक हलचल भरी दुनिया है दारचा में। दारचा बाजार के साथ होकर बहने वाली नदी पर दो पुल हैं। यूं पहला पुल आज की तारीख में अप्रासंगिक हो गया है नदी के बदले बहाव के कारण। 1997 में जब शिंगकुन ला को पार करते हुए जा रहे थे जांसकर में, दारचा में ही रूकना हुआ था। नदी का बहाव उस वक्त आज जहां है वहां से थोड़ा दक्षिण दिच्चा की ओर था। नदी के उत्तर दिच्चा पर हमने टैन्ट लगाया था। तब हम आठ लोग थे। अभी पांच हैं। अनिल काला और अमर सिंह इस बार पहली बार जा रहे हैं। मैं, विमल और सतीश पहले दूसरे साथियों के साथ भी जा चुके हैं जांसकर। यही वजह है कि हम तीन और हमारे बाकी के दोनों साथियों की कल्पना जांसकर के बारे में मेल नहीं खा रही है। पहाड़ हो और जंगल न हो, वनस्पति न हो, सिर्फ पत्थर और मिट्टी बिखरी पड़ी हो, हमारे द्वारा दिखायी जा रही जांसकर से लेकर लेह लद्दाख तक की इस तस्वीर से सहमत नहीं हो पा रहे हैं हमारे साथी। फिर भी रोहतांग के बाद से यहां तक के पहाड़ों ने उनकी कल्पनाओं के पहाड़ो को तोड़ना शुरू किया है। उस वक्त दारचा में इतनी दुकानें नहीं थी। शराब का ठेका तो था ही नहीं। ''अपना ढाबा"" जिसमें रुके हुए हैं, तब भी था पर तब उसका नामकरण न हुआ था। वही एक मात्र था तब। आज तो दो एक और भी खुल गए हैं। अब टैन्ट लगाने के लिए जगह बची नहीं है। नदी के उत्तर में जो थोड़ी सी जगह है वहां पर एक विदेशी सैलानियों की टीम टैन्ट गाड़े बैठी है। दुकानों के पीछे, नदी के किनारे किनारे की जगह टैन्ट कालोनी से घिरी हुई है। थोड़ी सी खाली जगह पर जांसकरी घोड़े वालों के टैन्ट लगे हैं- सैलानियों की इंतजार में है वे।  97 में इस तरह सैलानियों का इंतजार करते नहीं मिले थे जांसकरी।

कुल्लू-रारिक पहुंचने वाली बस जैसे ही दारचा पहुंचने को होती है तो रास्ते के पड़ाव जिस्पा से ही बस में चढ़ जाते हैं जांसकरी घोड़े वाले कि आने वाली टीम शायद उनके घोड़े बुक कर ले। बस के दारचा पहुंचते ही तो जैसे रौनक सी आ जाती है दारचा में। यह तुरन्त नहीं बल्कि वहां कम से कम एक दिन रुकने के बाद ही जाना जा सकता है। सुबह के वक्त न जाने कहां गायब हो जाते हैं जांसकर घोड़े वाले भी। शायद घोड़ो के साथ ही चले जाते होंगे ऊपर, बहुत दूर। शाम होते-होते दुकानों के आस-पास भीड़ दिखाई देने लगती है। दारचा पहुंचती बस के ऊपर यदि यात्रियों के पिट्ठू चमक रहे हों तो जैसे जीवन्त हो उठता है दारचा। दुकान वाले, घोड़े वाले और यूंही दारचा के उस छोटे से बाजार में घूम रहे दारचा वासियों की निगाहों में उत्सुकता की बहुत मासूम सी हंसी जुबान से जूले-जूले की भाषा में फूटने लगती है। जांसकरी घोड़े वाले खुद ही बस की छत पर चढ़कर सामान उतरवाने लग जाते हैं- इस लालच में कि शायद बुकिंग उन्हें ही मिल जाए। लेकिन ये जानकर कि पार्टी तो पीछे से ही बुक है, मायूस हो जाते हैं जांसकरी। उनके जांसकर में जाने वाले यात्रियों को जांसकर तक पहुंचाने वाले न जाने कहां-कहां बैठे हैं, हैरान हैं जांसकरी। हमारी तरह के कुछ अनिश्चित यात्री पहुंचते हैं दारचा। वरना दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई और बड़े-बड़े महानगरों में नक्शा बिछाए बैठे हैं ऐजेन्ट। फिर भी जांसकरी उम्मीद में है कि उनके घोड़े भी बुक होंगे ही। घोड़ा यूनियन वालों की पैनी निगाहें हैं जांसकरियों पर---कहीं कोई जांसकरी बिना पर्ची कटाये ही न निकल जाए पार्टी को लेकर। एक घोड़े पर 10 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कटेगी पर्ची।


जारी---

Wednesday, December 23, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े़-1



जांसकर घाटी: जम्मू कश्मीर का यह इलाका जो अपने आप में एक बन्द डिबिया की तरह है। जिसमें घुसने के लिए दर्रा पार कर जाना होगा, यदि बाहर निकलना है तब भी दर्रा पार करना ही होगा। लाहुल में दारचा गांव है हिमाचल का। यूं दारचा से कइयों मील दूर है वह दर्रे जिनसे होकर जाता है रास्ता जांसकर घाटी में। दारचा में ही मिलेंगें घोड़े वाले जो हमारे सामानों के वाहक हो सकते हैं। वैसे मनाली में भी बैठे हैं घोड़े वाले। सिर्फ घोड़े वाले ही नहीं बल्कि ट्रैकिंग टीम से पूरा ठेका लेकर उन्हें यात्रा कराने वाले ट्रैव्लिंग एजेन्ट तक। ट्रैव्लिंग एजेन्ट तो दिल्ली में भी हैं और आज तो दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हुए सैलानी कम्प्यूटर में बैठे एजेन्ट से कर सकते हैं सम्पर्क। दारचा से रारिक होकर लेह मार्ग को एक ओर छोड़ते हुए उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़ शिंगकुन ला/पास को पार कर पहुंचा जा सकता है जांसकर में, या फिर लेह मार्ग पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा पास को पार कर युनम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ते हुए पश्चिम दिशा की ओर छुमिग मारपो से कुछ आगे चलकर दो दर्रे हैं। एक दक्षिण दिशा की ओर- '' सेरिचेन'' ला तो दूसरा उत्तर पश्चिम दिशा की ओर '' फिरचेन ला''। सेरीचेन को पार कर कारगियाक गांव में उतरना होगा जो जांसकर घाटी का आखरी गांव है और फिरचेन से उतरना होगा तांग्जे में। सिंगोला पास को पार कर दूसरी ओर लाकोंग है जहां से आगे कारगियाक, खीं, थांसो होते हुए तांग्जे और तांग्जे से जो रास्ता आगे बढ़ता है वह कुरू, त्रेस्ता, याल, मलिंग, पुरने, चा, रारू, मोने और बारदन होते हुए जांसकर घाटी के हेड क्वार्टर पदुम तक पहुंचता है।
     इन तीनों दर्रों के पार जांसकर घाटी के गांवों का यह रास्ता यूं अपने आप में गांव वालों द्वारा बनाया गया है लेकिन पहाड़ों की ऊंचाई यहां मौजूद है। लद्दाख के ज्यादातर पहाड़ों की तरह यहां के पहाड़ भी सूखे हैं। हां गांवों के आस पास होने वाली खेती जरूर थोड़ा बहुत हरापन लिए हुए है। कारगियाक से तांग्जे गांव तक छोटे बड़े छोरतनों  की एक लड़ी-सी दिखायी देती है। गांवों के आस पास '' ओम मणि पद्मे हूं'' मंत्र खुदे मने पत्थरों की उपस्थिति पहाड़ी के पीछे छिपे गांव का आभास करा देती है। बौद्ध धर्म के प्रतीक यह छोरतेन और मने पूरी जांसकर घाटी से लेकर लेह लद्दाख और लाहोल तक फैले पड़े हैं। पदुम से कारगिल तक एक ही सड़क मार्ग है जो लगभग 250 किमी लंबा है। पेनच्चिला दर्रे से होते हुए बस द्वारा यह दूरी तय की जा सकती है। यदि कारगिल लेह रोड़ पर जाना है तब तो दस पास करने होगें पार, तब ही पहुंचेगें लामायुरु जहां से लेह लगभग 124 किमी दूर है। एक और रास्ता हो सकता है लेह जाने का जिस पर कोई पास नहीं। जांसकर नदी के किनारे-किनारे सिन्धु नदी तक। पर यह कोई रास्ता नहीं, यह नदी का रास्ता है। पानी है, जो पहाड़ को फोड़ कर बह सकता है, मनुष्य नहीं। मनुष्य ने नहीं बनाया अभी तक इस पर रास्ता । इसलिए जांसकर को मैं जम्मू कश्मीर की डिबिया ही कहूंगा। एक ऐसी डिबिया जो दुनिया की तमाम हरकतों से बेखबर है। दुनिया की झलक विदेशी सैलानियों के रूप ही देख पाते हैं जांसकरी- साल के तीन महीने जुलाई, अगस्त, सितम्बर में। बाजपेयी और मु्शर्रफ की होने वाली बातचीत से बेखबर, कभी कभी लेह लद्दाख में होने वाली संघशाषित क्षेत्र की मांग से बेखबर जांसकर घाटी के इन बीस पच्चीस गांवों के लगभग 6-7 हजार लोग अभी तो अपनी ''चौरू'' और ''याक'' के साथ डोक्सा (चारागाह/बुग्याल) में हैं। पिघलती बर्फीली चोटियों की बर्फ से अपने गेंहू, आलू, मटर, शलजम और गोभी के खेतों को सींच रहे हैं। हीनयानी हो या महायानी सभी कटे हैं रोहतांग पार के बोद्धों से, लेह लद्दाख के बोद्धों से। यहां तक कि कारगिल से पदुम तक बस रोड़ के किनारे के गांवों से भी।
    यह यात्रा की शुरूआत नहीं बल्कि यात्रा की जाने वाली जगह का आकर्षण है। यात्रा की शुरूआत यूं देहरादून से है जो मनाली पर अपना पहला पड़ाव उसके बाद दारचा दूसरे पड़ाव के रूप में होता है।
    15, जुलाई 2001 बरसात का मौसम--- जब उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर झमा-झम बारिश बरस रही थी। दे्श की नदियों का जल स्तर बाढ़ की सीमाओं तक था, देहरादून से मनाली के लिए दोपहर बाद हिमाचल रोड़ वेज की बस से चलकर सुबह मनाली पहुंचे। बारिश की रिम-झिम झड़ी सुबह से ही लगी हुई थी।

 
जारी---

Friday, December 18, 2009

रेनर मारिया रिल्के की कवितायें

रेनर मारिया रिल्के का जन्म 4 दिसंबर 1875 में प्राग में हुआ था। रिल्के का जर्मन भाषा के निर्विवाद कवि के रूप में माना जाता है। । जर्मन और फ्रेंच भाषाओं के जानकार रिल्के ने आधुनिक जीवन की जटिलताओं का चित्रण मानवीय संवेगों से भरपूर अपने गहन और गीतिमय ढंग तथा स्तब्ध कर देने वाले बिंबों के बल पर किया।

रिल्के के पिता जोसेफ रेल रोडवेज़ में इंस्पेक्टर थे। उन्होंने वर्षों सैनिक जीवन में बिताये और कई विशिष्टताओं के बाद भी उन्हें कभी कोई बड़ा पद नहीं मिला। जोसेफ ने अपने पुत्र रिल्के को भी मिलट्री अकादमी में भर्ती करवाया था।

बचपन में रिल्के ने उच्चवर्गीयता और एकदम साधारण रहन-सीन के दो विपरीत ध्रुवों को नजदीकी से महसूस किया। यह वह दौर था जब चेक परिवेश बदल रहा था जिसका सीधा असर साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा के फलने-फूलने पर हुआ। रिल्के के बचपन का सबसे अंधेरा पक्ष यह था कि इनकी माता ने इन्हें कई वर्षों तक लड़कियों की तरह पहनावा पहनाया और इसको सोफिया, मारिया आदि नामों से बुलाती रहीं। अपनी मां के इस विचित्र व्यवहार को रिल्के हमेशा अलग-अलग तरह से याद करते रहे। सितंबर 1886 में रिल्के को सेंटपाल्टेन मिलिट्री अकादमी स्कूल में भर्ती कराया गया जो बोर्डिंग स्कूल था।

स्कूल से रिल्के ने अपनी मां को कई सारी चिट्ठीयां लिखी जिसमें वह हमेशा यह लिखते थे कि इस अकादमी में वो फंस गये हैं जिससे वो कभी नफरत तो कभी प्यार करते हैं। रिल्के ने 12 वर्ष की उम्र तक अपनी कॉपियों को कविताओं से भर दिया था। स्कूल के अंतिम दिनों में उन्होंने एक अच्छा काम किया जो यूरोपीय युद्ध के तीस वर्षीय इतिहास से जुड़ा था। जबकि वास्तविकता में सैनिक कार्य उनके लिये असहनीय था।

किशोरावस्था में आने तक रिल्के की कवि बने की इच्छा तीव्र हो गई। रिल्के को उनकी ट्रेनिंग के लिये जिस जगह भेजा गया यहां उन्हें अलग तरह की स्वतंत्रता महसूस की। पर यह अच्छा समय कुछ ही समय रहा। जल्दी ही रिल्के कई सारी शारीरिक बीमारियों, मानसिक अवसाद, विषादपूर्ण हिंसक व्यवहार से घिर गये और आखिरकार वो अकादमी को छोड़ने में सफल भी रहे।

सन् 1894 में उन्होंने साहित्य और कलाओं के इतिहास की पढ़ाई प्राग में शुरू की तथा 1896 में म्यूनिख में दर्शनशास्त्र की पढ़ाई प्रारंभ की। म्यनिख में वे 30 वर्षीय रूसी बुद्विजीवी ला एनिड्रस सालोम से मिले। इन दोनों के बीच प्रेम संबंध कई वर्षों तक बना रहा और दोनो आजीवन मित्र बने रहे। 1899 में रिल्के सालोम और उनके पति के साथ रूस की यात्रा पर निकले। वहाँ के परिदृश्य ने इस कदर प्रभावित किया कि खासी परिपक्वता के बिंब उनकी बाद की रचनाओं में बस गये। रूस के रहस्यवाद ने उन्हें इतना गहराई से छुआ कि उन्होंने `दु बुक ऑफ ऑवरस´ शुरू की जो 1904 में छपी।

सन् 1900 में उन्होंने वरप्सवेड की आर्टिस्ट कॉलोनी में गर्मियां बितायी जहां उनकी मुलाकात युवा मूर्तिकार क्लारा वेस्थाप से हुई। 1901 में इन्होंने क्लारा से शादी की और एक बच्ची रुथ के पिता बने। यह वैवाहिक जीवन एक वर्ष ही चल पाया। रिल्के ने अपना ज्यादातर जीवन घूमते हुए ही बिताया। 1902 में वे पेरिस के महान मूर्तिकार रोदिन से मिले और वे जर्मनी की आर्ट कॉलोनी में रोदिन के सेक्रेटरी के तौर पर 1904 में पेरिस आ बसे। रोदिन की संगत में रिल्के ने सीखा की कला से जुड़े कामों को धर्म की तरह सम्मान दिया जाना चाहिये।

प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत में रिल्के पेरिस में ही रहे। इसी दौरान उन्होंने कई गद्य-पद्यात्मक कार्यों के बीच उपन्यास की शुरूआत की। 1907 में इटली के दक्षिण पश्चिमी द्वीप कापरी में रिल्के ने एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग्स की `सानेट्स फ्रॉम पोर्तगालिज़´ का अनुवाद किया। अपनी जिस पुस्तक `द नोटबुक ऑफ माल्ट लाउरिड्ज ब्रिड्ज´ में वो पिछले कई वर्षों से काम कर रहे थे 1910 में प्रकाशित हुई। 1923 में `द ड्यूनो एलेजिज´ और `द सानेट्स टू ऑरफ्यूज´ प्रकाशित हुई।

29 दिसम्बर 1926 को रिल्के का देहांत हुआ। 27 अक्टूबर 1925 के पहले उन्होंने एक स्मृति लेख लिखा और अनुरोध किया कि उसे उनके कब्र पर लगे पत्थर पर खुदवाया जाये। जो कुछ इस तरह था - रोन, ओह प्योर कंट्राडिक्शन, डिसायर, टू बी, नो वंस स्लीप अंडर सो मेनी लिड्स। (ओ विशुद्ध विरोधाभास, कामना, संभावना, कोई भी इतनी परतों के नीचे नहीं सोता।)



प्रस्तुत है रेनल मारिया रिल्के की दो कवितायें

प्रेम

अनजाने परों पर आसीन
मैं
स्वप्न के अंतिम सिरे पर

वहां मेरी खिड़की है
रात्रि की शुरूआत जहां से होती है

और
वहां दूर तक मेरा जीवन फैला हुआ है

वे सभी तथ्य मुझे घेरे हुए हैं
जिनके बारे में मैं सोचना चाहती हूं
तल्ख
घने और निश्शब्द
पारदर्शी क्रिस्टल की तरह आर पार चमकते हुए
मेरे अंदर स्थित शून्य को लगातार सितारों ने भरा है
मेरा हृदय इतना विस्तृत इतना कामना खचित
कि वह
मानो उसे विदा देने की अनुमति मांगता है

मेरा भाग्य मानो वही
अनलिखा
जिसे मैंने चाहना शुरू किया
अनचीता और अनजाना
जैसे कि इस अछोर अपरास्त विस्तृत चरागाह के
बीचोंबीच मैं सुगंधों भरी सांसों के आगे-पीछे झूलती हुई

इस भय मिश्रित आह्वान को
मेरी इस पुकार को
किसी न किसी तक पहुंचना चाहिये
जिसे साथ साथ बदा है किसी अच्छाई के बीच लुप्त हो जाना

और बस।

इस शहर में
 
इस शहर के अंत में
वह अकेला पर
इतना अकेला
मानो वह दुनिया में स्थित बिल्कुल अकेला घर हो
गहराती हुई रात्रि के अंदर शनै: शनै: प्रविष्ट होता हुआ राजमार्ग
जिसे
सह नन्हा शहर रोक सकने में सक्षम नहीं

यह छोटा सा शहर मात्र एक गुज़रने की जगह
दो विस्तृत जगहों के बीच
चिंतित और डरा हुआ
पुल के बदले में घरों के बगल से गुज़रता हुआ रास्ता

जो शहर छोड़ जाते हैं
एक लंबे रास्ते पर
भटकन के बीच गुम हो जाते हैं
और
शायद कई
सड़कों पर
प्राण त्याग देते हैं।

अनुवाद : इला कुमार
साभार : टूटे पंखों वाला समय

Sunday, December 13, 2009

छलक-छलक गिर जाता पानी


रचना में शिल्प को महत्वपूर्ण मानने वालों को जान लेना चाहिए कि जब रचनाकार अपने परिवेश को बहुत निकट से पकड़ने की कोशिश करता है तो कथ्य खुद ही अपना शिल्प गढ़ लेता है। माओवादी उभार से काफी पहले नवे दशक के नेपाल के एक गांव का चित्र खींचते हुए नेपाली कथाकार प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उसका एक नमूना है। कहानी अपने शास्त्रीय ढांचे को तोड़ भी रही है। कई बार एक यात्रा कथा सी लगने लगती है। कहें तो है भी यात्रा कथा ही। बल्कि बहुत सी दूसरी कथाओं की तरह जिनमें यात्रा ही घटना होती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि हमारी आलोचना एक चिरपरिचित भूगोल में लिखी गई यात्रा कथा को तो कहानी मान रहा होता होता है पर एक अनजाने भूगोल पर लिखी गई रचना को पढ़ते हुए वह उसे यात्रा वृतांत कहने को मजबूर होता है। अपने यात्रा अनुभवों को लेकर जब मैंने कुछ कहानियां लिखी तो साथियों के इन आग्रहों से मुझे रुबरु होना पड़ा। पहल में प्रकाशित ''जांसकरी घोड़े वाले" एक ऐसी ही कथा थी जिसे ज्ञान जी ने यायावरी कह कर प्रकाशित किया था। मुझे यायावरी शब्द भी जंचा था ऎसी रचनाओं के लिए। जांसकरी घोड़े वाले फिर कभी पढ़िएगा अभी तो प्रस्तुत है मूल नेपाली से अनुदित कहानी - एक गांव- काकाकूल । कहानी का अनुवाद मेरे साथी भरत प्रसाद उपाध्याय न किया है। मैंने टाइप करते हुए वाक्य को थोड़ा ठीक करने की ही छूट ली है। प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उनके कथा संग्रह कुहिरो से साभार है।  

-वि०गौ०
     



एक गांव- काकाकूल

प्रदीप ज्ञवाली

साथी चलो, आज मैं तुम्हें एक गांव घुमाकर लाता हूं। तुम तो शहर बाजार के आदमी हो, यहां की कई बांतें तुम्हें अनोखी लगेंगी। बरसात ने रास्ते को कठिन और फिसलन भरा कर दिया है, जरा आराम से चलना- संभलकर। चारों ओर पानी ही पानी है, पत्थर दूध से ध्वल और बहता मटमैला नाला। ओहो, कितनी तो खड़ी चढ़ाई है, मानो नाक ही टकरा जाए आगे बढ़ते हुए। कितने तो समतल है पत्थर। लेकिन साथी, ये समतल पत्थरों वाला रास्ता सरकारी योजना के तहत किसी इंजिनियर ने सर्वे करने के बाद नहीं बनाया है। पहले तो ये पत्थर भी सामने दिख रहे नुकीले पत्थरों तरह ही तीखे थे। पर यहां के लोगों के नंगे पांवों ने चढ़ते उतरते हुए घिस-घिस कर इन्हें समतल बनाया है। कितनी शक्ति होती है न श्रमिक जनता में !
थकान लग गई होगी न, इस चबूतरे (चौतारे) पर बैठ जाओं कुछ देर। क्योंकि कोहरा लगा हुआ इसीलिए पार के गांव दिखाई नहीं दे रहे हैं ।।।
काफी देर हो गई साथी, अब चलो चलते है ऊपर। रास्ता अभी लम्बा है फिर भी कम से कम नौ बजे तक तो हमें गांव पहुंचना ही होगा। नहीं तो लोग बाग अपने-अपने काम पर निकल जाएंगे। तुम तो जीवन में पहली बार ही ऐसा पहाड़ चढ़ रहे होंगे। कठनाई तो हो ही रही होगी। हिम्मत न हारो, लोग तो सागरमाथा पर भी चढ़ रहे हैं। यहां के लोगों को तो एक ही दिन में कई बार चढ़ाई उतराई करनी पड़ती है, छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी। लेकिन क्या करें, जब यहां पैदा हुए तो सुख खोजने कहां जाएंगे ? फिर भी कुछ थोड़े से समर्थ लोग शहरों में निकल गए हैं, वहीं बस भी गए। लेकिन गरीब गुरबा लोगों के लिए तो कहीं जगह नहीं।
अरे, गप करते-करते चढ़ाई तो कट गई, अब हम गांव की तरफ चलते हैं। अब हम गांव में पहुंच गए हैं। यहां दो चार घ्ारों को छोड़कर सभी में छोटे-छोटे बच्चे हैं, औरत और बुजुर्ग हैं। यहां के बच्चे साफ कपड़ों में दिखने वाले बाबू सहाबों को देखकर उनसे दूर-दूर रहते हैं क्योंकि यहां कोई बड़ा आदमी आता नहीं है। इतनी चढ़ाई चढ़कर जो आता भी है तो उनसे हिकारत से बात करता है।
चलो उस घर में चलते हैं। गरीब होने पर भी यहां गांव के लोग बहुत मिलनसार है। घ्ार आये मेहमान का हैसियत से अधिक सत्कार करते है। लेकिन साथी, बस आज भर के लिए तुम अपने शहरीपन को छोड़ देना। हो सके तो अंग्रेजी भाषा के शब्दों से भी बचना, उसका यहां कोई काम नहीं। जितना भी हो यहां के वातावरण में घुलने मिलने की कोशिश करना। तुम कर तो सकते हो न ?
।।।खाना तैयार है, चलो अन्दर चलें। चुपके से बता रहा हूं, खाना जैसा भी हो खा लेना। तुमको खाना बेस्वाद लग सकता है पर यहां के लोगें ने हमारे लिए सबसे स्वादिष्ट भोजन बनाया है, खाते हुए मुंह न बनाना बस, इन्हें बुरा लगेगा।
खाना खाते हुए तुम्हे आश्चर्य हुआ न ? भात पीला, दही पीली, पानी भी पीला। लेकिन ये हल्दी के कारण पीला नहीं हुआ, यहां पोखरों का पानी ही पीला है। तुम्हें कैसे बताऊं कि यहां पानी की कितनी किल्लत है ? तुम यहां न आए होते तो इस बात पर विश्वास ही नहीं करते, ये सारी बातें दंतकथाओं जैसी लगतीं। अपने आप देख लो। बरसात में यहां के लोगों को पोखरों का पानी पीना पड़ता है, जाहिर है जो गंदला तो होता ही होगा। स्रोत या कुंऐ का पानी लेने जाने पर दो घंटे तो लग ही जाते हैं। आते समय कितना समय लगता होगा ये तो आप अंदाजा खुद ही लगा लो। कभी यहां कहीं गांव में आपको रात बितानी पड़े तो देखना कि मध्य राती को दो-एक बजे जलती मशालों का लश्कर ढाल उतरता दिखाई देगा। आप डर के मारे सोचने लग सकते हैं कि कहीं मशाल वाला भूत तो नहीं। लेकिन कोई भूत नहीं। वो तो एक गागर पानी के लिए एक दूसरे से होड़ लगाते गांव वाले होते हैं। इस भागमभग में कितनी ही गागर टूट जाती हैं, कितने पिचक जाती हैं, कितनों के हाथ पांव ही टूट जाते हैं और कैसे कैसे तो झगड़े हो जाते हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं। इसके बावजूद बार-बार छलक कर गिर जाता आध गगरी पानी लेकर सुबह सात आठ बजे तक ही पहुंच पाते हैं। अभी बरसात में तो फिर भी ठीक है।
तुम्हें यहां के लोगों की बोली भी कुछ अलग-अलग और अटपटी सी लग रही होगी न ? हैरान न हों, ये भी यहां के गंदले पानी की करामात है। हारी-बिमारी की बात न करें तो ही अच्छा ? इतने अच्छे लोकतंत्र में, ऐसे शांत-सम्पन्न देश में रोग व्याधि की बात किससे करें !
साथी, यहां गांव के लड़कों की शादी भी एक आफत है, क्यों जानना चाहते हो ? कौन मां बाप अपनी बेटी को इस आफत वाली जगह में ब्याहना चाहेगा ? ऐसा वैसा तो यहां वैसे भी टिक नहीं सकता। हमें ही देखो, इस चढ़ाई को चढ़ने में कितनी महाभारत हुई ?
चलो उस चोटी में चलते हैं। वहां से चारों ओर का नजारा दिखाई देता है। अब तो कुहरा भी छंट चुका है। वो देखो नदी, गांव को तीन ओर से घेर कर कैसे बह रही है। तब भी यहां पानी का कैसा हाहाकर है ! देखो, ठीक से देखे अपनी आंखों से, पानी के लिए यहां के लोगों के गले कैसे सूखे है। अब चुनाव होने वाले हैं। बड़े-बड़े लोग घर-घर जाकर पानी की धारा बहा देने का लालच देकर वोट मांगेंगे और चुनाव जीतने के साथ ही यहां के लिए स्वीकृत योजना तक को छीन कर अपने गांव इलाके में ले जाएंगे। यहां के लोग हमेशा की तरह टुकुर-टुकुर नीचे बहती नदी को ही देखते रहते है और प्यास लगने पर अपने ही आंसू पीकर जीने के लिए मजबूर हैं।
ढंग से समझ लो साथी। पानी के लिए दूसरे नम्बर के धनी इस देश यह इलाका पानी के लिए कैसे छटपटा रहा है। नेपाल के तमाम गांवों में से यह तो एक ही गांव है- काकाकूल गांव।                 


अनुवाद: भरत प्रसाद उपाध्याय

Tuesday, December 8, 2009

सॉलिटरी रेसिसटेंस



अरुण कुमार असफल की यह टिप्पणी विष्णु खरे जी के आलेख पर प्रतिक्रया स्वरूप लिखी गई पोस्ट पर किसी अनाम भीम सिंह जी की टिप्पणी के विरोध में प्राप्त हुई है। अरूण को उसके लिखे से जानने वाले जानते हैं कि अरूण एक गम्भीर रचनाकार हैं और सनसनी की हद तक चर्चाओं में बने रहने की बजाय अपने लिखे पर यकीन करते हैं। इस आभासी दुनिया में अरूण का यह प्रवेश साहित्य की दुनिया के भीतर गुंडावाद के विरुद्ध और अपने लिखे पर यकीन करने वाले रचनाकार का ही प्रवेश है।




भीम सिंह जी,,

आपने पूरे ब्लॉग का एक एक पन्ना न पढ़ा हो पर मैं इस ब्लॉग का नियमित पाठक हूं । यदि इस ब्लॉग पर कुछ नॉन सेन्स जैसा है तो वह है आपकी टिप्पणी। आपका बस चले तो ब्लॉग क्या बोलने बतियाने पर भी रोक लग जाये। केवल आपके श्रद्धेय विष्णु खरे के 'सॉलिटरी रेसिसटेंस " को ज्यों का त्यों आत्मसात कर लें। आप एक तरफ तो विजय को कहतें हैं कि "पूरी जिन्दगी कुछ न किया"। तो इस "पूरी जिन्दगी कुछ न किये वाले" कि इतनी औकात कहॉ से आ गई कि हिन्दी साहित्य के चेग्वेरा से अपना पुराना हिसाब करने लगा ? पर हमने तो लेख में आपके श्रद्धेय को ही किन्ही से पुराना हिसाब करते पाया है। माफ कीजिये हमें भी पढना नही आता । क्या उस विश्वविद्यालय का नाम बतायेगे जहॉ से आपने लिखने पढ़ने की यह समझ हासिल की है।

अरुण कुमार असफल, जयपुर